वर्तमान साहित्यिक परिदृश्य
आधुनिकता का बोध एक वास्तविकता अवश्य है किन्तु (स्थायी) सत्य नहीं है। आधुनिक बोध किसी भी प्रगतिशील साहित्य की ऐतिहासिक अनिवार्यता है क्योंकि कोई भी साहित्यकार परिवेश से कटकर युग जीवन रहस्यों के प्रति आंख नहीं मूंद सकता है किन्तु अपने परिवेश को विस्मृत कर तथा हठात् पाश्चात्य परिवेश की मृग मरीचिका में भटककर वैज्ञानिकता और आधुनिकता के बोध की आड़ में अपनी मूल्यवान परम्पराओं से सर्वथा सम्बन्ध विच्छिन्न कर तथा समस्त मानव मूल्यों को बलात् कब्र में दफनाकर, नितान्त अनभ्यस्त एवं अपरिचित विदेशी वाणी के अनुपयोगी स्वरों से अपने साहित्य को भरना नितान्त आवांछनीय है। आधुनिक हिन्दी साहित्यकार को सदा इस बात का ध्यान रखना होगा कि आधुनिकता को अत्यधिक मोह में उसके काव्य में मात्र आधुनिकता ही न रह जाये और बेचारी साहित्यिकता का निर्वासन हो जाये। आधुनिकता में सहजता का होना अनिवार्य है, और वह केवल ऊपर से ओढ़ी हुई नहीं होनी चाहिए। विघटित जीवन का अंकन आधुनिकता नहीं बल्कि वह एकांगिता है। समूचे भारतीय जीवन के परिवेश की निश्छल अभिव्यक्ति आधुनिकता का मूल तत्व होना चाहिए। अपने परिवेश के अनुकूल बाह्य प्रभावों को आत्मसात् कर निजानुभूत सत्यों का प्रकाशन और वस्तु है और आधुनिकता का फैशन एक अलग चीज हैं। खंडित चेतना न केवल नागरिक जीवन का अत्याधुनिक (अल्ट्रामाडर्न) रूप है और न वैयक्तिक कुंठायें मात्र आधुनिकता है। युग-जीवन के समूचे व्यापकत्व को भोगना, समझना और उसे कलात्मक अभिव्यक्ति देना सच्ची आधुनिकता है। आधुनिक बोध व सौन्दर्य के नाम पर विश्व साहित्य के सर्वस्वीकृति तत्वों- शाश्वत सत्य को बासी कहना, सुन्दर को वीभत्स कहना तथा शिवत्व को व्यर्थता सिद्ध करना, नकली मुखौटों के दर्शाने एवं ध्रुव सत्य के आलाप के सिवा कुछ भी नहीं कोई भी आधुनिक बोध साहित्य में तब तक स्थायी नहीं बन सकता जब तक वह गहन अनुभूतियों के रूप में साहित्य की विकासमान परंपरा का अंग न बन जाये। पाश्चात्य दर्शन और मतवाद हमें सचेत तो कर सकते हैं, किन्तु हमें दृष्टि नहीं दे सकते। जीवन-दृष्टि तो निजी परिवेश से प्राप्त हो सकती है। सार्त्र का अस्तित्वाद फ्रांसीसी परंपराओं से सर्वथा अलग नहीं है। अतः आधुनिक भारतीय साहित्यकार का आधुनिकता-प्रेम यहाँ की परंपराओं की अनुरूपता में अर्थवान् बन सकता है।
आज के जीवन में त्वरित गति से आने वाले बदलाव, संघर्ष और नये अर्थों की राहें यहाँ के जीवन संदर्भों की अपेक्षा के बिना नहीं बन सकतीं। हमारे भावी जीवन, साहित्य, चिन्तन और कला का भविष्य इसी संतुलित दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। अध्यारोपित आधुनिकता के मायाजान को दूर फेंकने में ही कवि-कर्म की सफलता है।
निःसन्देह वर्तमान युग का मानव राजनैतिक, वैचारिक तथा साहित्यिक क्षेत्र की क्रान्तियों से उबरा नहीं, अपितु उसका व्यक्तित्व खंडित व ध्वस्त हुआ है। साम्यवाद, प्रजातंत्र, पुनः जागरण (रेनासा) तथा लघुमानववाद की विचारधाराओं से आज के मानव के सुनहरी स्वप्न साकार नहीं हो सकते और न ही औद्योगीकरण तथा प्रविधिकरण उसकी स्वर्गिक कल्पनाओं को मूत्रमान कर सके। साम्यवाद और प्रजातंत्र दोनों शासन पद्धतियाँ उसके लिए निराशाजनक सिद्ध हुई हैं। परिणामतः आज का व्यक्ति आधुनिक ज्ञान, विज्ञान, प्रविधि और व्यवस्था का एक निर्जीव पुर्जा व दासवत् बन कर रह गया है। उसका स्वरूप, अस्तित्व व व्यक्तित्व प्रायः खो से गये हैं। अब धर्म- अर्धम, पाप-पुण्य, अच्छे बुरे के परखने की कसौटियों बदल गई हैं। नीत्शे के द्वारा ईश्वर की मौत की घोषणा के बाद मानव का ऊर्ध्वमुखी सम्बन्ध टूट चुका है और विकारग्रस्त, शिश्नोदरी, अधोमुखी सम्बन्ध अहर्निश बल पकड़ते जा रहे हैं। फलतः अनैतिकता, अवांछनीय यौन व्यवहार, बेईमानी, धूर्तता एवं मानव मूल्यों का जोरदार विघटन आदि विकृतियाँ जायज और चालू सिक्के बनते जा रहे हैं।
