वैदिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताओं (गुणों) का उल्लेख कीजिए।
वैदिक शिक्षा की प्रमुख विशेषताएँ (गुण)
(1) औपचारिक शिक्षा का प्रारम्भ- वास्तव में गुरुकुल से ही औपचारिक शिक्षा आरम्भ होती थी। कविवर रवीन्द्र का कथन है, “भारतीय संस्कृति का निर्माण नगरों में नहीं बल्कि वन प्रान्तीय आश्रमों में हुआ था।” उपनयन संस्कार के पश्चात् गुरुकुल शिक्षा आरम्भ होती थी और उस समय गुरुकुल में रहने वाले विद्यार्थियों को “अन्तेयवासिन’ अथवा “गुरुकुलवासी’ कहा जाता था। यहीं बालक की शिक्षा पूर्ण होती थी।
(2) गुरुकुल का सौम्य वातावरण – सामान्यतः गुरुकुल प्राकृतिक सौन्दर्य से युक्त जनपदीय कौलाहल से दूर प्रकृति के सुरम्य कक्ष में स्थित होते थे किन्तु वे किसी गांव अथवा नगर के समीप अवश्य होते थे जिससे कि उसमें रहने वाले छात्रों की सामान्य आवश्यकताएं आसानी से पूरी हो सकें। गुरुकुलों का वातावरण इतना शुद्ध होता था कि छात्रों को सुन्दर प्राकृतिक छटा के मध्य आध्यात्मिक और जीवोपयोगी शिक्षा प्रदान की जाती थी।
(3) ब्रह्मचर्य का पालन- गुरुकुल की एक अन्य विशेषता यह थी कि वहाँ रहने वाले समस्त विद्यार्थियों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना होता था। गुरुकुलों में ब्रह्मचारियों को छोड़कर किसी अन्य को प्रवेश की आज्ञा नहीं थी।
(4) शिक्षण काल- गुरुकुल का शिक्षण काल सामान्य रूप से 12 वर्ष का होता था परन्तु कुछ विद्यार्थी 12 वर्ष से अधिक समय तक गुरुकुलों में अध्ययन करते थे।
(5) वेशभूषा- गुरुकुलों में रहने वाले छात्रों की वेशभूषा भी निश्चित थी। शरीर के ऊपरी भाग के वस्त्र के रूप में मृगचर्म का उपयोग किया जाता था। अधिकतर यह देखा जाता था कि कि ब्राह्मण नर हिरण, क्षत्रिय धब्बेदार हिरण की खाल का वस्त्र पहनते थे। वैश्य बकरे की खाल का उपयोग शरीर के ऊपरी भाग को ढंकने के लिए करते थे और शरीर के निचले भाग को ढंकने हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य क्रमशः सन, रेशम और ऊन के बने वस्त्रों का प्रयोग करते थे। इसके साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य क्रमश: मूंज, तांत और सन से बनी मेखला भी धारण करते थे।
(6) पिता-पुत्र तुल्य गुरु-शिष्य सम्बन्ध- गुरुकुलों में गुरु-शिष्य सम्बन्ध पिता और पुत्र के समान होता था। जिस तरह पिता अपना धन आदि पुत्र को समर्पित कर देता है उसी तरह गुरु भी अपना सम्पूर्ण ज्ञान और तप शिष्यों को समर्पितकर देता था। वह सभी शिष्यों के प्रति उदारतापूर्ण व्यवहार करता था और उनका हर तरह से ध्यान रखता था। गुरु के प्रति शिष्यों की असीम आस्था थी। शिष्य प्रातः काल उठकर अपने गुरु का चरण स्पर्श करते थे और उनके स्नान, पूजा आदि की व्यवस्था करते थे। वे गुरुकुल की गायों को चराते और गुरु के लिए भिक्षा मांगकर लाते थे और गुरु के खेतों में कार्य करते थे। वे गुरु गृह के गृहस्थी के छोटे-छोटे कार्यों को सम्पन्न करते थे। उसे गुरु की आग सदैव जलाये रखनी होती थी। वे गुरु की प्रत्येक आज्ञा का पालन करते थे और उन्हें गुरुदेव आदि शब्दों से सम्बोधित करते थे। गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, देव, महेश्वर, पारब्रह्म आदि का गरिमापूर्ण स्थान प्रदान किया जाता था।
गुरु भी अपने शिष्य को पुत्रवत् मानता था और वह उसका मानस पिता होता था। वह छात्रों के रहन-सहन, पालन-पोषण की व्यवस्था करता था। शिष्यों के स्वास्थ्य और उसके चरित्र के विकास का ध्यान रखता था। शिष्य के बीमार होने पर पिता के समान उसकी सेवा करता था और शिष्यों के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझता था। वह शिष्यों की समस्याओं का समाधान करता था तथा अध्यापन और ज्ञान में वृद्धि के हेतु प्रयास करता था। छात्रों की जिज्ञासा को शान्त करने, शिष्यों के प्रश्न का संतोषजनक उत्तर देने, छात्रों में आदर्श गुणों का विकास करने, उन्हें भावी जीवन के लिए तैयार करने और उनके सर्वांगीण विकास करने में गुरु सदैव तत्पर रहते थे।
