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सिद्ध साहित्य का परिचय एवं विशेषताएँ
सिद्धों की संख्या 84 मानी गई है। इनमें से कुछ तो सहजयानी और कुछ वज्रयानी थे। सहजयान का प्रवर्तन बौद्ध धर्म (वज्रयान) में प्रचलित बाह्याचार के विरुद्ध जन्म लेने वाली प्रतिक्रिया की देन था। जीवन के सहज रूप को स्वीकार करने के करण सहजयान में जीवन के भोग के लिए बहुत स्थान सुरक्षित था। वज्रयनियों ने भोग की इस प्रवृत्ति को घोर श्रृंगारिकता के समीप ला खड़ा किया था। हर्ष का विषय है कि हिन्दी काव्य वज्रयानी घोर श्रृंगारिकता से बच निकला। यह सहजयान से भी प्रभावित हुआ। सहजयान की प्रमुख धारणाएँ चार थीं-
- चित्तशुद्धि तथा आत्मनिग्रह में अटूट आस्था
- रहस्यवाद ।
- पूरी अक्खड़ता के साथ अन्य सम्प्रदायों का खण्डन- मण्डन
- सर्व प्रकार के बाह्याडम्बर का कट्टर विरोध ।
राहुल जी ने अपनी ‘हिन्दी काव्यधारा’ में इन सिद्धों की रचनाओं को प्रकाशित करके हिन्दी के विद्वानों का ध्यान इनकी ओर आकर्षित किया। इनमें सबसे पहला कवि सरहपा है। (जिनका ससेजवह नाम भी है।) राहुल जी के अनुसार इनका काल सं. 817 है। राहुल जी ने इन सिद्धों की भाषा को लोक भाषा के अधिक समीप देखकर इसे हिन्दी का प्राचीन रूप माना। इसी आधार पर काशी प्रसाद जायसवाल ने सिद्ध सरहपा को हिन्दी का प्रथम कवि मान लिया। डॉ. जयकिशन प्रसाद के अनुसार प्रमुख सिद्ध नाथ हैं-सरहपा, सबरवा, भूसुकया, लुइया, विरूपा, डोंबिया, दारिकया, गुण्डरीपा, गोरसपा, टेण्टणवा, महीया, भादेवा, धामपा, तिलोमा, शात्तिवा, कुवुरिया, कमरिया, कण्हपा ।
सिद्ध साहित्य की प्रवृत्तियाँ
इन रचनाओं को देखने से पता चलता है कि इनकी शैली उलटबाँसी शैली है। ऊपर से इन रचनाओं का बड़ा कुत्सित अर्थ निकलता है किन्तु सम्प्रदाय के जानकार उसके मूल एवं साधनात्मक अर्थ को समझने में समर्थ हो सकते हैं। डॉ. जयकिशन प्रसाद ने इन प्रवृत्तियों का उल्लेख निम्न प्रकार किया है-
(1) बाह्याचार का खण्डन- इन्होंने बाह्याचार का खण्डन करते हुए चित्तशुद्धि तथा आत्मनिग्रह में अटूट आस्था प्रकट की। अतः साधना पर जोर देते हुए पण्डितों को फटकारते हुए शास्त्रीय (परम्परा) मार्ग का खण्डन किया है-
जहणग्गाविअ होई मुति, ता सुणह सियालह।
अर्थात् नग्न रहने से मुक्ति मिल जाती तो कुत्ते और स्यार भी मोक्ष (मुक्ति) के अधिकारी बन गये होते।
(2) वाममार्ग का उपदेश- इनमें वाममार्गी प्रवृत्तियाँ प्रमुख थीं। अतः इन्होंने उनका डटकर प्रचार किया है-
नाद न बिन्दु न रवि न शशि मण्डल। चिअराअ सहावे मूलक।
अजु रे अजु जाई मा लेहु रे बंक। निअहि वोहि मा जहु रे लंक ।।
(3) दान, परोपकार- इन्होंने आचरण की महत्ता पर बल देते हुए दान-पुण्य और परोपकार की महत्ता को भी स्पष्ट किया है-
जो अत्थी अण ठीअड, सो जड़ णाइ निरास ।
खण उस रीव भक्खवरू, Sछा (।) जहु रे गिहवास ।।
पर उआरण कीअड अत्थिण, दीअउ दाण ।
रहु संसारे कवण फलु, वरू छडुहुँ अप्पाण ॥
(यदि अर्थी जन निराश चला गया तो ऐसे गृहवास से टूटा मृत्पात्र ले भीख माँगना अच्छा। दान और परोपकार के बिना इस संसार में रहने का क्या फल ? उससे तो जीवन छोड़ देना अच्छा ।)
(4) सन्ध्या भाषा या संधावचन- डॉ. जयकिशन प्रसाद के अनुसार- “रहस्यमार्गियों की सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार ये सिद्ध लोग अपनी बानी को पहेली या उलटबाँसी के रूप में रखते थे और उनका सांकेतिक अर्थ भी बताया करते थे। उनकी शैली पद-शैली थी।
