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सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता | सर्वोच्च न्यायालय का संगठन | सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार

सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता
सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता

सर्वोच्च न्यायालय की आवश्यकता (Necessity of a Supreme Court)

प्रारम्भ से ही स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष न्यायालय की आवश्यकता को स्वीकार किया जा चुका है। आज प्रत्येक सभ्य राज्य में स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष न्यायालय की स्थापना की जाती है। गार्नर का कहना है “न्याय विभाग के अभाव में एक सभ्य राज्य की कल्पना नहीं की जा ” सकती।” लॉर्ड ब्राइस ने भी कहा है कि “किसी शासन की श्रेष्ठता जाँचने के लिए उसकी न्याय-व्यवस्था की निपुणता से बढ़कर कोई अन्य कसौटी नहीं है।” राज्य के कानूनों का समुचित पालन करने के लिए, कानून को भंग करने वाले को दण्ड देने के लिए तथा नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए किसी राज्य में न्यायिक संगठन की नितान्त आवश्यकता है।

संघीय शासन-व्यवस्था में न्यायपालिका की अधिक आवश्यकता है, विशेषकर सर्वोच्च न्यायालय की। इसके निम्नलिखित कारण हैं-

(1) संघ-शासन में केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों के बीच शासन-शक्ति का विभाजन रहता है। अधिकार क्षेत्र के सम्बन्ध में दोनों सरकारों के बीच विवाद पैदा हो सकता है।

संविधान के उपबन्धों न्यायालय आवश्यक है। अनुसार ऐसे किसी प्रकार के विवाद का फैसला करने के लिए सर्वोच्च

(2) संविधान का स्वरूप लिखित होता है। उसमें विभिन्न सरकारों तथा प्रशासकीय अंगों के पारस्परिक सम्बन्धों की चर्चा रहती है। लिखित संविधान प्रायः अस्पष्ट रहता है तथा उसमें कहीं-कहीं अनिश्चितता पायी जाती। अतः उसकी व्याख्या एक निष्पक्ष निकाय द्वारा आवश्यक है। सर्वोच्च न्यायालय संविधान के व्याख्याता का कार्य करता है।

(3) सर्वोच्च न्यायालय संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिक अधिकारों का संरक्षक भी होता है। उन पर मौलिक अधिकारों की रक्षा का कठिन उत्तरदायित्व है। उसे यह भी देखना है कि ये अधिकार समाज के अधिकार तथा राज्य की सुरक्षा से असंगत न हो।

(4) सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति को किसी संवैधानिक मामले पर परामर्श देने का कार्य भी करता है।

भारतीय संघ के लिए सर्वोच्च न्यायालय बहुत ही महत्वपूर्ण है। श्री अल्लादि कृष्णास्वामी ने कहा था कि “भारतीय संविधान का भविष्य में विकास सर्वोच्च न्यायालय के कार्यों तथा निर्देश पर निर्भर करेगा।” यह एक महान् न्यायाधिकरण है जिसे वैयक्तिक स्वतन्त्रता तथा सामाजिक नियन्त्रण के बीच एक सीमा रेखा निर्धारित करनी है। “

सर्वोच्च न्यायालय का संगठन (Composition of the Supreme Court)

संविधान के अनुच्छेद 124 के अनुसार, भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश होंगे। परन्तु संसद कानून द्वारा यह संख्या बढ़ा सकती है। सन् 1956 में यह 10 तथा सन् 1960 में बढ़ाकर 13 कर दी गयी। सन् 1975 में संसद के द्वारा 7 के स्थान पर यह संख्या 17 निर्धारित कर दी गई। अर्थात् एक मुख्य न्यायाधीश सहित ये संख्या 18 हो सकती थी। सन् 1985 में किये गये संशाधन के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश व 25 अन्य न्यायाधीश होंगे। वर्तमान में यही व्यवस्था लागू है।

संविधान के अनुच्छेद 127 के अनुसार, यदि स्थायी न्यायाधीशों का अभाव हो तो राष्ट्रपति की पूर्व सम्मति से मुख्य न्यायाधीश किसी भी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश को तदर्थ (Adhoc Judge) के रूप में नियुक्ति प्रदान कर सकता है।

न्यायाधीशों की योग्यतायें

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में निम्नलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक है-

