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पाठ्यपुस्तक विधि
पाठ्य-पुस्तक विधि के अन्तर्गत छात्र पुस्तक पढ़कर ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस विधि को प्रायः दो रूपों में प्रयुक्त किया जाता है, प्रथम रूप के अन्तर्गत अध्यापक पुस्तक को कक्षा में स्वयं पढ़ता है तथा दूसरे रूप के अन्तर्गत पुस्तक को छात्रों द्वारा पढ़वाया जाता है। इन दोनों ही रूपों के अन्तर्गत पठन के मध्य अथवा उसके उपरान्त विशिष्ट कठिनाइयों का निवारण भी अध्यापक द्वारा किया जाता है तथा इस प्रकार इन दोनों ही रूपों द्वारा छात्रों के ज्ञान में वृद्धि की जाती है। पाठ्य पुस्तक का व्यावहारिक व मनोवैज्ञानिक दोनों ही दृष्टिकोणों से अत्यन्त महत्व है, क्योंकि यदि छात्र पुस्तकों के माध्यम से अध्ययन करना नहीं सीखेंगे तो न तो उनके मस्तिष्क में ज्ञान स्थायी रूप ले सकेगा और न ही पुस्तकें उनके लिये अर्थपूर्ण सिद्ध हो सकेंगी। अतः यह आवश्यक है कि अध्यापकों के द्वारा पाठ्य पुस्तकों का यथा-सम्भव प्रयोग किया जाय, जिससे कि छात्र कक्षा में एवं अपने घर पर पुस्तकों का वांछित उपयोग करना सीख जाये। वस्तुतः पाठ्य पुस्तक विधि अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विधि है। यह एक स्वतन्त्र शिक्षण विधि होने के स्थान पर वह विधि है, जिसका प्रयोग प्रायः अधिकांश शिक्षण विधियों की सफलता हेतु किया जा सकता है। परम्परागत एवं नवीन दोनों ही प्रकार की विधियों में पाठ्य-पुस्तक विधि का प्रयोग एक सहायक विधि के रूप में किया जा सकता है, तथा छात्रों को सफलतापूर्वक ज्ञान प्राप्त कराया जा सकता है। पाठ्य पुस्तक विधि के अनेक उपयोग हैं, जिनमें से कतिपय उपयोग निम्नलिखित हैं-
1. इस विधि के द्वारा कक्षा अध्यापक छात्रों से पुस्तक को बारी-बारी से पढ़वा कर अधिकाधिक छात्रों को पाठ के विकास में सहयोग प्रदान करने हेतु प्रेरित कर सकता है तथा पठन के मध्य छात्रों से प्रश्न पूछकर उन्हें पाठ के प्रति सजग एवं सचेत बनाये रख सकता है।
2. पाठ्य पुस्तक में निहित अनुभवों की स्मृति स्तर पर आवृत्ति के कारण छात्रों की भाषा-शैली का भी विकास होता है, जिसका प्रभाव उनकी लिखित अभिलेख पर भी किसी न किसी रूप में पड़ता है।
3. पाठ्य पुस्तक में निहित ज्ञान को रटने, समझने तथा ज्ञान को समझकर उसे अपनी भाषा में अभिव्यक्त करने हेतु में छात्रों को पाठ्य-पुस्तक विधि के द्वारा विशेष सहायता प्राप्त होती है।
4. पाठ्य पुस्तक के किसी पाठ की रूपरेखा बनाने अथवा सारांश लिखने हेतु छात्रों को कहा जा सकता है तथा उस रूपरेखा एवं सारांश के आधार पर कक्षा में वाद-विवाद, समस्या समाधान प्रश्नोत्तर आदि के द्वारा छात्रों को वांछित ज्ञान प्राप्त करने में सहायता प्रदान की जा सकती है।
5. पाठ्य पुस्तक के आधार पर छात्रों के भिन्न-भिन्न कार्यों का निर्धारण भी किया जा सकता है, जिसके आधार पर छात्र स्वक्रिया अथवा स्वअनुभव के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने के पक्ष में हो जाते हैं तथा सहायक साधनों, पाठ से सम्बन्धित पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकालय आदि का उपयोग करना सीख जाते हैं।
6. विशेषकर छोटी कक्षाओं में पाठ्य पुस्तक का उपयोग छात्र हेतु निर्धारित पाठ को घर से कण्ठस्थ करने हेतु किया जा सकता है तथा कण्ठस्थ ज्ञान को मौखिक रूप से सुनकर उनकी स्मृति की परीक्षा ली जा सकती है।
पाठ्य पुस्तक विधि हेतु सावधानियाँ
1. पुस्तक पठन के समय शब्द शुद्धियों की भी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिये।
