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रीतिकालीन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एंव विशेषताएं
रीतिकालीन साहित्य की सृष्टि सामन्तीय वातावरण में हुई। उस समय के राजदरबारी कवि से ‘स्वान्तः सुखाय’ रचना की आशा नहीं की जा सकती है। प्रदर्शन प्रवृत्ति प्रधान युग का कवि भक्तिकालीन कवि के साहित्य संबंधी आदर्शा ‘सन्तन को कहा सीकरी सों काम’ तथा ‘प्राकृत जन कीन्हें गुणगाना’ को छोड़कर स्वामि मनस्तोष की छोटी सी तलैया की वासनात्मक अथवा संकीर्ण लकरियों में आकंठ निमग्न हो बेसुध बह गया। उसकी वाणी में सूर और तुलसी जैसी तन्मयता, सात्विकता, ऊर्जस्विता और उदात्त चेतना नहीं है। रीतिकालीन कवि की समस्त अन्तश्चेतना सुरा, सुन्दरी और सुराही के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रही थी। दरबारी वेश्याओं तथा रक्षिताओं के मणि-मंजीर की मधुर ध्वनि को छोड़कर वह विशाल जन कोलाहल को सुनने के लिए कभी भी बाहर नहीं निकला। भाव सौन्दर्य की अपेक्षा उसे रूप सौन्दर्य अधिक आकर्षित करता रहा। रीतिकालीन कवि ने अपनी समस्त शक्ति नारी-शरीर के रूप-चित्रण में लगा दी, उसकी अंतरात्मा तक वह कभी नहीं जा सकता। रीति कवि की इस प्रवृत्ति का प्रधान कारण उस समय का घुटनशील वातावरण है। विदेशी प्रभुसत्ता के सामने देशी रजवाड़े नतमस्तक होकर हतप्रभ हो चुके थे। सत्तागत तेज के हत हो जाने के कारण उस समय का नरेश-वर्ग उस कमी की पूर्ति के लिए कृत्रिम वैभव और ऐश्वर्य के उपकरणों के भोग द्वारा अपना गम गलत करना चाहता था। जब मन की गाँठ खुल बाहर नहीं खुल पायी तो वह नारी के शरीर में चतुर्दिक् केन्द्रित हो गई और रीतिकालीन कवि नारी शरीर के महीन से महीन चित्र उतारकर क्षतिपूर्ति के साधन जुटाने लगा। फलतः उस समय में शृंगार रस की प्रधानता में प्रेम का स्थान रसिकता ने ले लिया। इस रसिकता की अभिव्यक्ति उस काल के कवि ने सर्वत्र रीति के परिवेश में की।
शृंगारिकता – शृंगारिकता की प्रवृत्ति रीतिकाल में सर्वत्र प्रचुरता के साथ दृष्टिगोचर होती है। भक्ति काव्य परम्परा से उन्हें अपने अनुकूल कुछ ऐसी सामग्री प्राप्त हो गई थी जिससे शृंगारिक और कभी-कभी घोर शृंगारिक कविता लिखने के लिए उस काल के कवि का द्वार खुल गया। निर्गुण-उपासक सन्त कवि “रति इक तन में संचरे” कहकर प्रेम को जीवन का सार कह चुके थे। प्रेम-पीर के साधक सूफी कवि लौकिक प्रेम के द्वारा अलौकिक प्रेम की अभिव्यंजना कर चुके थे, कृष्ण भक्ति में जीवन के मृदुल अंश प्रेम-भाव का व्यापक वर्णन हो चुका था, साथ-साथ राम भक्ति काव्य में भी रसिक भाव की प्रतिष्ठा हो चुकी थी। अतः रति को या प्रेम भाव को प्रधान मानकर शृंगार की रसराज के रूप में प्रतिष्ठा उस युग के लिए स्वाभाविक सी बात थी। उस समय का भौतिक वातावरण भी रीतिकालीन शृंगारिक मनोवृत्ति के सर्वथा अनुकूल था । इसको शास्त्रीय आधार-भूमि संस्कृत काव्यशास्त्र के रस – नायिका भेद और अलंकार ग्रंथों से प्राप्त हो चुकी थी। अपभ्रंश और प्राकृत के लोक श्रृंगारपरक काव्यों से भी इस प्रवृत्ति को पर्याप्त प्रेरणा मिली। राजनीतिक अनुमति से उसे काव्यशास्त्रीय ग्रंथों से मिल चुकी थी। भक्तिकाल में राजनीतिक दासता के शिकार होते हुए भी यहाँ के निवासियों की आध्यात्मिक ज्योति मलीन नहीं पड़ी थी, जीवन के प्रति उनकी आस्था का दीप बुझा नहीं था, किन्तु रीतिकाल के वैभव-विलास के उन्मादक वातावरण में उस समय के कवि की समूची वृत्तियाँ छिछले शृंगार के चित्रण में रम गई। किन्तु इस बात का सारा दोष रीतिकालीन कवि पर नहीं मढ़ा जा सकता, इसका बहुत-कुछ दायित्व उस युग के सामन्तों की मनोवृत्ति को है ।
शृंगार-वर्णन रीति-काव्य का प्रमुख प्रतिपाद्य है। यद्यपि रीतिकालीन कवियों का प्रमुख वर्ण्य विषय नायिका भेद, नख-शिख, अलंकार आदि का लक्षण प्रस्तुत करता है, फिर भी उनके माध्यम से शृंगार का प्रतिपादन किया गया है। वास्तव में यही उनका प्रमुख प्रतिपाद्य है। “सांचा चाहे जैसा भी रहा हो इसमें ढली शृंगारिकता ही। इसकी अभिव्यक्ति में उन्होंने किसी प्रकार से संकोच नहीं किया। इसलिए उनकी श्रृंगारिकता में अप्राकृतिक गोपन अथवा दमन से उत्पन्न ग्रंथियां नहीं हैं, न वासना के उन्नयन अथवा प्रेम को अतीन्द्रिय रूप देने का उचित-अनुचित प्रयत्न । जीवन की वृत्तियां उच्चतर अभिव्यक्ति से चाहे वंचित नहीं रही हों, परन्तु शृंगारिक कुंठाओं से ये मुक्त थीं। इसी कारण इस युग की शृंगारिकता में घुटन अथवा मानसिक छलना नहीं है।” डॉ. नागेन्द्र के उपर्युक्त शब्दों में रीतिकालीन शृंगारिकता का एकविशद एवं निष्पक्ष विवेचन है। शृंगार रस को मोटे रूप में दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-संयोग और वियोग दर्शन, श्रवण, स्पर्श और संलाप संयोग शृंगार में पाये जाते हैं। उक्त भावों को हाव- अनुभाव के रूप में व्यक्त किया जा सकता है। हाव-क्रीड़ापरक है जबकि अनुभाव ब्रीड़ापरक । चमत्कार प्रिय रीतिकालीन कवि के हावों के चित्रण में विदग्धता है। इस दिशा में बिहारी का निम्न दोहा एक सुन्दर निदर्शन है-
बतरस लालच लाल की मुरली घरी लुकाय ।
सौह करै भौहन हंसे दैन कहे नटि जाय ।।
रीतिकालीन कवियों में संयोग के स्पर्श सुख का भी खुलकर वर्णन किया है। देव का एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
स्वेद बढ्यो तन, कंप उरोजनि, आंखिन आँसू, कपोलनि हाँसी।
इन कवियों ने संयोग में सूरत-वर्णन के अवसर को भी हाथ से जाने नहीं दिया। “करति कोलाहलु किकिनी-गह्यो मौन मंजीर” लिखना उस कवि के लिए अस्वाभाविक ही नहीं था। अस्तु । इतना ही नहीं, उसने तो विपरीत रति के घिनौने चित्र तक उतार दिये हैं। संयोग के प्रसंग में हास-परिहास का भी विशेष स्थान होता है, इससे प्रेम में निविड़ता और गहनता आ जाती है तथा कथन में एक विशेष भंगिमा के दर्शन होने लगते हैं। इस संबंध में बिहारी की निम्न पंक्ति दर्शनीय हैं-
गोरसु चाहत फिरह हौ, गोरस चाहत नाहि ।
यहाँ नायिका ने नायक पर एक तीखा तथा चोखा व्यंग्य बाण छोड़ा है। नख-शिख के चित्रण में अनेक सुन्दर पंक्तियाँ हैं, परन्तु उनमें पुनरुक्ति दोष भी है।
रूप-लोलुप रीति-कवियों ने संयोग-पक्ष में स्वयं पावस का उतना प्रभावोत्पादक वर्णन नहीं किया जितना इससे सम्बद्ध हिंडोला और तीज-त्यौहार का पावस में जहां प्रेमी-प्रेमिका का मिलन हुआ वहां कवि रम सा गया। तीज के पर्व पर नायिका के मानसिक उल्लास को देखिए-
काम झूलै उर में, उरोजनि में दाम झूलें,
श्याम झूलै प्यारी की अनियारी अंखियन में।
संयोग-पक्ष के रूप चित्रण में रीतिकालीन कवि विशेष सिद्धहस्त हैं। इस तथ्य का अनुमान इन शब्दों से भली-भांति लगाया जा सकता है—“परन्तु जहाँ तक रूप अर्थात् विषयगत सौन्दर्य का संबंध था, वहां इन कवियों की पहुंच गहरी थी। दूसरी ओर मतिराम, देव, पद्माकर जैसे रससिद्ध कवि रूप-सौन्दर्य का वर्णन करने में पूर्ण रूप से रमे हैं। उदाहरण के लिए नयनों के कटाक्षों और चंचलता का इतना सुन्दर वर्णन विद्यापति को छोड़कर प्राचीन साहित्य में दुर्लभ है। जैसे- पद्माकर-
पैरे जहाँ ही जहाँ वह बाल, तहाँ-तहाँ ताल में होत त्रिवेनी।
श्रृंगार का अन्य पक्ष है वियोग । इसमें पूर्वराग, मान, प्रवास और करुण आते हैं। रीतिकालीन साहित्यकारों में देव ने मुग्धा का चित्रण अधिक किया है क्योंकि उसमें भावुकता का अतिरेक होता है। प्रायः सभी रीति-कवियों ने वियोगिनी की दसों दशाओं का मनोरम वर्णन किया है। इन दस दशाओं में स्मृति, गुणकथन और प्रलाप के द्वारा प्रियतम के हृदय का विश्लेषण किया गया है। देव ने नायक और नायिका के स्मृति-चित्रों का अच्छा वर्णन किया है। पद्माकर की नायिका अपने नायक के गुण का कथन करती हुई कहती है-
छलिया छबीलो छैल छुवै चलो गयो।
प्रलाप दशा में प्रिय के मलन परिम्भण आदि के सुख का बखान किया जाता है। इन दशाओं का वर्णन करते समय इन्होंने खंडिता, मानवती आदि नायिकाओं का उपयोग किया है। बिहारी, देव, मतिराम, पद्माकर सबने ऐसी नायिकाओं के वियोग शृंगार का वर्णन किया है। नायिका के मानसिक अवसाद का वर्णन देव ने अत्यंत बारीकी से किया है-