(1) वह भारत का नागरिक हो ।

(2) वह किसी उच्च न्यायालय अथवा ऐसे दो या दो से अधिक उच्च न्यायालयों में लगातार कम से कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश के रूप में कार्य कर चुका हो ।

या

किसी उच्च न्यायालय अथवा न्यायालयों में लगातार 10 वर्ष तक अधिवक्ता (Advocate) रह चुका हो।

या

राष्ट्रपति के विचार में एक पारंगत विधिवेत्ता हो।

यह अन्तिम उपबन्ध वस्तुतः चुनाव के क्षेत्र को व्यापक करने के लिये रखा गया है। इस उपबन्ध के अनुसार किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाला कोई विख्यात न्यायशास्त्री सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश पद पर नियुक्त किया जा सकेगा।

वेतन, भत्ते और अन्य सुविधाएँ

संविधान के अनुच्छेद 125 के अनुसार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को ऐसे वेतन दिये जायेंगे, जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करे। ये वेतन और भत्ते ‘भारत की संचित निधि से दिये जाते हैं और सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के बाद उनके वेतन-भत्तों में कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

सन् 1998 में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन में आवश्यक सुधार किया गया है। अब सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33 हजार रुपये प्रति माह व अन्य न्यायाधीशों को 30 हजार रुपये प्रति माह वेतन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त न्यायाधीशों को निवास स्थान, मासिक भत्ता, यात्राभत्ता, मनोरंजन भत्ता, स्टाफ कर, सीमित मात्रा में पेट्रोल तथा अन्य कुछ आवश्यक सुविधाएँ प्राप्त होती हैं।

न्यायाधीशों के लिए पेंशन व सेवानिवृत्ति वेतन (ग्रेच्युटी) की व्यवस्था सर्वप्रथम सन् 1976 में की गई थी और सन् 1998 में उनकी पेंशन सेवा निवृत्ति वेतन व अन्य सेवाशर्तों में आवश्यक सुधार किये गये हैं।

न्यायाधीशों का कार्यकाल

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की अवस्था पूर्ण होने तक अपने पद पर कार्य कर सकते हैं। 65 वर्ष की अवस्था पूर्ण होने के पश्चात् उन्हें अवकाश दिया जायेगा। इस अवस्था से पहले भी कोई न्यायाधीश अपनी इच्छानुसार राष्ट्रपति को सम्बोधित करके त्याग-पत्र दे सकता है।

न्यायाधीशों की पदच्युति

उच्चतम न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को 65 वर्ष की आयु से पूर्व भी दुराचार और अयोग्यता के कारण पद से पृथक् किया जा सकता है। इसके लिए यह विधि है कि संसद के दोनों सदन अपने सदस्यों के बहुमत से या उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से राष्ट्रपति से यह प्रार्थना करें कि अमुक न्यायाधीश दुराचार या अयोग्यता कारण अपने पद के योग्य नहीं रहा है। अतः उसे न्यायाधीश के पद से पृथक् कर देना चाहिए। ऐसा प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों द्वारा एक ही सत्र में स्वीकृत हो जाना आवश्यक है। ऐसा प्रस्ताव पेश होने पर न्यायाधीश को इस बात का पूरा अवसर दिया जायेगा कि वह अपनी पैरवी कर सके। न्यायाधीश तक तक अपने पद से पृथक् नहीं किया जा सकता जब तक कि वह वास्तविक रूप में अयोग्य और दुराचारी न हो। अतः न्यायाधीश को अपदस्थ करने की प्रणाली जटिल है।

शपथ 

अपने पद को ग्रहण करने से पूर्व प्रत्येक न्यायाधीश को राष्ट्रपति या उसके द्वारा नियुक्त किसी पदाधिकारी के सम्मुख शपथ लेनी पड़ती है। उसको निम्नलिखित शपथ लेनी पड़ती है-

‘मैं………. अमुक………. ईश्वर की शपथ लेता हूँ, सत्य निष्ठापूर्वक प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखूँगा तथा मैं सम्यक् प्रकार से और श्रद्धापूर्वक तथा अपनी पूरी योग्यता, ज्ञान और विवेक से अपने पद के कर्त्तव्यों को भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना पालन करूँगा तथा मैं संविधान और विधियों की मर्यादा बनाये रखूँगा।”

