हिन्दी साहित्य

रीतिकाल के लोकप्रिय कवि बिहारी का संक्षिप्त जीवन परिचय

रीतिकाल के लोकप्रिय कवि बिहारी का संक्षिप्त जीवन परिचय
रीतिकाल के लोकप्रिय कवि बिहारी का संक्षिप्त जीवन परिचय

रीतिकाल के लोकप्रिय कवि बिहारी का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनके भावपक्ष एवं कलापक्ष पर प्रकाश डालिए।

रीतिकाल के लोकप्रिय कवि बिहारी

जीवन-वृत्त- बिहारी हिन्दी साहित्य के अत्यंत लोकप्रिय कवि हैं। इनके जन्म-स्थान के संबंध में तीन मत प्रचलित हैं। ग्वालियर, बसुआ गोविन्दपुर और मथुरा। इन तीनों स्थानों से इनका संबंध स्थापित किया जाता है, किन्तु ग्वालियर ही इनकी जन्मभूमि है। इस संबंध में अपेक्षाकृत अधिक पुष्ट प्रमाण उपलब्ध होते हैं। बिहारी के पिता का नाम केशवराय था। अधिकतर विद्वानों का विशवस है कि यह केशवराज आचार्य केशवदास ही हैं। बिहारी माथुर चौबे थे। इनके एक भाई और एक बहिन का भी होना बताया जाता है। इनके पिता ग्वालियर छोड़कर ओरछा चले गये थे। उस समय बिहारी की अवस्था आठ वर्ष की थी। वहाँ इन्होंने काव्य-ग्रंथों का सम्यक् अध्ययन किया। बिहारी ने निम्बार्क-सम्प्रदाय के अनुयायी स्वामी नरहरिदास से संस्कृत, .. प्राकृत आदि का अध्ययन किया। इनके पिता ओरछा छोड़कर वृन्दावन चले आये। वहाँ बिहारी ने साहित्य के साथ संगीत का भी अध्ययन किया । वृन्दावन में इनकी शाहजहाँ से भेंट हुई। वह इन्हें आगरे ले गया। वहाँ पर इन्होंने फारसी शायरी का अध्ययन किया। शाहजहाँ ने पुत्र-जन्मोत्सव के उपलक्ष्य में अनेक राजाओं को आमंत्रित किया। वहाँ बिहारी ने अपनी काव्य-निपुणता का खूब परिचय दिया। बिहारी पर मुग्ध होकर राजाओं ने बिहारी की वार्षिक वृत्ति बाँध दी। इसी सिलसिले में बिहारी एक दफा मिर्जा राजा जयसिंह के यहां पहुंचे। वह अपनी मंझली रानी के प्रेम में बुरी तरह आसक्त था। इन्होंने उस समय अपने काव्य-कौशल से काम लिया और निम्न दोहा लिखकर भेजा-

नहिं पराग नहिं मधुर-मधु, नहिं विकास इहिं काल ।

अली कली ही सो बध्यो आगे कौन हवाल ॥

राजा को प्रबोध आया। उन्होंने रीझकर बिहारी को अपना राजदरबारी कवि नियुक्त किया और एक-एक दोहे पर एक-एक अशरफी देने लगे। डॉ० विजयेन्द्र स्नातक के कथनानुसार बिहारी की स्त्री एक अच्छी कवयित्री थी। उपर्युक्त परिचय के आधार पर कहा जा सकता है कि बिहारी का जीवन बुन्देलखण्ड, मथुरा, आगरा और जयपुर में व्यतीत हुआ। इनका जन्म संवत् 1652 है और इनका शरीरान्त 1720 के आसपास हुआ।

काव्य-समीक्षा

बिहारी एक सजग कलाकार हैं। उन्होंने जीवन में 713 दोहों का एक ही ग्रंथ लिखा और वह है बिहारी सतसई। पिछले एक हजार वर्ष की हिन्दी काव्य-निधि में यदि हम इस सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों को चुनना चाहें तो उनमें बिहारी सतसई का नाम आयेगा ये ग्रंथ हैं- पृथ्वीराज रासो, पद्मावत्, सूरसागर, रामचरितमानस, रामचन्द्रिका बिहारी सतसई, कामायनी, प्रियप्रवास, साकेत और दीपशिखा। इनमें अधिकतर प्रबन्ध काव्य हैं जिनमें जीवन की विविधता और गहराई है। सूरसागर, बिहारी सतसई और दीपशिखा मुक्तक काव्य हैं। मुक्तककार के पास जीवन का आधारफलक अत्यंत सीमित होता है और उसमें ही उसे सजीव रूप रेखायें और रंग भरने पड़ते हैं। जिस मुक्तक काव्य में यह रूप रंग जितना उज्ज्वल होगा वह उतना ही सफल होगा संस्कृत के अमरुक और बिहारी में मुक्तक काव्य की यह विशिष्टता अपनी चरम सीमा पर पहुंची हुई है। संभव है कि बिहारी ने 713 से अधिक दोहे लिखे हों और उनमें काट-छांटकर निखार और संवार कर प्रौढ़तम दोहों का एक मंजु स्तबक तैयार कर दिया हो अन्यथा किसी भी कलाकार के सभी दोहे इतने परिष्कृत और परिमार्जित नहीं हो सकते। बिहारी का एक ही ग्रंथ उनकी महती कीर्ति का आधार है। आचार्य शुक्ल का इस संबंध में कहना है-“यह बात साहित्य क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रही है कि किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है।” मुक्तक काव्य के कवि में कल्पना की समाहत शक्ति और भाषा की समास-शक्ति का होना अनिवार्य होता है, उसे अपने खंड-दृश्यों में रस की एक ऐसी वेगवती अजस्त्र धारा प्रवाहित करनी होती है जो हृदय कलिका को विकसित कर दे, उसके प्रत्येक पद्य का पूर्वापर संबंध से रहित अपना एक अलग अस्तित्व हो, उसके पद्य स्तबकों में प्रभावजन्य एक अपूर्व निविड़ता और तरलता हो, जो स्थायी भाव उत्पन्न करने में सक्षम हो और पाठक को चमत्कृत कर दे। मुक्तक के ये समूचे गुण अपने भव्य रूप में बिहारी में विद्यमान हैं। उनका प्रत्येक दोहा एक-एक उज्जवल रत्न है। उन्होंने गागर में सागर भर दिया है। इनके दोहे रस की पिचकारियां हैं। वे एक ऐसी मीठी रोटी है जिसको जिधर से तोड़ा जाय उधर से मीठी लगती है। प्रभाव तो उन दोहों का है ही विलक्षण। किसी ने ठीक ही कहा है-

