रामचरितमानस के बालकांड का परिचय देते हुए, बालकाण्ड का साराँश अपने शब्दों में लिखिए।
महाकवि गोस्वामीजी तुलसीदास कृत ‘रामचरितमानस’ ‘यथा नाम तथा गुण’ की उक्ति को चरितार्थ करता है। रामचरित को आधार बनाकर रचा गया यह प्रन्थ, विद्या की दृष्टि से चरितकाव्य (महाकाव्य) है जिसको ‘पुराण-काव्य’ भी कहा गया है। कहीं-कहीं चौपाई छंद की प्रधानता के कारण इसको ‘चौपाई रामायण’ और बोलचाल में ‘रामायण’ भी कहा गया है।
जहाँ तक प्रश्न है- ‘मानस’ के रचना-काल का, स्वयं कवि ने इसके श्रीगणेश के विषय में कहा है-
“संवत् सोलह सौ इकत्तीसा। करहुँ कथा हरिपद धरि सीसा।
नौमी भौमवार मधुमासा। अवधपुरी यह चरित प्रकासा।”
इसके अनुसार, इसका सुजनारंभ संवत् सोलह सौ इकत्तीस वि. की चैत्रशुक्ल नवमी दिन मंगलवार (तदनुसार 30 मार्च, सन् 1574 की मध्यान्ह) को अयोध्या में किया गया। डॉ. माताप्रसाद गुप्त (तुलसीदास) इस दिन को बुधवार मानते हैं जबकि अधिकांश आलोचक मंगलवार के पक्ष में हैं। कारण ? कई हैं, यथा- मंगलवार को हनुमान जन्म होना, इसका श्रेष्ठ दिन माना जाना आदि। इतना ही नहीं डॉ. रामदत्त भारद्वाज (तुलसीदास और उनके काव्य पृ. 37) के अनुसार 30 मार्च, 1574 ई. को मंगलवार था और नवमी तिथि सूर्योदय के 3 घन्टे 10 मिनट पश्चात् प्रारम्भ हुई थी जो दिन भर रही। स्मार्त होने के कारण तुलसीदासजी ने मंगल को रामनवमी मनायी, बुध को नहीं, क्योंकि बुध को तो यह तिथि मध्यान्ह से पूर्व ही समाप्त हो गयी थी और राम का जन्म मध्यान्ह में हुआ था। इसी प्रकार श्री अंजनिनन्दन शरण (मानस पीयूष बालकाण्ड : खंड 1) के अनुसार “संवत् 1631 में श्रीरामचरितमानस लिखना प्रारम्भ करने का कारण यह कहा जाता है कि उस संवत् में श्रीराम-जनम के सब योग लग्न आदि एकत्रित थे।” जहाँ तक प्रश्न है इसकी समाप्ति तिथि का, ‘मूल गोसाई- चरित्र’ और अयोध्या में प्रचलित एक जनश्रुति के अनुसार ‘संवत् 1633 की मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी रविवार को माना जाता है। इस प्रकार लगभग 2 वर्ष 7 माह में यह ग्रन्थ हुआ।
मानस के रचना-स्थल है- अयोध्या और काशी, भाषा- अवधी तथा शैली-दोहा, चौपाई। दोहे का प्रयोग प्रायः 7-8 चौपाइयों के बाद किया गया। सम्पूर्ण ग्रन्थ में 1074 कड़वक और सात सोपान (काण्ड) हैं। मानस-रूपक में कवि ने सातों सोपानों का विस्तृत वर्णन कर दिया है।
बालकाण्ड का कथासार- कथा का श्रीगणेश होता है-मंगलाचरण से जिसमें सात श्लोकों से काव्य- देवी सरस्वती, गणेश, शिव-पार्वती, गुरु और सीता-राम की वंदना की गयी है। इसके सम्बन्ध में यह भी कहा जाता है कि ये सात श्लोक भगवान शिव ने चुरा लिये थे और स्वप्न में कवि को भाषा (हिन्दी) में काव्य-सृजन करने का आदेश दिया था। फलतः इनके तुरन्त पश्चात् कवि भाषा में भी मंगलाचररण उसी प्रकार पुनः अंकित करता है। मंगलाचरण के पश्चात् महाकाव्य होने के नाते, कवि क्रमशः गुरु, ब्राह्मण संत, खल, संत असंत और राम-रूप की वन्दना करता है। तत्पश्चात् अपनी दीनता, काव्य-सृजन में अल्पज्ञता जताकर रामकाव्य के प्रमुख प्रणेता यथा वाल्मीकि, बह्मा, शिव, पार्वती आदि की वन्दना करता है। इतनी ही नहीं वरन अपने इष्ट और रामकथा के प्रधान पात्र-पात्रा राम-सीता एवं तत्संबंधी प्रमुख व्यक्ति, स्थान और नामादि की भी वन्दना और मुणगान करता है। श्रीराम के अपार गुण और रामचरित की महिमा का यशोगान करके उनकी कथा की पृष्ठभूमि जमाता है। इसी में वह रामकाव्य को विस्तृत परम्परा का परिचय भी देता है। यहीं से कवि ‘रामचरितमानस’ के नामकरण, रचना-काल-स्थान आदि का परिचय देकर उनकी सार्थकता स्वरूप ‘मानस-रूपक’ और उनका माहात्म्य बखान करता है।