स्थान- सर्वोच्च न्यायालय दिल्ली में स्थित है किन्तु राष्ट्रपति के अनुमोदन से भारत का मुख्य न्यायाधीश समय-समय पर न्यायालय की बैठक अन्य स्थानों पर भी करता है।

कर्मचारीगण- सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए संविधान निर्माताओं ने उसको अपने पृथक् कर्मचारी वर्ग रखने की तथा उन पर पूर्ण नियन्त्रण रखने की शक्ति दी है। न्यायालय के सभी पदाधिकारियों एवं कर्मचारियों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश या उसके द्वारा मनोनीत किसी अन्य न्यायाधीशों या प्राधिकारी द्वारा की जाती है। उनकी सेवा सम्बन्धी शर्ते भी न्यायालय द्वारा निर्धारित की जाती हैं।

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार (Jurisdiction of the Supreme Court)

भारत के सर्वोच्च न्यायालय को काफी व्यापक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं, यहाँ तक कि विश्व के अन्य किसी भी न्यायालय का क्षेत्राधिकार शायद ही इतना व्यापक हो। इसके क्षेत्राधिकार का अध्ययन निम्नलिखित तीन रूपों में किया जा सकता है-

(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार, (2) अपीलीय क्षेत्राधिकार (3) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार

(1) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार- सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार को दो वर्गों में रखा जा सकता है-

(क) प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार- सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत निम्न विषय आते हैं

(i) भारत सरकार तथा एक या एक से अधिक राज्यों के बीच विवाद ।

(ii) भारत सरकार, राज्य या कई राज्यों तथा एक या अधिक राज्यों के बीच विवाद।

(iii) दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद, जिसमें कोई ऐसा प्रश्न अन्तर्निहित हो जिस पर किसी वैध अधिकार का अस्तित्व या विस्तार निर्भर हो ।

सर्वोच्च न्यायालय को केवल संघ सरकार तथा राज्य सरकारों के पारस्परिक विवादों के सम्बन्ध में प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार प्राप्त है अर्थात् उपर्युक्त प्रकार के विवाद केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही उपस्थित किये जा सकते हैं।

(ख) समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार- संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को लागू करने के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय है साथ-साथ उच्च न्यायालयों को भी अधिकार प्रदान किया गया । संविधान के अनुच्छेद 32 (1) द्वारा विशेष रूप से सर्वोच्च न्यायालय को उत्तरदायी ठहराया गया है कि वह “मौलिक अधिकारों को लागू कराने के लिये समुचित कार्यवाही करे।”

(2) अपीलीय क्षेत्राधिकार- सर्वोच्च न्यायालय को प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के साथ-साथ संविधान ने अपीलीय क्षेत्राधिकार भी प्रदान किया है। सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय क्षेत्राधिकार को निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

(क) संवैधानिक- संविधान के अनुच्छेद 132 के अनुसार, यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि विवाद में संविधान की व्याख्या से सम्बन्धित कानून का कोई सारमय प्रश्न अन्तर्ग्रस्त है, तो उच्च न्यायालय के निर्णय की अपील सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है। यदि राज्य के उच्च न्यायालय ने ऐसा प्रमाण-पत्र देना अस्वीकार कर दिया है तो सर्वोच्च न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह ऐसी अपील की अनुमति प्रदान कर सकता है यदि उसको यह विश्वास है कि उस विषय में संविधान की व्याख्या का कोई महत्वपूर्ण प्रश्न निहित है।

(ख) दीवानी- इस सम्बन्ध में मूल संविधान के अन्तर्गत जो व्यवस्था थी, उसे सन् 1972 में हुए संविधान के 30वें संशोधन द्वारा परिवर्तित कर दिया गया है। इसके पूर्व यह व्यवस्था थी कि उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय में केवल ऐसे ही दीवानी विवादों की अपील की जा सकती थी, जिसमें विवादग्रस्त राशि 20 हजार रुपये से अधिक हो ।

(ग) फौजदारी- फौजदारी विवादों में उच्च न्यायालय के निर्णय की अपील अग्र विषयों में सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है-

(i) यदि उच्च न्यायालय ने अपील प्रस्तुत होने पर किसी व्यक्ति की उन्मुक्ति का आदेश रद्द कर उसे मृत्युदण्ड दे दिया हो।

