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घनानन्द विरोधाभास के सफल कवि हैं।” उपयुक्त उदाहरण देते हुए इस कथन के औचित्य का प्रतिपादन कीजिए।
अप्रस्तुत योजना का काव्य में महत्व- अप्रस्तुत योजना से तात्पर्य काव्य में अलंकारों के विधान से है। ‘अलंकार’ का अर्थ उक्ति का ढंग, बात कोकहने की शैली है। इसी अप्रस्तुत योजना के द्वारा कविजन अपनी काव्यात्मक उक्तियों में आकर्षण एवं चमत्कार उत्पन्न करते हैं, जिनके कारण विज्ञ एवं सहृदय पाठक चमत्कृत भी होते हैं और रसमग्न भी होते हैं। कवि का समान्य ज्ञान जितना ही अधिक एवं उसकी कल्पना की समाहार शक्ति जितनी ही विकसित होगी, उसके कथन का ढंग उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा, उसकी अप्रस्तुत योजना उतनी ही सुष्ठु एवं भाव-साधक होगी।
चूँकि अलंकार भाषा और भाव, शब्द और अर्थ दोनों को ही सौष्ठव प्रदान करने में सहायक होते हैं, इसलिए इनके सामान्यतः दो भेद किये जाते हैं- शब्दालंकार और अर्थालंकार। सामान्यतः शब्दालंकारों को चमत्कार का हेतु और अर्थालंकारों को भाव का साधक माना जाता है। परन्तु जब अनुभूति की तीव्रता के कारण भावाभिव्यक्ति सशक्त एवं स्वाभाविक होती है, तब शब्दालंकार भी भावानुभूति के साथ स्वतः लिपटे चले आते हैं और उनका विधान स्वाभाविक प्रस्फुटन के रूप में दिखाई देता है। इसी आधार पर अलंकारों का श्रेणी-विभाजन एक अन्य प्रकार से भी किया जाता है-यत्नज और अयनज । जहाँ कवि केवल काव्य चमत्कार-सृष्टि के लिए ही अलंकारों का समावेश करता है, वहाँ ये ‘यत्नज’ कहे जाते हैं। जब अलंकार भावाभिव्यक्ति के साथ-साथ बिना किसी प्रयास के कवि की वाणी से फूट पड़ते हैं, वहाँ के अयनज कहे जाते हैं।
घनानन्द का अलंकार- विधान अयलज एवं स्वाभाविक अप्रस्तुत योजना के अन्तर्गत आता है।
घनानन्द रीति मुक्त कवि थे। अभिव्यक्ति की प्रेरणा ने ही इनको कवि रूप में ढाल दिया था। यही कारण है कि रीतिबद्ध अनेक कवियों के काव्य-व्यापार की कृत्रिमता इनमें नहीं मिलती है। इनकी कविता ‘स्वान्तः सुखाय’ कोटि के अन्तर्गत आती है। घनानन्द ने अपनी रचना-प्रक्रिया का जो परिचय दिया है, उसके द्वारा भी यह स्पष्ट हो जाता है कि काव्य को मात्र अलंकृत करना इनकी काव्य-रचना का उद्देश्य नहीं था । यथा :
लोग हैं लागि कवित्त बनावत,
मोहि तो मेरे कवित्त बनावत ।
घनानन्द का काव्य भाव-बोधित पीड़ा का साकार रूप है, वह बाह्यार्थ निरूपक न होकर अन्तःवृत्ति निरूपक है। उनके काव्य में भाव-प्रवाह के साथ अलंकार यों ही लिपटे हुए चले आते हैं। उनके काव्य में अलंकार भाव सहजात हैं, भाव-अनुजात अथवा चमत्कार- हेतुक नहीं । घनानन्द के काव्य में उपलब्ध अप्रस्तुत-योजना वस्तुतः भाव के उत्कर्ष के हेतु ही हुई है, बाहरी चमक-दमक के लिए नहीं। अतः यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि घनानन्द की अधिकांश रचना स्वभावोक्ति के अन्तर्गत रखी जा सकती है और उनके काव्य में अलंकारों के समावेश में सचेष्ट प्रयत्न कहीं भी नहीं दिखाई देता । घनानन्द ने सिद्धान्ततः काव्य के सरल सहज स्वरूप के प्रति ही अपनी आस्था व्यक्त की है :