(5) तान्त्रिक साधना- सिद्धों ने वामाचार का प्रतिपादन करते हुए योग-तन्त्र की साधना में मद्य तथा स्त्रियों के अबाध सेवन का भी महत्व प्रतिपादित किया है-
गंगा जउंना माझे रे बहई नाई ।
तहि बुडिलि मातेगि पोइआ लीले पार करेउ ।
(6) अन्तर्मुखी साधना- इन कवियों ने अन्तर्मुखी साधना पर विशेष बल दिया है। विरूपा की ये पंक्तियाँ इसी प्रकार की हैं। पर यह साधना वारूणी-प्रेरित थी-
सहजे थिर करि वारूणी साधा। जे अजरामर होइ दिट काँधा।
दशमि दुअरत चिन्ह रेखइया। आइल गराहक अपणे बहिअ ।
चउशाडि घड़िइ देर पसारा पइठल गराइक नाहि निसारा।
सिद्ध साहित्य की परवर्ती साहित्य पर प्रभाव- डॉ. गोविन्द त्रिगुणायत और डॉ. देवीशरण रस्तोगी के अनुसार यह प्रभाव इस प्रकार है-
(1) इन्होंने बाह्याचार का खण्डन किया था। इसका प्रभाव सन्त-काव्य पर पड़ा। जहाँ सरहपा कहते हैं-जहणग्गा विअ होइ मुत्ति, ता सुणह सियालह (यदि नग्न रहने से मुक्ति मिल जाती तो कुत्ते और स्यार कभी के अधिकारी बन गये होते) और कबीर कहते हैं-
मूंड मुँड़ाये हरि मिलै, तो सब कोई लेय मुड़ाइ।
बार-बार के मुँड़ते, भेड़ न बैकुण्ठ जाइ ।।
(2) कोरा शास्त्र ज्ञान उनके अनुसार मरूस्थल है। सरहपा ने शास्त्रार्थ को मरूस्थल माना है-
बहुसात्थात्थ मरुत्थालिहिं तिसिअ परियो तेहि।
कबीर ने भी पोथी- ज्ञान, वाद-विवाद को हेय माना है-
पोथी पछि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोई।
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होड़।।
(3) परोकार, दान की महत्ता- सरहपा ने कहा है-“यदि अर्थी जन निराश चला गया तो ऐसे गृहवास से टूटा मृत्पात्र ले भीख माँगना अच्छा दान और पर उपकार के बिना इस संसार में रहने का क्या फल ? कबीर कहते हैं-
जालौं इहै वडपणा, सरलै पेडि खजूरि।
पंखी छां न बीसवै फल लागे ते दूरि ।।
(कबीर)
(4) सिद्धों की सहजावस्था के बहुत से तत्व और पारिभाषिक शब्द जैसे नाद, बिन्दु, सुरति निरति, सहन, शून्य, सन्त काव्यधारा में आये।
(5) परकीया की भवना- सिद्धों ने परकीया भावना को महत्व दिया। घर में सास-ननद उपदेश देती ही रहती थीं, पर वे वैसी आकर्षित होती ही थीं- जैसी कि कृष्ण की गोपियाँ होती थीं-
राग देस मोह लाइअ छार ।
परम मोख लवए मुक्तिहार ।
मरिअ सासु नणंद घरेशाली ।
माअ मारिआ, काई, भइअक बाली ।
यह प्रभाव रीतिकालीन कवियों पर लक्षित होता है।
(6) युगनद्ध भावना- इसका अर्थ है स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा।
कण्हपा का वचन है- “जिमि लौण बिलिजइ पाणि एहि तिमि धरणी लइ चित्त।” इसका प्रभाव विद्यापति आदि श्रृंगारी कवियों पर पड़ा।
(7) हठायोग साधना- इन सिद्धों में हठयोग साधना अत्यन्त विकृत रूप में पायी जाती है। इसका प्रभाव भी निर्गुण कवियों पर है।
(8) शैली- सिद्धों की चर्या पदों की पद-शैली का प्रभाव भी हिन्दी के सन्त कवियों के ‘सबद’ पर पड़ा। शैलो के अतिरिक्त वस्तु और विषय प्रतिपादन के दृष्टिकोण से भी सिद्धों के चर्या पदों और कबीर आदि के पदों में अद्भुत साम्य है। सिद्धों ने चर्या पदों में साम्प्रदायिक साधना को अभिव्यक्ति दी। कबीर आदि ने भी योग-साधना को ‘सबद’ में अभिव्यक्ति प्रदान की है।
(9) भाषागत साम्य-सिद्धों ने पूर्वी मिश्रित भाषा का प्रयोग चर्या गीतों में और खड़ी बोली के समान अक्खड़ अपभ्रंश भाषा का प्रयोग दोहों में किया। यह भाषागत विभेद निर्गुण सन्त काव्य में भी दृष्टिगत होता है।
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