राजनीति विज्ञान / Political Science

राज्यपाल की शक्तियाँ और कार्य | राज्यपाल की वास्तविक स्थिति

राज्यपाल की शक्तियाँ और कार्य
राज्यपाल की शक्तियाँ और कार्य

राज्य का राज्यपाल (Governor of the State)

भारत जैसे विशाल देश में राज्यों की सरकारों को चलाने के लिये यह उचित ही है कि प्रत्येक राज्य का मुखिया (गवर्नर) केन्द्रीय सरकार द्वारा नियुक्त किया जाये, ताकि देश की अखण्डता को कायम रखने के लिये जिस नीति को केन्द्रीय सरकार अपनाये, उसको राज्यों में केन्द्र के प्रतिनिधि गवर्नर द्वारा अच्छी तरह पालन करवा सके। इसी दृष्टिकोण को लेकर भारतीय संविधान में राज्य की इकाई का प्रमुख राज्यपाल कहलाता है। संविधान के अनुसार राज्य की समस्त कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित की गयी है, जिसका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों के द्वारा कर सकेगा। राज्यपाल की स्थिति संसदीय सरकार की परम्परा के अनुसार एक संवैधानिक अध्यक्ष (Constitutional Head) की है। राज्यपाल की स्थिति राज्य की कार्यपालिका में वही है, जो केन्द्रीय कार्यपालिका में राष्ट्रपति की है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 के अनुसार, प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा। राष्ट्रपति की भाँति राज्यपाल भी राज्य का वैधानिक अध्यक्ष होता है। राज्य के समस्त कार्य उसी के नाम से होते हैं। राज्य की समस्त कार्यकारिणी शक्ति उसके पद में निहित है। जिस प्रकार संघ का राष्ट्रपति स्वयं या अपने अधीनस्थ कर्मचारियों द्वरा संघ का शासन कार्य संचालित करता है, उसी प्रकार राज्यपाल भी संविधान के अधीन रहकर स्वयं या अपने अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा कार्यकारिणी की शक्तियों का उपयोग करता है। संविधान के अनुच्छेद 154 में स्पष्ट रूप से उपबन्धित कर दिया गया है कि राज्य की समस्त कार्यकारिणी शक्तियाँ उस राज्य के राज्यपाल में निहित होंगी। किन्तु इन शक्तियों के प्रयोग में वह संविधान के अधीन होगा। 

(1) राज्यपाल की नियुक्ति

संविधान के प्रारूप (Draft) में राज्यपाल का जनता द्वारा निर्वाचित होने का प्रावधान था। इस प्रश्न पर संविधान सभा में बहुत वाद-विवाद हुआ और अन्त में यह निश्चय हुआ कि राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किया जायेगा।

(2) योग्यताएँ

संविधान के अनुच्छेद 157 में राज्यपाल के पद के लिये निम्नलिखित योग्यताएँ उपबन्धित की गयी हैं-

(i) वह भारत का नागरिक हो।

(ii) वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो ।

(iii) वह भारतीय संघ व उसके अन्तर्गत किसी राज्य के विधान-मण्डल या सदन का सदस्य न हो। यदि वह नियुक्ति के समय इस प्रकार किसी विधान-मण्डल या सदन का सदस्य हो तो उसके पद ग्रहण करने की तिथि से वह स्थान रिक्त समझा जायेगा।

(iv) राज्यपाल कोई अन्य लाभ का पद धारण न करेगा।

(3) कार्यकाल

संविधान के अनुच्छेद 156 में राज्यपाल की पदावधि का उपबन्ध दिया गया है। इस अनुच्छेद के अनुसार, राज्यपाल का कार्यकाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त तक होता है। संविधान द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति 5 वर्षों के लिये होती है, परन्तु इससे पूर्व भी राज्यपाल स्वयं भी राष्ट्रपति को सम्बोधित करके अपना त्याग-पत्र दे सकता है। अपना कार्यकाल समाप्त होने पर भी वह तब तक अपने पद पर बना रहेगा, जब तक कि उसके उत्तराधिकारी की नियुक्ति नहीं हो जाती।

