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संत मत के दार्शनिक, धार्मिक तथा सामाजिक पक्ष पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
दार्शनिक पक्ष
सन्त कवि बहुश्रुत थे। इन्होंने वेद, शास्त्र, पुराण और उपनिषद ग्रंथों से वचनों को आप्त वाक्यों के रूप में कदापि ग्रहण नहीं किया। इनका विश्वास कागद लेखी पर नहीं था प्रत्युत आंखिन देखी पर था। निजी अनुभूतियों के बल पर जो कुछ उन्हें विश्वसनीय प्रतीत हुआ, वह इनका दर्शन बन गया। अतः सन्त संप्रदाय का दर्शन उपनिषद, भारतीय पड्दर्शन, बौद्ध धर्म, सूफी संप्रदाय तथा नाथ संप्रदाय की विश्वजनीन अनुभूतियों को मिलाकर सुसंगठित हुआ। इस प्रकार सन्त संप्रदाय का दर्शन शताब्दियों से चली आती हुई साधना के सुन्दर सारों का एक समुच्चय है। सन्त दर्शन में चार तत्वों की प्रधानता है-ब्रहा, जीव, माया और जगत् ।
(क) ब्रह्म- सन्त संप्रदाय का ब्रह्म निराकार और निर्विकार है। वह समस्त विश्व में व्याप्त है। उसे बाहर कहीं भी खोजने की आवश्यकता नहीं। वह घट-घट में विद्यमान है। वह शून्य और निरंजन है। वह वर्णनातीति, अगम्य एवं अकल्पनीय है, वह तो गूंगे का गुड़ है। वह एक है और हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मण तथा शूद्र सबके लिए एक सा है। उसकी प्राप्ति प्रेमानुभूति तथा सहज समाधि से संभव है। ब्रह्म की प्राप्ति गुरु के बिना असंभव है।
(ख) जीव- ब्रह्म और जीव जल और लहर के समान कहने को तो अलग हैं, किन्तु हैं तो एक ही। दोनों में कोई अन्तर नहीं। माया के द्वारा दोनों में अन्तर भासित होता है किन्तु माया के आवरण के हट जाने पर जीव और ब्रह्म पुनः एक हो जाते हैं। जीव मायाग्रस्त होकर अविद्या- अज्ञान के वशीभूत हो जाता है। इस अज्ञान का निवारण सद्गुरु से ही संभव है। जीव के लिए आत्मबोध कठिन होता है। इस कठिनाई को पार करने के लिए जीव ब्रह्म के नाना प्रतीकों और उसके साथ बहुविध सम्बन्धों की कल्पना करता है। ये प्रतीक माता-पिता, स्वामी, मित्र अथवा पति का सम्बन्ध निरूपित करते हैं। इन सम्बन्धों में पति-पत्नी का सम्बन्ध सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि दाम्पत्य भाव में प्रेम की पूर्णता है और यहीं से ही विशुद्ध भावात्मक रहस्यवाद की सृष्टि होती है ।
(ग) माया – यह सत्य के विपरीत भ्रम का जाल फैलाने वाली है। यह निर्गुणात्मक है और कंचन तथा कामिनी के रूप में जीव को सत्यपथ से हटाती है। यह खांड के समान मीठी है किन्तु उसका प्रभाव विष के समान है। जगत् की सभी मोह एवं आकर्षणमयी वस्तुएं माया का प्रतीक हैं। इसने सारे संसार को यस रखा है। सन्त संप्रदाय में नारी के रूप में इसका मानवीकरण किया गया है, जो ठगिनी है, डाकिनी है और सबको खाने वाली है। सम्भवतः यह सूफी मत के शैतान का प्रतिरूप है। इसके निवारण के साधन हैं- सत्संग, भक्ति और ब्रह्म मिलनेच्छा ।
