घनानन्द की भक्ति भावना
1. सुजान के प्रति प्रेम ही विरक्ति का कारण- यह तो विदित ही है कि सुजान के रस में मतवाले घनानन्द को दिल्ली के बादशाह के राजदरबार से निष्कासन प्राप्त हुआ और वे मथुरा वृन्दावन में आकर बस गए। उन्होंने अपनी प्रेमिका के विरह में अपने मर्मान्तक हृदय की भावनाओं को व्यक्त किया और किसी की वियोगाग्नि में अपने शरीर को जलाते रहे। किन्तु यह आसक्ति शनैः-शनैः विरक्ति में बदल गई और वे केवल सुजान के अतिरिक्त किसी को भी अपने हृदय में स्थान नहीं देते। बाद में उनका यह प्रेम या आसक्तिमय भाव राधा-कृष्ण के चरण-कमलों में अर्पित हुआ तब भी सुजान का नाम उनकी वाणी से नहीं निकला। ‘राधा-कृष्ण’ को उन्होंने सुजान की स्मृति बना दिया और निरन्तर सुजान के प्रेम में आँसुओं के स्वरों में गीत, कवित्त, सवैये लिखते रहे। पं० विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसी सम्बन्ध में लिखते हैं कि- “भगवद् भक्ति में सुजान शब्द का व्यवहार श्रीकृष्ण और श्री राधिका के लिए अपनी रचना में बराबर करते रहे।” सुजान के निष्ठुर व्यवहार से इन्हें जो मर्मान्तक पीड़ा पहुँची उसका प्रमाण स्वयं इनका काव्य है।
2. वियोगाधिक्य – वियोग एवं श्लेष के आधिक्य से घनानन्द में जगह-जगह वैराग्य का भाव उपलब्ध होता है। वियोग की वेदना से पीड़ित कवि का हृदय भगवदोन्मुख हो गया और वे श्रीकृष्ण एवं राधा के भक्ति सरोवर में निमग्न होकर सांसारिक मोहमाया जाल से बिल्कुल पृथक् हो गए। ‘सुजान हित’ में इस आशय के कई छन्द उपलब्ध हुए हैं। वैराग्य के साथ भक्ति-परक छन्दों का भी यही रहस्य है।
3. सभी ओर से नैराश्य- घनानन्द का प्रेम उनके जीवन में ही पूर्ण रूप से व्याप्त था । अन्य के द्वारा आरोपित नहीं। जब उनको सब ओर से सफलता न प्राप्त हुई तो उन्होंने अपने अनुराग का सम्पूर्ण संचित कोष श्री राधा-कृष्ण के चरणों में अर्पित कर दिया और वे उच्चकोटि के भक्त हो गये। इस सम्बन्ध में वे स्वयं लिखते हैं-
“सब ओर तें खेंचि के कान्ह,
किसोर में राखि भलों थिर आस करें।”
घनानन्द जी उस कोटि के भक्तजन हुए जो भक्ति रस-रसिक नगरीदास से सपूज्य माने गए तथा कृष्ण की भक्ति में ही अपने प्राणों की आहुति देने में ही अपने को कृतार्थ मानते थे। उनकी कृष्ण भक्तिपरक रचनाओं के देखने से प्रतीत होता है कि वे सुजान प्रेम वाली रचनाओं से बिल्कुल सिद्ध हैं। अतः उनमें उनकी भक्ति का स्वरूप और भी अधिक स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
4. निम्बार्क सम्प्रदाय के अनुयायी- घनानन्द जी दिल्ली दरबार को छोड़कर मथुरा वृन्दावन पधारे तो कुछ दिनों के बाद वे निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित हो गये। इनके गुरु श्री नारायण देव थे। इन्होंने किसी शेष नामक महंत का वर्णन भी अपने काव्यों में किया जो इनकी गुरु परम्परा में ही आते हैं। घनानन्द के काव्यों को देखने से प्रतीत होता है कि आपके हृदय में श्री राधा एवं श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति थी वे श्री राधा को कृष्ण की शक्तिस्वरूप ही मानते थे। वह सकल कामना पूर्ण करने वाली एवं समस्त कष्ट निवारिणी देवी है। इसी कारण निम्बार्क सम्प्रदाय के अनुसार वे राधा जी को अधिक महत्व देते हैं एवं सखी सम्प्रदाय की भाँति वे अपने को राधा की सखी मानते थे। उनका सख सम्प्रदाय का नाम बहुगुनी था। उन्होंने अपने काव्यों में श्री राधा-कृष्ण के प्रति ही नहीं, उनसे सम्बन्धित अन्य वस्तु एवं व्यक्तियों के प्रति अपने भक्तिपरक भावोद्गार प्रकट किए हैं-