साथ में राखिये नाथ उन्हें,
हम हाथ में चाहती चार चुरी है।
इसमें कितना दैन्य, कितना विषाद और विवशता भरी हुई है।
इन कवियों ने वियोग-वर्णन में परम्परागत रूप में ऋतु-वर्णन भी किया है, उसमें किसी मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण को नहीं अपनाया। रीतिकालीन नायिकाओं को शुभ्र चन्द्रमा कसाई प्रतीत होती है, किंशुक और अनार उसे अंगार से लगते हैं, चन्दन, चाँदनी और बादल उसके लिए आग बरसाते हैं।
रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध काव्यों की शृंगारिकता के पर्यवेक्षण के अनन्तर निष्कर्ष रूप में इनके श्रृंगार रस के संबंध में हम डॉ० भागीरथ मिश्र के शब्दों में कह सकते हैं-” शृंगारिकता के प्रति उनका दृष्टिकोण मुख्यतः भोगपरक था, इसलिए प्रेम के उच्चतर मोपानों की ओर वे नहीं जा सके। प्रेम की अनन्यता, एकनिष्ठता, त्याग, तपश्चर्या आदि उदात्त पक्ष भी उनकी दृष्टि में बहुत कम आए हैं। उनका विलासोन्मुख जीवन और दर्शन सामान्यतः प्रेम या शृंगार के बाह्य पक्ष शारीरिक आकर्षक तक ही सीमित रहकर रूप को मादक बनाने वाले उपकरण ही जुटाता रहा। यह प्रवृत्ति नायिका भेद, नख-शिख-वर्णन, अलंकार-निरूपण सभी जगह देखी जा सकती है।” इन कवियों का प्रेम-वर्णन रसिकता की कोटि से ऊपर नहीं उभर पाया है। हां, घनानन्द आदि रससिद्ध कवियों का शृंगार इस बात का अपवाद समझना चाहिए। इनकी कविता में शुद्ध हृदय से निःसृत प्रेम के उदात्त उद्गर हैं। इनके श्रृंगार में वासना की दुर्गन्ध नहीं है और न ही उन्होंने राधा-कन्हाई के सुमिरन के बहाने अपने मानसिक फफोले फोड़े हैं। रीतिबद्ध कवियों की शृंगार-भावना में जो रुग्ण भावना है वह इनमें नहीं है। बाबू श्यामसुन्दरदास ने इन्हीं कवियों की सृष्टि को मनोमुग्धकारिणी कहा है। वस्तुतः इन सौन्दर्योपासक प्रेम कवियों का शृंगार-वर्णन काफी स्वच्छ और मनोरम है। इस दृष्टि से रीतिकाल में इन कवियों का स्थान अमर है।
(2) आलंकारिकता- रीतिकाव्य की दूसरी प्रधान प्रवृत्ति है आलंकारिकता। प्रदर्शन, चमत्कार और रसिकता प्रधान युग में इस प्रवृत्ति का होना स्वाभाविक भी था। वैसे तो साहित्य में जनव्यवहत भाषा की अपेक्षा प्रभविष्णुता तथा ग्रहणशीलता की मात्रा अधिक होती है, किन्तु उक्ति चमत्कार के द्वारा पाठक और श्रोता के मन को आकृष्ट कर लेना इस युग के कवियों का लक्ष्य और सफलता का मापदंड बन गया था। एक तो उस समय का विलासी राजदरबारी वातावरण था, दूसरा जन-सामान्य की मनोवृत्ति भी कुछ इस प्रकार की बन चुकी थी कि राजदरबारी कवि को अपने काव्य को कृत्रिम भड़कीले रंगों में रंगना पड़ा। इस आलंकारिकता का एक अन्य कारण था अलंकार शास्त्र के अनुसार अपनी कविता-कामिनी को सांचों में ढालना। बहुत सारे कवियों ने अलंकारों के लक्षण और उदाहरण रचे। परन्तु जिन्होंने केवल उदाहरण रचे, उनके मन में भी अलंकारों के लक्षण और स्वरूप काम कर रहे थे। अलंकारशास्त्र के ज्ञान के बिना उस समय के कवि को सम्मान मिलना कठिन था, इसलिए आलंकारिकता इस युग में खूब फली फूली और यहाँ तक कि अलंकार साधन से साध्य बन गए और कविता-कामिनी की शोभा बढ़ाने की अपेक्षा उसके सौन्दर्य के विघातक बन गए। उसके फलस्वरूप काव्य का आंतरिक पक्ष निर्बल पड़ गया।
काव्य में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत का विधान भावप्रेषणीयता और गहनता तथा तरलता लाने के लिए जरूरी हुआ करता है, किन्तु इन दोनों का रम्यविधान वहीं कवि कर सकता है, जिसे जीवन और जगत् का विस्तृत अनुभव हो। किन्तु सीमित कठघरे में बन्द रीतिकालीन कवि के पास यह वस्तु थी ही कब वह तो पिटी राह का राही था। वह संस्कृत के अलंकार शास्त्र के रूढ़िगत उपमानों को लेकर उनका ही पिष्टपेषण करता रहा। इस संबंध में उसने किसी नवीन मौलिक उद्भावना से काम नहीं लिया। परिणामतः उसके नख-शिख वर्णन रूढ़िबद्ध और अवैयक्तिक ही बने रहे। रूप-सादृश्य-मूलक अप्रस्तुत विधान की अपेक्षा धर्म-सादृश्य विधान सूक्ष्मतर होता है। रीतिबद्ध कवियों में इस प्रकार के अप्रस्तुतों के विधान की कमी है। घनानन्द में भले ही इस विधान की प्रचुरता है। रीतिबद्ध कवियों में देव ने धर्म-सादृश्य मूलक विधान का अधिक प्रयोग किया है। प्रभाव सादृश्य का प्रयोग रीति साहित्य में अत्यंत विरल है क्योंकि इसमें धर्म सादृश्य की अपेक्षा और भी अधिक सूक्ष्मता वांछनीय होती है। संभावनामूलक उत्प्रेक्षा अलंकार का प्रयोग इस काल के कवि ने खूब किया है। इसका कारण यह है कि इसमें कल्पना की उड़ान और चमत्कार -प्रदर्शन की काफी छूट रहती है। चमत्कारी प्रिये होने के नाते यह अलंकार रीति कवि को खूब रुचा चमत्कारमूलक अलंकारों में से श्लेष, यमक और अनुप्रास का अधिक प्रयोग हुआ। बिहारी ने ऐसे चमत्कारमूलक अलंकारों का अधिक प्रयोग किया है, जिन्हें देखकर पाठक आश्चर्यचकित होकर दाद देने पर भी कभी-कभी बाध्य हो जाता है, किन्तु समरण रखना होगा कि कोरे शाब्दिक चमत्कार प्रदर्शन में रसोद्रेक की क्षमता बहुत कुछ समाप्त-सी हो जाती है। प्रभाव उत्पादन के लिए यदि सोमा के अंतर्गत अतिशयमूलक अलंकारों का प्रयोग किया जाए तो निश्चित रूप से काव्य सौन्दर्य में अभिवृद्धि होती है, किन्तु जब कवि सीमा का अतिक्रमण करके दूर की कौड़ी पकड़ने लगता है तो वहां हास्यास्पदता आ जाती है। बिहारी और केशव ने चमत्कार की अतिस्पृहा से ऐसे कहात्मक प्रयोग किए हैं कि शोभासृष्टि के स्थान पर अशोभनता आने लगी है। शुक्ल जो ने कदाचित् बिहारी की इसी अतिरंजना को देखकर उनकी सांसों के हिडोले में झूलने वाली नायिका को घड़ी के पेंडुलम की उपमा दे दी। केशव तो अलंकारों के मोह में इतने ग्रस्त थे कि उन्होंने रामचन्द्र को उल्लू की उपमा दे डाली और ग्रामीण बालाओं से श्लेष अलंकार में वार्तालाप कराने लगे। इस रीतिकालीन आलंकारिता के विवेचन के पश्चात् हम कह सकते हैं कि प्रायः उन कवियों ने परम्परा-मुक्त अलंकारों का प्रयोग किया है। इससे काव्य-सौन्दर्य में कोई विशेष अभिवृद्धि नहीं हुई। निःसन्देह कहीं-कहीं तो अलंकारों से बोझिल पंक्तियां भी मिलती हैं, परन्तु कहीं-कहीं अलंकारों के रूप में सुन्दर अप्रस्तुत विधान की योजना भी की गई है। जहां कवि एकमात्र अलंकार के चमत्कार के पीछे दौड़ा है वहां तो काव्य रूप को विकृति हो गई है। अन्ततः अधिकांश प्रसंगों में अलंकार अनुभूति को तीव्र करने के लिए आये हैं। प्रतिनिधि रीति काव्यों में बिहारी सतसई को छोड़कर शेष में चमत्कार प्रदर्शन की प्रवृत्ति की बहुलता नहीं मिलेगी।
(3) भक्ति और नीति- रीति काव्य में भक्ति और नीति संबंधी सूक्तियाँ यत्र-तत्र बिखरी हुई मिल जाती हैं, पर इनके आधार पर हम रीति कवि को न तो अनन्य भक्त कह सकते हैं और न उसे राजनीतिनिष्णात। भक्ति के बारे में उसने सुकविताई के प्रख्यापन की सोची थी। इस बात का नीचे की पंक्तियों में स्पष्ट संकेत है-
रीझ है सुकवि जो तो जानो कविताई,
न तो राधिका सुमिरन को बहानो है ।।
राधा-कृष्ण के नामोल्लेख मात्र से रीति कवि को भक्त परम्परा में बिठाना नितान्त भ्रांत होगा। रीतिकालीन कवि का मुख्य प्रयोजन था किसी न किसी आश्रयदाता या रसिक को रिझाना। उनके रीझने पर ही कवि अपनी रचना को सफल काव्य मानने को तैयार है नहीं तो अगर वह न रीझे तो बाद में वह संतोष कर लेगा कि चलो कविता न सही तो राधा-कृष्ण का सुमिरन तो हो ही गया। उनकी रचनाओं में राधा-कृष्ण संबंधी भक्तिपरक उद्गार कभी भी स्वीकार नहीं किए जा सकते। इस संबंध में हमें उस युग की परिस्थितियों को भूल नहीं जाना होगा।
अपनी समसामयिक परिस्थितियों से तंग आकर बेचारे ग्वाल कवि को राधा कृष्ण से माफी मांगनी पड़ी होगी-
श्री राधा पदपदम को, प्रनमि प्रनमि कवि ग्वाल।
छमवत है अपराध को, कियो जु कथन रसाल ।।
नीति और भक्ति संबंधी उक्तियां शतक ग्रंथों में उपलब्ध हो जाती हैं। रस ग्रंथों में भक्ति संबंधी उक्तियों की कमी नहीं । कदाचित् इस युग की इन उक्तियों का मूल स्रोत ये ही ग्रंथ हैं। नीति-संबंधी उक्तियों के लिए जीवन के जिन घात-प्रतिघातों के अनुभव की आवश्यकता होती है वह विलासोन्मुख रीति कवि के पास कहां थी ? वस्तुतः वह युग अनेक स्वादों का युग था और उस समय के कवि ने अनेक स्वादों से अपने ग्रंथों को भरना चाहा और कुछ नहीं। इस संबंध में बिहारी के शब्द द्रष्टव्य हैं-
