नाथपंथी काव्य का परिचय एवं विशेषताएँ
सिद्धों की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप नाथपंथी काव्य के रूप में एक ऐसी योगमार्गी धारा का विकास हुआ जो वाममार्गी भोग-प्रधान सिद्धों की योग-साधना के विरोध में उठ खड़ी हुई। इसका प्रवर्तक गुरू गोरखनाथ को माना जाता है। इन्होंने पतंजलि के उच्च लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति को विशेष महत्व प्रदान किया। उनके समय के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् इन्हें 10वीं तथा अन्य 13वीं शताब्दी का मानते हैं। आचार्य शुक्ल की मन्यता है कि, “पृथ्वीराज के समय के आस-पास ही विशेषतः कुछ पीछे, गोरखनाथ के होने का अनुमान दृढ़ होता है।” डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है कि 10वीं शताब्दी के प्रसिद्ध काश्मीरी आचार्य अभिनव गुप्त ने अपने ‘तन्त्रलोक’ में मच्छेय विभु या मत्स्येन्द्रनाथ की वन्दना की है। इससे सिद्ध होता है कि मत्स्येन्द्रनाथ 10वीं शताब्दी से पूर्व अवतरित हुए थे। तिब्बती परम्परा के साथ तथ्य को मिलाकर देखें तो यह समय 9वीं शताब्दी के आरम्भ में पड़ता है। गोरखनाथ मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य थे, इसलिए उनका समय भी इसी के आस-पास पड़ता है। नाथों की संख्या और रचनाएँ- आचार्य शुक्ल के अनुसार इनकी संख्या नौ है, जो इस प्रकार हैं-नागार्जुन, जड़भरत, हरिश्चन्द्र, सत्यनाथ, भीमनाथ, गोरखनाथ, चर्पट, जलंधर और मल्यार्जुन ।
नाथपंथ में गोरखनाथ को ही अन्यतम माना जाता है। उन्होंने गभग 40 प्रन्थों की रचना की है। परन्तु डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने 14 प्रन्थों को स्वीकार किया है, जो इस प्रकार हैं-सबंदी, पद, सिप्यादरसन, प्राण संकली, नरवे बोध, आत्मबोध, अमैमात्र जोग, पन्द्रह तिथि, सप्तवार, मछीन्द्रगोरख बोध, रोमावली, ग्यानतिलक, ज्ञान चौंतीसा, पंचमात्रा।
इन ग्रन्थों में गुरू महिमा, वैराग्य, इन्द्रिय निग्रह, प्राण साधना विषयों का विवेचन मिलता है। डॉ. राजनाथ शर्मा उनका साहित्य की दृष्टि से कोई मूल्य स्वीकार नहीं करते। आचार्य शुक्ल ने इन्हें साहित्य की श्रेणी में स्वीकार नहीं करते- “उनकी रचनाओं का जीवन की स्वाभाविक सरणियों, अनुभूतियों और दशाओं से कोई सम्बन्ध नहीं। वे साम्प्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, अतः शुद्ध साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं। इन रचनाओं की परम्परा को हम काव्य या साहित्य की कोई धारा नहीं कह सकते।”
(1) बाह्याचार का खण्डन- इनके बाह्याचार खण्डन की एक विशेषता यह भी है कि यह अपनी हास्य-व्यंग्यात्मक पकड़ नाथ साहित्य की कतिपय विशेषताएँ रखने के कारण बेजोड़ हैं।
गोरखनाथ की वाणी है-
दूधाधारी पर धरि चित्त, नागा लकड़ी चाहै नित्त ।
मौनी कसै मयंत्र की आस, बिनु गुर गुदड़ी नहीं बेसास ||