जैसे- ब्रज का महात्म्य, गोकुल वर्णन, ब्रज स्वरूप, यमुना, वृन्दावन, बरसाना, गोवर्धन, मुरली आदि ।
5. ब्रज महात्म्य वर्णन – ब्रज महात्म्य वर्णन हमको उनके ब्रज प्रसाद, ब्रज स्वरूप, ब्रज विलास, ब्रज व्यवहार, धाम चमत्कार आदि काव्यों में उपलब्ध होता है। इन कृतियों में पावन भूमि – ब्रज भूमि के प्रति अटूट प्रेम वर्ण्य विषय के रूप में प्राप्त होता है। उन्होंने जिस ढंग से उसका वर्णन किया है उसकी ध्वनि यही है कि प्रत्येक प्राणी को इस ब्रज प्रदेश में आकर रहना और अपने जीवन को सफल बनाना चाहिए। जैसा इन पंक्तियों से प्रकट होता है-
“यह ब्रज नित सुख सिन्धु कलोलै ।
ब्रज कौ चन्द सदा ब्रज डोलै ॥
आँखिन को सुख ब्रज दरसन है।
आनन्द घन बरसन सरसन है ।
अहो भाग या ब्रज कौ लखौं ।
ब्रज की सखि न कबहुँ नखों ॥”
6. भक्ति के विविध भाव- घनानन्द के अपने भक्ति भावों को सूर, तुलसी, मीरा आदि भक्त कवियों की भाँति गेय पदों में भी प्रकट किया है। इन पदों की संख्या हजार से भी अधिक है। इन पदों में राधा, गोपी का कृष्ण के प्रति प्रेम ही अभिव्यक्त किया गया है, किन्तु यह प्रेम साधारण कोटि का नहीं। इसमें उस प्रेम किंवा अनुरक्ति का सच्चा स्वरूप प्रदर्शित किया गया है, जो भक्ति की कोटि में आ जाती है। इसकी भक्ति में कांता भाव की उज्ज्वल भक्ति भावना के दर्शन होते हैं। घनानन्द ने अपनी भक्ति भावना को दास्य, सख्य और कांता भाव से प्रकट किया है। इसका कारण यह है कि निम्बार्क सम्प्रदाय में कांता या सखी भाव की भक्ति मान्य है। इसके साथ ही घनानन्द ने दास्य भाव की भक्ति को भी अपने काव्य का विषय बनाया। अतः कहा जा सकता है कि घनानन्द ने निम्नांकित भावों में अपनी भक्ति प्रकट की है-
1. दास्य भाव, 2. सख्य भाव, 3. कांता भाव।
(अ) दास्य भांव- दास्य भाव की भक्ति को अपनाते हुए घनानन्द लिखते हैं कि हे प्रभु । अब मेरा स्वार्थ परमार्थ सभी तुम्हारे हाथ है, तुम्हीं से हमारी याचना है। तुम्हारे गुणों का मैं क्या गान करूँ, तुम तो अपार गुणों की खान हो। हे हरि, मैं झूठा हूँ और तुम सच्चे, झूठे भी सच्चा क्यों नहीं बनाते; इस संसार के चक्करों में पड़कर मैं बहुत नाचता फिरा-
“जग जंजार असार लोभ लगि नाचि थक्यौ बहुत नाचौ ।
जब आनंद घन सुरस सींचिए लगें नहीं दुःख आंचौ ॥”
इसी भाँति घनानंद ने अपने कर्मों पर पश्चाताप, स्व-दोषों की स्वीकृति, ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता पर विश्वास एवं अपने दोषों को दूर करने की एवं जग जंजाल से पार करने की याचना सम्बन्धी अनेक पदों की रचना की जिसको प्रस्तुत पद में देखिए-
“भूल परे की सुरति करौ ।
अपनी गुन निधानता उर घरि मो अनेक औगुन बिसरो ।।
या सोच को सोच कीजिए हा हा हो हरि सुदर ढरौ।
कृपाकन्द आनन्द कन्द ही पतित पपीहा-तपति हरौ ।।”
घनानन्द की भक्ति श्रीकृष्ण की अनन्यता लिये हुए है। अपने आराध्य के प्रति पूर्ण विश्वास है। वे धर्म-कर्म, हानि-लाभ, मान-मर्यादा, लोक-परलोक सभी कुछ की अवहेलना श्री राधा-कृष्ण के लिए करने को तैयार हैं। वे तो केवल उन्हीं की कृपा-दृष्टि चाहते हैं।