सतसैपा के दोहरे, ज्यों नावक के तीर ।

देखने में छोटे लगे, वेधै सकल शरीर ।।

भाव-पक्ष

श्रृंगार- बिहारी एक शृंगारी कवि हैं। शृंगार के संयोग-पक्ष में वे जितने रमे हैं उतने वियोग-पक्ष में नहीं वियोग-पक्ष के लिए हृदय की जिन सहानुभूतियों और द्रवणशीलता की आवश्यकता होती है, बिहारी उनसे शून्य है। विरह वर्णन में वे अपनी सारी शक्ति ऊहात्मक उक्तियों में लगा देते हैं, जहां भावों को प्रेपणीयता के स्थान पर हास्यास्पदता आ जाती है। वे अनुराग के कवि हैं और उनकी वृत्ति अनुराग के मिलन पक्ष में खूब रमी है। संयोग-पक्ष की कोई ऐसी स्थिति नहीं, जो बिहारी की दृष्टि से बची हो। रूप दर्शन में आकर्षण होता है। रूप के ये वर्णन नायिका के हैं, इस दृष्टि से नायक के आकर्षण का वर्णन स्वाभाविक था, पर बिहारी ने ऐसा नहीं किया। नायिका ही कवि की दृष्टिबिन्दु है, वहीं रूपवती है, आकर्षित होती है और पीड़ित भी होती है। दोनों ओर प्रेम पलता है’ की उक्ति यहाँ अधिकांश में चरितार्थ नहीं होती। नायक घुघचियों की भेंट भेजता है। नायिका गुरुजन, परिजन से आँख बचाकर दूती को साथ लेकर अभिसार के लिए तैयार हो जाती है। एकांत में नायक और नायिका का मिलन होता है। वहां मदिरापान होता है। थोड़ी देर झूठी झूठी ‘नहीं-नहीं’ करने के पश्चात् नायिका सुरत-सुख में लीन हो जाती है। अधिक ढीठ हो जाने पर उसे विपरीत रति के लिए तैयार किया जा सकता है-

मैं मिसहा सौयौ समुझि मुंह चूम्यो ढिंग जाइ।

हँस्यौ, खिसानी, गल गह्यौ रही गरै लपटाइ ।

दीप उजेरै हू पतिहिं हरत वसनु रति काज ।

रही लिपटि छवि की छटनु नैको छुटी न लाज ॥

इस मिलन-सुख में बिहारी ने जिन बातों का वर्णन किया है, जो कुछ रसिकों को चाहे अच्छी लगें, पर अधिक गंभीर रुचि वालों को शायद ही रुचें। उदाहरणार्थ नायक पतंग उड़ा रहा है तो नायिका उसकी छाया छूने के लिए दौड़ती फिरती है या नायक नायिका की गोद से बच्चा लेते समय चुपके से उसकी छाती को उंगली से दबा देता है या दोनों घरों के बीच में जो दीवाल है उसमें बड़ा छेद करके दोनों रात भर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर खड़े रहते हैं या फिर पैरों की उंगलियों के बल पर खड़े होकर दीवार पर थोड़ा उचककर दोनों एक दूसरे के कपोल को चूमकर भाग जाते हैं। कदाचित् इन्हीं बातों को लक्ष्य रखकर आचार्य शुक्ल ने कहा है- “कविता उनकी श्रृंगारी है पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुंचती, नीचे रह जाती है।” दिनकर के शब्द इस विषय में और भी दृष्टव्य हैं- “बिहारी के दोहों में न तो कोई बड़ी अनुभूति है, न कोई ऊँची बात, सिर्फ लड़कियों की कुछ अदायें हैं मगर कवि ने उन्हें कुछ ऐसे ढंग से चित्रित किया है कि आज तक रसिकों का मन कचोट खाकर रह जाता है। जो लोग कविता में ऊँची अनुभूति या ज्ञान की बड़ी-बड़ी बातों की तलाश में रहते हैं, बिहारी की कविताओं में उन्हें अपने लिए चुनौती मिलेगी।”

हाँ, अनुभाव के विधान में इनकी रसव्यंजना अत्यंत भव्य बन पड़ी है। हावों और भावों की ऐसी सुन्दर योजना, कोई भी इनका समकालीन शृंगारी कवि नहीं कर सका। मानों एक प्रकार से इन्होंने हाव-भाव भरी मूर्तियां तैयार कर दी हैं-