करी बिहारी सतसई भरी अनेक संवाद ।
रीतिकालीन भक्ति के संबंध में डॉ० नगेन्द्र के विचार विशेष द्रष्टव्य हैं- “यह भक्ति भी उनकी श्रृंगारिकता का अंग थी। जीवन की अतिशय रसिकता से जब ये लोग घबरा उठते होंगे तो राधा कृष्ण का यही अनुराग उनके धर्मभीरु मन को आश्वासन देता होगा। इसी प्रकार रीतिकालीन भक्ति एक ओर सामाजिक कवच और दूसरी ओर मानसिक शरण-भूमि के रूप में इनकी रक्षा करती थी। तभी तो ये किसी तरह उसका आंचल पकड़े हुए थे। रीतिकाल का कोई भी कति भक्ति भावना से होन नहीं है-हो भी नहीं सकता था, क्योंकि भक्ति उसके लिए एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता थी। भौतिक रस की उपासना करते हुए उसे विलासजर्जर मन में इतना नैतिक बल नहीं था कि भक्ति रस में अनास्था प्रकट करते या उसका सैद्धान्तिक निषेध करते। इसलिए रीतिकाल के सामाजिक जीवन और काव्य में भक्ति का आभास अनिवार्यतः वर्तमान है और नायक-नायिका के लिए बार-बार हरि हरि और राधिका शब्दों का प्रयोग किया गया है।
सच तो यह है कि नीति और भक्ति उसके जीवन के अवसान और थकान की द्योतक है, राग की अतिशयता से ऊबकर मनुष्य या तो भक्ति और वैराग्य की साधना करता है या म्रियमाण का आँचल पकड़ता है। रीतिकाव्यों के रचयिता इस बात के अपवाद नहीं थे।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि रीतिकाल में रचित रीति-आश्रित काव्यों में यत्र-तत्र उपलब्ध भक्ति के कविता खंडों में उसके किसी उदात्त रूप की कल्पना नहीं की गई है किन्तु आधुनिक अनुसंधानों में प्रकाश में आये हुए उत्तर मध्य काल में रचित शुद्ध भक्ति संवलित असंख्य ग्रंथों से यह स्पष्ट प्रकट है कि उक्त काल में भक्ति की धारा इतनी क्षीण नहीं थी जितनी कि प्रायः उसे समझा जाता है। निःसन्देह देव, मतिराम तथा बिहारी आदि रीति कवियों के भक्ति संबंधी छंदों पर “राधा कन्हाई सुमिरन को बहानो है” की उक्ति चरितार्थ होती है किन्तु इसी समय में गुजरात, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा मिथिला आदि में सैकड़ों भक्त, संत, सूफी तथा जैन कवियों ने शताधिक भक्ति संबंधी ग्रंथों का प्रणयन किया जो कि अद्यावधि से उपेक्षित रहा है। राम और कृष्ण भक्ति से सम्बद्ध रचनाओं की प्रक्रिया भक्तिकाल तक ही सीमित अथवा अवरुद्ध नहीं हो गई बल्कि यह परम्परा रीतिकाल में भी अखंड रूप से गतिशील रही। इस काल में विशुद्ध रूप से बृजभाषा में प्रणीत तथा गुरुमुखी लिपि में लिखित बजभाषा संबंधी राम भक्ति काव्यों की संख्या बहुत अधिक है। कृष्ण भक्ति से सम्बद्ध नाना सम्प्रदायों- राधा वल्लभ, सखी, निम्बार्क चैतन्य, बल्लभ तथा ललित सम्प्रदाय के कवियों तथा पंजाब और हरियाणा में गुरुमुखी लिपि में निबद्ध कृष्ण-भक्ति काव्यों की संख्या सौ से भी ऊपर है। इस युग में रचित जैन और संत कवियों की रचनाएं अध्यात्म और भक्ति की दृष्टि से पर्याप्त महत्वपूर्ण हैं। इनकी संख्या हजार से भी ऊपर चली जाती है। इनमें प्रतिपादित धर्म, नीति, भक्ति और आध्यात्मिकता ने जनता के नैतिक स्तर को काफी ऊंचा उठाया गया है। रीतिकाल में उपलब्ध भक्ति काव्य
परिमाण और साहित्यकता की दृष्टि से पर्याप्त महत्वपूर्ण है, अतः इसका विशेष अध्ययन अपेक्षित है। राम और कृष्ण से सम्बद्ध मुक्तक, खंड तथा प्रबन्धात्मक सभी प्रकार के काव्य उपलब्ध होते हैं। शिव-पावर्ती से सम्बद्ध एक रचना का भी पता चला है।
(4) काव्य रूप- रीति कवि के काव्य की सृष्टि का उद्देश्य उस युग के राजाओं और रईसों की रसिकता की वृत्ति को संतुष्ट करना था। वह सर्वतः राजदरबारी वातावरण से घिरा हुआ था। ऐसी स्थिति में चमत्कार उत्पादनार्थं तथा वाहवाही- प्राप्ति के लिए मुक्तक काव्य शैली उसके अधिक अनुकूल पड़ी। यह समय प्रबन्ध काव्य निर्माण के लिए सर्वथा अनुपयुक्त था। जिन राजदरबारों में कविपुंगवों के दंगल लगते हों और जहां पर एक-दूसरे से बाजी मार जाने की होड़ चलती हो, वहाँ प्रबन्ध काव्य का प्रश्न कहीं नहीं उठता और फिर इस दिशा में जो थोड़ा बहुत साहस किया भी गया हो तो वह विशेष फलीभूत भी नहीं हुआ। प्रबन्ध काव्यों के लिए निरन्तर एकरसता और धैर्य की आवश्यकता होती है, ये दोनों वस्तुएं न तो उस समय के कवि के पास थीं और न श्रोता के पास।
हिन्दी-साहित्य के इतिहास में मुक्तक के संबंध में आचार्य शुक्ल लिखते हैं-“मुक्तक में प्रबन्ध के समान रस की धारा नहीं रहती जिसमें कथा प्रसंग की परिस्थिति में अपने-आपको भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें रस के छींटे पड़ते हैं जिनसे हृदय-कलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है। यदि प्रबन्ध काव्य विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इसी से वह सभा-समाजों के लिए अधिक उपयुक्त होता है। उसमें उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संघटित पूर्ण जीवन या उसके एक पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, कोई एक रमणीय खण्ड दृश्य इस प्रकार सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिए मन्त्र-मुग्ध सा हो जाता है। इसके लिए कवि को मनोरम वस्तुओं या व्यापारों का एक छोटा सा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है।” उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट ध्वनित है कि आचार्य शुक्ल ने रसमग्नता की दिशा में मुक्तों को उपेक्षणीय दृष्टि से देखा है। परन्तु स्मरण रखना होगा कि भले ही मुक्तों में अविच्छिन्न रसधारा के दर्शन नहीं होते किन्तु उनमें गहराई अवश्य पाई जाती है। संस्कृत साहित्य में कवि अमरूक के एक-एक मुक्तक पद्य को शत-शत प्रबन्ध काव्यों की क्षमता रखने वाला कहा गया है। हिन्दी के विद्यापति, सूरदास, घनानन्द के मुक्तक पद्यों के संबंध में भी उक्त तथ्य पूर्णत: चरितार्थ होता है। बिहारी के कुछ दोहों में पूरी गहराई और रसोद्रेक क्षमता के दर्शन होते हैं। देव में भी रसोद्बोधन पर्याप्त मात्रा में है। रीतिकाव्य के संबंध में समष्टि रूप से यह कहा जा सकता है कि उसकी मुख्य विशेषता रसोद्रेक में न होकर चमत्कार -प्रदर्शन में है।
रीति काव्य में, अधिकांशत- कवित्त, सवैया और दोहा जैसे छंदों का प्रयोग किया गया है। यद्यपि बीच-बीच में छप्पय, बरवै, हरिपद, आदि छंदों का भी प्रयोग किया गया है किन्तु रीति-कवियों की प्रवृत्ति अधिकतर दोहा, सवैया और कवित्त में ही रमी है। कारण कि ये छंद ब्रजभाषा की प्रकृति के विशेष अनुकूल पड़ते थे और जिन भावों का वर्णन इनमें किया गया उनमें भी ये उपयुक्त पड़ते थे। अवधी भाषा का बरवै छंद भी लालित्य में इनके समान बैठता है अतः उसका प्रयोग भी इस काल में किया गया। रीतिकालीन कवि चमत्कारप्रिय थे। इस चमत्कार प्रदर्शन के लिए जिन शब्दालंकारों- यमक, अनुप्रास आदि का आश्रय उन्होंने लिया है तथा अर्थालंकारों को ग्रहण किया है, उनके द्योतन के लिए भी उपर्युक्त छंद अनुकूल पड़ते थे। दूसरे रीति कवि को ये छंद अपने पूर्ववर्ती साहित्य से परम्परा-रूप में भीप्राप्त हुए थे फिर इन्हें निज युगानुकूल पाकर उन लोगों का सारा ध्यान इन्हीं छंदों पर केन्द्रित हो गया। रीतिकाल में शृंगार रस का अधिक उपयोग हुआ है। ये छंद उसकी प्रकृति के भी सर्वथा अनुकूल थे। नीति और सूक्तियों को भी दोहा जैसे छंद से सफलतापूर्वक लिखा जा सकता है। कवित्त और सवैया वीर रस की अभिव्यक्ति के लिए बड़े सफल सिद्ध हुए ।
वैसे तो इस युग में कुछ प्रबन्ध काव्य भी लिखे गये परन्तु वे मुक्तक काव्यों की अजस्त्रधारा के सामने विशेष प्रसिद्धि को प्राप्त नहीं हो सके ।