(4) विमुक्तियाँ

संविधान के अनुसार, राज्यपाल को भी कुछ विमुक्तियाँ प्राप्त हैं। अपने कर्त्तव्य व शक्तियों का प्रयोग करते हुए वह जो भी कार्य करे, उसके लिये उसे किसी न्यायालय के सम्मुख पेश नहीं किया जायेगा, यद्यपि शासन के समस्त कार्य राज्यपाल के नाम से किये जाते हैं पर वह उन कार्यों के लिये व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी नहीं है। कोई भी व्यक्ति सरकार के विरुद्ध मुकदमा चला सकता है, पर व्यक्तिगत रूप से राज्यपाल के विरुद्ध नहीं। इसके अतिरिक्त राज्यपाल के विरुद्ध न तो कोई फौजदारी का मुकदमा चलाया जा सकता है न कोई अदालत उसकी गिरफ्तारी के लिये कार्यवाही कर सकती है। यदि किसी व्यक्ति को राज्यपाल के विरुद्ध दीवानी मुकदमा करना हो तो उसे दो माह का नोटिस राज्यपाल को देना पड़ेगा और इस नोटिस में मामले का पूरा-पूरा विवरण देना पड़ता है।

राज्यपाल की शपथ

राज्यपाल को अपना पद ग्रहण करने से पूर्व राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के सम्मुख निम्नलिखित शपथ लेनी पड़ती है- “मैं ईश्वर की शपथ लेता हूँ/या सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं श्रद्धापूर्वक (राज्य का नाम) के राज्यपाल का कार्यपालन करूँगा तथा अपनी पूरी योग्यता से संविधान और विधि का परीक्षण और प्रतिरक्षण करूँगा और मैं (राज्य का नाम) की सेवा और कल्याण में निरत रहूँगा।”

राज्यपाल का वेतन तथा भत्ता

राज्यपाल के वेतन, भत्ते आदि के निर्णय करने का अधिकार भारतीय संसद को प्राप्त है। अगस्त, 1998 में संसद द्वारा पारित अधिनियम के अनुसार राज्यपाल को 36,000 रुपये मासिक वेतन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त, उसे निःशुल्क निवास स्थान, भत्ते व अन्य सुविधाएँ प्राप्त होंगी। वेतन तथा भत्ते में उसके कार्यवाल में कोई कमी नहीं की जा सकती है।

राज्यपाल की शक्तियाँ (Powers of Governor)

संविधान के द्वारा राज्यपाल को पर्याप्त व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गयी हैं। राज्यों में राज्यपाल की वही स्थिति है, जो राष्ट्रपति की केन्द्र में। अतः दोनों की शक्तियों में कुछ क्षेत्रों को छोड़कर बहुत समानता है। श्री दुर्गादास बसु के शब्दों में, “राज्यपाल की शक्तियाँ राष्ट्रपति के समान हैं, सिर्फ कूटनीतिक, सैनिक तथा संकटकालीन अधिकारों को छोड़कर।” राज्यपाल की शक्तियों का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है-

(1) कार्यपालिका शक्तियाँ

राज्य की कार्यपालिका शक्तियाँ राज्यपाल में निहित हैं जिन्हें यह स्वयं या अधीनस्थ पदाधिकारियों द्वारा सम्पादित करता है। वह मुख्यमन्त्री की नियुक्ति करता है तथा उसके परामर्श पर अन्य मन्त्रियों की। वह महाधिवक्ता, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा इसके सदस्यों की नियुक्ति करता है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के सम्बन्ध में उससे परामर्श लिया जाता है। राज्यपाल की कार्यपालिका शक्तियाँ राज्य सूची में उल्लिखित विषयों से सम्बन्धित हैं। समवर्ती सूची के विषयों पर राष्ट्रपति की स्वीकृति के अन्तर्गत वह अपने अधिकार का प्रयोग करता है। राज्य सरकार के कार्य के सम्बन्ध में वह नियमों का निर्माण करता है। वह मन्त्रियों के बीच कार्यों का वितरण भी करता है। उसे मुख्यमन्त्री से किसी भी प्रकार की सूचना माँगने का अधिकार है।

(2) विधायी शक्तियाँ

राज्यपाल राज्य की व्यवस्थापिका का एक अविभाज्य अंग होता है। वह व्यवस्थापिका के अधिवेशन बुलाता है और स्थगित करता है और वह व्यवस्थापिका के निम्न सदन को विघटित भी कर सकता है। महानिर्वाचन के बाद विधानमण्डल की पहली बैठक में वह एक या दोनों सदनों को सम्बोधित करता है। इसके अतिरिक्त भी वह विधानमण्डल के एक या दोनों सदनों को किसी विधेयक के सम्बन्ध में सन्देश भेज सकता है।