अलबेली सरूप की राति,
सुजान विराजति सूदे सुभाइनि ।
छोरि-छोरि घरे जे-जे भूषन विदूषन से,
तहँ तहँ लगि लोभी मन गयो गति है।
शब्दालंकारों में केवल अनुप्रास का प्रयोग पाया जाता है।
शब्दालंकार चमत्कारमूलक अलंकार है। इनका प्रयोग काव्य की बाहरी चमक-दमक बढ़ाने के लिए किया जाता है। घनानन्द के काव्य में यमक एवं श्लेष सदृश चत्कारमूलक अलंकारों का प्रयोग नाममात्र को हुआ है। शब्दालंकारों में तो इन्होंने अनुप्रास का ही प्रयोग किया है। वह भी चमत्कार-प्रदर्शन के लिए नहीं, ध्वन्यात्मकता एवं नाद-सौन्दर्य की सृष्टि के लिए ।
यथा :-
घूँटे घटा चहुँधा घिरि ज्यों गहि काढ़े करेजौ कलापिन कूकैं ।
सीरी समीर सरीर दहै चहकै चपला चख लै करि ऊकैं।
इन पंक्तियों में उमड़ते-घुमड़ते बादलों की छपक और सर सर बहने वाली पवन की ध्वनि गूंज रही है। साथ ही मोरों की मरोर भरी कूक भी व्यक्त हो रही है :
कंत रमै उर अंतर में सु लहै नहिं क्यों सुख रासि निरंतर।
घनानन्द ने निपातों के प्रयोग द्वारा अर्थ की व्यंजना में वृद्धि की है। बतियानी, सोचनि, वेदनि, बढ़नि, बजावनि, बुझावनि आदि शब्द भाव की तीव्र व्यंजना में सहायक हुए हैं। ‘काकु’ पूर्ण स्थलों पर ढरिबोई, मरिबोई, भरिबोई, बहिबोई आदि शब्दों में ‘ई’ निपात की अर्थ-व्यंजकता देखते ही बनती है। इस प्रसंग के अन्तर्गत शब्द-मैत्री की ओर संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है। शब्द-मैत्री या पद-मैत्री का प्रयोग रीतिकालीन चमत्कार-वृत्ति का द्योतक है। परन्तु घनानन्द के छन्दों में पद मैत्री भाषा को रसानुकूल तथा मधुरता व्यंजक बनाने में सहायक हुई है। पद-मैत्री उनकी प्रवाहयुक्त एवं अर्थगर्भित भाषा की सहज स्वाभाविक विशेषता के रूप में दिखाई देती है:
चातिक है रावरो, अनोखो मोह आवरो,
सुजान-रूप बावरो, बदन दरसाय हौ ।
विरह नसाय, दया हिय में बसाय, आय,
हाय ! कब आनंद को घन बरसायहौ ।
अर्थालंकारों का प्रयोग
घनानन्द ने अर्थालंकारों का प्रयोग इस प्रकार किया है कि वे अनुभूति के व्यंजक, भाव-साम्य के द्योतक और मनोवैज्ञानिक हैं। इनके अलंकार अनुभूतिप्रसूत हैं तथा परम्परा से प्राप्त होने पर भी सर्वथा नवीन रूप में प्रयुक्त हुए हैं। इतना ही नहीं, घनानन्द ने अनेक स्थलों पर तो सर्वथा नवीन उपमानों का प्रयोग ही किया है। निम्नलिखित सौन्दर्य-वर्णन देखिए-
झलकै अति सुन्दर आनन गौर छकै दृग राजत काननि छूवै ।
हँसि बोलन में छवि फूलन की बरषा उर ऊपर जाति है ह्वै ।
लट लोल कपोल कलोल करै, कलकंठ बनी जलजावलि द्वै ।
अंग-अंग तरंग उठें दुति की, परिहै मनौ रूप अबै घर च्वै ॥