(5) ब्रजभाषा की प्रधानता ब्रजभाषा इस युग की प्रमुख साहित्य भाषा है। अलंकार प्रधान युग में भाषा को सजीवता और शृंगार के संबंध में कवि को विशेष सतर्कता और जागरुकता से काम लेना पड़ा है। भारतीय-साहित्य में लालित्य के क्षेत्र में संस्कृत भाषा के पश्चात् ब्रजभाषा का स्थान आता है। एक तो यह मध्यदेशीय भाषा थी, दूसरी यह प्रकृति से मधुर थी और साथ ही कोमल रसों की सुन्दर अभिव्यक्ति की इसमें अपार क्षमता थी। यही कारण है कि रामचरित मानस तथा पद्मावत जैसे अवधी में लिखे हुए काव्यों के होने पर भी रीति-कवि बजभाषा के प्रति आकर्षित हुआ, उसे सजाया संवारा और निखारा। डॉ० नगेन्द्र इस काल के कवि की भाषा के संबंध में लिखते हैं-” भाषा के प्रयोग में इन कवियों ने एक खास नाजुकमिजाजी बरती है। इनके काव्य में किसी भी ऐसे शब्द की गुंजाइश नहीं, जिसमें माधुर्य नहीं है, जो माधुर्य गुण के अनुकूल न हो। अक्षरों के गुम्फन में इन्होंने कभी भी त्रुटि नहीं की। संगीत के रेशमी तारों में इनके शब्द माणिक्य मोती की तरह गुथे हुए हैं। नागरिकता और मसृणता इस काल की भाषा के मुख्य तत्व हैं। ऐसी रंगोज्ज्वल शब्दावली अन्यत्र दुर्लभ है।
वर्ण-मैत्री, अनुप्रासत्व, ध्वन्यात्मकता, शब्द गति, शब्द-शोधन, अनेकार्थता, व्यंग्य आदि की विशेषता इस काव्य में प्रचुर मात्रा में मिलती है। यह काल ब्रजभाषा की चरमोन्नति का काल है। इस समय ब्रजभाषा में विशेष निखार, माधुर्य और प्रांजलता का समावेश हुआ और भाषा में इतनी प्रौढ़ता आई कि भारतेन्दु-काल तक कविता-क्षेत्र में इनका एकमात्र आधिपत्य रहा और आगे के समय में भी इसके प्रति मोह बना रहा। यह ब्रजभाषा के माधुर्य का ही परिणाम था कि हिन्दी में मुसलमान कवियों ने भी इसी भाषा का प्रयोग किया और बंगाल के कुछ वैष्णव भक्त कवियों ने भी इसका प्रयोग किया। दास ने तो बजभाषा की सीमा ही बढ़ा दी। वे केवल ब्रजमंडल में बोली जाने वाली भाषा को ही बजभाषा कहने को तैयार नहीं वरन् उसके क्षेत्र की सीमा को और आगे खींचते हुए अवध प्रदेश तथा राजस्थान तक ले जाते हैं। ब्रजभाषा तो मधुर रूप में कवियों की रचनाओं में मिलती है परिणामतः उसमें अवधी, राजस्थानी और बुन्देलखंडी के शब्दों का भी समावेश हुआ। पूर्वी और छत्तीसगढ़ी आदि अनेक बोलियों को कोमल तथा व्यंजक शब्द इसमें समाविष्ट हुए। अपनी उदार प्रवृत्ति के कारण इसने अरबी और फारसी जैसी विदेशी भाषाओं के शब्दों का चयन किया। एक ओर तो ब्रजभाषा में बोलियों के सम्मिश्रण की प्रक्रिया चलती रही दूसरी ओर कवियों ने उनके शुद्ध व्याकरण-सम्मत रूप के प्रयोग पर विशेष ध्यान नहीं दिया बल्कि स्वेच्छानुसार उसे तोड़ा-मरोड़ा भी। ऐसे कवियों में भूषण और देव का नाम खास तौर पर बदाम है। भूषण ने ब्रजभाषा के शब्दों के साथ-साथ अरबी, फारसी के शब्दों की तोड़-मरोड़ की है। देव ने तुक, अनुप्रास तथा यमक के आग्रह से शब्दों की तोड़-मरोड़ में मनमाना व्यवहार किया है। पद्माकर की भाषा भी उक्त दोष से रहित नहीं है। बिहारी की भाषा में अवधी, बुन्देलखण्डी, राजस्थानी आदि प्रादेशिक भाषाओं की गहरी छाप है। रीतिबद्ध कवियों की भाषा में कारक चिन्हों की गड़बड़, लिंग-संबंधी दोष, क्रिया रूपों की अनेकरूपता, पद-विन्यासगत शिथिलता आदि के दोष देखे जा सकते हैं। हां, इन कवियों में बिहारी की काव्य भाषा कतिपय दोषों के बावजूद भी टकसाली भाषा का नमूना है। हालांकि रीतिकाल तक पहुंचते-पहुंचते ब्रजभाषा में च्युतसंस्कृति आदि दोषों का सर्वथा परिहार हो जाना चाहिए था, पर वह हुआ नहीं, यह एक आश्चर्य की बात है और कदाचित् यही कारण है कि ब्रजभाषा में गद्य लेखन की क्षमता नहीं आ सकी। इस काल की भाषा की इस त्रुटि को लक्ष्य रखकर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही कहा है- “भाषा के भी विश्रामदायक और विनोदन गुणों का इस काल में खूब मार्जन हुआ परन्तु उसे योग्य बनाने का यत्न किसी ने नहीं किया कि वह गंभीर विचार – प्रणाली का उपयुक्त वाहन बन सके।”
परन्तु इसका मतलब यह कदापि नहीं कि इस काल में परिनिष्ठित भाषा लिखने वाले थे ही नहीं। रसखान और घनानन्द की भाषा को सब लोगों ने परिनिष्ठित ब्रजभाषा माना है। बिहारी की भाषा अपनी त्रुटियों के बावजूद भी टकसाली कही जाएगी। भाषा के प्रयोग के क्षेत्र में कहीं-कहीं तो इन्होंने तुलसीदास को भी पीछे छोड़ दिया है। भाषा की जो मसृणता और लचकीलापन देव और पद्माकर में दिखाई देता है वह तुलसी में नहीं। तुलसी का कवित्व बहुत कुछ वर्णनात्मक होकर रह गया है। जबकि देव और पद्माकर में वातावरण निर्माण और संमूर्तन की गहरी क्षमता दिखाई देती है।
रीति मुक्त कवियों- बोधा और घनानन्द आदि की भाषा के विषय में पं० विश्वनाथप्रसाद मिश्र के विचार अवलोकनीय हैं- “घनानन्द और ठाकुर ने बृजभाषा को बहुत शक्ति दी है। वागयोग का ऐसा विधान शब्दों का मनमाना और निरर्थक प्रयोग करने वालों में कहीं लोकोक्तियों का जैसा विनियोग ठाकुर ने किया है किन्हीं के किसी दूसरे कवि ने नहीं । घनानन्द की रचना में तो भाषा स्थान स्थान पर अर्थ की संपत्ति से समृद्ध होकर सामने आती है। वाक्य ध्वनि और पदध्वनि तो दूर रही पदांश-ध्वनि से भी जगह-जगह काम लिया गया है। इसका एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा-
मेरी मनोरथ हु वहियें अरु है मो मनोरथ पूरनकारी।
तात्पर्य यह है कि रीतिमुक्त कवि भाषा के प्रयोग में पूर्णतः सक्षम थे किन्तु अधिकांश रीति-काव्यों की भाषा में शुद्धता की ओर प्रायः ध्यान नहीं दिया गया।
(6) लक्षण ग्रंथों का निर्माण- रीतिकाल में कवि कर्म और आचार्य कर्म एक साथ चलते रहे। रीतिमुक्ति कवियों को छोड़कर प्राय: इस काल के सभी कवियों ने लक्षण ग्रंथों का निर्माण किया है। रीतिबद्ध कवियों ने तो सीधे रूप में लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत किया। रीतिसिद्ध कवियों ने केवल उदाहरण जुटायें, उन्होंने प्रत्यक्ष रूप से काव्यांग संबंधी किसी लक्षण को नहीं लिखा पर उनके सभी उदाहरणों की पृष्ठभूमि में रीतिशास्त्र काम कर रहा है। इस प्रसंग में इतना स्मरण रखना होगा कि ये दोनों कार्य-कवि-कर्म और आचार्य कर्म-परस्परविरोधी वस्तुएं हैं। कवि के लिए माता का सा भावप्रवण हृदय अपेक्षित होता है। आचार्य-कर्म की सफलता के लिए प्रौढ़ मस्तिष्क और सर्वांग पूर्ण संतुलित विवेचन-शक्ति की अपेक्षा हुआ करती है। रीतियुगीन साहित्यकार सर्वप्रथम भावुक हृदय वाला एक कोमल भावनाओं का चितेरा है, आचार्य कर्म को तो उसे परम्परावश निभाना पड़ा उस युग में कुछ ऐसी परिपाटी चल रही थी कि कोई भी कवि रीतिशास्त्र के ज्ञान के बिना राजदरबार में आदर का पात्र नहीं बन सकता था। फलतः सभी कवियों ने पांडित्य प्रदर्शन किया परन्तु लक्षण-ग्रंथों के निर्माण में इन लोगों की सफलता संदिग्ध है। आचार्य शुक्ल ने रीतिकालीन इस प्रवृत्ति को लक्ष्य करके ठीक ही कहा है कि इन रीतिकारों के रीति-ग्रंथों पर निर्भर रहने वाले व्यक्तियों का ज्ञान अधूरा समझना होगा क्योंकि इन्हें स्वयं भी रीतिशास्त्र का परिपक्व ज्ञान नहीं था। निःसन्देह इन रीति ग्रंथों में काव्यांगों का कोई विवेचन प्रस्तुत नहीं किया गया बल्कि कई स्थलों पर तो इस काल के कवि आचार्यों ने भद्दी भूले भी की हैं। प्रौढ़ विवेचन तो दूर रहा, कुछ तो संस्कृत के आधारभूत शास्त्रीय ग्रंथों का अनुवाद भी सम्यक् रूप से नहीं कर पाए। वस्तुतः प्रौढ़ विवेचन तभी संभव होता है जबकि काव्य के विभिन्न सम्प्रदायों की उस क्षेत्र में स्थापना हो चुकी हो। हिन्दी के रीति काव्यों के निर्माण के समय हिन्दी में ऐसा नहीं बन पड़ा था। दूसरे, रीतियुग के आचार्य ने या तो हासोन्मुख संस्कृत साहित्य के उस समय के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों का आश्रय लिया जबकि काव्य के अंग और अंगों का भेद भी स्पष्ट नहीं हो पाया था। उन्होंने मम्मट या ध्वनिकार के ग्रंथों को अपने आश्रय रूप में ग्रहण नहीं किया। यदि ग्रहण किया भी तो बहुत थोड़े आचार्यों ने। दूसरे, उस रसिक प्रधान युग के व्यक्ति की काव्य संबंधी प्रौढ़ ज्ञान के प्राप्त करने के लिए अभिरुचि भी कहां थी ? उन्हें तो रीतिशास्त्र का प्रारंभिक ज्ञान अपेक्षित था और उसकी पूर्ति इन लक्षण-ग्रंथों से हो गई। डॉ० भागीरथ के शब्दों में, “वास्तविक तथ्य तो यह है कि इन हिन्दी लक्षणकारों या रीति ग्रंथकारों के सामने कोई वास्तविक काव्यशास्त्रीय समस्या नहीं थी। उनका उद्देश्य विद्वानों के लिए काव्यशास्त्र के ग्रंथों का निर्माण नहीं था, वरन् कवियों और साहित्य रसिकों को काव्यशास्त्र के विषयों से परिचित करना था। संस्कृत के आचार्यों की सी परिपाटी यहां नहीं बन पाई थी कि वे अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के विचारों का खण्डन या मण्डन करके किसी सिद्धांत या काव्यादर्श को आगे बढ़ाते । अतः यह तथ्य है कि हिन्दी काव्यशास्त्र या रीति-ग्रंथों के द्वारा भारतीय काव्यशास्त्र का कोई महत्वपूर्ण विकास नहीं हो पाया। फिर भी काव्य-क्षेत्र में और हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों का अध्ययन में इस प्रकार के काव्य का महत्वपूर्ण स्थान है। इस परम्परा को लेकर लिखे गये ग्रंथों की संख्या बहुत बड़ी है।”