बत रस लालच लाल की मुरली घरी लुकाइ ।

सौह करै भौहान हँसे दैन कहै नटि जाइ ।।

बिहारी का संयोग-वर्णन जितना सफल हुआ है उतना वियोग-वर्णन नहीं लगता है कि बिहारी को जीवन के संयोग-पक्ष का जैसा अनुभव था वैसा वियोग-पक्ष का नहीं। विरह जीवन की एक गंभीर स्थिति है। इसका जब तक किसी साहित्यकार को कोई गहन अनुभव न हो वह इसका मार्मिक वर्णन नहीं कर सकता। वियोग में देश और काल की स्वाभाविकता के संबंध में बड़ा सतर्क रहना पड़ता है। मनोदशा का वन कहां काव्य का रूप ग्रहण करता है और कहां खिलवाड़ बन जाता है, इसका ज्ञान बहुत कम साहित्यिकों को होता है। नायिका की सुकुमारता, विरह, ताप, विरह क्षीणता आदि में बिहारी कहीं-कहीं औचित्य की सीमा का अतिक्रमण कर गये हैं और वहां उनकी कविता खिलवाड़ मात्र बन गई है। इनके विरह-वर्णन में न तो सूर की सी स्वाभाविकता और तीव्रता है और न जायसी की सी गहनता और अशेष सृष्टि के साथ रागात्मकता। वियोगावस्था में पहुंचते ही बिहारी की नायिका कभी चन्द्रमा और समीर के सामने दौड़ती फिरती है, कभी जुगनुओं को अंगारे समझकर भीतर छिप जाने की सलाह देती है। साँस लेती है तो कभी छः सात हाथ आगे खिसक जाती है और कभी पीछे जैसे कि वह दीवार घड़ी का पैंडुलम हो। रोती है तो आँसू छाती पर पड़ते ही भाप बनकर उड़ जाते हैं। गुलाब छिड़कने पर वह बीच में ही सूख जाता है। दुर्बल इतनी हो गई कि मृत्यु चश्मा लगाकर भी उसे देख नहीं पाती। पड़ोसी परेशान हैं। जाड़े की रातों में गीले कपड़े आगे कर उसके पास पहुंच जाते हैं और प्रीष्म में तो उसके पास रहना असंभव ही हो गया है। ऐसे स्थलों में बिहारी बुरी तरह असफल रहे हैं। सच तो यह है कि उनका मन वियोग वर्णन में रमा नहीं और विरह में प्रेम के जिस उदात्त रूप का रससिद्ध कवि साक्षात्कार करा दिया करते हैं, बिहारी नहीं करा सके वरन् खिलवाड़ और पहेलियां बुझाने में लग गये हैं। वे प्रेम के सहज रूप को कम और उसके मनोहर रूप को अधिक पसन्द करते हैं। वे उसके कल्पना-कोमल रूप को उभारने का अधिक प्रयास करते हैं और उसकी अनायास शोभा को कम, वे चित्र को कलापूर्ण बनाने का अधिक श्रम करते हैं। वैयक्तिक संबंधो की अनुभूतियों से रंगने में कम। न ही इनमें कालिदास और भवभूति का प्रेमादर्श है, न ही सूर की गहनता और व्यापकता और न इनमें तुलसी की शालीनता। इस क्षेत्र में मतिराम, पद्माकर और देव में अधिक गहराई है। बिहारी का प्रेम-चित्रण रसिकता की कोटि तक पहुंच कर रह गया है, उसकी उच्च भाव-भूमि पर नहीं पहुंच पाया है और फिर जहाँ वे रीति के बंधन में बंध कर नायिका के प्रेम का चित्रण करते हैं-

नए विरह बढ़ती विथा, खरी विकल जिय बाल।

बिलखी देखि परोसिन्यौ हरषि हँसी तिह काल ।।

में अत्यंत क्लिष्ट कल्पना अपेक्षित है, जैसे कि वे दिमागी व्यायाम कराना चाहते हों। आचार्य शुक्ल ने इनकी कविता के संबंध में ठीक ही कहा है- “बिहारी की कृति का जो अधिक मूल्य आँका गया है उसे अधिकतर रचना की बारीकी या काव्यांगों में सूक्ष्म विन्यास की निपुणता की ओर ही मुख्यतः दृष्टि रखने वाले पारश्वियों के पक्ष से समझना चाहिए- उनके पक्ष से समझना चाहिए जो किसी हाथीदाँत के टुकड़े पर महीन बेल-बूटे देख घंटों वाह-वाह किया करते हैं पर जो हृदय के अन्तस्तल पर मार्मिक प्रभाव चाहते हैं, किसी भाव की स्वच्छ निर्मल धारा में कुछ देर अपना मन मग्न रखना चाहते हैं, उनका संतोष बिहारी से नहीं हो सकता। बिहारी का काव्य हृदय में किसी ऐसी लय या संगीत का संचार नहीं करता जिसकी स्वरधारा कुछ काल तक गूंजती रहे। यदि घुले हुए भावों का आभ्यन्तर प्रवाह बिहारी में होता तो वे एक दोहे पर ही संतोष न करते । मार्मिक प्रभाव का विचार करें तो देव और पद्माकर के कवित्त-सवैया का सा गूंजने वाला प्रभाव बिहारी के दोहों का नहीं पड़ता।” आगे चलकर वे लिखते हैं- ‘दूसरी बात यह है कि भावों का बहुत उत्कृष्ट और उदात्त स्वरूप बिहारी में नहीं मिलता। कविता उनकी श्रृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुंचती, नीचे रह जाती है।” इस संबंध में रामधारीसिंह दिनकर के शब्द विशेष दृष्टव्य हैं- “बिहारी की कविताओं से आलोचना का यह सिद्धांत आसानी से निकाला जा सकता है कि किवता की सफलता भाव या विचार की ऊँचाई से नहीं होती, प्रत्युत कारीगरी की निपुणता से होती है। कविता कामायनी में भी सफल हो सकती है और बिहारी सतसई में भी और दोनों की सफलतायें अपने-अपने स्तर पर अद्भुत और महान् हैं।” ऐसी बात नहीं कि बिहारी इस दिशा में सर्वत्र असफल रहे हों। जहाँ वे ऊहात्मकता में नहीं फंसे, वहां ऐसे चित्रण निश्चित रूप से सफल कहे जा सकते हैं। नायिका के हृदय के अन्तर्द्वन्द्व, का चित्रण इन्होंने खूब किया है। श्रृंगार के संचारी भावों का वर्णन भी इनका बहुत हृदयस्पर्शी है। उदाहरणार्थ-

सघन कुंज छाया सुखद, सीतल मन्द समीर।

मन है जात अजी, वह वा जमुना के तीर ।।

बिहारी के प्रेम-चित्रण के संबंध में हम संक्षेप में कह सकते हैं कि वे रीतिकालीन प्रणयानुभूति के प्रतिनिधि कवि हैं।