(7) गुरुकुलों की स्वायत्तता- गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था बाह्य नियन्त्रण से पूरी तरह से मुक्त थी। राजा अथवा राजसत्ता का गुरुकुलों पर किसी तरह का कोई नियन्त्रण नहीं होता था। यद्यपि राजे महराजे गुरुकुलों को आर्थिक सहायता दान करते थे परन्तु उनके नियम-क़ानून आदि गुरुकुलों पर लागू नहीं होते थे। गुरु गुरुकुलों की व्यवस्था हेतु पूर्णरूपेण स्वतन्त्र थे ।
(8) निःशुल्क शिक्षा- गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था निःशुल्क थी। यह अवश्य था कि शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् गुरु दक्षिणा के रूप में उसे जो देना होता था स्वेच्छा से देता था।
(9) शिक्षा का व्यावहारिक स्वरूप- वास्तव में गुरुकुल शिक्षा पुस्तकीय न होकर व्यावहारिक थी। इसमें विद्यार्थी को पूर्ण जीवन के हेतु तैयार किया जाता था। गुरुकुलों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा भावी जीवन के लिए उपयोगी होती थी। गुरुकुल शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य सभी विषयों का साधारण ज्ञान प्रदान करने के बाद उसे विभिन्न विषयों का विशेषज्ञ बनाया जाता था।
(10) धार्मिकता को महत्व- गुरुकुल शिक्षा में धार्मिक तत्वों की प्रधानता थी क्योंकि शिक्षा की विभिन्न क्रियाओं में धर्म के क्रियात्मक स्वरूप पर विशेष बल दिया जाता था। गुरुकुल में धार्मिक तत्वों जैसे प्रार्थना, संध्या एवं वेद ग्रन्थ और पूजा आदि से परिपूर्ण होते थे। अन्य विषयों की शिक्षा में भी धार्मिकता का समावेश होता था। टी० एन० सिक्वेरा का मत है, “गुरुकुल एक धार्मिक संस्था के तुल्य होता था और वहाँ उसे यह बताया जाता था कि कैसे अपने जीवन का उपयोग करें।”
(11) चरित्र एवं व्यक्तित्व के विकास पर बल- गुरुकुल शिक्षा चरित्र एवं व्यक्तित्व के विकास पर बल देती थी। छात्र ब्रह्म मुहूर्त में जग जाते थे, सत्य बोलते थे, आत्म संयम का जीवन व्यतीत करते थे और अपने अन्दर चारित्रिक गुणों का विकास करते थे।
(12) भिक्षावृत्ति की प्रथा- गुरुकुल शिक्षा की एक अन्य विशेषता भिक्षावृत्ति की प्रथा थी। गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रत्येक विद्यार्थी का यह धर्म होता था कि वह भिक्षा मांगे इस भिक्षा से ही गुरु और शिष्य का भरण-पोषण होता था।
(13) दैनिक दिनचर्या को महत्व- गुरुकुल में दैनिक दिनचर्या का विशेष महत्व था। सूर्योदय से पूर्व ही विद्यार्थी जग जाते थे और रात्रि तक के क्रिया-कलाप कठोर नियमों की श्रृंखला में बँधे हुए चलते थे। उन्हें समस्त नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करना होता था और ये नियम उनके जीवन का अंग बन जाते थे। सेवा और श्रम को विशेष महत्व दिया जाता था।
(14) मौखिक शिक्षण विधि- गुरुकुल में वेद, धर्मशास्त्र, साहित्य आदि की समुचित शिक्षा प्रदान की जाती थी। गुरुकुलों की शिक्षा मौखिक होती थी और चिन्तन-मनन आदि पर अधिक बल दिया जाता था। विद्यार्थियों को ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद आदि चारों संहिताओं के मन्त्रों को याद करना होता था और शिक्षा कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द, निरुक्त, तर्क विज्ञान आदि विषयों का भी अध्ययन करना होता था।
(15) आदर्श दण्ड व्यवस्था- गुरुकुल में शारीरिक दण्ड का निषेध था। आवश्यकता पड़ने पर छात्रों की शुद्धि के लिए दण्डस्वरूप उद्दालक व्रत कराया जाता था।
(16) परीक्षा प्रणाली- गुरुकुल में सतत् और संचयी मूल्यांकन गुरु के द्वारा किया जाता था। औपचारिक परीक्षा का कोई प्राविधान नहीं था।
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