कवि के मत में मानस के प्रमुख वक्ता-ओता चार हैं जिनमें 3 की कथा वह यहीं पर बता देता है। याज्ञवल्क्य-भारद्वाज शिव-पार्वती और नारद-विषयक कथाएँ इसी का प्रमाण हैं। इनमें भी अन्तिम दो विस्तारपूर्वक अंकित हैं। कारण है कवि का शिव को मानस गुरु मानना, वैष्णव- शैव का समन्वय प्रस्तुत करना एवं नारदीय प्रेम-भक्ति का अनुयायी होना। याज्ञवल्क्य भारद्वाज-संवाद से इन प्रासंगिक और अधिकारिक दोनों कथाओं का बीजारोपण होता है। याज्ञवल्क्य मानस (रामकथा) के प्रथम वक्ता श्रोता शिव-पार्वती की कथा भारद्वाज को सुनाते हैं। इसके अन्तर्गत यही पार्वती का भ्रम, शिव का सती-त्याग, सती का दक्ष यज्ञ में जाना, पति-अपमान से पीड़ित होकर यज्ञाग्नि में भस्म होना, क्रोधावेश में शिव का दक्ष-यज्ञ विध्वंस करना, सती का पार्वती रूप में जन्म, तपस्या, राम का शिव विवाह के लिए अनुरोध तथा सप्त ऋषियों की परीक्षा में पार्वती का महत्व, काम-दहन और रीति की वरदान प्राप्ति, शिव की विचित्र बरात, विवाह की तैयारियाँ, विवाह तथा शिव-पार्वती संवादादित कहे गये हैं।
पार्वती की शंकाओं और जिज्ञासाओं के फलस्वरूप भावना शिव उनकी रामादि अवतार के कारण सुनाते हैं। प्रमुख हैं मनु शतरूपा, भानुप्रताप, जय-विजय और जलन्धर की कथायें। यही पर पन्थ के खलनायक रावण का प्रारम्भिक परिचय उत्पात, तपस्या और अत्याचारादि का विवरण मिलता है। दूसरी ओर ग्रन्थ-नायक श्री राम जन्म हेतु पृथ्वी देवताओं की प्रार्थना और आश्वासन स्वरूप वर-प्राप्ति, दशरथ का पुद्धेष्टि यज्ञ, रानियों का गर्भाधान और रामादि चारों भाइयों का जन्म, बाल-लीलायें, विद्या प्राप्ति, विश्वामित्र के साथ गमन तथा यज्ञरक्षा और अहिल्या उद्धार आदि के वर्णन हैं।
सीता स्वयम्बर के अवसर पर विश्वामित्र के साथ-साथ राम-लक्ष्मण भी जनकपुरी में पहुंचते हैं। जनक उनका स्वागत ही नहीं करते वरन् उनको देखकर प्रभावित भी होते हैं। समय-यापन हेतु राम-लक्षमण जनकपुर का भ्रमण करते हैं और अचानक पुष्प वाटिका में पहुँचते हैं, जहाँ पार्वती पूजन हेतु आयीं सीता से उनकी भेंट होती है। स्वयम्बर में, जनक प्रतिज्ञा के अनुसार, राम धनुष-भंग करके विजयी होते हैं किन्तु उसी समय शिव के परम भक्त परशुराम का आगमन और प्रत्युत्तर-स्वरूप लक्ष्मण का क्रोध परस्पर वाक्युद्ध की स्थिति ला देता है। मगर वाक्-कुशल राम कैसे परशुराम भी प्रभावित होते हैं और वापस लौट जाते हैं। इधर जनक विवाह हेतु अयोध्या में संदेश भेजते हैं जिस पर दशरथ बारात लेकर जनकपुर पधारते हैं। फलतः राम-सीता विवाह होता है और कुछ समय पश्चात् सभी अयोध्या वापिस आकर आनन्दपूर्वक रहने लगते हैं। रामचरित के श्रवण-गायन की महिमा से बालकाण्ड की कथा समाप्त होती है।
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