भक्ति और नीति- बिहारी सतसई में भक्ति की चर्चा होते हुए भी बिहारी को भक्त नहीं कहा जा सकता। इनकी किसी वाद-विशेष पर आस्था नहीं थी। उन्होंने समान भाव से राम-कृष्ण और नरसिंह का स्मरण किया है। कहीं निर्गुण की महिमा मुक्तकंठ से गाई है। प्रतिबिम्बवाद और अद्वैतवाद के संबंध में भी कुछ न कुछ कहा है। नाम-स्मरण पर भी अत्यंत बल दिया है। कहीं-कहीं पर अपने आराध्य देव के प्रति अति श्रद्धामयी वचनवक्रता से भी काम लिया है। यह सब कुछ होते हुए भी उन्हें भक्त नहीं कहा जा सकता है। वे पहले कवि हैं और वह भी अनुराग के, विराग के नहीं। उन्होंने प्रत्येक महाकवि की तरह अपने प्रिय विषय के अतिरिक्त भुक्ति और नीति पर भी लिखा। भक्त का हृदय उन्हें प्राप्त नहीं था। बिहारी की दृष्टि राधा की तनद्युति पर टिकी रही है, मन तक नहीं जा सकी। उन्होंने राधा और कृष्ण के जीवन के घोर शृंगारी और वासनात्मक चित्र उतारे हैं। अपनी सतसई में अनेक स्वाद भरने के लिए राधा-कृष्ण की भक्ति से संबंधित दोहे लिखे हैं अथवा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सामाजिक त्राण के लिए उन्होंने राधा और कृष्ण के नाम का कवच तैयार किया है। भक्तों के हृदय की सी पवित्रता, आर्द्रता, कोमलता, कातरता, दीनता और भावमग्नता उनमें सामान्यतः नहीं है। विलासोन्मुख राजनीति के पराजय युग में जहां कवि जीवन के संघर्षो और घात-प्रतिघातों से सर्वथा अपरिचित था, उसकी लिखी हुई नीति की उक्तियाँ भी प्रदर्शनमात्र समझनी चाहिए। इनकी भक्ति और नीति का एक-एक उदाहरण देखिए-

पतवारी माला पकरि औरू न कछू उपाय।

तरि संसार पयोधि को, हरि नाबै करि नाउ ॥

दुसह दुराज प्रजानु को क्यों न बढ़े दुख द्वन्द्व ।

अधिक अंधेरो जग करत मिलि मावस रविचन्द ।।

उक्ति- वैचित्र्य और विनोद- किसी बात को कहने का ढंग बिहारी का एकदम निराला है। वे अपनी उर्वर प्रतिभा से नित्य नई-नई बातें उपस्थित करते हैं-

दृग उरझत टूटत कुटुम्ब जुरत चतुर चित प्रीति ।

परति गांठ दुरजन हियै दई नई यह रीति ।।

इनकी उक्तियों में कहीं-कहीं पानी पीकर भी प्यास नहीं बुझ रही है, सगुन सलोने रूप को तृषा बुझा ही कब करती है। कभी लाल के दृगों की प्रिया के दृगों में छाया पड़ रही है। कभी पराग, मधुर मधु और बसन्त के अभाव में अविकसित काली से ही भंवरा आबद्ध हो रहा है। इन कथनों में तीखा और चोखा व्यंग्य चमत्कार है। ऐसे चित्रणों में बिहारी अत्यंत दक्ष हैं। हास्य बिहारी में नहीं के बराबर है। कहीं-कहीं कथावाचकों और अधकचरे वैद्यों की खिल्ली उड़ाई है। नागरिक जीवन में अभिरुचि रखने के कारण ग्रामीण जीवन को उन्होंने हीन भावना से देखा है और उसमें हास्य की सृष्टि भी करनी चाही है, पर वह प्रशस्य नहीं कही जा सकती है। ऐसे लगता है कि गाँवों और वहाँ के निवासियों के स्वभाव का बिहारी को बहुत अच्छा अनुभव नहीं था।

भावना के क्षेत्र से हटकर जब कवि जीवन के निजी अनुभवों को चित्रित करने लगता है तो वे सूक्तियां कहलाती हैं, जिनमें बहुत-सी नीति की बातें भी आ जाती हैं। वस्तुतः नीति और सूक्ति में कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। बिहारी ने बहुत-सी बातें सज्जन- दुर्जन, गुनी-निगुनी, दाता-सूम आदि को लेकर कही हैं। कुछ सूक्तियां कला-प्रेम और मनुष्य के स्वभाव को लक्ष्य करके कही गई हैं। एक उक्ति देखिए-

बड़े न हूजै गुननु बिनु विरद बड़ाई पाई।

कहत धतूरे सौ कनकु गहनौ गढ़ौ न जाइ ॥

प्रकृति चित्रण- प्राचीन कवियों में से सेनापति को छोड़कर किसी ने भी प्रकृति का आलम्बन रूप में ग्रहण नहीं किया । प्रायः उपदेश, रहस्य, अलंकार-विधान या उद्दीपन रूप में उसका प्रयोग किया गया है। बिहारी ने भी उसका ग्रहण अप्रस्तुत के रूप में किया है, पर कहीं-कहीं पर उसको स्वतंत्र इकाई के रूप में भी चित्रित किया है। इसका षऋतु वर्णन प्रकृति का स्वतंत्र वर्णन है। ऐसे वर्णनों में भी वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति जैसी द्रवणशीलता और प्रकृति के साथ तादात्म्य तो नहीं है पर फिर भी संतोष की बात है कि कम से कम एक-एक दोहा तो स्वतंत्र रूप से लिख ही दिया है। यहां पर इनका चित्रांकन और नाद-सौन्दर्य मनोरम बन पड़े हैं। बिहारी ने मनुष्य स्वभाव को प्रकृति से बहुत कुछ प्रभावित माना है, अतः उन दोनों को आमने-सामने रखकर चित्रित किया है। विश्वम्भर मानव का कहना है कि प्रकृति-संबंधी कुछ चित्र तो बिहारी के ऐसे हैं जो हिन्दी के आधुनिक काव्य की तुलना में कम शक्तिशाली नहीं ठहरते। उदाहरणार्थ देखिए-