(7) वीररस की कविता – वैसे रीति युग प्रायः शान्ति और समृद्धि का समय है किन्तु औरंगजेब के क्रूर आतंकमय शासन ने भारतीय प्रशान्त वातावरण को विक्षुब्ध कर दिया। अब पूर्ववर्ती सम्राटों की उदारता की नीति का स्थान औरंगजेब की कट्टर असहिष्णुता की नीति ने लिया। उसने हिन्दू जनता पर अकथनीय अत्याचार किये। फलतः चिरकाल से प्रसुप्त वीरात्मक प्रवृत्तियां पुनः जाग उठीं। दक्षिण में महाराज शिवाजी, पंजाब में गुरु गोविन्दसिंह, राजस्थान में महाराणा राजसिंह और जसवंत सिंह का सेनापति दुर्गादास तथा मध्य प्रदेश में छत्रसाल आदि वीर स्वदेश और स्वधर्म की रक्षा के लिए औरंगजेब के साथ लाहा लेने को उठ खड़े हुए। अपने आश्रयदाताओं की धमनियों में अपने आततायी के विरुद्ध खड़े होकर सबल टक्कर लेने के लिए नवीन रत का संचार करने के उद्देश्य से कवियों ने भी वीर रसात्मक कविताओं की रचना की। इस प्रकार शृंगार की प्रधान धारा के साथ क्षीण रूप में वीररस की धारा भी इस काल में बहती रही। यह इन दो विरोधी रसों का एक विलक्षण सम्मिश्रण है। भूषण, सूदन, पद्माकर आदि कवियों ने बड़ी ओजस्विनी भाषा में वीररसात्मक काव्य की सृष्टि की। इन वीर रस के कवियों में राष्ट्रीयता का स्वर प्रधान है। कुछ लोग इन कवियों की राष्ट्रीयता पर आपत्ति उठायां करते हैं। उनका कहना है कि इनमें जातीयता है। अस्तु, इस संबंध में हमें कहना है कि प्रत्येक युग के राष्ट्रीयता के मापदण्ड भिन्न-भिन्न हुआ करते हैं। किसी युग की राष्ट्रीयता का निर्धारण करते समय उस युग की परिस्थितियों को भुला देना असंगत है।
आधुनिक अनुसंधानों के फलस्वरूप वीर रस से ओत-प्रोत शताधिक रचनायें प्रकाश में आई हैं। ये रचनायें- राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा अन्य कई प्रदेशों में निर्मित हुई हैं। इस रचना बाहुल्य को देखते हुए लगता है कि उत्तर मध्यवर्ती काल रीतिकाल में जहाँ वीर रस का चित्रण प्रधान विषय बना रहा वहाँ वीर रस का निरूपण भी उससे गौण नहीं था। डॉ० टीकमसिंह तोमर ने अपने शोध प्रबन्ध ‘हिन्दी वीर-काव्य” (1700-1900) में 90 वीर काव्यों की सूची प्रस्तुत की है। जिनका रचना-काल रीतिकाल में पड़ता है। इन रचनाओं में वीर रस के सभी भेदों-युद्धवीर, दानवीर, दयावीर तथा धर्मवीर का सफलतापूर्वक अंकन किया गया है। इसके अतिरिक्त रसो, रयस अथवा रास नामधारी ग्रंथ तथा बात, बेल और वचनिका नामधारी रचनाओं का पता चला है जिनमें वीररस का कलात्मक चित्रण उपलब्ध होता है। ये रचनायें प्रायः राजाश्रय में लिखी गई हैं। इनमें आश्रयदाता के वंश, उन देशों में बीरता तथा दानशीलता की गौरवगाथाओं के अतिरंजनापूर्ण वर्णन हैं। हरियाणा और पंजाब में उपलब्ध वीर काव्य गुरुमुखी लिपि में निबद्ध थे अतः बहुत समय तक विद्वानों का ध्यान इन महत्वपूर्ण वीर गाथाओं की ओर नहीं गया। डॉ. जय भगवान गोयल ने ऐसे 25 वीर काव्यों की सूचना दी है। उनका विश्वास है कि भविष्य के अनुसंधानों द्वारा ऐसे अनेक ग्रंथों की प्रकाश में आने की संभावना है। इन रचनाओं की भाषा ब्रज है। इनमें से गुरु गोविन्द सिंह, संतोष सिंह, संतरेण तथा सुक्खा सिंह की वीर रचनायें वीररस निरूपण की दृष्टि से उत्तम निदर्शन कहीं जा सकती है। इनमें तत्कालीन राजनीतिक चेतना का युगबोध पर्याप्त मात्रा में है। ये वीर काव्य रीतिकालीन परम्परागत शृंगारिकता के प्रभाव से मुक्त हैं। रीतिकालीन वीर-काव्यों का अध्ययन एक विशेष दृष्टिकोण से अपेक्षित है।
(8) सूफी काव्य तथा प्रेमाख्यानक काव्य- रीतिकाल में दो प्रकार के प्रेम काव्यों की रचना हुई। कुछ काव्य आध्यात्मिक प्रेम सिद्धांत निरूपक हैं और कुछ लौकिक प्रेम परक। पहले प्रकार के सूफी काव्यों का निर्माण मुसलमान सूफी कवियों तथा हिन्दू संत कवियों ने किया। मुसलमान सूफी कवियों में कासिम शाह नूर मुहम्मद और शेखर निसार विशेष उल्लेखनीय हैं। हिन्दू कवियों में सूरदास और दुखहरनदास अधिक प्रसिद्ध हैं। यद्यपि सूफी काव्यों का पूर्ण उत्कर्ष भक्तिकाल में दृष्टिगोचर होता है किन्तु यह काव्यधारा उन्नीसवीं शती तक निरन्तर प्रवाहित होती रही। लौकिक प्रेम काव्यों के लेखकों में बोधा, चतुर्भुजदास, आलम आदि विशेष उल्लेखनीय हैं।
(9) आलम्बन रूप में प्रकृति-चित्रण- रीति काव्य में प्रकृति का चित्रण आलम्बन रूप में हुआ। प्रकृति का आश्रय रूप अथवा स्वतंत्र रूप में कम चित्रण हुआ है और यह स्वाभाविक भी था क्योंकि रीति-कवि दरबारी कवि था, उसके पास प्रकृति के उन्मुक्त प्रांगण में विचरने का अवकाश भी कम था अतः उसके काव्य में वाल्मीकि, कालिदास का सा प्रकृति का विम्बग्राही है रूप नहीं मिलता है। प्रकृति का उद्दीपन रूप में चित्रण भी परम्परा-मुक्त है। प्रकृति का चित्रण नायक और नायिका की मानसिक दशा के अनुकूल ही किया गया है। संयोग में उसका मनोमुग्धकारी उत्फुल्ल रूप है और वियोग में विदग्धकारी रूप। प्रकृति के उद्दीपन रूप का चित्रण षट्ऋतु और बारहमासे की चित्रण-पद्धति पर हुआ हैं। संयोग-पक्ष में पावस का उतना प्रभावोत्पादक वर्णन नहीं, जितना इससे सम्बद्ध हिंडोले और तीज-त्यौहार का पावस में प्रेमी-प्रेमिका के मिलन अवसर पर कवि का मन खूब रमता हुआ सा दिखाई देती है। रीति-कवि की नायिका को वियोग-काल में शुभ्र चन्द्रमा कसाई का काम करता दिखाई देता है। पपीहे की पी-पी प्राण लेने लगती है। उसके लिए चन्दन और चाँदनी आग बरसाते हैं। इन रीति कवियों में सेनापति को प्रकृति चित्रण में काफ़ी सफलता मिली है। वैसे रीतिकालीन कवि प्रायः प्रकृति के प्रति तटस्थ थे। जहाँ संस्कृति में प्रकृति की एक-एक अदा पर संस्कृत कवि का मन थिरकने लगता है, जहाँ आषाढ़ का प्रथम दिन से पूरा काव्य निर्माण की प्रेरणा देता है, वहाँ हिन्दी में रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी ने एक-एक दोहे में एक-एक वस्तु का वर्णन करके छुट्टी पा ली। रीतिकाव्य में प्रकृति के संश्लिष्ट चित्र नहीं मिलते हैं। कहीं-कहीं तो इन लोगों ने इस प्रसंग में अपने अज्ञान का भी परिचय दिया है। प्रकृति चित्रण संबंधी इनके दृष्टिकोण का परिचय निम्न शब्दों में भली-भांति मिल जाता है-
ताते मुख मुखै सखि कमलौ न चन्द री।
(10) अभिव्यंजना पद्धति- किसी भी युग के साहित्यकार की अभिव्यंजना पद्धति या प्रणाली उसकी वैयक्तिकता का प्रतीक होती है जो कि साहित्य में सहज रूप में समाविष्ट हो जाती है। कवि अनुभूतियों को मूर्त रूप देने के लिए विशिष्ट शब्दों, मुहावरों, विशेषणों तथा लोकोक्तियों का चयन अपनी वैयक्तिक अभिरुचियों के अनुसार किया करता है। अतः रीति-काव्यों की शैलीगत विशेषताओं के उद्घाटन के लिए हम उनके द्वारा गृहीत शब्दों, विशेषणों, मुहावरों तथा लोकोक्तियों का भी विश्लेषण करेंगे।
मानव-जीवन के समान शब्दों का जीवन भी नाना विलक्षणताओं से परिपूर्ण होता है। कुछ शब्द किसी विशिष्ट युग में नवीन अर्थवत्ता ग्रहण कर लेते हैं। भक्तिकाल में राधा और कृष्ण शब्दों में जो सात्विकता लिपटी हुई थी उसका रीतिकाल में सर्वथा परिहार हो गया और वे साधारण नायक-नायिका नत्थू और कल्लू के अर्थों में प्रयुक्त होने लगे। यही नहीं, रीतिकाल के अंतिम चरण में कन्हैया और सांवलिया में नई अर्थवेत्ता ही नहीं भरी गई वरन् व्यावहारिक जीवन में भी लोग कन्हैया और सांवलिया का नाटक खेलने लगे। रीतिकाल में प्रयुक्त लाल और लला शब्दों का भी यही हाल समझना चाहिए। कविता में वातावरण निर्माण के लिए ध्वन्यात्मक शब्दों का विशेष महत्व है। इस अभिप्राय की पूर्ति के लिए रीति कवि ने तीन प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है-रणनात्मक, अनुकरणात्मक तथा लक्षणात्मक । बिहारी, देव, दास तथा पद्माकर आदि ने इन शब्दों का बहुधा प्रयोग किया है। जैसे- “झांझरिया, झनकेंगी खरी”, “रणत भृंग घंटावली”, “फहर फहर होत पीतम को पीत घट” इन शब्दों से उपस्थित किया गया ऐन्द्रिय वातावरण उस काल के उपभोगात्मक दृष्टिकोण का प है। रीति कवि द्वारा प्रयुक्त विशेषणों में चित्रोपम सौन्दर्य निहित है।