इस छन्द में विभावान्तर्गत बाह्य रूप-सौन्दर्य का मनोहारी वर्णन है। वर्णन की चित्रात्मकता दर्शनीय है। यौवन के उच्छल रूप का लहराता हुआ जल और अंगदीप्ति को उसकी तरंगें बताया गया है। इसमें सौन्दर्य की तरलता की व्यंजना के साथ-साथ उसकी चिर नवीनता भी है। यौवनागम के कारण शरीर की चंचलता तथा शरीर में सौन्दर्य का लबालब भरा रहना व्यंग्य है। इसी प्रकार मुसकान के द्वारा रस का टपकना और दसन-दमक के द्वारा हृदय पर मोतियों की माला सी बन जाना सर्वथा नवीन उपमाएँ हैं। इनमें कवि-कल्पना की अपेक्षा कवि की तन्मयता अधिक अभिव्यंजित है।
छवि को सदन गोरो बदन, रुचिर भाल,
रस निचुरत मीठी मृदु मुसक्यानि में।
दसन-दमक फैलि हिये मोती-माल होति,
पिय सों लड़कि प्रेम-पगी बतरानि में।
घनानन्द ने अन्य कवियों की भाँति सारुप्य और साधर्म के द्योतक उपमानों के अतिरिक्त प्रभाव-साम्य के व्यंजक उपमानों का भी प्रयोग किया है। वर्षा में जिस प्रकार बूंद-बूंद पानी बरसता है, उसी प्रकार इनकी आँखों से मिलन की इच्छा अनुरूप में प्रवाहित रहती है :
बदरा बरसै रितु में घिरि कै नित ही अँखियाँ उधरी बरसैं।
इसी प्रकार प्रिय-वियोग में प्राणी की व्याकुलता को व्यक्त करने के लिए घनानन्द ने आकाश में उड़ने वाली पतंग को ‘उपमान रूप में लिया है- ‘जीव गुड़ी लौं उड़यौ रहैं।
प्रिय-दर्शन के अभाव में व्याकुल मन को बघूरे में पड़े हुए पत्ते की भाँति उड़ा उड़ा रहने वाला बताकर कवि ने हृदयस्थ भाव को मूर्तमंत ही कर दिया है :
अब बिन देखें जान प्यारे यौ आनन्दघन,
मेरो मन भँवे भटू पात है बघूरे को।
प्रेम के मार्ग में प्रारम्भ से अन्त तक कठिन साधना अपेक्षित है। इसको व्यक्त करने के लिए घनानन्द ने “चाह-नदी को तट की अति औड़ी” कहा है। ‘प्रिय-दर्शन’ होने पर भी तृप्त न होने वाली आँखों को ‘भस्मक’ रोग से ग्रस्त बताया है-“देखिये दसा असाब अंखियाँ निपटनि की, भसमी बिथा पै नित लंघन करति हैं।”
घनानन्द द्वारा प्रयुक्त उपमानों में हमें उनके व्यक्तित्व की भी झलक मिल जाती है। उनके लिए प्रेम के पथ पर अग्रसर होना तलवार की धार पर चलने के समान है। “प्रेम को पंथ कराल महा तलवार की धार पै धावनी है।” प्रेम की गाँठ एक बार लग जाने पर फिर खुलती नहीं है। एक बार इसमें डुबकी लगाने के पश्चात् प्रेमी फिर बहता ही चला जाता है। आपने स्नेह की फंदे की गाँठ और चाह को प्रवाह कहकर अपनी इस हृदस्थ उदात्त प्रेम भावना को व्यक्त किया है :
सूझे नहीं सुरझि उरझि नेह मुरझनि
मुरझि-मुरझि निस दिन डाँवाडोल है।
आह की न थाह दैया कठिन भयौ निवाह
चाह के प्रवाह घेरौ दारुन कलोल है।
हृदय की वेदना की अभिव्यक्ति के लिए सपने की ‘सम्पत्ति’ की उपमा सर्वथा भाव-सहजात है :
सपने की सम्पत्ति लौं भई है मलोले मल्लई,
मीत को मिलन मोद जानौं न कहाँ गयौ ।
इसी प्रकार आँखों पर मधुमाखी का आरोप करके घनानन्द ने जो रूपक की अवतारणा की है, वह उनकी ‘आसक्ति’ की स्पष्ट झलक देता है :
माधुरी-निधान प्रान-प्यारी जान प्यारी तेरो,
रूप-रस चाखै आँखें मधु माखी है गई।
घनानन्द ने भूत-विधान के द्वारा अपनी भावानुभूति के मार्मिक चित्र उपस्थित किये हैं। निम्नलिखित पंक्तियों में अमूर्त ‘डर’ के लिये मूर्त और स्थूल मेंड़ का उपमान जुटाकर कवि ने सजीवता का परिचय दिया है :