रनित भृंग घंटावली झरित दान मधु नीर।

मन्द मन्द आवतु चल्यौ कुंजरू कुंज समीर ॥

बैठि रही अत सघन बन पैठि सदन तन मांह।

देखि दुपहरी जेठ की छाँही चाहति छांह ॥

काव्यशास्त्रीय दृष्टिकोण – रीतिकाल में मुख्यतः तीन सम्प्रदाय प्रचलित थे- अलंकार, रस और ध्वनि। बिहारी आलंकारिक चमत्कार के अनावश्यक मोह में कहीं भी ग्रस्त नहीं हुए। उन्होंने इन्हें साधन के रूप में प्रयुक्त किया है, साध्य रूप में नहीं। रस भी बिहारी का साध्य लक्षित नहीं होता। बिहारी ध्वनिवादी हैं। रस ध्वनि, अलंकार ध्वनि और वस्तु ध्वनि को ग्रहण करके बिहारी ने सांकेतिक अर्थ को घोषित किया है, अतः उनकी रुचि ध्वनि-सम्प्रदाय की ओर अधिक है।

बिहारी के अधिकांश आलोचकों ने उनकी सतसई को नायिका भेद का ग्रंथ कहा है और इसे लक्षणपरक ग्रंथ सिद्ध करने की चेष्टा की है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि बिहारी ने नायिका भेद को समझकर सतसई की रचना की थी, किन्तु उनकी सतसई नायिका भेद का ग्रंथ नहीं। भक्ति, नीति और सूक्तियों में लक्षण-परम्परा को ढूंढ़ना व्यर्थ है। हाँ, उनके अधिकांश दोहे रीतिपरक अवश्य हैं।

कला पक्ष

अलंकार – बिहारी अलंकारवादी नहीं थे, किन्तु उन्होंने स्वच्छंद रूप से अलंकारों का प्रयोग किया है। प्रायः उनके प्रत्येक दोहे में उक्ति वैचित्र्य के साथ अलंकारों की सुन्दर योजना हुई है। कहीं-कहीं एक-एक दोहे में संकर और संसृष्टि के रूप में अलंकारों का नियोजन हुआ है। निम्न दोहे में विरोधाभास तथा असंगति अलंकार का सुन्दर गुम्फन हुआ है

दृग उरझत टूटत कुटुम्ब जुरत चतुर चित प्रीति ।

परित गाँठि दुरजन हिये दई नई यह रीति ॥

सादृश्यमूलक अलंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि का प्रयोग इन्होंने अत्यधिक किया है। रूपक तो बिहारी का प्रिय अलंकार है । वैसे यमक, समासोक्ति, अपह्नुत आदि अलंकारों का भी सुन्दर प्रयोग किया है। यमक का उदाहरण देखिए-

तो पर वारौ उरवसी सुनि राधिके सुजान।

तू मोहन के उर बसी है बरवसी समान ।।

छन्द – बिहारी सतसई में केवल दो छंदों का प्रयोग मिलता है-दोहा तथा सोरठा। ये दोनों 48 मात्रा के छंद हैं और परस्पर सम्बद्ध हैं। छोहा-छंद द्वारा सम्पूर्ण भाव की व्यंजना कठिन व्यापार होता है। इसमें गागर में सागर भरना पड़ता है। इसमें भाषा की समास-पद्धति और विचारों की समाहार-शक्ति दोनों उत्कृष्ट रूप में अपेक्षित होती हैं। बिहारी में ये दोनों वस्तुएँ अपनी चरम सीमा पर हैं। दोहे का जो शास्त्रीय नियम है उसका पूर्ण निर्वाह तो किसी कवि द्वारा नहीं हुआ, परन्तु साधारणतः बिहारी के दोहे दोषरहित हैं। भावाभिव्यक्ति के लिए संस्कृत के मुक्त कवि अमरू ने शार्दूलविक्रीडित छंद को, प्राकृत और संस्कृत के कवियों ने गाथा और आर्या छंद को बिहारी के परवर्ती कवियों ने सवैया तथा कुण्डलियां छंद को अपनाया है, किन्तु बिहारी ने दोहे रूपी स्तवक में सारी भाव- सुषमा को भर दिया। कुछ आलोचकों ने बिहारी पर यह दोष लगाया है कि उन्हें केवल दोहा छंद का ज्ञान था, परन्तु यह व्यर्थ है। यह दूसरी चीज है कि दोहा छंद उन्हें सर्वाधिक प्रिय लगा। उन्होंने जिस निपुणता के साथ दोहा छंद में भावाभिव्यक्ति की है वह वस्तुतः उनके लिए श्रेय है।

पांडित्य – बिहारी विस्तृत जानकार थे। उन्हें सांसारिक विषयों, साहित्य, आध्यात्मिक और पौराणिक विषयों तथा ज्योतिष और गणितादि का ज्ञान था। बिहारी के कुछ आलोचकों ने उनके एक-एक दोहे को पकड़कर उन्हें धुरन्धर ज्योतिषी, पौराणिक और गणितज्ञ सिद्ध करना चाहा है, किन्तु यह विशेष संगत नहीं है। ‘अहो भारी महान् कवेः’ के अनुसार उन्हें विशाल अनुभाव अवश्य था जो कि किसी कवि के लिए अपेक्षित भी होता है। इसके अतिरिक्त हम पहले उल्लेख कर चुके हैं कि केशव और बिहारी वर्णक शैली के अनुकर्त्ता कवि हैं। मध्ययुगीन वर्णक कवि को अपने भिन्न रुचि वाले पाठकों के मनोरंजन के लिए नाना विषयों का समावेश अपने साहित्य में करना पड़ता था। बिहारी सतसई में अध्यात्म, पुराण, ज्योतिष, रीति और गणित आदि विषयों का उल्लेख उपर्युक्त शैली के अनुकरण का सूचक है। इससे उनका प्रत्येक क्षेत्र में अगाध पांडित्य घोषित नहीं होता है।