(ब) सख्य भाव – घनानन्द जी निम्बार्क सम्प्रदाय में दीक्षित होने के कारण सखी सम्प्रदाय के भक्त कवि थे। अतः उनकी रचनाओं में सख्य भाव के दर्शन न के बराबर हैं। जो कुछ वर्णन इस भाव का प्राप्त होता है वह प्रिय के नर्म वयस्क सखाओं का है। दानलीला तथा गिरि गोवर्धन पूजन प्रसंग में सखाओं का वर्णन हुआ है। कृष्ण के चार सखा सुबल, सुबाहु, तोप और मधुमंगल का नाम इनकी रचनाओं में मिलता है। गोपियाँ इन सखाओं से दानलीला प्रसंग में वाक्-विनोद करती पाई जाती हैं। एवं यशोदा इन्हीं को दधि, नवनीत, मोदक आदि व्यंजन बाँटती हैं और प्रसन्न होती हैं। जैसे-
“रोहिनी जसुमत को समाज जहाँ ।
दौर जात है कान्ह कुँवर तहाँ ।
गोद भराय फिरत कछु बाँटत।
मधु मंगल लै लै फिर नाटत ।। “
इसी प्रकार गोपी एवं सखा के सम्वाद प्रसंग में गोपियों के कथन को भी देखिए-
“छैल नये नित रोकत गैल सु फैलत कापै अरैल भए हौ ।
लै लकुटी हँसि नैन नचावत चैन रचावत मैन तए हौ ।
लाज अचै बिन काज लगौ तिनही सौं पगौ जिन रंग रए हौ।
ऐंठ सबै निकसैगी अबै घनआनन्द आन कहा उनाए हौ ।। “
इसके अतिरिक्त उनकी रचनाओं में ऐसे भी पद छन्द प्राप्त होते हैं जिनमें घनानन्द ने ईश्वर कृष्ण के साथ मैत्री या बराबरी का भाव रखा है। ऐसे अवसरों पर वे कहते हैं कि तुम कैसे हो जो अपनों की चिन्ता नहीं करते। मेरा उद्धार क्यों नहीं करते ? मुझ सोते हुए को प्रबुद्ध क्यों नहीं करते आदि ।
इससे घनानन्द की सख्य भाव की भक्ति पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
(स) कांता भाव- घनानन्द की भक्ति भावनाओं में कान्ता या मधुर भाव की भक्ति सबसे प्रधान भक्ति है। उनका भक्तिकाल का अधिकांश भाग इसी भक्ति भावना से ओत-प्रोत है। इस काव्य में सूर, मीरा जैसी भावुकता पाई जाती है। कान्ता भाव की भक्ति में गोपियों के कृष्णानुराग का आश्रय लिया गया है। उनके पदों से ज्ञात होता है कि उन्होंने सखी या गोपी के माध्यम से श्रीकृष्ण के प्रति अपने हृदय के भक्ति भावों को ही प्रस्तुत किया है। उनकी कलित क्रीड़ाओं में भाग लिया है एवं उनके संसर्ग सुख का अनुभव किया है।
7. मधुर-भाव की भक्ति- मधुर-भाव की भक्ति को प्रस्तुत करने वाले छंद उनकी रचना में अधिक पाए जाते हैं, जिनमें घनानन्द जी ने श्रीकृष्ण से प्राप्त गोपी-प्राप्य आनन्द को प्रतिपादित किया है। इसके अनुसार यह ज्ञात होता है कि गोपियों का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम मधुर रस है, जो अत्यन्त दुर्बोध तथा दुर्गम है। इस रस का जब तक भक्त हृदय को आस्वादन नहीं होता है तब तक वह उसकी महिमा को नहीं जान पाता। घनानन्द जी के अनुसार यह मधुर रस ही परमेश्वर है। अतः जब तक कोई व्यक्ति रस स्वरूप नहीं होता तब तक इस रस का आस्वादन उसे प्राप्त नहीं हो सकता ।
मधुर रस का थोड़ा-सा भी अनुभव हो जाने से मनुष्य श्रीकृष्ण की ललित क्रीड़ाओं में भावगाहन करने लगता है। घनानन्द के अनुसार इस रस का वही अधिकारी हो सकता है जिस पर ब्रज रज कृपा करती है एवं ब्रज रज की उपलब्धि उसे होती है। जिस पर भगवदनुग्रह होता है-
“रस ही रस अपने रस ढरै।
तब ब्रज रज अधिकारी करै ।”
इस रस को प्राप्त करने पर व्यक्ति या भक्त रस हो जाता है-
“या रस विवस एक रस रहै।
श्रुति अमोघ सुख सम्पत्ति लहै ।”
B. तीनों भावों में भक्त का समन्वित रूप- घनानन्द जी का विश्वास है कि इस रस की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ही मैं गोपियों के गुण गाता हूँ-