सार्त्र और काम के अस्तिवादी तथा साम्यवादी दर्शन ने उक्त विकृतियों की वृद्धि में कोई कम योगदान नहीं दिया है।
आज के जीवन में इन विषम परिस्थितियों के चौराहे पर स्थित प्रबुद्धचेता भारतीय साहित्यकार को किंकर्तव्यविमूढ़ता की केंचुली को परे फेंक पाश्चात्य साहित्य की मोहग्रंथियों की कुवाटिका से बाहर आकर भारतीय जन-जीवन के व्यापक परिवेश में खुली सांस लेते हुए सर्वदा यह स्मरण रखना होगा, कि साहित्य आदि नाना ललित कलाएँ जहाँ हमारे हृदय को परिष्कृत और उदात्त बनाती हैं, वहां वे जीवन की रागात्मकता, सौन्दर्यप्रियता, सुरुचीसम्पन्नता एवं कलात्मकता का सफल-उन्नयन करती है। सच्ची कला का उद्देश्य मानव को उच्चतम सोपानों पर पहुँचकर उसे सत्य, शिव, सुन्दर किंवा सत्, चित्त, आनन्द का वह दिव्य साक्षात्कार करवाना होता है जहां सात्वोद्रेक और आनन्द के सिवा और कुछ नहीं होता। भारतीय दर्शन के अनुसार कला को महामाया की संमूर्तन शक्ति स्वीकार किया गया है। कला महामाया के केंचुकों में से एक है। काल, नियति, अनुराग, विद्या और कला ये माया के पाँच केंचुक हैं। कला महामाया का चिन्मय विकास है। कला एक विधायिनी शक्ति है। ललितात्मकता, लीला और आनन्द उसके अभिन्न तत्व हैं। कला का उद्देश्य बंधन नहीं मुक्ति है। उसका उद्देश्य सस्ती रसिकता या भोगवाद में विश्रांति नहीं बल्कि परम तत्व की ओर अग्रसर करना है। उसका अनिवार्य उपकरण जीवन रस है न कि भोग रस। सत्य, शिव और सुन्दर की ओर उत्तरोत्तर उन्मुखीकरण की कला की चरम सार्थकता है।
विश्रान्तिः यस्य संभोगे सा कला न कला मता।
लीयते परमानन्दे ययात्मा सा परा कला ।।
केवल भोगवाद, कुंठाओं, अवसाद, जीवन संत्रास, अस्तित्ववाद एवं मृत्यु की आशंकाओं के संभार को लेकर चलने वाली कला, न तो समाज में समादृत हो सकती है और न ही मोहवरणों का भेदन कर परम तत्त्वत्वाद की ओर बढ़ सकती है। लोक रचना कला की क्रीड़ा है, जन कल्याण उसका परम सखा है, आनन्द उसका आहार है और सज्जनों का हृदय उसका निवास स्थल है ।
इस संदर्भ में एक बात स्मरणीय है कि किसी भी सच्चे साहित्यकार की कृति उसके वैयक्तिक रोने-धोने या अनर्गल प्रलापों तक सीमित नहीं होती, प्रत्युत् उसमें सामाजिक जीवन के समस्त घात-प्रतिघात प्रतिबिबित होते हैं । कलाकार केवल निज का प्रख्यापक या उद्घोषक नहीं हुआ करता, वरन् वह युग और समाज का मुख और मस्तिष्क होता है। केवल वैयक्तिक कुंठाओं की अभिव्यक्ति कला को विकृत करने के साथ-साथ एक सामाजिक अपराध है। कल्प कलाकारों की कलाकृतियाँ मात्र वैयक्तिक जीवन तक सीमित न रहकर युग जीवन से अनुप्रमाणित हुआ करती है। कला केवल कौतुहल या विलास मात्र नहीं, प्रत्युत वह जीवन के नाना स्वस्थ एवं सुन्दर रूपों की विधायिनी और निर्मात्री है। रूप की उच्च उपासना उसे विद्रूप करने में नहीं, बल्कि उसे सप्राण सरस एवं सौन्दर्य संचालित करने में हैं। स्वतंत्र चेता साहित्यकार का निश्चल आत्माभिव्यजंन, स्व प्रकाशय, स्व संवेद्य और स्व रसास्वाद्य होता है ।
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