सन्तकाव्य की परम्परा और विकास पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
सन्त काव्य बौद्ध धर्म और उसके साहित्य से अनुप्राणित है। बौद्ध धर्म से महायान और हीनयान संप्रदायों का आविर्भाव हुआ, महायान से मन्त्रयान और मन्त्रयान से वज्रयान और इसी बज्रयान की घोर तांत्रिक प्रकृति की प्रतिक्रिया के रूप में नाथ संप्रदाय का उदय हुआ और नाथ संप्रदाय के प्रेरणामूलक तत्वों को लेकर सन्त मत अवतरित हुआ। बौद्ध धर्म से लेकर नाथ संप्रदाय तक इस प्रक्रिया में जो जीवन तत्व उभरे, उन सबका समावेश सन्त मत में हुआ। जब सन्त मत का उदय उत्तरी भारत में हो रहा था, उस समय नाथ पंथ अपनी अव्यावहारिकता के कारण हासोन्मुख था उत्तरी भारत में उस समय दक्षिण के भक्ति आन्दोलन का स्वामी रामानन्द उन्नयन कर रहे थे। उनकी शिष्य परम्परा में सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के भक्त थे। स्वामी रामानन्द की भक्ति में ऊंच-नीच, जाति-पांति एवं छुआछूत की भावनाएँ नहीं थी। महात्मा कबीर स्वामी रामानन्द की शिष्य परम्परा में थे।
बहुत से विद्वानों ने हिन्दी साहित्य में सन्त मत का प्रवर्तक कबीर को माना है किन्तु यह सर्वथा निरन्त नहीं है। हमे पहले लिख चुके हैं कि महाराष्ट्र के विठ्ठल संप्रदाय में, जो कि काल-क्रम से कबीर से पहले ठहरता है, सन्त संप्रदाय के प्रायः सभी बीजों का वपन हो चुका था, जो कि बाद में सन्त काव्य में पल्लवित और पुष्पित हुए। कबीर को सन्त संप्रदाय का प्रवर्तक सिद्ध करने वालों का यह कहना है कि कबीर से पहले अनेक निर्गुण भाव के साधक हुए किन्तु सन्त मत की जो सहज धारा हिन्दी साहित्य की कविता में प्रवाहित हुई, उसका आरंभ कबीर से हुआ। कबीर से पूर्व महाराष्ट्र के कुछ निर्गुण भाव के साधनों की कविताएं मिलती हैं। इनमें मुख्य हैं- महाराज सोमेश्वर (1127 ई०), चक्रधर महाराज (शाके 1194), नामदेव (1269) ई० ज्ञानेश्वर मुक्ताबाई आदि नामदेव की भांति एक पुराने भक्त कवि जयदेव के जो गीत गोविन्दकार जयदेव से भिन्न हैं, कुछ निर्गुण भाव के पद मिलते हैं। नामदेव ने हिन्दी भाषा में भी काफी लिखा। उन्होंने प्रायः उत्तरी भारत का भ्रमण भी किया था। नामदेव की कुछ कविताएं गुरु ग्रन्थ साहित्य में भी संगृहीत हैं। हमारे विचार में सन्त काव्य का प्रवत कबीर की अपेक्षा नामदेव को मानना अधिक उपयुक्त है। यह दूसरी बात है कि नामदेव के व्यक्तित्व में मृदुता और कबीर मे प्रखरता है, जिसके कारण वे आम दुःखी लोगों और शोषित के बीच अधिक प्रकाश में आ सके। निःसंदेह सम्राट अकबर ने मुगल साम्राज्य की नींव को दृढ़ आधार प्रदान किया, इतने से बाबर को मुगल साम्राज्य के संस्थापक पद से तो वंचित नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कबीर द्वारा सन्त वृत्ति को प्रखरता के साथ पुष्ट करने से सन्त नामदेव का महत्व तो कम नहीं किया जा सकता।
रामानन्द का समय 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में पड़ता है। उनके निम्नांकित बारह शिष्य कहे जाते हैं-
अनतानन्द कबीर सुखा सुरसुरा पद्मावति नरहरि ।
पीपा भावानन्द रैदासु धना सेन, सुरसरि की धरहरि ॥
