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तुलसी का मानस-रूपक का काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से विश्लेषण कीजिए।
‘मानस-रूपक’ एक परिचय- तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ जिसका प्रथम कांड (सर्ग या अध्याय) है-बालकांड। यह कांड वह आधार है जिस पर कवि ने सप्तकांडीय रचना का भवन निर्माण किया है। इसी कांड में, काव्यशास्त्री और भक्तिकाव्य वाली प्रचलित रूढ़ियों का पालन करते हुए कवि ने आराध्य स्तुति, मंगलाचरण, गुरू- ब्रह्मादि की वंदना, पूर्ववर्ती रामकाव्यकारों के प्रति श्रद्धा भावना एवम् प्रमुख वक्ता श्रोता तथा पत्रादि के साथ-साथ ग्रन्थ-सृजन का काल, स्थान, उद्देश्य, प्रभावादि और सबसे अधिक सशक्त रूप में उसके नामकरण का भी पूरा-पूरा परिचय दे दिया है। नामकरण का यह परिचय वाला अंश ही ‘मानस- रूपक’ के नाम से विख्यात है तथा दोहा संख्या 34/4 से 43 दोहे तक विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया गया है।
मानस-रूपक : अर्थ और स्पष्टीकरण- वस्तुतः कालकांड में प्रयुक्त ‘मानस’ शब्द श्लेषात्मक है जिसके दो अर्थ ग्राह्य हैं- (1) हृदय या मन तथा (2) मानसरोवर यह कवि का काव्य कौशल ही कहा जायेगा कि रूपक तत्व का सटीक प्रयोग करते हुए उसने इन दोनों ही अर्थों की सार्थकता को पूरी तरह से पुष्ट कर दिया है और इस प्रकार, प्रकारान्तर से ‘मानस-रूपक’ का पूरा पद भी सटीक और सम्यक सिद्ध हो गया है।
मानस (हृदय पक्ष) की सार्थकता- तुलसी के अनुसार, रामचरित के प्रथम गायक थे भगवान शिव जिन्होंने इसकी रचना करके इसको अपने मानस में रख लिया था। निःसन्देह उन्होंने ही अपनी इस रचना को ‘रामचरितमानस’ की संज्ञा दी थी-
रचि महेस निज मानस राखा पाठ सुसमठ सिवा सन भाषा।
ताते रामचरितमानस बर । धरेउ नाम हिये हेरि हरपि हर ।।
स्वयं तुलसी भी उसी मानस स्थित रामचरित को कहते हैं जो शिवरचित, मुनि-भावन, विविध दोष-दरिद्रता नाशक तथा कलि- पापों को नष्ट करने वाला है। साथ ही साथ, यह श्रोता के मन रूपी हाथी को जो विपयाग्नि से दग्ध है, सुख प्रदान करता है-
रामचरितमानस एहि नामा सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा।
मन-करि विषय अनल बन जाई होइ सुखी जो एहि सर जाई।।
रामचरितमानस मुनि भावन। विरचेड संभु सुहावन पावन ।।
त्रिविध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कालि कलुष नसावन ।।
अब सोइ कहउं प्रसंग सब सुमिरि उमा वृषकेतु ।
निःसन्देह रामचरित की यह पावन गाथा पहले स्वयं कवि-मानस (हृदय) में ही रची गयी थी और तत्पश्चात् ही भाषा रूप धारण करके साकार हुयी। आशय यही है कि रामचरित के प्रथम प्रणेता, श्रोता- समुदाय और स्वयं कवि तुलसी के ‘मानस’ से इस रामचरित का अभिन्न सम्बन्ध है।
मानस (मानसरोवर) को सार्थकता- ‘मानस’ का द्वितीय प्रचलित अर्थ है-मानसरोवर नामक तालाब जो परम्परा से शिव के निवास स्थान अर्थात् कैलाश पर्वत पर माना जाता है। इसी सन्दर्भ में यह बात भी उल्लेखनीय है कि भारतीय धर्म-ग्रन्थों के काथ-साथ तुलसी के समकालीन कवियों यथा जायसी यथा कबीरादि भी इस मानसरोवर की प्रतीकात्मक और रूपकात्मक रूप साथ अपनी रचनाओं में स्थान दे चुके थे तथा तुलसी के समय तक यह एक काव्य रूढ़ि का रूप धारण कर चुका था।
