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वाद-विवाद पद्धति
मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुसार बालक जिन अनुभवों को क्रिया द्वारा सीखते हैं, उन्हीं का बालकों के जीवन में ज्ञान के स्थायित्व एवं उपयोग की दृष्टि से महत्त्व होता है। इस प्रकार आधुनिक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त छात्रों की सक्रियता पर विशेष बल देते हैं। इसी उद्देश्य से विभिन्न स्तरों पर निरन्तर ऐसी विधियों को प्रयुक्त करने का समर्थन किया जाता है, जो छात्रों को सक्रिय बनाकर ज्ञान प्राप्त करने एवं उनका विकास करने की दिशा में प्रवृत्त कर सकें। योजना विधि, समस्या विधि, सामाजिक अभिव्यक्ति विधि आदि अनेक विधियों को इसी उद्देश्य की प्राप्ति हेतु शिक्षा के क्षेत्र में प्रयुक्त किया जाता है। इनमें से कतिपय विधियाँ इस प्रकार की हैं, जो छात्रों को मानसिक एवं शारीरिक दोनों ही प्रकार से सक्रिय रहने का अवसर प्रदान करती हैं, तथा शेष विधियाँ क्रिया के सिद्धान्त के आधार पर छात्रों के मानसिक विकास की दृष्टि से अधिक उपयुक्त होती हैं। उपरोक्त दोनों ही प्रकार की विधियाँ छात्रों के विकास सन्तोषजनक भूमिका का निर्वाह करती हैं। वाद-विवाद विधि भी इसी प्रकार की विधियों के अन्तर्गत आती है, जिसका प्रयोग विशेषकर प्रगतिशील विद्यालयों में सफलता के साथ किया जाता है। इस विधि के अर्थ को स्पष्ट करने के लिये कतिपय परिभाषाओं का उल्लेख निम्नलिखित पंक्तियों में किया गया है-
रिस्क – “वाद-विवाद का अर्थ है—अध्ययन की जाने वाली समस्या या प्रकरण में निहित सम्बन्धों का विचारशील विवेचन।“
सिम्पसन व मोकम- “वाद-विवाद बातचीत का एक विशिष्ट स्वरूप है, इसमें सामान्य बातचीत की अपेक्षा अधिक विस्तृत एवं विवेकयुक्त विचारों का आदान-प्रदान होता है। सामान्यतः वाद-विवाद में महत्त्वपूर्ण विचारों एवं समस्याओं को सम्मिलित किया जाता है।“
जेम्स एम० ली– “वाद-विवाद एक शैक्षिक सामूहिक क्रिया है, जिसमें शिक्षक व छात्र सहयोगी रूप से, किसी समस्या या प्रकरण पर बातचीत करते हैं। “
इस प्रकार वाद-विवाद पद्धति के अन्तर्गत किसी समस्या अथवा प्रकरण पर छात्र एवं शिक्षक मौखिक रूप से वार्तालाप करते हैं तथा समस्या से सम्बन्धित तथ्यों का विवेचन एवं विश्लेषण करते हुए, सामूहिक रूप से एकमत होकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने का प्रयास करते हैं।
वाद-विवाद औपचारिक एवं अनौपचारिक दोनों ही प्रकार का हो सकता है, परन्तु विद्यालयों में अधिकांशतः औपचारिक वाद-विवाद ही उपयुक्त रहता है। औपचारिक वाद-विवाद हेतु छात्रों अथवा शिक्षक के द्वारा सर्वप्रथम किसी समस्या का प्रस्तुतीकरण जाता है। समस्या के प्रस्तुतीकरण के उपरान्त शिक्षक के द्वारा समस्या के उद्देश्यों, रूपरेखा एवं सम्बन्धित सहायक सामग्री पर प्रकाश डाला जाता है। निर्देशित सहायक साधनों के आधार पर छात्र पृथक्-पृथक् रूप में अपनी तैयारी करते हैं और एक निश्चित तिथि पर शिक्षक अथवा निर्वाचित नेता के संचालन में अपने-अपने विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं। छात्रों के मध्य वाद-विवाद की अवधि में अध्यापक का कार्य छात्रों की कठिनाइयों का निवारण करना तथा उन्हें निरन्तर उद्देश्य केन्द्रित बनाना होता है। वाद-विवाद के अन्त में निर्वाचित नेता अथवा शिक्षक के द्वारा समस्या के निष्कर्षों आदि के सम्बन्ध में संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत की जाती है और इस प्रकार वाद-विवाद की कार्यवाही समाप्त हो जाती है।
वाद-विवाद पद्धति के गुण
1. दूसरों के सम्मुख व्यवस्थित रूप में अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की कला में पारंगत हो जाते हैं।
2. छात्र सामूहिक रूप से निर्णय लेना सीख जाते हैं।
3. वाद-विवाद पद्धति के द्वारा छात्र विषय-वस्तु का चयन एवं संगठन करना सीखते हैं।
4. छात्रों में सहयोग, सद्भाव, अनुशासन आदि अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है।
5. इसके द्वारा छात्रों में स्वाध्याय की आदत का विकास होता है।
वाद-विवाद विधि के दोष
1. प्रायः पिछड़े एवं मन्द-बुद्धि बालकों को विकास का पर्याप्त अवसर प्राप्त नहीं होता।
2. इस पद्धति का प्रयोग छोटी कक्षाओं के बालकों हेतु नहीं किया जा सकता।
3. प्रायः वाद-विवाद उद्देश्य केन्द्रित न रह पाने की दिशा में समय का अत्यधिक अपव्यय होता है।
वाद-विवाद पद्धति हेतु सुझाव
1. छात्रों को मौखिक रूप से अपने विचारों की सुनियोजित एवं सुसंगठित अभिव्यक्ति करने हेतु उन्हें पर्याप्त प्रशिक्षण प्रदान किया जाना चाहिये ।
2. छात्रों में आत्मविश्वास, स्वाध्याय, अनुशासन, सहयोग, धैर्य, विवेकशीलता आदि गुणों का विकास करने हेतु शिक्षक को विशेष रूप से छात्रों को प्रेरित करना चाहिये।
3. समस्या के चयन में समस्त छात्रों की सर्वसम्मति को दृष्टिगत रखना चाहिये।
4. इस पद्धति के सफल प्रयोग हेतु छात्रों को विचारों के व्यवस्थीकरण एवं प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया का समुचित ज्ञान कराना आवश्यक है।
5. छात्रों की तर्क एवं निर्णय शक्ति का विकास करने की दिशा में विशेष रूप से सचेष्ट रहना चाहिये।
6. वाद-विवाद पद्धति का प्रयोग प्रायः पिछड़े एवं मन्द-बुद्धि बालकों के विकास में विशेष सहायक नहीं होता है। अधिकांशतः चतुर, बहिर्मुखी व्यक्तित्व वाले तथा आत्मविश्वास से युक्त मेधावी छात्र ही वाद-विवाद में सक्रियतापूर्वक भाग लेते रहते हैं। शिक्षक के द्वारा इस दिशा में पर्याप्त ध्यान न दिये जाने से पिछड़े बालकों में हीनता, कुण्ठा, निराशा आदि की भावनाओं का उदय होता है। अतः सभी छात्रों के सक्रिय योगदान का सजगतापूर्वक ध्यान रखा जाना आवश्यक है।
7. केवल उपयोगिता पर आधारित समस्या का ही चयन वाद-विवाद हेतु किया जाना चाहिये।
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