(घ) जगत्- सन्त मतानुसार जो कुछ दृश्य है वह जगत् हैं। वह भ्रममय, चंचल और नश्वर है। जगत् चार दिन की चांदनी है। इस पर विश्वास करना अपने आपको छलना है। धन, वैभव ये आडम्बर, विलास, सुख और दुःख ये सब जगत् के रूप हैं।
साधना-पक्ष – सन्त संप्रदाय की साधना के अन्तर्गत दो वस्तुएं हैं- भक्ति और योग। भक्ति के अन्तर्गत रहस्यवाद है और योग के अन्तर्गत एक ओर तो नाड़ी-साधन और पट्चक्र है दूसरी ओर वह सहज समाधि है, जो अन्ततः रहस्यवाद के समीप पहुंच जाती है।
(क) भक्ति- भक्ति निष्काम और निश्चल होनी चाहिए। विधि-निषेध के द्वारा मन के शुद्ध हो जाने पर उसमें नाम-स्मरण की भावना आती है। नाम-स्मरण श्रवण तथा कीर्तन से मन सन्तुष्ट होता है। कीर्तन से विमल प्रेम उपजता है और उसमें फिर मादकता आती है। दाम्पत्य प्रेम में आत्मसमर्पण की भावना का उदय होता है। आत्मसमर्पण में होने वाली ब्रह्मानुभूति रहस्यवाद है। इस प्रकार सन्तों वेहस्यवाद में जहां एक ओर वैष्णवों के प्रेम का उत्कर्ष है वहीं दूसरी ओर सूफियों के इश्क की मादकता है।
(ख) योग- सन्त संप्रदाय का नाथ संप्रदाय परम्परा से सीधा सम्बन्ध है। अतः इन सन्त कवियों पर योग का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था । किन्तु सन्तों ने अक्षरशः योग के सिद्धांतों को अपनाया हो ऐसी बात नहीं है। कारण, योग को क्रियायें सहज साध्य नहीं थीं।
धार्मिक पक्ष
सन्त मत ने विविध धर्म-संप्रदायों के प्रभाव को आत्मसात् किया किन्तु फिर भी उसका अपना स्वतंत्र रूप है। यह एक विश्वधर्म है। इसमें न तो कर्मकांड का बंधन है और न ही वर्ण तथा जाति भेद। इसके निर्माणकारी तत्व है-जीवन-पवित्रता तथा आचरण की शुद्धता । वासना मुक्ति ही ईश्वर मिलन तथा मुक्ति का प्रथम सोपान है। मन रूपी चुनरी की मलिनता सद्गुरु रूपी रंगरेज के बिना दूर नहीं हो सकती।
(क) विधि निषेध- जगत् जो वस्तु पाह्य है, वह विधि है और जो वर्ज्य है वह निषेध आचरण की पवित्रता के लिए विधि और निषेध आवश्यक है। उदारता, शील, क्षमा, सन्तोष, विनम्रता और विवेकादि गुण जीवन की पवित्रता के लिए पाह्य है. तथा काम, क्रोध, लोभादि दोष वर्ज्य हैं। सन्त काव्य में उपदेशों द्वारा गुण-ग्रहण तथा दोष परिहार पर बल दिया गया है।
(ख) गुरु- सन्त संप्रदाय में गुरु की सत्ता सर्वोपरि है, यहाँ तक कि ईश्वर से भी ऊपर। विधि-निषेध का सम्यक ज्ञान गुरु से भी संभव है। सन्त-साधना में गुरु का स्थान अद्वितीय है।