रोकि रही डर – मेंड़ वही इन टेक यही जु गही सुगही हौं ।
सुखों के लिए पखेरू की उपमा में उनके शीघ्र लुप्त हो जाने का भाव मूर्त हो उठा है :
गए उड़ि तुरत पखेरू लौं सकल सुख,
परयौ आय औचक वियोग बैरी डेल-सो।
वियोग की डेल के साथ समता द्वारा उसके आकार के साथ-साथ उसकी निष्ठुरता की भी व्यंजना हुई है। अमूर्त की मूर्त “ के साथ मूर्त की अमूर्त या मूर्त के साथ अवतारणा के उदाहरण घनानन्द के काव्य में भरे पड़े हैं। इन्हें हम यदि छायावादी काव्य के मूर्तिकरण की पूर्वपीठिका के रूप में देख लें तो यह सर्वथा उचित ही होगा।
विरोधाभास का सफल विधान
दो परस्पर विरोधी पदार्थों का संयोग एक साथ प्रदर्शित कर देना ही विरोधाभास अलंकार है। जहाँ जाति, नाम, गुण और क्रिया के द्वारा उनके संयोग में परस्पर विरोधी काम होता है, तब विरोध अलंकार होता है। कुछ विद्वान् विरोध और विरोधाभास को पृथक मानते हैं। परन्तु वस्तुतः दोनों एक ही हैं। विरोध में यदि वास्तविक विरोध हो तो आलंकारिक चमत्कार कैसा ? तथ्यतः विरोधाभास में वस्तुओं में विरोध न होने पर भी विरोध आभासित होता है।
मानव-जीवन वस्तुतः विरोधों का सम्मिश्रण है। इस प्रकार विरोधाभास अलंकार की जड़ मानव-जीवन में बहुत गहरी जाती है। यह अलंकार अतिशय चमत्काराश्रित होने के साथ-साथ काव्य के लिये नितान्त उपयुक्त है।
कवि पंत के अनुसार, विरोधों की आभासित सत्ता आवरण को हटाकर भाव एवं मानव के निश्छल रूप के दर्शन करना मानव की निरीक्षण शक्ति का मोक्ष है, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि अलंकार का व्याख्याता विरोधाभास अलंकार के ऊपरी आभासित होने वाले जाति, नाम, गुण क्रिया के विरोध को हटाकर विरोध का परिहार करता है और काव्य के सच्चे अर्थ का उद्घाटन करता है।
घनानन्द ने अपनी अप्रस्तुत योजना में विरोधाभास, अलंकार का विशेष आश्रय लिया है। इसका कारण उनके प्रेम की अनिर्वचनीयता है। जहाँ अनुभूति गम्भीर तथा आन्तरिक होती है, वहाँ लक्षणा आ जाती है और जहाँ प्रेम की विषमता एवं विलक्षणता की अभिव्यक्त होती है, वहाँ विरोध-विच्छिति का आ जाना स्वाभाविक है। घनानन्द ने अपने विरही हृदय की टीस को विरोध- विच्छिति द्वारा बड़े ही मार्मिक रूप में, तथा कलागत मौलकिता के साथ अभिव्यक्ति किया है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में, “प्रेम की अनिर्वचनीयता का आभास घनानन्द ने विरोधाभासों द्वारो दिया है। उनके विरोध-मूलक वैचित्र्य की प्रवृत्ति का कारण यही समझना चाहिए।”
बदरा बरसै रितु में घिरकें, नित ही अखियाँ उधरी बरसें ।
यहाँ घिरिके तथा ‘उघरी’ में विरोध है, परन्तु यह विरोधमूलक ‘उघरी’ शब्द बड़ा ही व्यंजक है। विरह के कारण अश्रुप्रवाह तो होता ही रहता है। परन्तु विरहिणी प्रिय आगमन की बाट भी जोहती है। इसी से आँखों का उधर कर बरसना स्वाभाविक है। वस्तुतः यहाँ विरोध न होकर केवल ‘विरोध’ का अभास मात्र है और वही जीवन का सत्य भी है तथा काव्यार्थ का उद्घाटक भी है।