इन शिष्यों में कबीर, पीपा, रैदास, धना और सेन सन्त और कवि दोनों रूपों में प्रसिद्ध हैं। इनमें घना, पीपा, रैदास और कबीर का साहित्य महत्वपूर्ण है। धना और पीपा के बहुत थोड़े पद ग्रंथ साहब में मिलते हैं। रैदास के भी दो ग्रंथ है-‘रविदास की बानी’ और ‘रविदास के पद’। इन सबमें कबीर सर्वश्रेष्ठ कहे जा सकते हैं। कबीरदास के पश्चात् इस परम्परा में धर्मदास का नाम आता है। धर्मदास का साहित्य अल्प होते हुए भी ऐतिहासिक महत्व रखता है। धर्मदास के पश्चात् गुरु नानक ने इस परम्परा के विकास में योग दिया। इन्होनें भी कबीर की भांति मूर्ति-पूजा का खंडन किया और हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया है। इनके बाद शेख इब्राहीम का नाम आता है। इनके पद भी ग्रन्थ साहब में संगृहीत हैं।
सन्त दादू दयाल (1544-1603 ई०) सन्त मत के अनुगामी थे। सन्त संप्रदाय के विकास तथा साहित्य दोनों क्षेत्रों में आपका महत्व है।
मलूकदास का प्रादुर्भाव उस समय हुआ जबकि सन्त काव्य परम्परा पर सगुण धारा का प्रभाव पड़ना आरंभ हो गया था। मलूकदास की समावतार लीला (रामायण) इसका स्पष्ट उदाहरण है।
दादू दयाल के शिष्य सुन्दरदास (जन्म सं० 1653) का स्थान इस परम्परा में महत्वपूर्ण है। सन्त कवि परम्परा में ये ही एक ऐसे कवि हैं, जो शिक्षित थे और इन्होंने शास्त्रीय कवि परम्परा पद्धति पर काव्य रचना की। दादू के दूसरे शिष्य रजबदास थे, जिनकी कवित्व शक्ति अत्यंत प्रखर थी। दादू के अन्य शिष्यों में जगन्नाथ जी ही उल्लेखनीय है।
विश्नोई संप्रदाय के संस्थापक जंभनाथ और निरंजनी संप्रदाय के संस्थापक हरिदास निरंजनी इसी परम्परा में आते हैं। सत्रहवीं शताब्दी में अक्षर अनन्य नाम के सन्त ने योग और वेदान्त सम्बन्धी कुछ पंथ रचे। इस समय राजस्थान के सन्त तुलसीदास भी प्रसिद्ध हुए। इनकी रचनाओं में भजन पर जोर है। 17वीं शताब्दी में मुस्लिम सन्न यारी हुए, जिन्होंने अपनी रत्नावली नाम पुस्तक में अध्यात्म तत्वों का निरूपण किया है। सन्त धरणीदास भी इसी समय हुए। सतनामी संप्रदाय के कवि दूलन दास (18वीं शती) अत्यंत लोकप्रिय हुए। 18वीं शती में चरणदास की दो शिष्याएं हुई- दयाबाई और सहजोबाई, जो अपनी सरल रचनाओं के कारण प्रसिद्ध हुई।
यह परम्परा आधुनिक काल तक बराबर चलती आई है, पर इसका काव्य पिष्टपेषण होने के कारण महत्वहीन हो गया।
मध्य युग की समाप्ति के साथ ही सन्त काव्य की गतिशीलता जाती रही। इनमें गतानुगतिकता की मात्रा बढ़ने लगी। परिणामतः यह धारा अवरुद्ध और निमाण हो गई। इस विषय में डॉ० हजारीप्रसाद लिखते हैं-“18वीं शती के अन्त तक उसकी क्रांतिकारी भावना समाप्त हो गई और वह भी अन्य निहित स्वार्थ वाले मठों के समान अपने ही बनाए हुए बन्धनों में क्रमशः जकड़ता गया। जिन लोगों ने माया को ललकारने का साहस किया था, उनके अनुयायी माया के घरौंदों में बन्द हो गए। वह क्रमश: क्षीण होता गया और इसलिए वे ऐसे साहित्य की सृष्टि कर सके, जो मनुष्य को नया आलोक देता और कठिनाइयों और विपत्तियों से जूझने को प्रेरणा देता। यह साहित्य केवल शाब्दिक मायाजाल प्रस्तुत करता है और मनुष्य की स्वतंत्र चिन्तन-शक्ति को रुद्ध करता है।” आगे चलकर आचार्य द्विवेदी हास के कारणों का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं- “कबीरदास, दादू इत्यादि के परवर्ती सन्तों की प्रवृत्ति घर जोड़ने की माया है। अपना नवीन संप्रदाय चलाने का उत्साह उन्हें पुरानी रूढ़ियों से जकड़कर उनकी प्रगतिशील क्रांतिकारी वाणी की परम्परा में एक ऐसी सड़ांध पैदा कर देता है कि उसमें सन्तों की मौलिकता, विशेषता, सहजपन इत्यादि के दर्शन भी नहीं होते। “
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