(ii) उच्च न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय से अभियोग विचारार्थ अपने पास मँगवाकर अभियुक्त को प्राणदण्ड दिया हो।

(iii) अगर उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि विवाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विचार के योग्य है, तो अपील की जा सकती है।

(घ) विशिष्ट- यद्यपि संविधान के अनुच्छेद 132 से 134 तक उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की व्यवस्था की गयी है लेकिन फिर भी कुछ मामले ऐसे हो सकते हैं, जो उपर्युक्त श्रेणी में नहीं आते, लेकिन जिसमें सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप आवश्यक हो सकता है। अतः अनुच्छेद 136 द्वारा साधारण कानून से भिन्न अपील सम्बन्धी विशिष्ट अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को सौंपा गया है।

(3) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार- संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को परामर्श सम्बन्धी क्षेत्राधिकार से विभूषित किया है। अनुच्छेद 143 के अनुसार, यदि कभी राष्ट्रपति को प्रतीत हो कि विधि या तथ्य का कोई ऐसा प्रश्न पैदा हुआ है, जो सार्वजनिक महत्व का है, तो वह उक्त प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय का परामर्श माँग सकता है। इस न्यायालय पर संवैधानिक दृष्टि से ऐसी कोई बाध्यता नहीं है कि उसे परामर्श देना ही पड़ेगा।

(4) अभिलेख न्यायालय- अनुच्छेद 129 सर्वोच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय का स्थान प्रदान करता है। अभिलेख न्यायालय के दो आशय हैं-

(क) इस न्यायालय के अभिलेख सब जगह साक्षी के रूप में स्वीकार किये जायेंगे।

(ख) इस न्यायालय के द्वारा ‘न्यायालय अवमानना’ (Contempt of Court) के लिये दण्ड दिया जा सकता है वैसे तो यह बात प्रथम स्थिति में स्वतः ही मान्य हो जाती है, लेकिन भारतीय संविधान में सर्वोच्च न्यायालय को उसका अवमान करने वालों को यह दण्ड देने की व्यवस्था विशिष्ट रूप से कर दी गयी है।

(5) मौलिक अधिकारों अभिरक्षक- भारत का सर्वोच्च न्यायालय नागरिकों के मौलिक अधिकारों का अभिरक्षक है। अनुच्छेद 32 (1) सर्वोच्च न्यायालय को विशेष रूप से उत्तरदायी ठहराता है कि वह “मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिये समुचित कार्यवाही करे।” न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिये बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकारपृच्छा और उत्प्रेक्षण के लेख जारी कर सकता है। किसी व्यक्ति के अधिकारों पर आक्रमण होने पर वह सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले सकता है।

संविधान के अन्तर्गत सर्वोच्च न्यायालय की स्थिति

संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय को विशेष अधिकारों से सुशोभित किया है। इतने विस्तृत अधिकार संसार के किसी भी अन्य न्यायालयों को प्राप्त नहीं हैं। उसको यह अधिकार है कि (i) वह भारतीय संसद या भारत संघ में सम्मिलित राज्यों के विधान-मण्डलों के द्वारा निर्मित विधि को अवैधानिक घोषित कर सकता । (ii) संविधान के सम्बन्ध में उसका निर्णय अन्तिम है। (iii) उसके द्वारा बनाये हुए नियम और विधियाँ भारत क्षेत्र में समस्त न्यायालयों को माननी होंगी। (iv) वह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिये विभिन्न प्रकार के आदेश व लेख जारी कर सकता है। (v) उसको प्रारम्भिक अधिकारों के साथ-साथ अपील सम्बन्धी अधिकार, मन्त्रणा सम्बन्धी तथा न्यायिक पुनरवलोकन करने का अधिकार प्राप्त है। (vi) उसको अपने निर्णय पर पुनः विचार करने का अधिकार प्राप्त है। (vii) वह कार्यकारिणी और विधान-मण्डल से पूर्णतया स्वतन्त्र है और उसकी तानाशाही शक्ति पर विशेष रूप से प्रतिबन्ध लगाने में सक्षम है।

