रामचरितमानस के उत्तरकांड के कथ्य की मीमांसा कीजिए और बताइए कि इसमें कवि ने किन-किन वर्णनों का सहारा लेकर अपना मन्तव्य प्रकट किया है।
‘रामचरितमानस’ भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। यह वह काव्य है जिसमें कवि तुलसी ने अपने आदर्शवादी, है मर्यादावादी और धर्म-नीति समन्वित विचारों को प्रस्तुत किया है। ‘बालकांड’ यदि मानस का प्रारम्भिक सोपान है तो ‘उत्तरकांड’ उसका अंतिम या समापन सोपान है। इसे हम ‘मानस का उपसंहार’ भी कह सकते हैं। इसमें कवि ने भरत मिलाप, राम राज्य, गरूड-मोह, भुशण्डी मोह, ज्ञान- भक्ति और कलियुग आदि का वर्णन करके अपने काव्य को पुराणों की परम्परा में प्रस्तावित किया है। अन्तर यही है कि पुराणों में यह वर्णन भविष्य के संकेत के रूप में मिलता है जबकि गोस्वामीजी ने इसे वर्तमान काल के रूप में लिखा है। इस प्रकार उत्तरकांड में हमें राम कथा से भिन्न तुलसी के कतिपय थे विचार भी मिलते हैं जो भारतीय संस्कृति के उज्जवलतम अंग हैं और जिनका निरूपण कवि ने इस महाकाव्य को अधिकाधिक लोकप्रिय और लोकोपकारक बनाने के लिये किया है।’
कथा में आये वर्णन- उत्तरकांड अपेक्षाकृत छोटा कांड है। किन्तु महत्ता और गहराई की दृष्टि से वह अत्यंत विस्तृत कांड हैं। इसमें न केवल राम कथा का उपसंहार है, अपितु इसमें कतिपय वर्णन अत्यंत प्रमुख होकर आये हैं। ऐसे प्रमुख वर्णनों में राम का अयोध्या प्रत्यावर्तन, भरत मिलाप, राम का राज्याभिषेक, सुमीव, विभीषण और अंगद आदि का परिचय और विदाई, राम का प्रताप, संत असंत के लक्ष्मण, राम का नगरवासियों को दिया गया उपदेश, वशिष्ट और राम का मिलन, राम कथा को महिमा और महत्ता, काकभुशंडी का चरित्र, गरूड़-मोह काकभुशंडी गरूड़ संवाद, हरिमाया राम काकभुशंडी की वार्ता, कलियुग धर्म ज्ञान, महिमा, भक्ति-चिन्तामणि का महत्त्व, ज्ञान और भक्ति का अंतर, मानस-रोग और राम-भक्ति की महत्ता आदि वर्णन बड़ी कुशल शैली में अभिव्यक्त हुए हैं। इन सभी प्रसंगों के सम्बन्ध में डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना की यह टिप्पणी अत्यंत मूल्यवान और सही निष्कर्ष की द्योतक है। उन्होंने लिखा है, “इन सभी प्रसंगों में भारतीय संस्कृति के उज्जवल भाव-रत्नों की माला भी विद्यमान है, और मानव कल्याण हेतु उन बातों का निरूपण हुआ है जिनको अपनाकर दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से पीड़ित मानव ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। तुलसी ने ‘उत्तरकांड’ में प्रायः उन सभी प्रश्नों को भी स्थान दिया है जो प्रायः आज के सांसारिक कष्टों में फँसे हुये मानवों के हृदय में उठा करते हैं। यहाँ गरुड़जी ने इन्हीं प्रश्नों के मध्य यह भी प्रश्न किया है कि ज्ञान और भक्ति में क्या अंतर है ? इसका उत्तर देकर काकभुशंडी जी ने सभी मानवों के लिए राम भक्ति की महत्ता का प्रतिपादन किया है जो गोस्वामी तुलसीदास का अपना प्रतिपाद्य विषय है और जिसके प्रचार और प्रसार के लिये आपने रामचरितमानस का प्रणयन किया है। अतएव उत्तरकांड में तुलसी ने उन प्रसंगों को चुना है जिनके माध्यम से वे यह बताना चाहते हैं कि शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेव जी, सनक, सनदेवनंद सनतकुमार, सनातन और नारद आदि जो मुनि ब्रह्म तत्व के विचार में परम चतुर हैं उन सबका मत यही है कि श्रीराम के चरण-कमल में भक्ति होनी चाहिये।”