अर्थात् दुग्धाहारी का मन सदा दूसरों के घर में पड़ा रहता है। सोचता रहता है कि अमुक के घर से दूध आ जाता तो अच्छा रहता या अमुक के घर से दूध आ ही रहा है। शरीर गर्म रखने के लिए नागा को लकड़ियों की चिन्ता करनी पड़ती है और मौनी को ऐसे साथी की आवश्यकता पड़ती है जो उसके स्थान पर बोलकर मार्ग दिखा सकें।
(2) दार्शनिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन- नाथों ने पुस्तक-ज्ञान की भर्त्सना की है। ब्रह्म तत्व का उन्होंने द्वैताद्वैत विलक्षण के रूप में स्वीकार किया है और माया के दो रूप स्वीकार किए हैं-विद्या (मोक्षदायक रूप) और अविद्या (बन्धनकारक रूप)-
वसति न सून्यं सून्यं न वसति, अगम अगोचर ऐसा।
गगन सिखर में बालक बोलै, ताका नाव घरउगे कैसा ॥
(गोरखनाथ)
(3) साधना पद्धति – इनकी साधना पद्धति कुण्डलिनी योग की है। इनके अनुसार गगन-मण्डल में औंधे मुँह का अमृत कुण्ड है। उस कुण्ड के अमृत का भोगी बन जाने पर व्यक्ति ‘अजर-अमर हो जाता है। इस अमृत का अधिकारी बनने के लिए व्यक्ति को तीन साधनायें करनी पड़ती हैं- इन्द्रिय, निग्रह, प्राण साधना और मन साधना । गोरख के अनुसार-
गगन मण्डल में औध कुओं, तहँ अमृत का वासा।
सगुरा होय से झरझर पिया, निगुरा जाहि पियासा ।।
(4) सहज भावना- इन्होंने आचरण की पवित्रता, गर्वहीनता, सहज जीवन पद्धति पर बल दिया है। ये ही मानव के कल्याण के साधन हैं। गोरखनाथ कहते हैं-
हबकि न बोलिया, ठबकि न चलिबा, धोरे धरिबा पाँव ।
गरब न करिबा, सहजै रहिबा, भणत गोरख राँव ॥
(5) वेदशास्त्र का पठन निरर्थक- आचार्य शुक्लानुसार नाथ सम्प्रदाय के सिद्धान्त ग्रन्थों में वेदशास्त्र का अध्ययन व्यर्थ ठहराकर विद्वानों के प्रति अश्रद्धा प्रकट की गयी है-
योगशास्त्र पठेन्नित्यं किमन्यैः शास्त्रं विस्तरैः ।
(6) तीर्थाटन का विरोध – यह भावना सिद्धों में भी थी और नाथों के माध्यम से यह भावना निर्गुण सन्तों तक पहुँची है-
प्रतरन्नपि गंगायां नैव श्रवा शुद्धि मर्हति।
तस्माद्धर्मधियां पुंसां तीर्थस्नानं तु निष्फलम् ।।
(7) अन्तः साधना पर बल – सिद्धों की भाँति इन्होंने भी अन्तः साधना पर बल दिया है। अन्तः साधना के वर्णन में हृदय को दर्पण कहा गया है, जिसमें आत्मा के स्वरूप का प्रतिबिम्ब पड़ता है-
हृदयं दर्पण यस्य मनस्तत्र विलोकयेत्।
दृश्यते प्रतिविम्वेन आत्मरूप सुनिश्चितम् ॥
(8) परमात्मा की अनिवार्यता – इन्होंने परमात्मा की अनिवार्यता भी स्वीकार की है-
शिवं न जानामि कथं वदामि। शिवं च जानामि कथं वदामि ॥
(9) भाषा और अभिव्यक्ति-आचार्य शुक्ल के अनुसार- “उनकी भाषा देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश अर्थात् पुरानी हिन्दी है। उन्होंने भरसक उसी सर्वमान्य व्यापक काव्य-भाषा में लिखा है जो उस समय गुजरात, राजपूताना, बजमण्डल से लेकर बिहार तक लिखने-पढ़ने की सिद्ध भाषा थी।” इसमें कुछ पूर्वी प्रयोग (भडले, बूडिलि) भी मिलते हैं, पर उनकी उपदेश की भाषा पुरानी टकसाली हिन्दी है।