भाषा- बिहारी की भाषा को हम अपेक्षाकृत शुद्ध ब्रज भाषा कह सकते हैं। उनके समय में ब्रज भाषा का क्षेत्र अत्यंत विस्तृत हो चुका था। इनकी भाषा चलती हुई ब्रज भाषा का साहित्यिक रूप है। बिहारी का शब्द-गठन और वाक्य- विन्यास पर्याप्त सुव्यवस्थित हैं। बिहारी ने सबसे पहले शब्दों की एकरूपता और प्रांजलता पर ध्यान दिया और भाषा में परिष्कार का मार्ग प्रशस्त किया। साहित्यिक ब्रजभाषा का रूप इनकी ही भाषा में सर्वप्रथम निखार को प्राप्त हुआ है। आगे चलकर घनानन्द और पद्माकर ने उसे और अधिक परिष्कृत किया है। बिहारी की भाषा में बुन्देलखण्डी और पूर्वी का प्रभाव है। पूर्वी के प्रयोग तुक के आग्रह और प्रयोग- बाहुल्य के कारण हुए हैं। बुन्देलखंडी के प्रयोग सहज रूप में शैशव के अभ्यास के कारण आये थे । इनकी भाषा में समास-शक्ति पूर्ण रूप में विद्यमान है। कहीं-कहीं पर अरबी फारसी के शब्द इजाफा, ताफता, विलनवी, कुतुबनुमा, रोज इत्यादि शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। इन्होंने भाषा को प्रेषणीय बनाने के लिए लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है। नाद-सौन्दर्य इनकी भाषा का एक सहज गुण है। बिहारी ने माधुर्य गुण के अनुकूल शब्द-चयन किया है। भाषा के अलंकरण के लिए इन्होंने यमक, अनुप्रास, वीप्सा आदि शब्दालंकारों का प्रयोग किया है। कुछ लोग बिहारी पर भाषा के काठिन्य का दोष लगाते हैं। पर वह निराधार है। आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र बिहारी की भाषा के संबंध में लिखते हैं-“बिहारी का भाषा पर वास्तविक अधिकार था। उनके बाद भाषा पर अच्छा अधिकार दिखाने वाले मतिराम, पद्माकर आदि कुछ ही प्रवीण कवि हुए हैं। आधुनिक समय में रत्नाकर ने वैसा ही अधिकार दिखाया है। इसलिए बिहारी को भाषा पंडित कहना चाहिए। भाषा की दृष्टि से बिहारी की समता करने वाला, भाषा पर वैसा अधिकार रखने वाला कोई मुक्तककार नहीं दिखाई पड़ता है।”

बिहारी: उनकी सतसई का महत्त्व

हिन्दी साहित्य में सूर और तुलसी के बाद बिहारी और देव पर अपेक्षाकृत अधिक आलोचनात्मक साहित्य तैयार हुआ हैं। मेरे विचार में बिहारी से आलोचकों ने (समर्थक) बिहारी के संबंध में तनिक अतिश्योक्ति से काम लिया है। पद्मसिंह शर्मा ने लिखा है- “हिन्दी कवियों में श्रीयुत महाकवि बिहारीलाल का आसान सबसे ऊंचा है। शृंगार रस वर्णन, पद-विन्यास-चातुर्य, अर्थ गाम्भीर्य, स्वाभावोक्ति और स्वाभाविक बोलचाल आदि खास गुणों में अपना जोड़ नहीं रखते।” आगे चलकर शर्मा जी ने बिहारी के विरह-वर्णन को अत्यंत उत्कृष्ट बताया है। राधाचरण गोस्वामी ने बिहारी को ऐसा पीयूषवर्षी घनश्याम कहा है जिसके उदय होते ही सूर और तुलसी आच्छादित हो जाते हैं। लाला भगवानदीन ने सूर, तुलसी और केशव के पश्चात् इन्हें हिन्दी-साहित्य का चौथा रत्न कहा है। दूसरे आलोचकों का कहना है कि सर्वप्रियता की दृष्टि से हिन्दी साहित्य में रामचरित मानस के पश्चात् बिहारी की सतसई का स्थान आता है। इस पर पचासों टीकायें लिखी गई हैं, तब भी आलोचक वर्ग को संतोष नहीं है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का कहना है- “प्रेम के भीतर उन्होंने सब प्रकार की सामग्री, सब प्रकार के वर्णन प्रस्तुत किये और वे भी इन्हीं सात सौ दोहों में। यह उनकी एक विशेषता ही है। नायिका-भेद या शृंगार का लक्षण ग्रंथ लिखने वाले भी किसी नायिका या अलंकारादि का वैसा साफ उदाहरण प्रस्तुत करने में समर्थ नहीं हुए जैसा बिहारी ने किया है। साथ ही हमें यह भी मान लेने में आनाकानी नहीं करनी चाहिए कि उनके जोड़ का हिन्दी में कोई दूसरा कवि नहीं हुआ, क्योंकि मुक्तकों में जो-जो विशेषता होनी चाहिए वे बिहारी में सबसे अधिक मात्रा में पाई जाती हैं। उपर्युक्त मतों के अध्ययन के पश्चात् बिहारी के संबंध में कुछ मौलिक प्रश्न उपस्थित होते हैं- क्या बिहारी हिन्दी-साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि हैं ? क्या उनका शृंगार-वर्णन और विशेषतः विरह-वर्णन बेजोड़ है ? क्या बिहारी सतसई पर पचासों टीकाओं का लिखा जाना उनकी लोकप्रियता और महत्त्व के विशेष वृद्धि के कारण है ? बिहारी की हिन्दी साहित्य में सर्वश्रेष्ठत के संबंध में निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कवि की सहज अनुभूति, तन्मयता और रसमयता में बिहारी से सूर, तुलसी, मीरा और घनानन्द बहुत आगे हैं। सरसता में तो बिहारी के समकालीन कवि मतिराम, पद्माकर और देव तक इनके आगे निकल गये हैं। बिहारी के श्रृंगार के विषय में हम पहले कह चुके हैं कि इनकी कविता में प्रेम के किसी उच्चादर्श की प्रतिष्ठा नहीं हो पाई हैं। इनका चित्रित प्रेम बालिकाओं की कुछ अदाओं तक ही सीमित है। इनका प्रेम रसिकता की कोटि से आगे नहीं जा सका है। कविता इनकी शृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुंच पाती नीचे रह जाती है। विरह-वर्णन में जो स्वाभाविकता, गहनता और व्यापकता और जीवन के जो निजी अनुभव अपेक्षित होते हैं उनकी बिहारी में कमी है। अधिक टीकाओं के संबंध में भी स्मरण रखना होगा कि संस्कृत-साहित्य में माघ, भारवि और श्री हर्ष पर कालिदास की अपेक्षा अधिक टीकायें मिलती हैं, पर ये कवि किसी भी दशा में कालिदास से श्रेष्ठ नहीं कहे जा सकते। सच तो यह है कि सच्ची और सहज कला, प्रेषणीयता और तादात्म्य के लिए टीका-टिप्पणियों की अपेक्षा नहीं रखती, वह तो स्वतः जनमानस में खचित हो जाती है। लोकप्रियता के संबंध में भी ध्यान रखना होगा कि देवकीनन्दन खत्री के उपन्यास प्रेमचन्द, शरत् बाबू और रवीन्द्रनाथ के उपन्यासों से कम लोकप्रिय नहीं हैं, पर देवकीनन्दन खत्री में प्रेमचन्द जैसी साहित्यिक महत्ता और औदार्य कहाँ है ? इसके अतिरिक्त बिहारी पर अधिक टीकाओं के लिखे जाने का रहस्य तत्कालीन परिस्थितियों में निहित है।

