जायसी की काव्यगत विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
प्रेमाख्यानक काव्यों की इस विस्तृत परम्परा में सर्वाधिक महत्व जायसी के ‘पद्मावत’ का है। इस काव्य की गुरूता और महानता निसन्देह बड़ी ही कलापूर्ण है। ये महाकाव्य व्यापक जातीय जीवन का महाकाव्य है। इस कृति का महत्व ऐतिहासिक दृष्टि से भी है और काल्पनिक दृष्टि से भी ‘पद्मावत’ महाकाव्य में मलिक मुहम्मद जायसी ने जहाँ एक ओर भावों की सुन्दर नियोजना की है वहीं दूसरी अपनी उत्कृष्ट कलात्मक प्रतिभा का परिचय भी दिया है। उनकी इन विशेषताओं को हम निम्नांकित दृष्टि से दर्शा सकते हैं-
1. बोलचाल सजीव एवं जीवन्त अवधी भाषा- जायसी ने जनसाधारण द्वारा बोली जाने वाली अवधी भाषा में काव्य रचना की है। जायसी की भाषा लोकभाषा है जिसमें अद्भुत भाव व्यंजना, सरलता, मधुरता और सजीवता है। जनवाणी की इस पावन गंगा में प्रेम की पीर का स्नान करा कर जायसी ने उसे जन-जन के लिये अभिनन्दनीय बना दिया। पद्मावती के रूप सौन्दर्य वर्णन में कवि ने ऐसी ही सरल और मधुर भाषा का प्रयोग किया है।
पद्मावति चाहत ऋतु पाई। गगन सोहावन भमि सुहाई ॥
चमकि बीजु बरसै जल सोना। दादुर मोर सबद सुठि लोना ॥
रंग रानी पीतम संग जागी। गरजै गगन चौंकि गर लागी ।
बारहमासा के अन्तर्गत नागमती के विरह वर्णन में भाषा की सघनता एवं मार्मिकता देखते ही बनती है। अगहन की लम्बी रातें काटे नहीं कटतीं और वह रात भर जलने वाली दिये की बाती की भाँति जलती रहती है
‘अगहन दिवस घटा, निसि बाढ़ी। दूभर रैनि जाय किमि गाढ़ी ॥
अब हुय विरह दिवस मा राती। जरौ विरह जस दीपक बाती ॥”
2. विविधतापूर्ण शैली- जायसी से पूर्व फारसी में मसनवी शैली प्रचलित रही थी। हिन्दी में चरित काव्यों की एक विशेष शैली थी। जायसी ने दोनों को मिलाकर एक नया रूप प्रदान किया। काव्य रूप की दृष्टि से वे प्रबन्ध शैली के प्रथम कवि हैं। इसके अतिरिक्त पद्मावत में जायसी ने प्रतीकात्मक अन्योक्ति शैली का प्रयोग किया है क्योंकि यहाँ लौकिक प्रेम कथा के माध्यम से अध्यात्म-साधना की व्यंजना की गई है।
3. अलंकार निरूपण- जायसी ने पद्मावत में सादृश्य-मूलक अलंकारों का प्रयोग अधिक किया है। सादृश्यमूलक अलंकारों में से भी उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपकातिश्योक्ति तथा सांगरूपकों का प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है। रूपकातिश्योक्ति के द्वारा कवि का अद्भुत कौशल दृष्टव्य है-
“साम भुअंगिनि रोमावली। नाभिहि निकसि कंवल कहँ चली॥
आइ दुबौं नारँग बिच भई। देखि मयूर ठमकि रहि गई।”
उत्प्रेक्षा अलंकार में कवि की कल्पना शक्ति का अद्भुत आकर्षण व्यक्त हुआ है-
“बरूनी का बरनौं इमि बनी। साधे बान जान दुइअनी ॥
जूरी राम रावन कै सेना। बीच समुद्र भये दुइ नैना॥”
जब विरहिणी रूदन करती है, तो मानो उसके आँसुओं के रूप में मोती की माला ही टूटती है-
“कै कै कारन रोवै बाला। जनु टूटहिं मोतिन्ह के माला ॥”
पुनरूक्ति प्रकाश भी यत्र-तत्र अपनी छटा विखेर देता है।
यथा-
“तचि तचि तुम्ह बिनु अंग मोहि लागे । पाँचौ-दगधि बिरह अब जागे।”
4. छन्द योजना-जायसी ने मुख्य रूप से अपने इस महाकाव्य में चौपाई तथा दोहा छन्द का ही प्रयोग किया है। डॉ. शम्भूनाथ सिंह ने जायसी की इस छन्द पद्धति को ‘कुडवकवद्ध पद्धति’ कहा है। पद्मावत एक चरित काव्य है। चरित-काव्य के लिये दोहा चौपाई, छन्द अधिक उपयुक्त होता है। कदाचित जायसी ने भी इसीलिये इस छन्द-पद्धति को अपनाया।
जायसी की चौपाई तथा दोहों में शास्त्रीय नियमों का उल्लंघन कई स्थानों पर मिलता है। कहीं-कहीं जायसी के दोहों में चौबीस मात्राओं के स्थान पर बत्तीस मात्रायें हो गई हैं। इसी प्रकार चौपाई में कहीं-कहीं सोलह मात्रा के स्थान पर पन्द्रह मात्रा ही रह गई हैं। इससे सिद्ध है कि जायसी ने छन्द-सम्बन्धी पर्याप्त स्वतंत्रता अपनाई है। उन्होंने छन्दों के बन्धन को कुछ शिथिल करके अपनाया है।
निष्कर्ष- इस प्रकार स्पष्ट है कि जायसी के पद्मावत में विभिन्न घटनाओं का वर्णन होकर भी सुसम्बद्धता है। रोमांचक कार्यों का उल्लेख होकर भी स्वाभाविकता है। अति मानवीय तत्वों का समावेश होकर भी जीवन की यथार्थता है। इसमें भौतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता है, सूफी पद्धति का प्रभाव होने पर भी भारतीयता का उच्च आदर्श है। जायसी का पद्मावत मानव जीवन की विविधता के साथ-साथ रसात्मक वर्णनों एवं आध्यात्मिक संकेतों से परिपूर्ण एक सफल काव्य है।
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