सर्वोच्च न्यायालय का न्यायिक समीक्षा का अधिकार (Supreme Court’s Power of Judicial Review)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 131 और 132 द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक समीक्षा का अधिकार प्राप्त है। मौलिक अधिकारों की रक्षा का भार सर्वोच्च न्यायालय को सौंपा गया । यदि संसद अथवा राज्यों के विधान-मण्डल कोई कानून इन मौलिक अधिकारों के विरुद्ध पारित करते हैं तो उच्च न्यायलय राज्यों के कानून और सर्वोच्च न्यायालय केन्द्र व राज्य दोनों के कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है।

परन्तु भारत में न्यायिक समीक्षा का अधिकार असीमित नहीं है। भारत का संविधान अमेरिका के संविधान की तरह कठोर नहीं है इसके फलस्वरूप केन्द्रीय सरकार यदि किसी ऐसे कानून को देश के लिये हितकर समझती है, जिसको सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया है तो वह संविधान में सरलता से आवश्यक संशोधन कर उस कानून को वैध कर सकती है। कई बार संविधान में इस प्रकार के संशोधन किये भी जा चुके हैं। सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश सी. आर. दास ने स्वयं स्वीकार किया है कि हमारे देश में अमेरिका की तरह न्यायपालिका की सर्वोच्चता के सिद्धान्त को नहीं अपनाया गया है। अतः भारत में न्यायिक समीक्षा का अधिकार उतना विस्तृत नहीं जितना कि अमेरिका में न्यायाधीश मिस्टर दास ने सन् 1950 में ‘गोपालन बनाम मद्रास राज्य’ केस में कहा था कि “भारत में न्यायपालिका की स्थिति इंग्लैण्ड और संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यायालयों के कुछ बीच की है। हमारा संविधान अंग्रेजी संविधान के विरुद्ध विधायी अधिकारों पर न्यायालय की सर्वोपरिता को मानता है, परन्तु यह सर्वोपरिता अति सीमित है, क्योंकि यह उसी क्षेत्र तक सीमित है जहाँ पर कि विधान-मण्डलों की विधायनी शक्तियों पर संवैधानिक सीमायें लगी हैं। “परन्तु अमेरिका के संविधान के प्रतिकूल अधिकारों पर सभी बातों में हमारा संविधान न्यायालय की सर्वोपरिता स्वीकार नहीं करता, क्योंकि संवैधानिक सीमाओं के प्रतिबन्ध क्षेत्र के बाहर संसद और राज्य विधान-मण्डल अपने-अपने विधायनी क्षेत्रों में सर्वोपरि हैं और उसे अधिक व्यापक क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायालय की भाँति महत्वपूर्ण भाग प्राप्त नहीं हैं। “

इसी अवसर पर मुख्य न्यायाधीश केनिया ने भी कहा था कि “सर्वोच्च न्यायालय, कार्यपालिका की ज्यादतियों से नागरिकों की रक्षा कर सकता है, परन्तु संसद की ज्यादतियों से नहीं, यदि वह संवैधानिक सीमाओं में रहकर कानून बनाती है।

उपरोक्त से स्पष्ट है कि भारत में न्यायिक समीक्षा का क्षेत्र अमेरिका की तुलना में बहुत सीमित है।

सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता- सर्वोच्च न्यायालय तभी स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य कर सकता है जबकि कार्यपालिका के दबाव से मुक्त रहे। सर्वोच्च न्यायालय को कार्यपालिका के दबाव से मुक्त करने के लिये संविधान में निम्नलिखित व्यवस्थाएँ की गयी हैं-

(1) न्यायाधीशों का वेतन संविधान द्वारा निर्धारित है। संसद को उनके वेतन तथा भत्तों में कटौती करने का अधिकार नहीं है।

(2) न्यायाधीशों को मनमाने ढंग से अपदस्थ नहीं किया जा सकता क्योंकि उसका कार्यकाल संविधान द्वारा सुरक्षित है। उन्हें महाभियोग के द्वारा ही हटाया जा सकता है महाभियोग की प्रक्रिया अत्यन्त कठिन है।

(3) संसद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के किसी ऐसे कार्य पर विचार नहीं कर सकती, जिन्हें उन्होंने अपने कर्त्तव्यों का पालन करते हुए किया हो ।

(4) अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् न्यायाधीशों को किसी भी न्यायालय में वकालत करने का अधिकार नहीं दिया गया है, जिससे उसके सम्मुख कोई प्रलोभन न हों और वे स्वतन्त्रापूर्वक निष्पक्ष न्याय कर सकें ।

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Anjali Yadav

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