“तातें गोपित के गुन गाऊं ।
इनकी रचनि मनै परजाऊं ॥ “
क्योंकि इस मधुर रस की वास्तविक पात्राएँ गोपिकाएँ हैं, जिन्होंने इसको उपलब्ध भी किया है-
“यह सवाद गोपिन ही लहयौ ।
नेति नेति निगमन हूँ कहयौ ।।”
जिस प्रकार हम देखते हैं कि मधुर रस या कान्ता भाव की भक्ति को घनानन्द जी ने अपने भक्ति मार्ग में सर्वोच्च कोटि प्रदान की है इसी भावना से प्रेरित होकर वे कहते हैं- हे बृजनाथ । समय बीत गया और तुम नहीं आये। मैं तुम्हारी कहाँ तक प्रतीक्षा करूँ । यदि समय व्यतीत होने पर आये तो क्या लाभ-
हमारी सुरति कब धौं सुन लैहौ।
अवसर बीत्यो जात जानमति बहुरि आय कहा कैहौ ।
आनन्द घन पिय चातक कूक थकै पछितायोई पै हौ ।
इस प्रकार की भावना से सने हुए पदों की रचना पदावली में प्राप्त होती है वे भक्ति भाव से भरी हुई मंगलमयी आरती को किस लगन के साथ उतारते हैं।
9. सखी भाव की भक्ति-भावना- श्रीकृष्ण भगवान् के प्रति जहाँ घनानन्द जी ने त्रिविधा भक्ति भावों को प्रदर्शित किया वहाँ निम्बार्क सम्प्रदाय की भक्ति भावना के अनुसार उन्होंने श्री राधा के प्रति अपनी भक्ति और अनन्य निष्ठा का भी परिचय दिया है। घनानन्द जी जैसा सर्वविदित है, निम्बार्क सम्प्रदाय को पूर्ण रूप से अपना चुके थे। उनकी शेष ने परम्परा रीति का ज्ञान भी करा दिया गया था तथा उन्होंने महात्मा भक्ति साधना का पथ पार करने के उपरान्त सखी नाम को प्राप्त कर लिया था। सम्प्रदाय में घनानन्द जी का बहुगुनी नाम था। इससे सिद्ध होता है कि घनानन्द जी ने उस उच्चकोटि का स्थान प्राप्त कर लिया था जिसे सम्प्रदाय में सिद्धों एवं सुजानों को दिया जाता था।
घनानन्द की इस सखी भाव की भावना का उल्लेख हम उनकी वृषभानुपूर सुषमा-वर्णन, प्रिय प्रसाद, मनोरथ मंजरी आदि रचनाओं में प्राप्त करते हैं। वे इस भाव में राधा की अनन्य सखि के रूप में स्वयं को मानते हैं। वे राधा के सोने पर सोते हैं, जागने पर जागते हैं। उनके स्नान, परिधान, प्रसाधन, भोजन, क्रीड़ा, शयन आदि सभी कार्यों में सहयोग प्रदान करने में ही स्वयं को धन्य मानते हैं। वे राधा-कृष्ण मिलन के अवसर पर छिप कर उनके प्रेम-संलाप को सुनती हैं और आनन्द में निमग्न हो जाती हैं।
10. श्री राधा-कृष्ण की अनन्य भक्ति- इस प्रकार हम देखते हैं कि घनानन्द की राधा एवं कृष्ण के प्रति अनन्य निष्ठा थी एवं उन्होंने इन दोनों की विरह एवं मिलन स्थितियों को अपने सम्पूर्ण काव्य में स्थान दिया और इन्हीं से मिलन के लिए छटपटाते अपने हृदय के भावों को उसमें चुन-चुन कर भरा है, जो हिन्दी साहित्य में एक अनूठी अथवा मार्मिक रचना के रूप में उपस्थित हुई। इसी भक्ति भावना को प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने भक्ति प्रेरक तत्व ‘सुजान’ को भी अन्ततः अपनाया। घनानन्द जी अंत तक अपने भगवान् अथवा स्वामी कृष्ण की भक्ति भावना में निमग्न रहे और उसी की ब्रज-रज में लोट-लोट कर अपने प्राण दे दिये।
इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि घनानन्द जी राधा एवं कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उनकी भक्ति भावना निम्बार्क सम्प्रदाय में वात्सल्य, सख्य एवं कान्ता भाव के ऊपर उठकर सखी भाव में पहुँच गई थी, जो उच्च स्थान कहलाता था ।
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