(ग) नाम-स्मरण- सन्त मत ने भक्ति के मानसिक पक्ष पर अत्यधिक बल दिया है। इस प्रकार की भक्ति में कर्मकांड तथा बाह्य विधि-विधान अनावश्यक होते हैं। इस आंतरिक भक्ति में सत्संग का विशेष स्थान है क्योंकि इससे मन में पवित्रता आती है और नाम-स्मरण, श्रवण और कीर्तन की ओर मन आकृष्ट होता है। इस प्रकार हम सन्त मत के धर्म पक्ष में विधि-निषेध, गुरु, नाम-स्मरण को अत्यंत महत्त्वपूर्ण रूप में देखते हैं। सन्त संप्रदाय के व्यक्ति निम्न जाति के थे जिनके पास कोई शास्त्र परम्परा नहीं थी और इसके साथ-साथ भक्ति आंदोलन के प्रभाव के फलस्वरूप योग की प्रक्रियाओं की निःसारता सिद्ध हो चुकी थी। सन्त संप्रदाय में योग के परम्परागत रूप-इंगला, पिंगला, षटचक्र सहस्रदल कमल, कुण्डलिनी और ब्रह्मरन्ध्र आदि का उल्लेख मिलता है किन्तु इन्होंने अजपा जाप सहज समाधि को अधिक प्रश्रय दिया है। सहज में मुक्ति हो जाती है। इस प्रकार सन्त संप्रदाय की साधना के दो पक्ष हैं-भक्ति के अन्तर्गत रहस्यवाद और योग के अन्तर्गत सहज समाधि ।
सामाजिक पक्ष- सन्त साधना वैयक्तिक और आध्यात्मिक होते हुए भी समष्टिपरक है। आध्यात्मिक दृष्टि से ब्रह्म की सत्ता कण-कण में विद्यमान है। समस्त सृष्टि ब्रह्ममय है, तब वस्तु व्यक्ति और समष्टि में भेद नहीं। व्यक्ति समाज की इकाई है। समाज की सप्राणता सुगठितता व्यक्ति के गुणों और आचण पर निर्भर करती है। सन्त संप्रदाय के विधि और निषेध ने वैयक्तिक जीवन में गुणों और सात्विकता के ग्रहण पर अत्यधिक बल दिया है। जीवन में सात्विकता, धर्म, सामाजिक चरित्र और नैतिकता के लिए दृढ़ आधार है। सन्त संप्रदाय ने समाज की व्यवस्था के लिए व्यक्ति के पवित्र जीवन को अधिक महत्व दिया है।
समाज को एकरूपता तभी निश्चित है जबकि जाति, वर्ण और वर्ग भेद न्यून से न्यून हो । सन्त संप्रदाय ने वर्ग और जाति भेद में अपना विश्वास नहीं रखा। सदाचरण ही इनके लिए महत्वपूर्ण है। इन्होंने निवृत्तिमूलक और प्रवृत्तिमूलक दोनों प्रकार के आचरण पर विचार प्रकट किये हैं। धर्म के मतभेद और बाह्य आडम्बर- तीर्थस्थान, वेद पाठ, छुआछूत, रोजा-नमाज, हिन्दू-मुसलमान, मन्दिर-मस्जिद, ब्राह्मण-शूद्र, शिया और सुन्नी आदि का भेद मान्य नहीं है, बल्कि इन्होंने इन सबका कठोर विरोध किया है। इन्होंने समाज-व्यवस्था को विकृत करने वाली रूढ़ियों, पाखंड, रीति-रिवाज और मिथ्या आडम्बर आदि के विरुद्ध जनता में विद्रोह की भावना उत्पन्न की।
उस समय व्यवस्था की श्रेष्ठता और निम्नता के आधार पर किसी व्यक्ति की उच्चता और नीचता आंकी जाती थी। सन्तों ने इसका डटकर विरोध किया। कबीर जी कहते हैं- “तू बामन काशी का जुलाहा बूझौ मोर गयाना” और इस प्रकार “जाति-पांति पूछे नहि कोई हरि को भजै सो हरि का होई।” सन्तों द्वारा प्रचारित धर्म मानव-धर्म है। आज के वर्ग-विद्वेष विष से ग्रस्त तथा युद्ध की विभीषिकाओं से त्रस्त विश्व को कबीर की घोषणा “साई के सब जीव हैं।” विश्वासमय तथा प्रेम और शांतिपूर्ण जीवनयापन का आशामय संकेत दे रही है।
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