“मानस’ के इस सरोवर-विशेष वाले अर्थ को तुलसी ने ग्रहण ही नहीं किया, अत्युत्तम काव्यमय बनाकर स्वयं रूपक की सहायता से सार्थक भी सिद्ध कर दिया है-एकदम विस्तारपूर्वक । कुछ उदाहरण भी देखिये-
बरसहि राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मंगलहारी ।
लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानि ।।
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रूचि चारू चिराना ||
इतना हीं नहीं वरन् मानसरोवर और मानस ग्रन्थ में और भी बहुत-सी समानतायें हैं। चार घाट पर श्रोता-वक्ता संवाद, सात पीढियाँ सात कांड, अथाह जल रामभक्ति या महिमा, अमृत राम-सीता का यश, लहरें उपमादि कमलिनी चौपाइयाँ मणि-सीपी सूक्तियाँ, कमल, सोरठा-दोहादि छंद, पराग-मकरंद उच्च अर्थ, भावादि, सुगंध भाषा, भ्रमर समूह सत्कर्म-वर्णन हंस वैराग्य, मछलियां, ध्वनि, शब्द शक्ति, काव्य-गुणादि, जीव-वस्तु काव्य सृजनोद्देश्य, नव रसादि, जल-पक्षी साधु जन और रामगुण, अमराई संत-सभा, बसन्त श्रद्धाभाव लतामंडप भक्ति निरूपण, पुषप-फल यम नियमादि, फल-रस राम चरणों में प्रेम तटवर्ती रंगबिरंगे पक्षी प्रासंगिक कथायें- अंतर्कथायें, वन वाटिका पढ़ने-सुनने पर उत्पन्न होने वाला रोमांच, पक्षियों का विहार-विवरण प्राप्त सुखादि, माली पवित्र मन, सिंचित जल प्रेमाश्रु रक्षक श्रोता- पाठक, अधिकारी देवता, बगुले कौए दुष्ट जन- कुतर्की आदि इसी के कुछ प्रमाण हैं। इतना ही नहीं वरन् मानस मानसरोवर और रामचरित दोनों तक पहुँच पाना सरल नहीं, दुर्गम है। कारण है-मार्गगत बाधायें यथा कुसंगति, कुसंग-वचन, माया-मोहादि की पर्वतवत् बाधायें मदमान के बीहड़ वन, कुतर्कक रूपी नदियाँ इनको पार करने का पाथेय है श्रद्धा । इसके अभाव में यदि कोई ‘मानस’ तक पहुँच भी जाये तो उसे जूड़ी (निद्रा), शीत (मूर्खता) आदि स्नान नहीं करने देते और उसकी निन्दा करते हुये वापिस आ जाता है। दूसरी ओर राम कृपा प्राप्त इसमें अवगाहन तो करता ही है, इसको त्यागता भी नहीं है। इसी मानस से काव्य-सरयू का उद्भव हुआ है। अतएव, इसी से सरयू ‘सुमानस’ नंदिनी है जिसमें अवगाहन करने पर सभी पापों-तापों से मुक्ति मिलती है और सभी प्रकार का कल्याण भी होता है।
मानस-रूपक की काव्यगत विशेषताएँ
अपने श्लेषात्मक दोनों अर्थो तथा रूपक-निर्वाह दोनों ही प्रकार से ‘मानस’ शब्द अत्यन्त सार्थक है। गहराई से देखें तो यह रचयिता, प्रथम रामचरितकार तथा रसिक (पाठक या श्रोता) वर्ग से तो प्रत्यक्षतः सम्बन्धित है ही, ग्रन्थ की कथा, रचना- उद्देश्य तथा कवि-भावादि का भी संकेतक बन गया है। इसकी एक प्रमुख विशेषता है- इसका एकदम काव्यात्मक होना। यह सरल और संक्षिप्त तो है ही, श्लेषात्मक होने से आलंकारिक भी है जिसमें रूपक का सफल निर्वाह चार चाँद लगा देता है। सच तो यह है कि कवि ने यहाँ पर बड़ी गहराई और सूक्ष्मता से सांगरूपक का आद्योपान्त और सफल निर्वाह किया है। शास्त्रीय दृष्टि में