राज्य विधानमण्डल द्वरा पारित विधेयक पर उसकी स्वीकृति आवश्यक है। वह विधेयक को अस्वीकृत कर सकता या उसे पुनर्विचार के लिये विधानमण्डल को लौटा सकता है। अगर विधानमण्डल दूसरी बार विधेयक पारित कर देता है तो राज्यपाल को स्वीकृति देनी ही होगी। वह कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये भी सुरक्षित रख सकता है।

राज्यपाल आवश्यकता पड़ने पर विधानमण्डल की बैठक के बीच की अवधि में अध्यादेश जारी कर सकता है। वह राज्य विधान परिषद् के सदस्यों को ऐसे लोगों में से नामजद करता है जिन्हें साहित्य, कला, विज्ञान, सहकारिता आन्दोलन तथा समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष तथा व्यावहारिक ज्ञान हो ।

(3) वित्तीय शक्तियाँ

राज्यपाल को कुछ वित्तीय शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। राज्य विधानसभा में राज्यपाल की पूर्व स्वीकृति के बिना कोई भी धन विधेयक प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। वह व्यवस्थापिका के समक्ष प्रतिवर्ष बजट प्रस्तुत करता है तथा उसकी सिफारिश के बिना किसी भी अनुदान की माँग नहीं की जा सकती है। राज्यपाल विधानमण्डल से पूरक, अतिरिक्त तथा अधिक अनुदान की भी माँग कर सकता है। राज्य की संचित निधि राज्यपाल के ही अधिकार में रहती है तथा विधानमण्डल में स्वीकृति की अपेक्षा में वह इस निधि से किसी प्रकार के व्यय की अनुमति दे सकता है।

(4) न्यायिक शक्तियाँ

संविधान के अनुच्छेद 161 के अनुसार, जिन विषयों पर राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार होता है। उन विषयों सम्बन्धी किसी विधि के विरुद्ध अपराध करने वाले व्यक्तियों के दण्ड को राज्यपाल कम कर सकता है, स्थगित कर सकता है, बदल सकता है तथा क्षमा भी कर सकता है।

(5) विविध शक्तियाँ

उपर्युक्त के अतिरिक्त राज्यपाल को अन्य अनेक शक्तियाँ भी प्राप्त हैं-

(i) वह राज्य लोकसेवा आयोग का वार्षिक प्रतिवेदन और राज्य की आय-व्यय के सम्बन्ध में महालेखा परीक्षक का प्रतिवेदन प्राप्त करता है।

(ii) यदि राज्य का प्रशासन, संविधान के अनुसार चलना सम्भव नहीं है तो वह राष्ट्रपति के को राज्य में संवैधानिक यन्त्र की विफलता के सम्बन्ध में सूचना देता है और उसके प्रतिवेदन पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होता है। संकटकालीन स्थिति में वह राज्य के अन्दर राष्ट्रपति के अभिकर्त्ता के रूप में कार्य करता है।

(iii) संविधान के द्वारा किन्हीं राज्यों के राज्यपालों को कुछ विशेष कार्यों के सम्बन्ध में स्व-विवेकीय शक्तियाँ भी प्रदान की गयी हैं।

राज्यपाल की वास्तविक स्थिति (Real Position of Governor)

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि राज्यपाल का पद संविधान ने विशेष अधिकारों से सुशोभित किया है परन्तु व्यावहारिक रूप में उसकी सबै शक्तियों का प्रयोग मन्त्रिपरिषद् करती । राज्यपाल तो केवल राज्य का संवैधानिक अध्यक्ष है। मध्य प्रदेश के भूतपूर्व राज्यपाल डॉ. पट्टाभि सीतारमैय्या ने कहा था, “राज्यपाल का कार्य आगन्तुकों व आमन्त्रित व्यक्तियों का स्वागत करने, उनको चाय, भोजन और दावत देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।”

श्री जी. एन. जोशी के अनुसार, “As regards the powers, privileges and functions of the Governor they are similar to those of the king in the United Kingdom.”