बिहारी की कलागत विशेषताओं के विश्लेषण के अनन्तर हम विश्वम्भर मानव के शब्दों में कह सकते हैं- “बिहारी की कला हृदय की सहज उपज का परिणाम नहीं, वह अभ्यास- साध्य है। वहां अभिव्यक्ति का फूल वैसे नहीं खिलता जैसे बसंत में डालियों पर फूल खिलते हैं। कवि के भाव को ठीक समझने के लिए उसकी कला से परिचित होना आवश्यक है। वह कला कई बातों पर निर्भर करती है जैसे रस, अलंकार, नायिकाभेद, शब्द-शक्ति, प्रसंग-विधान और भाषा । पाठक को यदि इनमें से एक का भी अच्छा ज्ञान नहीं तो वह बिहारी के काव्य-सौन्दर्य से अपरिचित रहेगा।” अस्तु । बिहारी रीतिकाल के एक सजग कलाकार हैं। वे वचन-भंगिमा में सिद्धहस्त हैं। बिहारी की वैयक्तिक और उनके गुण की परिसीमायें उनके साथ हैं। उनके द्वारा चित्रित जीवन कहीं-कहीं मटमैला और गन्दला है, पर आखिर धरती का ही तो जीवन है। इतना तो निश्चित है कि बिहारी और उनकी सतसई का एक ऐतिहासिक महत्त्व है। जैसे चंदबरदाई, कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, हरिश्चन्द्र, मैथिलीशरण गुप्त और प्रसाद के बिना काव्य के विभिन्न युगों का इतिहास नहीं लिखा जा सकता, वैसे ही रीतिकाल के दो सौ वर्षों की कड़ी टटी हुई दिखाई देगी, यदि उसमें से बिहारी का नाम निकाल दिया जाये। बिहारी का काव्य उस युग की रुचियों और प्रवृत्तियों का एक सुन्दर निदर्शन है।

करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद।

सतसई परम्परा और बिहारी-सतसई

संसार का आदि काव्य मुक्तक शैली में प्रणीत हुआ क्योंकि उसका क्रमबद्ध परिष्कृत प्रबन्ध रूप बाद की वस्तु है। वेद मुक्तक काव्य है। प्राकृत में मुक्तक काव्य दो रूपों में निर्मित हुआ एक तो संख्यापरक काव्य और दूसरा इधर-उधर बिखरे हुए स्वतंत्र पद्य । प्राकृत में सतसई परम्परा का आरंभ हाल की गाथा सप्तसती से हुआ। इसमें प्राकृत के अनेक कवियों के पद्यों का संग्रह है। प्राकृत का एक दूसरा संग्रह ग्रंथ है वज्जलग्ग। इसकी लोकप्रियता से आकर्षित होकर संस्कृत कवियों ने मुक्त रचनायें की। अमरूक ने अमरुकशतक लिखा और भर्तहरि ने शतकत्रय की रचना की। इनके अतिरिक्त संस्कृत में अन्य भी संख्यापरक काव्य निर्मित हुए – सूर्यशतक, चंडीशतक, दुर्गासप्तशती आदि, किन्तु इनका विषय धार्मिक है। 12वीं शती में गोवर्धन ने आर्यासप्तशती की रचना की जो प्राकृत की गाथा सप्तशती पर आधृत है। हिन्दी में कृपाराम की हिततरंगिणी को सतसई परम्परा में प्रथम ग्रंथ कहा जा सकता है। मुबारक का अलक शतक और तिलक शतक भी इसी परम्परा में आते हैं। बलभद्र मिश्र ने आर्या सप्तशती का अनुवाद किया था। रहीम और तुलसी ने भी सतसई ग्रंथों की रचना की थी किन्तु इतना तो अवश्य स्वीकरणीय है कि बिहारी सतसई के अनन्तर हिन्दी में सतसई परक ग्रंथ लिखने की शैली का खूब प्रचार हुआ। 12वीं शती से आज तक अनेक सतसइयाँ लिखी गई हैं। मतिराम, कृपाराम, रसनिधि, विक्रमशाह, रामसिंह, सूर्यमल्ल, हरिऔध, दुलारेलाल, वियोगी हरि, रामेश्वर करुण आदि की सतसइयाँ और दोहावली उल्लेखनीय हैं। सतसई साहित्य की प्रायः सभी प्रवृत्तियों का विकास बिहारी सतसई में हुआ है। वे प्रवृत्तियां हैं- श्रृंगारिकता की प्रधानता, अनेक विषयों के समावेश की प्रवृत्ति, यथार्थवादी दृष्टिकोण और मुक्तक शैली। बिहारी ने अपने पूर्ववर्ती सतसईकारों का अनुकरण तो किया ही है साथ-साथ कुछ नवीन तत्वों का भी समावेश किया है। जैसे अलंकार-प्रदर्शन, रीति परम्परा के परिवेश में चित्रण आदि परन्तु इनका साहित्यिक दृष्टि से कोई महत्व नहीं है। डॉ० हजारीप्रसाद के शब्द इस संबंध में विशेष दृष्टव्य हैं- “इस प्रकार बिहारी की सतसई किसी रीति मनोवृत्ति की उपज नहीं है। यह एक विशाल परम्परा के लगभग अन्तिम छोर पर पड़ती है और अपनी परम्परा को संभवतः अन्तिम बिन्दु तक ले जाती है।” बिहारी सतसई के मुख्यतया उपजीव्य ग्रंथ हैं-गाथा सप्तशती, आर्या सप्तशती, अमरूक शतक आदि । गाथा सप्तशती और बिहारी सतसई में निश्चित रूप से अन्तर है। गाथा सप्तशती की सहज ताजगी स्वाभाविक भावोद्रेक, दीप्ति और भावोल्लास और सरलता बिहारी में नहीं है। साहित्य के मर्मज्ञों का विश्वास है कि गोवर्धन की आर्या सप्तशती में हाल की ही सरलता और उल्लास और ताजगी नहीं है। बिहारी इस विषय में शायद गोवर्धन से अधिक सौभाग्यशाली हैं। कारण स्पष्ट है कि बिहारी ने लोक भाषा के माध्यम से अपनी अनुभूतियों और सरस वाग्वैदग्ध को व्यक्त किया है, किन्तु बिहारी को गोवर्धन की अपेक्षा रीति-परम्परा का भार अधिक ढोना पड़ता है, अतः उनकी कविता उनकी नायिका के समान शोभा के भार से ‘सूघो पाँय’ घर सकने में असमर्थ हो गई है और अपनी शोभा के बोझ से लड़खड़ा उठी है।

बिहारी-सतसई की लोकप्रियता के कारण- बिहारी सतसई की सर्वप्रियता का मुख्य कारण है उसका अनेक स्वादों से भरा हुआ होना। उसमें शृंगार, नीति, भक्ति, ज्ञान, आध्यात्मिकता, सूक्ति और नीति-परम्परा सब कुछ सम्मिश्रित रूप में है, अतः भिन्न-भिन्न रुचि के व्यक्तियों के लिए यह अधिक ग्राह्य सिद्ध हुई है। दूसरा, इसमें उर्दू की गजलों के समान वाग्वैदग्ध्य हैं जो अपनी तड़क-भड़क के कारण सहज में ही आकर्षित कर लेता है। बिहारी का चमत्कार प्रदर्शन इस दिशा में और भी अधिक सहायक हुआ है। तीसरा, दोहे जैसे छोटे-छंद में गागर में सागर भरने की प्रवृत्ति ने, भाषा की समास-शक्ति और विचारों की समाहार पद्धति ने इसे विशेष जनप्रिय बना दिया है। चौथा, बिहारी की जागरूकता और श्रमसाध्यता पग-पग पर दर्शनीय है। आजीवन उन्होंने 713 दोहों का निर्माण किया और एक जौहरी के समान रत्नों को निखार और संवार कर रखा। पाँचवा, बिहारी ध्वनिवादी है, उनकी अलंकार, वस्तु और रस-ध्वनि अत्यंत नाजुक रूप में व्यक्त हुई है। उनकी कारीगरी हाथी दांत पर खुदे बेल-बूटों के समान सबको आकर्षित कर लेती है। छठा, उनकी सतसई को साहित्यिक महत्त्व के साथ ऐतिहासिक महत्त्व भी है। सातवां, बिहारी अन्योक्ति-कला में अत्यंत दक्ष हैं। आठवां, इसमें पांडित्य और भावुकता का सुन्दर सम्मिश्रण है। नवा कारण है इसकी भाषा का टकसालीपन, पद-लालित्य और नाद-सौन्दर्य । दसवाँ, बिहारी का प्रकृति-चित्रण भले ही संक्षिप्त है परन्तु काफी मार्मिक है और यहाँ तक कि उसे आधुनिक छायावादी काव्य की तुलना में भी रखा जा सकता है। ग्यारहवां, इसके अतिरिक्त इन्होंने अपने पूर्ववर्ती सतसई-कारों की सभी प्रवृत्तियों के समावेश के साथ अपनी सतसई में कुछ नवीन तत्वों का समावेश भी किया है। यह एक अलग बात है कि वे कुछ दूषित रह गये हैं। अपने पूर्ववर्ती साहित्यकारों के भावों को लेकर भी इन्होंने उन्हें अपनी मौलिकता की खराद पर चढ़ाकर नवीन बना दिया है और एक प्रकार से उनके मजमून छीन लिया है। बारहवाँ, जीवन के प्रति यथार्थवादी भौतिक दृष्टिकोण ने भी उनकी सतसई को विशेष लोकप्रिय बना दिया है। बिहारी सतसई रीतिकाल के दो सौ वर्षों के इतिहास की एक सुन्दर कड़ी है और अपने युग की रुचियों और प्रवृत्तियों का एक सुन्दर निदर्शन है।

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Anjali Yadav

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