नाथ साहित्य का परवर्ती काव्य पर प्रभाव- डॉ. राजनाथ शर्मा के अनुसार- “नाथपंथी साहित्य का महत्व इस दृष्टि से स्वीकार करना ही पड़ेगा कि उसने हिन्दी के परवर्ती सन्त-काव्य को गहरे रूप से प्रभावित किया था। इस नाथपंथी साहित्य में जहाँ एक ओर उलटवासियों की शैली में रहस्यात्मक साधना की व्यंजना पाई जाती है, वहाँ जनता की बोली में धार्मिक पाखण्ड, जाति-प्रथा, मूर्तिपूजा आदि का तीखा खण्डन भी मिलता है। ये हठ योग की साधना द्वारा शरीर और मन को शुद्ध कर शून्य में समाधि लगा, ब्रह्म का साक्षात्कार किया करते थे। कबीर आदि सन्त कवियों में हमें जो रहस्यात्मकता, रूढ़ियों का खण्डन और हठयोग साधना से सम्बन्धित उक्तियाँ मिलती हैं उन पर इन नाथपंथी साधन कवियों का ही प्रभाव रहा है।
सहज स्थिति भी इनमें पायी जाती है। हिन्दी के सन्त कवियों ने ‘सहज’ का कितना अधिक प्रयोग किया और वह उनकी चेतना में कितनी दूर तक घर किये हुए है, इसका अनुमान उनकी बानियों के ‘सहज की अंग’ अंश के आधार पर भली-भाँति लगाया जा सकता है।
डॉ. त्रिगुणायत ने नाथ-पंथियों के प्रभाव को (कबीर की विचारधारा) सन्त कवियों पर चार रूप में दर्शाया है- स्वरूप, दार्शनिक सिद्धान्त, साधना पद्धति और भाषा अभिव्यक्ति ।
जहाँ तक स्वरूप का प्रश्न है- कबीर आदि के कितने ही पदों पर साखियों में योगी का जो स्वरूप वर्णित है, वह नाथ-योगियों का ही रूप है
मन में आसण मन में रहना, मन का जप-तप-मनसू कहना।
मन में खपरा मन में सींगी, अनहद नाद बजावैं रंगी ।।
दार्शनिक सिद्धान्त की स्थिति में भी कबीर आदि उनसे प्रभावित हैं।
गोरख ने कहा है-
वसति न सून्यं सून्यं न वसति, आगम अगोचर ऐसा।
गगन शिखर में बालक बोलै, ताका नाव धरउगे कैसा ।।
तो कबीर कहते हैं-
सरीर सरोवर भीतर, आछे कमल अनूप।
परम ज्योति पुरुषौत्तम, जाके देह न रूप ॥
साधना पद्धति के क्षेत्र में साम्य इस प्रकार देखा जा सकता है-
(1) गगन मण्डल में औधा कुआँ तहँ अमृत का वासा।
सगुरा हो सो अस्झरा पिया, निगुरा जाहि पियासा।
(2) आकते से मुख औंधा कुआँ, पाताले पनिहारि।
ताका पाणी को हंसा पियै, बिरला आदि विचार ॥
(कबीर)
उपसंहार – इस काव्य का भले ही शुक्ल जी ने साहित्यिक महत्व स्वीकार न किया हो, परन्तु उससे सन्त काव्य को प्रभावित किया है। सच तो यह है कि सन्त कवियों ने जिस विचारधारा तथा काव्य-रचना को अपनाया, वह आदिकाल के बौद्ध सिद्धों तथा नाथों की परम्परा का ही विकसित रूप था। आचार्य शुक्ल भी इस प्रभाव को इस रूप में स्वीकार करते हैं-“कबीर आदि सन्तों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले, उसी प्रकार साखी और बानी के लिये बहुत सामग्री और साधुक्कड़ी भाषा भी।” यह तथ्य हिन्दी काव्य के विकास क्रम में इनको ऐतिहासिक महत्व प्रदान करता है।
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