घनानन्द ने ‘विरोधाभास’ के प्रयोग द्वारा अपनी विषमतापूर्ण प्रेम-भावना की अनूठी अभिव्यक्ति भी की है और अपनी कलागत मौलिकता का अनूठा परिचय भी दिया है। विरोधाभास उदाहरण उनके काव्य में भरे पड़े हैं और वे उनके काव्य की विभूति हैं। देखिए :
- (अ) उजरनि बसी है हमारी अंखियानि देखौ ।
- (ब) प्यास-भरी बरसै तरसै मुख देखन कौं अंखियाँ दुखहाई ।
- (स) हाथ-साथ लाग्यौ पै समीप न कहूँ लहै ।
इस विरोधाभास के कारण घनानन्द की शैली में वक्रता आ गई है। वचनवक्रता के उद्धरण देकर आचार्य पं० रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है, कि “कवि की उक्ति ने वक्रपथ हृदय के वेग के कारण पकड़ा है।” घनानन्द ने “विरोधाभास” अलंकार का प्रयोग करते समय लक्षणा वृत्ति और मुहावरों का प्रयोग किया है।
मुहावरों के कलात्मक प्रयोग द्वारा घनानन्द ने विरोधाभास का सुन्दर समावेश किया है :
घनआनंद छावत भावत हैं, दिन पारि इतै उन रातें पढ़ें।
इस प्रकार इसकी योजना शब्दगत होते हुए भी अन्य कवियों से भिन्न बन पड़ी है। कई छन्दों में एक साथ कई अलंकारों का प्रयोग पाया जाता है, परन्तु वहाँ भी चमत्कार-वृत्ति प्रधान नहीं हो पाती है। “विरोधाभास अलंकार मानों अपने सौजन्य द्वारा अन्य अलंकारों को अपने आँचल में छिपा लेता है” :
जान प्यारे आनिन बसत पै अनन्दघन,
विरह विषम-दसा मूक लौं कहनि हैं।
जीवन-मरन जीव मीच बिना बन्यौ आय,
हाय कौन विधि रची नेही की रहनि है।
यहाँ उपमा, विरोध, विभावना तथा यथासंख्य अलंकार एक साथ लिपटे चले आए हैं। भावानुभूतियों के सूक्ष्म-अभिव्यंजना में विरोधाभास का ऐसा सफल निरूपण अन्यत्र दुर्लभ है। घनानन्द विरोधाभास के सर्वोत्कृष्ट कवि हैं।
अन्य अलंकारों का प्रयोग
घनानन्द के काव्य में अनुप्रास, यमक, श्लेष, पुनरुक्ति प्रकाश शब्दालंकारों के तथा उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, व्यतिरेक, अपह्नुति, विशेषोक्ति अन्य अर्थालंकारों के सुन्दर प्रयोग मिलते हैं।
होली और वर्षाऋतु के सांगरूपक बहुत ही भाव-सवलित बन पड़े हैं। विरह की होली में फाग खेलने वाले के रूप में देखिए :
रंग लिया अवलानि के अंग तें, च्वाय कियो चित चैन को चोवा।
और सब सुख सोधें सकेलि, मचाय दियो घन आनन्द ढोवा ।
प्रान अबीरहि फेंट भरे अति छाक्यो फिरै पति की गति खोवा ।
स्याम सुजान बिना सजनी ! ब्रज यौं बिरहा भयौ फाग बिगोवा।
इसी प्रकार निम्नलिखित छन्द में विरहिणी के शरीर पर वर्षा का सर्वांग आरोप देखते ही बनता है। सांगरूपक-विधान सर्वथा स्पृहणीय है-
विरहा-रवि सों घट-व्योम तच्यौ बिजुरी सी खिवैं इकली छतियाँ।
हिय- सागर में दुग मेघ भरे उधरे बरसें दिन और रतियाँ।
घन आनन्द जान अनोखी दसा, न लखौं दई कैसें लिखीं पतियाँ।
तिन सावन दीठि सु बैठक मैं टपकें बरुनी तिहि ओलतियाँ ।
इनकी अलंकार-प्रवणत का एक अन्य उदाहरण देखिए :
अंतर मैं बासी पै प्रवासी कैसो अन्तर है,