इसमें सांगरूपक के चारों अंग (उपमेय, उपमान, साधारण धर्म और साम्य आरोप) मिलते हैं। दूसरी ओर यह काव्य रूढ़ि के भी एकदम अनुकूल बन पड़ा है। सबसे अधिक तो मन रूपी हाथी के विषयानल में जलने की स्थिति में अमृततुल्य जल वाले ‘मानस’ की सार्थकता भी इसकी महिमा- गरिमा को और मूलतः कवि के काव्य-कौशल को भी प्रदर्शित करती है। एकदम सच तो यह है कि ‘रामचरितमानस के नाम का औचित्य सिद्ध करने के लिए ही गोस्वामीजी ने मानस-रूपक की संयोजना की है तथा “सांगरूपक का सफल प्रयोग किया है।” समग्रतः कह सकते हैं- “मानस-रूपक मूलतः प्रन्थ के नाम की सर्वांगीण व्याख्या है जिसमें कवि ने श्लेषात्मक रूपक पद्धति का सफल प्रयोग किया है।
नामकरण की सार्थकता और महत्व
समग्रतः ‘रामचरितमानस’ नाम का विश्लेषण करने पर भी इसकी सार्थकता की पुष्टि हो जाती है-ग्रन्थ नायक राम के चरित का मानसगत (हृदयगत अथवा हृदय को मानसरोवर जैसा पवित्र करने वाला या पवित्र हृदय भावों से युक्त) अंकन। दूसरे, ‘राम’ ग्रन्थ नायक, चरित्र ग्रन्थकथा तथा मानस एकदम प्रथम रामकथा प्रणेता शिव, रचनाकार तुलसी, पाठक या श्रोता तथा उच्च काव्य लक्ष्यादि का भी संकेतक है। शास्त्रीय दृष्टि से भी यह अत्यन्त सरल, पात्र कथानुकूल, संक्षिप्त और उत्सुकतावर्धक है। गहराई से देखें तो यह न तो राम का अयन (राम + अयन = रामायण) अर्थात् भ्रमण मात्र है, न राम की (काल्पनिक) कथा, न तो यह स्थान विशेष (यथा साकेत) में बद्ध है, न काव्यरूप (यथारामरासो) और ध्यानादि में सीमित (यथा रामध्यान मंजरी), न यह सागर, महासागर या महादधि है, न कोई रसायन या अवतार (प्रसंग-विशेष) तक सीमित। इनमें न रामचन्द्र का उदय (रामचन्द्रोदय) मात्र है, न राज्य (रामराज्य) का चित्रण। दूसरी ओर यह तो कवि मानस में अद्भुत, प्रथम रामचरित प्रणेता शिव के मानस में स्थित रामचरित से प्रेरित, पाठक वर्ग के मानस को मानसवत पवित्र बनाने वाला तथा अमृत जल की उसके मानस में वर्षा करके जीवनदान देने वाला है। निःसन्देह जब मनरूपी हाथी विषय रूपी दानव से जल रहा हो तो उसे चन्द्रिका, चिन्तामणि या रसायन की आवश्यकता नहीं, आवश्यकता होती है शीतल जल से परिपूर्ण मानस (मानसरोवर) की क्योंकि इसी से विषयानल तो बुझती ही है, मानस को शीलता भी मिलती है-
मन करि विषय अनल बस जरई। होई सुखी जो एहि रस हरई ।
निष्कर्ष स्वरूप, स्वयं तुलसी के शब्दों में ही कह सकते हैं कि-
भाषाबद्धमिद चकार तुलसीदासस्तथा मानसम् ।।
श्रीमद्रामचरित्रद्धमानसमिद् भक्तयावगाहन्ति ये
ते संसार पतंग-घोरकिरणैदंह यन्ति नो मानवाः ॥
(अर्थात् अपने मानस-अन्धकार को मिटाने के लिए तुलसी ने इसको मानस के रूप में भाषाबद्ध किया । जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस मानसरोवर में गोता लगाते हैं, वे संसार रूपी सूर्य की प्रचण्ड किरणों से नहीं जलते)। यही मानस-रूपक का रहस्य है, यही रचना का उद्देश्य और यही इसकी सिद्धि जो सब मिलकर मानस की सार्थकता तो सिद्ध करती ही हैं, रचना को जन-मानस तक पहुँचने में सर्वाधिक सहायक भी होते हैं।
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