राष्ट्रपति की भाँति वह मुख्यमन्त्री व अन्य मन्त्रियों की नियुक्ति में स्वतन्त्र नहीं है। विधानसभा के बहुमत दल के नेता को उसे मुख्यमन्त्री नियुक्त करना होगा। वह अपनी मन्त्रिपरिषद् से परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है। यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप न दिया जा सकेगा। उसकी स्थिति को कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने एक मुकदमे में अपना निर्णय देते हुए स्पष्ट किया था, “वर्तमान संविधान में राज्यपाल मन्त्रियों के परामर्श से ही कार्य करेंगे।” भारत सरकार अधिनियम 1935 के अनुसार, “राज्यपाल की स्थिति भिन्न थी। उस समय राज्यपाल कुछ कार्य अपने विवेक से कर सकता था अर्थात् मन्त्रियों के परामर्श के बिना भी कार्य कर सकता था। कुछ कार्य वह अपने व्यक्तिगत निर्णय से करता था अर्थात् वह मन्त्रियों का परामर्श तो लेता था परन्तु उसको मानने के लिए बाध्य न था। भारत के वर्तमान संविधान में राज्यपाल से स्त्र – विवेक की शक्तियाँ व व्यक्तिगत निर्णय की शक्तियाँ छीन ली गयी हैं। राज्यपाल को अवश्य ही मन्त्रियों के परामर्श के अनुसार ही कार्य करना चाहिए।” महाराष्ट्र के भूतपूर्व स्वर्गीय राज्यपाल श्री प्रकाश ने कहा था, “मुझे पूरा विश्वास है कि संवैधानिक राज्यपाल होने के अलावा मुझे कुछ नहीं करना होगा। “

परन्तु राज्यपाल को पूर्ण रूप से शक्तिहीन नहीं कहा जा सकता। वह शासन न करते हुए भी राज्य के विषयों में पर्याप्त प्रभाव रखता है। श्री के. एम. मुंशी के अनुसार, “ऐसा समय आ सकता है कि संकटकाल में मुख्यमन्त्री विभिन्न दलों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में असफल रहें, विशेष रूप से जबकि विधानमण्डल में अनेक दल हों। ऐसे समय में राज्यपाल से मन्त्रियों को बहुत अधिक सहायता मिल सकती है। वे उससे सभी प्रकार की गुप्त सूचना व सलाह प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि उसका सम्पर्क सभी दलों से होता है।” इसके अतिरिक्त जब राज्यपाल स्वयं कोई कार्य नहीं करता और उसे मन्त्रियों के निर्णय को अस्वीकार करने की कोई शक्ति प्राप्त नहीं तो उसका यह नैतिक कर्त्तव्य होगा कि वह महत्त्वपूर्ण विषयों पर मन्त्रिपरिषद् को एक सलाह दे। यह कार्य वह किसी दल के प्रतिनिधि के रूप में नहीं वरन् सम्पूर्ण जनता के प्रतिनिधि के रूप में करता है। श्री बी. जी. खरे ने संविधान सभा में कहा था, “एक अच्छा राज्यपाल बहुत लाभ पहुँचा सकता है और एक बुरा राज्यपाल दुष्टता भी कर सकता है, यद्यपि संविधान ने उसको बहुत कम शक्ति दी है। “

राज्यपाल की स्थिति का मूल्यांकन करने पर यह कहा जा सकता है कि राज्यपाल की भूमिका में उस समय विशेष अन्तर आ जाता है जब केन्द्र व राज्य में विरोधी दल की सरकार हो। यदि राज्य विधानसभा में किसी दल का स्थायी व स्पष्ट बहुमत नहीं है तब भी राज्यपाल है की विवेक शक्तियों द्वारा उसका पद संवैधानिक अध्यक्ष का नहीं होता। वह कार्यपालिका का वास्तविक अध्यक्ष बन जाता है। टी. के. टोपे का मत है कि “ऐसी स्थिति में यदि राज्यपाल को राष्ट्रपति का समर्थन प्राप्त हो जाये तो वह संवैधानिक मुखिया होने के स्थान पर राज्य का वास्तविक शासक बन जायेगा। प्रायः साधारण राजनीतिक स्थिति में राज्यपाल केवल एक संवैधानिक अध्यक्ष ही होता है।”

एच. वी. कामथ ने राज्यपाल की दयनीय स्थिति का चित्रण करते हुए लिखा है कि “राज्यपाल एक ओर मुख्यमन्त्री व दूसरी और राष्ट्रपति तथा प्रधानमन्त्री के हाथों की कठपुतली से बढ़कर कुछ नहीं है।”

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Anjali Yadav

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