उत्तरकांड का कथ्य- विचार, दर्शन और सामाजिक आदशों की स्थापना की दृष्टि से ही नहीं भक्ति ज्ञान संत असत, साधु-असाधु और आदर्श समाज व राज्य की परिकल्पना की दृष्टि से भी उत्तरकांड का विशेष मूल्य है। तुलसी ने राम के राज्य और समाज का वर्णन करने के बहाने आदर्श राज्य और समाज विषयक अपनी मान्यता को प्रस्तुत किया है। उन्होंने संत-असंत के लक्षण बताते हुये यह प्रतिपादित किया है कि संतों का सम्पर्क जीवन-निर्माण में सहायक होता है और असंतों का साधन केवल दुखदाई होता है, अपितु जीवन को विध्वंसा की ओर ले जाता है। ज्ञान और भक्ति का विवेचन मोक्ष के निमित्त किया गया है। तुलसी का मत भक्ति के पक्ष में है क्योंकि ज्ञान का मार्ग कठिन है और भक्ति का सुगम और मधुर है। ‘उत्तरकाड’ ही वह कांड है जिसमें तुलसी के दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति मिलती है। ब्रह्म, जीव, जगत्, माया और मोक्ष विषयक विचारों की स्पष्ट अभिव्यंजना उत्तरकांड का प्रमुख और प्रभावी कथ्य है। इसी कांड में तुलसी ने कलयुग का वर्णन भी किया है जो इस बात का प्रतीक है कि तुलसी के समय में समाज की क्या स्थिति थी और उस स्थिति के प्रति कवि का दृष्टिकोण क्या रहा है ? वस्तुतः तुलसीदास ने उत्तरकांड के द्वारा जहाँ अनेक सामाजिक और साधनपरक समस्याओं का समाधान किया है है वहीं तत्कालीन धर्म, दर्शन और समाज का लेखा-जोखा भी किया है। अतः उत्तरकांड के कथ्य को समझने के लिये इन्हीं सब शीर्षकों का सहारा लिया जा सकता है- (1) राम-राज्य-निरूपण, (2) संत असंत लक्षण, (3) ज्ञान-निरूपण, (4) भक्ति निरूपण, (5) दार्शनिक विचारधारा, (6) समाज निरूपण ।
1. रामराज्यनिरूपण- उत्तरकांड में जिस राम राज्य का निरूपण हुआ है वह गाँधी जी के आदर्श राज्य से मेल खाता है। तुलसी ने प्रतिपादित किया है कि राम का राज्य आदर्श राज्य था। राम के राज्य-संभालते ही तीनों लोकों में प्रेम और आनन्द का संचार हो गया था और सभी सांसारिक दुःख दूर हो जाते हैं। रामराज्य के सभी मनुष्य राम भक्त, वर्णाश्रम धर्मानुयायी, वेद नीतिपालक तथा एक पत्नी व्रत है। सभी स्त्रियाँ पूर्ण धार्मिक और पतिव्रता हैं। जड़-चेतन सभी सुखी हैं। “दैहिक, दैविक, भौतिक तापा रामराज्य काहिं नहि व्यापा” चौपाई राम-राज्य की कल्पना और स्थिति को स्पष्ट करती है। राम-राज्य की स्थिति का स्वरूप इन पंक्तियों में देखा जा सकता है
सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति ।।
राम भगति रत नर अरू नारी, सकल परम गति के अधिकारी ।।
नहि दरिद्र कोउ दुःखी न दीना। नहि कोट अबुध न लच्छन हीना ।।
सब गुणज्ञ सब पंडित ज्ञानी सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी ।।
फूलहि फरहिं सदा तरू कानन रहहि संग गज आ पंचानन ।।
लता विपट माँगे मधु चवही मन माघ तो धेनु पय सवही ।।
शरा संपन्न सदा रह धरनी। त्रेता भई कृतयुग के करनी ।।
2. संत- असंत के लक्षण- गोस्वामी जी संत थे, सुधारक थे और थे मर्यादावादी। वे एक ऐसे समाज की सृष्टि करने के इच्छुक थे जहाँ सभी लोग वैदिक धर्म के अनुयायी हो और परस्पर प्रीति करते हुए वर्णाश्रम धर्म के पालनकर्ता हो। इसी उद्देश्य से तुलसी ने संतों और असंतों के लक्षणों का वर्णन किया है और यह संदेश दिया है कि मनुष्य को चाहिये कि वे सज्जन पुरुषों के साथ रहें और सज्जन बनने का प्रयास करें। उन्होंने सज्जनों की प्रशंसा की है और असंतों की निन्दा की है। उन्होंने कहा है कि संत और असंत में क्रमशः चन्दन और कुल्हाड़ी का सा अन्तर है। संतों के लक्षण बताते हुये तुलसी ने लिखा है-
संत असंतन के अस करनी। जिमि कुठार चंदन आचरती ।।
काटे परशु मलय सुन माई। निज गुन देइ सुगन्ध बसाई ॥
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग-वल्लभ श्रीखण्ड
अनल दाहि पीटत घनहि परशु वदन यह दण्ड ।।
असंतों की चर्चा भी तुलसी ने की है। असंतों के स्वभाव की चर्चा करते हुये कवि शिरोमणि तुलसी ने लिखा है-
खलन्ह हृदय अति ताप विशेषी। जरहिं सदा पर संपत्ति देखी ।
जहँ कहुँ निन्दा सुनहि पराई। हरपहि मनहुँ परी निधि पाई ॥