मेरी न सुनत दैया आपनीयौ ना कहौ।
लोचननि तारे है सुझावौ सब सूधौ ताहि,
सूझी न परति ऐसे सोचनि कहा दहौ।
हौ तो जानराय जाने जाहु न अजान यातें,
आनन्द के घन छाय छाय उधरे रहौ।
मूरति मया की हहा सूरति दिखैये नेकु,
यामें खोय या विधि हो कौन धौं लहालहौ ।
इस छंद में अनुप्रास, पदमैत्री, यमक (अन्तर, अन्तर बासी, प्रवासी), श्लेष (जानराय, अजान), विशेषोक्ति (सुझावो सब सूची ताहि) विरोधाभास (आनन्द के घन छाय छाय-उघरे रहौ), परिकरांकुर (जानराय), पुनरुक्तिप्रकाश (छाय-छाय), वीप्सा (हा, हा) तथा समासोक्ति की व्यंजना- ये ग्यारह अलंकार उलझे पड़े हैं। पर विशेषता यह है कि सबके सब अयलजा हैं। कहीं भी चमत्कार प्रदर्शन का प्रयास परिलक्षित नहीं होता । इसका समावेश स्वाभाविक प्रस्फुटन के रूप में ही है।
निम्नलिखित उदाहरण में व्यतिरेक-पुष्ट रूपक के द्वारा विरहानुभूति को तीव्रता प्रदान हुई है।
अधिक बधिक तें सुजान ! रीति रावरी है,
कपट चुगौ दै फिरि निपट करौ बुरी ।
गुननि पकरि लै, निपाँख करि छोरि देहु,
मरहिन जिये, महा विषम दया छुरी ।
हौं न जानौ, कौन धौंही यामें सिद्धि स्वारथ की,
लखी क्यों परित प्यारे अन्तर- कथा दुरी ।
कैसे आसा द्रुम पै बसेरौ लहै, प्राण खग,
बनक-निकाई, घनआनन्द नई जुरी ।
इसके अतिरिक्त हमें घनानन्द के काव्य में छायावादी कवियों की शैली की कई विशेषताएँ दिखाई देती हैं। लक्षणा और मूर्त्तविधान की चर्चा हम कर ही चुके हैं। विशेषण-विपर्यय का उदाहरण भी देख लीजिये-“है है सोऊ धरी भाग-उघरी आनन्द घन, सरस बरस लाल ! देखिहौ हरी हमें।” यहाँ खुले भाग्यवाली घड़ी में विशेषण-विपर्यय है।
छायावादी शैली के ‘मानवीकरण’ के उदाहरण भी घनानन्द के काव्य में मिल जाते हैं-लट लोल कपोल कलोल करै, इत्यादि ।
निष्कर्ष
घनानन्द की अप्रस्तुत योजना सर्वत्र भाव सहजता है और बड़ी मर्मस्पर्शी बन पड़ी है। विशेषता यह है कि उनका अप्रस्तुत विधान फारसी साहित्य द्वारा प्रभावित होने पर भी उसके उपमानों का स्वरूप सर्वत्र भारतीय ही रहा। उसमें चातक पपीहा, चन्द्रमा, कमल आदि के ही प्रयोग हुए हैं।
इन्होंने अलंकारों का प्रयोग अलंकारों के मोह के कारण अथवा अपने अलंकार- ज्ञान प्रदर्शन के कारण नहीं किया है। इनके अलंकार भावानुभूति की गंगा में प्रातःकालीन रवि-प्रतिबिम्ब के स्वर्ण कमलों की भाँति सुशोभित दिखाई देते हैं।
घनानन्द के काव्य में अलंकारों का सचेष्ट प्रयत्न किसी भी स्थल पर नहीं है, विरोध एवं विरोधाभास के प्रति आग्रह अवश्य दिखाई देता है, परन्तु वह मूलतः भाव का अभिन्न अंग है, उससे पृथक कोई तत्व नहीं। अतः वह कला के प्रति सजगता का बाह्य प्रयास न होकर अभिव्यक्ति की सहज चेष्टा है। अलंकार-योजना के लिये घनानन्द के लाक्षणिक पदावली, मुहावरों एव मूर्त-विधान के प्रयोग किये हैं। यह इनकी भाषा प्रवीणता का परिचायक है। इन प्रयोगों में न क्लिष्टता है और न अप्रतीतत्व ही है।
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