यह बात हम पहले स्पष्ट कर चुके हैं कि रीतिकाल में सामन्ती वातावरण चतुर्दिक फैला हुआ था। बेशक मुगल शासकों के दरबार में हिन्दी को भी थोड़ा-बहुत संरक्षण मिला हुआ था परन्तु जो प्रश्रय फारसी और उर्दू तथा उनके कवि को मिल रहा था वह हिन्दी कवि को नहीं। फलतः रीति-कवि को उनसे होड़ लेनी थी। कदाचित् यही कारण है कि उसने फारसी कवि जैसी ऊहात्मक पद्धति को अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए अपनाया।
(11) नारी चित्रण- हम पहले बता चुके हैं कि मुगल शासन की निरंकुश सत्ता के सम्मुख देशी रजवाड़ों के नरेशों का तेज आहत हो चुका था। मुगल दरबार के प्रचुर विलास का अनुकरण करना ही उनके जीवन का उद्देश्य बन गया था। मानो यह एक मनोवैज्ञानिक रूप से क्षतिपूर्ति थी। राज्याश्रित कवि नारी के कुच कटाक्ष के महीन से महीन विलासात्मक रंगीले और भड़कीले चित्र उतारकर अपने स्वामी के गहरे मानसिक विषाद को दूर करने में प्रयत्नशील थे। उनके सामने नारी का एक ही रूप था और वह था विलासिनी प्रेमिका का । नारी उनके लिए एकमात्र भोगविलास का उपकरणमात्र थी। नारी के अनेक रूपों-गृहिणी, जननी, देवी, भगिनी आदि पर उनकी दृष्टि नहीं पड़ी। वे नारी शरीर के सौन्दर्य सरोवर में सहत पर ही गोते खाते रह गये। एक साहसी मरजीवा के समान उनकी आत्मा के सौन्दर्य के तल पर नहीं पहुंच सके और यह उनसे संभव ही नहीं था। क्योंकि वे कुछ ऐसे वातावरण में चारों ओर से आबद्ध थे कि जीवन को व्यापक दृष्टिकोण से नहीं देख सके और न वे नारी जीवन की अनेकरूपता को अवगत कर सके। डॉ० नगेन्द्र के शब्दों में- “रीति काव्य आध्यात्मिक तो है ही नहीं, परन्तु वस्तु रूप में भौतिक भी नहीं- अर्थात् न उसमें आत्मा की अतल जिज्ञासा है न प्रकृति की दृढ़ कठोरता। वह तो जैसे जीवन का विराम स्थल है। जहां सभी प्रकार की दौड़-धूप से श्रान्त होकर मानव नारी की मधुर आंचल-छाया में बैठकर अपने दुःखों और पराभवों को भूल जाता है। उसका आधारफलक इतना सीमित है कि जीवन की अनेकरूपता के लिए उसमें स्थान ही नहीं है, उस पर अंकित जीवन-चित्र भी स्वाभावतः एकांगी है।”
एक एकांगी दृष्टिकोण के कारण यह नारी-जीवन के सामाजिक महत्व, उसके श्रद्धामय रूप और उसकी मृत शक्ति को देख नहीं सका। वह केवल तनद्युति का अनुरागी था। और उसका वह अनुराग यहां तक बढ़ चुका था कि वह अपनी आराध्य देवी के भी शारीरिक लावण्य पर ही रीझता रहा है- “तीज तीरथ हरि राधिका तन दुति करु अनुराग।” रीतिकालीन कवि की नारी अपने प्रांगण में लाल के द्वारा उड़ाये हुए पतंग की छाया को चूमती फिरती है और कदाचित् पुत्र की हथेली को इसलिए चूमती है कि उसमें अपने प्रियतम का प्रतिबिम्ब मिलता है, जैसे कि वात्सल्य नाम की वस्तु उसमें रह ही नहीं गई। कभी-कभी वह जारज योग का स्मरण करती हुई मुस्करा रही है। ऐसा लगता है कि मानो वासना ही उनके जीवन का खाना-पीना, ओढ़ना-बिछौना सब कुछ हो। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का रीतिकालीन श्रृंगार भावना को रुग्णभावना बतलाना उपयुक्त ही है।
रीतिबद्ध कवियों के द्वारा तो नारी के सामाजिक जीवन के महत्व का उद्घाटन हो ही नहीं पाया, रीतिमुक्त कवियों में भी उसका यह महत्व व्यक्त नहीं हो पाया। सभी बंधीबंधाई लकीर पर उसके अंग-प्रत्यंग की शोभा, हाव-भाव और विलास चेष्टाओं का वर्णन करते रहे। इस संबंध में आचार्य हजारीप्रसाद के शब्द विशिष्ट रूप से अवलोकनीय हैं-“यहां नारी कोई व्यक्ति या समाज के संगठन की इकाई नहीं हैं, बल्कि सब प्रकार की विशेषताओं के बंधन से यथासम्भव मुक्त विलास का एक उपकरण मात्र है। देव ने कहा है-
कौन गनै पुर बन नगर कामिनी एकै रीति।
देखत हरै विवेक को चित्त हरै करि प्रीति ॥
इससे इतना स्पष्ट है कि नारी की विशेषता इनकी दृष्टि में कुछ नहीं है, यह केवल पुरुष के आकर्षण का केन्द्र भर है। नारी-जीवन के प्रति रीति कवि के इस संकुचित दृष्टिकोण का दायित्व एक तो उस समय के वातावरण पर है और दूसरा है। कामशास्त्रीय ग्रंथों के प्रभाव पर नायिका भेद पर दृष्टिपात करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि रीति-कवि ने सर्वत्र रूप के प्रति गहरी आसक्ति प्रदर्शित की है। नायिका होने के लिए किसी स्त्री का सुन्दर होना, पहली शर्त है-
मानों रची छवि मूरति मोहिनी,
श्रीधर ऐसी वखनत नायिका।
(12) मनोवैज्ञानिक चित्रण- रीतिकाल में स्त्री-पुरुष के यौन-संबंधों की महत्वपूर्ण चर्चा की गई है। हमारे भारत में कामशास्त्रीय ग्रंथों की एक विशाल परम्परा है और कदाचित् रीतिकालीन कवि ने अपने साहित्य में उसका उपभोग भी किया है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक फ्राइड ने स्त्री-पुरुष के यौन-संबंधों की अतीव दूरगामी चर्चा की है। वे प्रत्येक क्रिया-कलाप का उत्स काम को मानते हैं, जो कि हमें अस्वीकार है। रीतिकालीन कवि इस दिश में संस्कृत साहित्य की परम्परा से प्रभावित हुआ है। रीतिकाल के समय में समाज में विलासिता और कामोत्तेजना की प्रवृत्तियां अत्यधिक बढ़ चुकी थीं, अतः रीतिकालीन साहित्य में स्त्री-पुरुष के यौन संबंधों के वर्णन में निर्वाध कामुकता और ऐन्द्रियता का समावेश हुआ। पद्माकर के शब्दों में-
निसि जागी लागी हिय प्रीति उमगत गात।
उठि न सकत आलस वलित सहज सलोनेगात ।
रीतिकाल में नायिका भेद के अंतर्गत पद्मिनी, चित्रणी आदि के भेद कवि के कामुक दृष्टिकोण का परिचायक हैं। रीतिकालीन साहित्य यौन-विज्ञान के अध्ययन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण सामग्री जुटाता है।
(13) प्रतियोगिता की भावना – रीतिकालीन काव्य में कवियों के आचार्यत्व और कवित्व की प्रवृत्तियों के साथ-साथ प्रतियोगिता की भावना भी प्रबल रूप से विद्यमान है। वह अपनी काव्य भाषा और सिद्धांतों के प्रतिपादन से अपने समानधर्मी कवियों से निज उत्कृष्टता की स्थापना के कार्य में व्याकुल है। यद्यपि उक्त भावना संस्कृत के कवियों में भी मिलती है किन्तु उसमें अपेक्षाकृत गंभीरता बनी रही। रीतिकाल में इसका क्रमागत ह्रास होने लगा। इसका कारण कदाचित् बादशाहों के महलों में लगने वाले उर्दू और फारसी के कवियों के दंगल हैं। राज-दरबार में अपनी सर्वोत्कृष्टता की सिद्धि की तीव्र लालसा ने रीतिकाल के आचार्य और कवियों में इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया।
(14) पराश्रयिता की भावना- रीतिकालीन कवि और समाज अपेक्षाकृत अधिक पराश्रित है। रीति-कवि एवं आचार्य का व्यक्तित्व, आजीविका और भावाभिव्यक्ति के लिए आश्रयदाता की कृपा दृष्टि पर अवलम्बित है। उसके द्वारा किये गये नायिका-भेट तथा उसके विस्तार- प्रसार में उसके निजी स्फुरण की न्यूनता है। उसके नायिका भेद विस्तार के पीछे संस्कृत कवि से बाजी मारने की भावना काम कर रही है। वह अपने साहित्य और काव्यशास्त्रीय ज्ञान के लिए संस्कृत कवियों तथा आचार्यों पर अधिकतर निर्भर रहा है। इस प्रकार रीतिकालीन कवि द्वारा वर्णित समाज तथा उसके काव्य साहित्य ज्ञान पर पराश्रयिता की स्पष्ट छाप है। किन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि रीतिकाल के कवि ने सब कुछ उधार का लिया हुआ है या उसका साहित्य विशिष्ट व्यक्तित्व से शून्य है। सच यह है कि संस्कृत साहित्य की विशाल परम्परा उसे रिक्थ में मिली थी और उसने उसका सम्यक उपयोग किया और इसके साथ-साथ उसने विशाल संसार को भी अपनी आंखों से देखा। हां, इस विषय में रीतिकालीन कवि की संस्कृत साहित्य पर अत्यधिक अवलम्बिता अवश्य चिन्त्य है। रीतिकालीन कवि में स्वतंत्र चिन्तन के प्रति अवज्ञा का यह भाव खटकता आवश्य है।