काम-क्रोध मद लोभ परायन निर्दय कपटी कुटिल मलायन ।
वयरू अकारन सब काहूँ सों। जोकर हित अनहित ताहू सौ ॥
परद्रोह परदाररत परधन पर अपवाद।
ते नर पाँव पापमय, देह धरें मनुजाद ।।
असंतों की स्थिति तो यही होती हैं कि वे यदि किसी को विपत्तिग्रस्त देखते हैं तो ऐसे सुखी होते हैं मानों संसार के राजा बन गये हों। तुलसी ने उत्तरकाण्ड के मध्यम से ऐसे व्यक्तियों से बचने की सलाह दी है।
3. ज्ञान-निरूपण- ‘उत्तरकांड’ में ज्ञान का निरूपण किया गया है। इसके लिये पिछले प्रश्न के ज्ञान निरूपण को पढ़िया।
4. भक्ति-निरूपण- भक्ति को तुलसी ने चारू चिन्तामणि कहा है। इसका विवेचन भी पिछले प्रश्न के उत्तर में हुआ है। अतः पिछले प्रश्न का भक्ति-निरूपण शीर्षक पढ़िये।
5. दर्शन विषयक कथ्य- इसमें तुलसी के दार्शनिक विचार आते हैं।
6. समाज विषयक कथ्य- उत्तरकांड में समाज का चित्रण भी यथार्थ रीति से किया गया है। इस काण्ड में आया कलयुग वर्णन तुलसी के समाज की सही तस्वीर प्रस्तुत करता है। इस निरूपण से कवि ने अपने दो उद्देश्य पूरे किये हैं-
(1) तत्कालीन सामाजिक स्थिति को निरूपित किया है।
(2) तत्कालीन समाज की कुछ छवियाँ आज भी ज्यों की त्यों हैं। तुलसी ने उनसे दूर रहकर जीवन बिताने का मंगलकारी संदेश दिया है।
तुलसीदास ने कलयुग के वर्णन के सहारे तत्कालीन सामाजिक स्थिति का चित्रण किया है। इस वर्णन से तत्कालीन समाज का जो चित्र उभरता है वह न केवल यथार्थ का दिग्दर्शन कराता है, अपितु कवि की उर्वर कल्पना को भी प्रकट करता है। तुलसी ने निरूपित किया है कि उस समय सद्ग्रन्थ लुप्त हो रहे थे, पाखण्डियों ने अनेक नये-नये मार्ग खोज निकाले थे। चारों वर्णों और आश्रमों के धर्म शून्य प्रायः हो गये थे। ब्राह्मण प्रजा के भक्षक बन गये थे। पराये धन को हरने वाले चतुर माने जाते थे और वेदमार्ग का परित्याग करने वाले आचार हीन व्यक्ति ज्ञानी भाने जाते थे। मद्यपान और माँस भक्षण करने वाले व्यक्ति हो सिद्धपुरुष और पूज्य माने जाते थे। प्रायः सभी मनुष्य स्त्रियों के वशीभूत होकर नट के बंदर की तरह नाचते फिरते थे। पर पुरुष के साथ स्त्रियों और पर नारी में अनुरक्ति रखने वालों की कमी नहीं थी। लोभ इतना बढ़ गया था कि कोढ़ी के लिए विप्र और गुरू को मौत के घाट उतार दिया था। इतना ही क्यों तुलसी ने तो यहाँ तक लिखा है कि “नारि मुई गृह संपत्ति नासी मूँड मुड़ाइ भये सन्यासी” की स्थिति में समाज पहुँच गया था।
समाज से वैराग्य भावना विलुप्त हो गई थी। सर्वत्र कपट, दम्भ, द्वेष, पाखण्ड, मान, मोह, काम औद मद की भावना व्याप्त थी। मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तापसी वृत्ति से करते थे। त्रियों की स्थिति भी धर्म शून्यता और संस्कृति शुन्यता की ओर बढ़ रही थी।
अवला कच भूषन भूरि-धा धनहीत गता समता-विगता ।।
संतोष, धैर्य, शीतल और सात्विक विचारधारा विलुप्त होती जा रही थी। ईर्ष्या, कठोर और कटु वचन और लालच सर्वत्र भर गया था और समता विधायक मूल्य समाप्त होते जा रहे थे। इस प्रकार कलियुग पापों, अवगुणों, दुराचारों और असत् वृत्तियों का घर बन गया था।
निष्कर्ष- उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि ‘मानस’ का ‘उत्तरकांड प्रतिपाद्य या कथ्य की दृष्टि से पर्याप्त और सफल कांड है। इसमें जीवन, समाज, संस्कृति, ज्ञान, भक्ति, दर्शन और संत- असंत के लक्षणों की चर्चा काव्यात्मक शैली में की गई है। सममतः यह कांड भक्ति भावना के प्रसार, आदशों की स्थापना, दर्शन के विवेचन और सामाजिक व सांस्कृतिक आदशों, प्रतिमानों और मूल्यों की स्थापना पर बल देता है। इस कांड का मूल्य, संस्कृति, भक्ति और दर्शन की दृष्टि से जितना है, उतना ही काव्य कला की दृष्टि से भी है।
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