2. कक्षा में पुस्तक पठन का कार्य नीरसतापूर्वक अथवा प्रभावविहिनतायुक्त नहीं होना चाहिये।
3. बालकों में आदर्श अनुकरण वाचन हेतु स्वमेव अध्यापक को भी आदर्श वाचन में निपुण होना चाहिये।
4. प्राथमिक स्तर पर केवल छोटी-छोटी कहानियों का ही पठन कराया जाना चाहिये।
5. पाठ्य पुस्तक में निहित पाठ्यवस्तु बालकों की रुचि एवं स्तर के अनुकूल होनी चाहिये।
6. छात्रों द्वारा पढ़ी जाने वाली पाठ्यवस्तु का ज्ञान शिक्षक को पुस्तक पठन के पूर्व ही होना आवश्यक है।
पाठ्य-पुस्तक विधि के गुण
यद्यपि पाठ्य पुस्तक विधि स्वमेव एक पूर्ण विधि नहीं है तथा अनेक दोषों से युक्त भी है, फिर भी इस विधि का छात्रों के विकास में विशेष महत्त्व है। विशेषकर प्राथमिक कक्षाओं में इस विधि के अभाव में शिक्षण कार्य अत्यन्त दुष्कर है, क्योंकि प्रारम्भ में विभिन्न शब्दों, वाक्यों के गठन आदि का ज्ञान छात्रों को पाठ को निरन्तर आवृत्ति से ही प्राप्त होता है। उच्च कक्षाओं के छात्र आगे चलकर इस विधि के माध्यम से स्वयं ही ज्ञानार्जन करना सीख जाते हैं। योकम व सिम्पसन के शब्दों में भी – “बालक पहले पढ़ना सीखता है और फिर सीखने के लिये पड़ता है।”
विशेषकर साहित्य एवं सामाजिक विषय से सम्बन्धित विषयों में इस विधि का सर्वाधिक महत्व है। संक्षेप में इस विधि के गुणों का निम्नलिखित पंक्तियों में उल्लेख किया गया है-
1. इसके द्वारा छात्रों की भाषा-शैली का विकास होता है।
2. मौखिक एवं लिखित रूप में अपने विचारों को प्रस्तुत करने की क्षमता छात्रों में विकसित हो जाती है।
3. इस विधि के आधार पर छात्रों को पाठ से सम्बन्धित अन्य पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं आदि के अध्ययन की भी प्रेरणा प्राप्त होती है।
4. छात्र क्रमबद्ध रूप में ज्ञान को ग्रहण करना सीखते हैं।
5. पाठ्य पुस्तक विधि के द्वारा छात्रों की स्मरण शक्ति का विशेष रूप से विकास होता है।
6. इस विधि के आधार पर ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ छात्रों की परीक्षा भी ली जा सकती है।
7. धीरे-धीरे छात्र पुस्तक में निहित अनुभवों का अवबोध करने में स्वयं दक्ष हो जाते हैं।
8. मनोवैज्ञानिक दृष्टि से छात्रों की ध्यान-शक्ति का विकास करने में यह विशेष रूप से सहायक है।
9. छात्र स्वयं क्रियाशील होकर ज्ञान प्राप्त करना सीखते हैं।
पाठ्य पुस्तक विधि के दोष
1. कक्षा का वातावरण इसके द्वारा विशेष रुचिपूर्ण अथवा सरस नहीं बन पाता।
2. इसके द्वारा छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास में विशेष सहायता प्राप्त नहीं होती।
3. छात्र तर्क आदि के आधार पर पाठ्यवस्तु को ग्रहण करने की अपेक्षा उसे यथानुरूप रखने का ही अभ्यास विकसित कर लेते हैं।
4. पूर्व एवं नवीन ज्ञान का सम्बन्ध इस विधि के द्वारा सम्भव नहीं हो पाता।
5. इस विधि में शिक्षण के प्रमुख सूत्रों यथा—ज्ञात से अज्ञात की ओर सरल से कठिन की ओर आदि का पर्याप्त ध्यान नहीं रखा जाता है।
6. छात्रों में पाठ्य पुस्तक को समझने की अपेक्षा रटने की प्रवृत्ति का अधिक विकास होता है।
7. छात्रों के पूर्व ज्ञान की आवृत्ति अथवा उसके प्रयोग का अवसर छात्रों को प्राप्त नहीं होता।
8. यह पद्धति शिक्षा के अनेक मूल सिद्धान्तों की अवहेलना करती है।
9. यह विधि बालकों में निष्क्रियता अधिक विकसित करती है।
10. बालकों की रुचियों, मनोवृत्तियों, स्तर आदि पर आधारित न होने के कारण, यह विधि पूर्णतया अमनोवैज्ञानिक है।
11. शिक्षण की नवीन विधियों की इसके द्वारा पर्याप्त उपेक्षा की जाती है।
12. इस विधि के द्वारा छात्रों को स्थायी ज्ञान प्राप्त नहीं होता।
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