(15) विविधमुखी साहित्य- रीतिकाल भारतीय संस्कृति और साहित्य का पुनरुत्थान काल है। इस युग में ज्ञान-संग्रह के रूप में अनेक विषयों से सम्बद्ध ऐसे ग्रंथ मिलते हैं, जिनमें ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, रमल, शालिहोत्र, कामशास्त्र, राजनीति, पाकशास्त्र, सुरापान, संगीत शास्त्र आदि का निरूपण है। इससे उस समय के साहित्य की व्यापकता का जहाँ आभास होता है, वहीं ऐहिकता के प्रति तत्कालीन जागरुकता का भी परिचय मिलता है। रीतिकालीन साहित्य को केवल शृंगार रस तथा काव्यशास्त्रीय विषय की दृष्टि से देखना और उसका मूल्यांकन करना समीचीन न होगा। उसे उसके बृहत् परिपार्श्व में देखना हितकर होगा।
(16) वर्णन शैली तथा रीति कवि का व्यक्तित्व- प्रायः रीति कवि ने अपने काव्य में मध्यकालीन साहित्य की वर्णन शैली का आश्रय लिया है। यह शैली संस्कृत कवि बाण के समय में प्रचलित थी और उसका प्रयोग रीतिकाल तक निरन्तर होता रहा है। संस्कृत के ‘अलंकार शेखर’ तथा ‘शृंगार-तिलक’ ज्योतिरीश्वर ठाकुर का ‘वर्णरत्नाकर’ तथा केशव की ‘कवि-प्रिया’ आदि ग्रंथ वर्णक शैली के प्रतिपादक ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में कवि के प्रतिपाद्य विषयों का निर्धारण कर दिया गया है। बाद में परिवर्तित परिस्थितियों और आवश्यकतानुसार उक्त शैली के अंतर्गत नवीन विषयों का भी समावेश कर लिया गया। इस शैली में जंगल, बाग-बगीचों के वर्णन, वृक्षों, पुष्पों, पक्षियों की घिसी-पिटी रुचियों, उद्यान, क्रीड़ा, सलिल क्रीड़ा, हाथियों-घोड़ों के भेद-प्रभेद तथा उनकी चालों का वर्णन करने की परम्परा थी। बाद में इसमें ज्योतिष, कामशास्त्र पौराणिक विषय तथा पकवानों का भी शनैः शनैः समावेश होता गया। कहने का तात्पर्य यह है कि जो 2 विषय जन रुचि के अधिक निकट पहुंचते गये उन सबका समावेश कवियों ने उक्त शैली के अंतर्गत कर लिया। हमारा दृढ़ विश्वास है कि अब्दुर्रहमान का ‘सन्देश रासक’, विद्यापति की ‘कीर्तिलता’, जायसी का ‘पद्मावत’, केशव की ‘कविप्रिया’ तथा बिहारी की सतसई वर्णक शैली के अंतर्गत है। बिहारी सतसई में अनेक स्वादों के भरने की प्रवृत्ति (करी- बिहारी सतसई, भरी अनेक संवाद) उक्त शैली की ज्ञापक है। बिहारी सतसई में ज्योतिष, पुराण तथा गणित संबंधी उक्तियों के आधार पर बिहारी की उपर्युक्त विषयों में विशेषज्ञता अथवा अपार- पांडित्य की दुहाई देना निरर्थक है। मध्य युग में अनेक विषयों के वर्णन की परम्परा परिनिष्ठित हो चुकी थी और बिहारी आदि ने भी उसी का अनुसरण किया है।
व्यक्तित्व और शैली परस्पर अपरिच्छिन्न वस्तुएँ हैं। रीतिकवि के सामन्ती वातावरण में राज सभा में प्रवेश पाने और राजसम्मान प्राप्त करने के लिए अनेक विषयों की जानकारी का प्रमाण प्रस्तुत करना होता था। निम्नस्थ कथनों में उपर्युक्त तथ्य की सम्यक् परिपुष्टि हो जाती है-
(क) जानत हो ज्योतिष पुराण और वैद्यक को,
जोरी जोरि आखर कवित्तम को उच्चरौ ।
बैठि जानौ सभा मांझ राजा को रिझाय जानौ,
अस्त्र बांधि खेत मांझ सत्रु न सौ हौ लरौ ।
राग धरि गाऊं और कुदाऊं घोड़ें बाग धरि,
कूप ताल बावरीन नारन में हौ तरौ।
(ख) विद्या पढ़ेऊ करू संगीता, सामुद्रिक ज्योतिष गुन गीता।
काव्य कोक आगम हूँ बखानहूँ पद् राग रागिनि संग गाऊं ।
नृत्य चतुर्गन बैद बिनानी, खेल चातुरी उक्ति कहानी ।
पसुभासा और जल तरन धातु रसाइन जानु ।
रतन परख और चातुरी सकल अंग सम्मान ।।
1786 में उत्पन्न उर्दू कवि जौक ने कुछ इसी प्रकार की बहुज्ञता की दुहाई दी है-
किस्मत से लाचार हूं ऐ जौक बगर्ना ।
हर फन में हूं ताके मुझे क्या नहीं आता ।।
(17) जीवन दर्शन – रीति काव्य की सबसे महत्वपूर्ण प्रवृत्ति है यथार्थ जीवन के प्रति गहरी अभिरुचि। इस काल के कवि का मुख्य उद्देश्य है जीवन और यौवन के वास्तविक और रमणीय स्वरूप का चित्रण करना। उसके बीच-बीच में आई हुई आध्यात्मिकता या तो परम्परागत संस्कारवश आई है अथवा सामाजिक आघातों से बचने के लिए कवि ने उसे कवच बनाया है। नायिका भेद और रस निरूपण में जो चित्र उपन्यस्त किए गए हैं वे किसी अतीन्द्रिय लोक के नहीं, वे इसी लोक के हैं। डॉ० भागीरथ मिश्र के शब्दों में- “ऐसे लगता है कि रीति-कविता के रचयिता यौवन और बसन्त के कवि हैं। जीवन का फूलता हुआ सुधर रूप ही उन्हें प्रिय है। पतझड़, संघर्ष और विनाश संभवतः स्वतः जीवन में इतने घोर रूप में विद्यमान था कि कवि काव्य में भी उसको उतार कर नैराश्य और निवृत्ति की भावना को जगाना नहीं चाहता है। वह तो फूलते-फलते जीवन का भ्रमर है। उसने जीवन का एक ही स्वरूप लिया, एक ही पक्ष एक धारा के कवि की संकीर्णता है, दुर्बलता और एकांगिता है। परन्तु जिस पक्ष को इसने लिया है उसके चित्रण में उसने कोई कसर उठा नहीं रखी। उसके समस्त वैभव और विलास के चित्रण में उसने कलम तोड़ दी है।’
निःसन्देह रीति कवि में रूढ़िबद्धता, अवैयक्तिकता और यांत्रिकता है; परन्तु इनके लिए हम रीति-कवि को सर्वथा दोषी नहीं ठहरा सकते। रीति-काव्यों में पाई जाने वाली यांत्रिकता तत्कालीन जीवन की यांत्रिकता। राजा तथा प्रजा दोनों एक बंधी-बंधाई लीक पर चल रहे थे। रीति-कवि की रूढ़िबद्धता का मुख्य कारण इसका अवैयक्तिक दृष्टिकोण है। उसके अभाव में रीति-काव्यों में चित्रित नर-नारी का स्वतंत्र व्यक्तित्व कहीं नहीं दिखाई पड़ता, दीखती है केवल बंधी बंधाई उन्मादक चेष्टाओं तथा स्वभाव और गात्रज अलंकारों के वृत्त में चक्कर काटती हुई खेल-खिलौनों सी नारियां। रीति-कवि का जीवन दर्शन एक सीमित कठघरे में बंधा हुआ है। इस घेरे से बाहर जाकर उसने कभी नीति और भक्ति की सूक्तियाँ भी कहीं, किन्तु वह शीघ्र ही अपने घेरे में लौटकर आराम की सांस लेता है। ऐसी दशा में उससे व्यापक जीवन दर्शन की आशा कैसे की जा सकती है ? इस व्यापकता के अभाव में उसके काव्य में जीवन के विविध उतार-चढ़ाव, उत्थान-पतन और जीवन की स्फूर्तिदायिनी शक्तियों का न मिलना स्वाभाविक भी है। इस व्यापकता के अभाव के कारण उसमें गहराई और गंभीर चिन्तन नहीं आ पाये हैं। ये आ भी कैसे सकते थे। क्योंकि एक तो वह रसिकता प्रधान युग था और दूसरे उस समय का कवि संस्कृत की हासोन्मुख परम्परा का अन्धानुकरण कर रहा था। फलत: चिन्तन का स्थान प्रदर्शन और अलंकरणप्रियता ने ले लिया और उसके काव्य में हल्कापन आ गया। किन्तु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि रीति-कवि के गृहीत जीवन दर्शन से उस समय का समाज तथा हिन्दी साहित्य कुछ भी उपकृत नहीं हुए। इस संबंध में डॉ० नगेन्द्र के निम्न शब्द विशेष विचारणीय हैं- “उसमें न आत्मा की अतुल जिज्ञासा है न प्रकृति की दृढ कठोरता । वह तो जैसे जीवन का एक विराम स्थल है। जहाँ सभी प्रकार की दौड़-धूप से शांत होकर मानव नारी की मधुर अंचल छाया में बैठकर अपने दुखों और पराभावों को भूल जाता है। उसका आधारफलक इतना सीमित है कि जीवन की अनेकरूपता के लिए स्थान नहीं है। उस पर अंकित जीवन चित्र भी स्वाभावतः एकांगी है परन्तु उसमें एक मधुर रमणीयता, मन को विश्राम देने का गुण अवश्य है। घोर निराशा के इस युग में कवि किसी न किसी रूप में संचार करे रहे । मैं समझता हूं, कम से कम इसके लिए तत्कालीन समाज को उनका कृतज्ञ अवश्य होना चाहिए।”
निःसन्देह इनके दृष्टिकोण में अवैयक्तिकता, रूढ़िबद्धता और यांत्रिकता है, परन्तु इन्होंने जीवन को अपनी आंखों से देखने के कार्य को बन्द नहीं कर दिया था। यह दूसरी बात है कि इनका गृहीत क्षेत्र अत्यंत सीमित था परन्तु उस सीमित क्षेत्र का चित्रण निश्चित रूप से स्तुत्य माना जायेगा। आचार्य हजारीप्रसाद के शब्द इस संबंध में विशेष द्रष्टव्य हैं- “कवियों ने दुनिया को अपनी आंखों से देखने का कार्य बन्द नहीं कर दिया। नायिका भेद की संकीर्ण सीमा में जितना लोक चित्र आ सकता था। उसका उतना चित्र निश्चय ही विश्वसनीय और मनोरम है। उनका दोष इतना ही है कि यह चित्र असम्पूर्ण और विच्छिन्न है।”
रीतिकालीन साहित्य में ऐन्द्रियता को देखकर इस साहित्य को गन्दी नालियों में फेंक देने की रट लगाने वाला आलोचक रीति कवि और उसके साहित्य के प्रति घोर अन्याय करेगा। ऐन्द्रियता छायावादी कविता शेफालिका आदि के वर्णन में भी है। उसे किसी प्रकार की अश्लील अथवा शालीनता की कोटि में नहीं रखा जा सकता है। हां, अन्तर केवल इतना है कि रीतिकालीन है नायिका का वर्णन ऐन्द्रिय मान लिया गया है और छायावाद की शेफालिका का वर्णन अतीन्द्रिय। डॉ० भागीरथ के शब्दों में- “इस धारा के कवि ने जीवन के लिए एक अदम्य वासना जाग्रत कर दी है, सौन्दर्यानुभूति और सुरुचि की एक सुकुमारं कसौटी प्रदान की है। रूप-विवेचन का विवेक और भावों की परख की दृष्टि इस काव्य में मिलती है। यह काव्य रमणीय है जो इसे निन्दनीय और उपेक्षणीय समझते हैं वे यौवन के भावों और बसन्त के विकास को भी गर्हित करने की चेष्टा करते हैं। इस काव्य की प्रवृत्तियाँ विश्व काव्य में भी सर्वत्र प्रचुर मात्रा में मिलती हैं और हिन्दी-साहित्य के भी प्राचीन तथा अर्वाचीन दोनों ही काव्यों में इन प्रवृत्तियों की सत्ता कम या अधिक मात्रा में खोजी जा सकती है। केवल एक चेतावनी इस काव्य के संबंध में दी जा सकती है और वह यह कि उसे चुने हुए रूप में पढ़ना अधिक श्रेयस्कर है।” तथ्य यह है कि इन्होंने साहित्य देवता के चरणों पर केवल घोंघे ही नहीं चढ़ाये वरन्- बहुमूल्यरत्न भी अर्पित किये हैं। इस काल के कवि परम्परागत प्रवृत्तियों के ही आश्रित नहीं रहे वरन् उन्होंने नवीन उद्भावनायें भी की हैं और अपनी प्रतिभा द्वारा हिन्दी साहित्य को अलंकृत भी किया है। आचार्य शुक्ल जैसे लोकसंग्रह के पक्षपाती आलोचक को भी इन कवियों में साहित्यिक सौन्दर्य के संबंध में लिखना पड़ गया था- “ऐसे सरस और मनोहर उदाहरण संस्कृत के सारे लक्षण-ग्रंथों से चुनकर इकट्ठे करें तो भी उनकी इतनी अधिक संख्या न होगी।” डॉ० नगेन्द्र के शब्द इस विषय में और भी अधिक महत्वपूर्ण बन पड़े हैं- “परन्तु जहाँ तक रूप अर्थात् विषयगत सौन्दर्य का संबंध था वहां इन नयनों की प्यास अमिट थी । वास्तव में इन कवियों से अधिक रूप पर रीझने की आदत और किसमें हो सकती थी। एक ओर बिहारी जैसे सूक्ष्मदर्शी कवि की निगाह सौन्दर्य के बारीक से बारीक संकेत को पकड़ सकती थी, तो दूसरी ओर मतिराम, घनानन्द, पद्माकर जैसे रससिद्ध कवियों की तो सम्पूर्ण चेतना ही जैसे रूप के पर्व में ऐन्द्रिय आनन्द का पान करके उत्सव मनाने लगती थी। नयनोत्सव का ऐसा रंग विद्यापति को छोड़कर प्राचीन साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है। “
(18) हिन्दी गद्य साहित्य का निर्माण- रीतिकाल में गद्य लेखन का कार्य भक्तिकाल की अपेक्षा अधिक हुआ। इस युग में प्राप्त बज और राजस्थानी का गद्य निश्चयतः समृद्ध व प्रचुर है। इस काल में खड़ी बोली, दक्खिनी हिन्दी और मैथिली में भी गद्य-लेखन का कार्य अधिक सक्रिय रहा। खड़ी बोली गद्य के प्रारंभिक निर्माता, इंशा अल्ला खां, सदासुखलाल, सदल मिश्र और लल्लू लाल तथा उनके पूर्ववर्ती लेखक राम प्रसाद निरंजनी रीति युग की देन है। अतः रीति युग को आधुनिक हिन्दी गद्य के विविध-रूपों का प्रस्फुटन काल कहा जा सकता है।
रीतिकाल की काव्यगत विशेषताएँ
रीति काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों के विवेचन के पश्चात् रीति-काव्य की विशेषताओं का परिचय हम इस प्रकार दे सकते हैं –
(1) रीतिकाल का काव्य यद्यपि श्रृंगार प्रधान है, पर इस श्रृंगार रस की साधना में जीवन के सन्तुलित दृष्टिकोण का नितान्त अभाव है। इसमें ऐन्द्रियता की प्रचुरता है और रसिकता की प्रधानता है।
(2) प्रदर्शन-प्रधान युग में काव्य के बाह्य अलंकार की ओर कवि ने सर्वाधिक रुचि दिखाई। अलंकार के इस अनावश्यक मोह के कारण कहीं कहीं पर कविता कामिनी की आत्मा बुरी तरह से अभिभूत हो गई है। इस युग में वीररसात्मक कविता भी हुई है।
(3) घुटनशील वातावरण से ऊबकर कभी-कभी उसने भक्ति और नीति संबंधी सूक्तियां भी लिखी हैं, परन्तु उसका मन अपने सीमित घेरे में ही रमा है। भक्ति-संबंधी दोहों के आधार पर उन्हें भक्त कवि नहीं कहा जा सकता है। भिन्न रुचि वालों के मनोरंजन के लिए रीति कवि ने शृंगार, नीति, भक्ति और वैराग्य विषयक उक्तियों का सृजन किया है-
शृंगारे रमति चैव वैराग्ये चरित चापरः ।
नीता विलसति चैव रुचि भेदः हि कारणम् ।
(4) उसने प्रायः मुक्तक काव्य लिखे क्योंकि वह युग काव्य के इसी स्वरूप के अनुकूल था । कवित्त, सवैया, दोहा और छप्पय छंदों का प्रयोग किया गया।
(5) उसमें भाषा का परिमार्जन, सौष्ठव और प्रौढ़ता, उक्ति का वैचित्र्य और चमत्कार तथा भाव की मर्मस्पर्शिनी अभिव्यंजना मिलती है। इनकी भाषा बृज है पर उसमें अन्य बोलियों का भी सम्मिश्रण है। च्युत संस्कृति का दोष उसमें अधिकांश कवियों में मिल जाता है।
(6) इस काव्य में लक्षण ग्रंथों के आधारभूत ग्रंथ प्रायः संस्कृत काव्यशास्त्र अथवा पूर्ववर्ती हिन्दी काव्य-शास्त्र के ग्रंथ हैं। इनमें काव्य की विशेषताओं के समझने और समझाने का प्रयत्न किया गया है। इसमें काव्यशास्त्र-संबंधी प्रौढ़ विवेचन का अभाव है, इन काव्यों में लक्षणों की अपेक्षा उदाहरण खंड अधिक लोकप्रिय, उत्कृष्ट एवं सुन्दर हैं।
(7) यद्यपि रीतिकाव्य में शृंगारी कविता की प्रधानता है किन्तु वीररस की क्षीण धारा भी उसके साथ-साथ प्रवाहित होती रही है। भूषण, लाल और सूदन आदि कवियों ने ओजस्विनी भाषा में वीर रसात्मक काव्य की सृष्टि की है।
(8) प्रकृति का परम्परा-भुक्त रूप में चित्रण है। आलम्बन रूप में उसका ग्रहण किया गया है। प्रायः रीति कवि प्रकृति के प्रति तटस्थ सा दीख पड़ता है।
(9) इन कवियों की अभिव्यंजना-प्रणाली विशेष मनोरम है। इनके नयनों में रूप की प्यास अमिट थी। बिहारी, मतिराम, घनानन्द, पद्माकर जैसे कवियों की संपूर्ण चेतना सौन्दर्य से आमूल-चूल स्नात है।
(10) सामन्ती वातावरण में सांस लेने वाले कवि का नारी जीवन के प्रति अत्यंत संकुचित और सीमित दृष्टिकोण रहा है। नारी उसके लिए एकमात्र भोग का उपकरण है। उसका सामाजिक महत्व कुछ भी नहीं ।
(11) रीति कवि ने स्त्री-पुरुष के यौन संबंधों का चित्रण मनोवैज्ञानिक आधार पर किया है। इस दिशा में उन पर भारतीय कामशास्त्र का निश्चित रूप से प्रभाव पड़ा है।
(12) राज सभा के कवियों में परस्पर स्पर्धा और प्रतियोगिता की भावनाओं का चलना अनिवार्य होता है। रीति कवि भी इसका अपवाद नहीं हैं। राजदरबार में अपनी उत्कृष्टकता की सिद्धि की उत्कट लालसा ने रीति कवि में प्रतियोगिता और स्पर्धा की भावनाओं को खूब प्रोत्साहित किया ।
(13) रीति कवि के काव्यशास्त्रीय ग्रंथ तथा उसका शृंगारी काव्य संस्कृत के काव्यशास्त्र और उसकी शृंगारी परम्पराओं का अनुसरण करते रहे हैं। अतः उनमें मौलिकता और चिन्तन का अभाव है। रीति कवि में स्वतंत्र चिन्तन के प्रति अवज्ञा एक खलने वाली वस्तु है ।
(14) रीति काल में केवल शृंगारी-साहित्य का ही प्रणयन नहीं हुआ बल्कि उसमें ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र, रमल, शालिहोत्र, कामशास्त्र, राजनीतिक, पाकशास्त्र, सुरापान तथा संगीत शास्त्र आदि का भी निर्माण हुआ है। रीतिकाल का साहित्य विविधमुखी है। अतः उसे उसके बृहत् परिपार्श्व में देखना हितकर होगा।
(15) रीति कवि ने वर्णक शैली का प्रयोग किया है। केशव और बिहारी का साहित्य उक्त शैली का निदर्शन है। रीति कवि का व्यक्तित्व उसकी व्यवहृत वर्जक शैली की अनुरूपता में है।
(16) इनका जीवन-दर्शन रूढ़िबद्ध, अवैयक्तिक और यांत्रिक है। इनके द्वारा खचित जीवन चित्र अत्यंत संकीर्ण और सीमित है पर वह निश्चित रूप से विश्वसनीय और मनोरम है।
(17) इस काल में दो प्रकार के प्रेमाख्यानात्मक काव्यों का प्रणयन हुआ-सूफी-प्रेम काव्य तथा लौकिक प्रेम काव्य । इनका लेखन हिन्दू और मुस्लिम कवियों ने समान रूप से किया है।
(18) प्रस्तुत काल में हिन्दी गद्य के विविध रूपों का बीजवपन और प्रस्फुटन हुआ।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि यह काल रीति-काव्य शास्त्र की दृष्टि से चाहे इतना महत्वपूर्ण न हो परन्तु कवित्व की दृष्टि है से बड़ा मनोरम है। इस काव्य का साहित्यिक और ऐतिहासिक मूल्य अक्षुण्ण है।
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