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सूर की काव्य कला की विशेषताओं का विवेचन कीजिए।
सूर का काव्य ब्रजभाषा का शृंगार है। इसमें विभिन्न राग-रागिनियों के अन्तर्गत एक भक्त-हृदय के भावपूर्ण उद्गार व्यक्त हुए हैं। सूर का प्रत्येक पद कृष्ण भक्ति के उद्गारों से ओत-प्रोत है और सूर के सभी भाव-भावुक हृदय गहन अनुभतियों के भंडार हैं इसीलिए सूर काव्य में एक अद्भुत संजीवनी शक्ति के दर्शन होते हैं, जो मधुर राग-रागिनियों के के माध्यम से अन्तःकरण में रसात्मकता जगाकर सहृदयों को ब्रह्मानन्द में लीन कर देती हैं। सूर की काव्य-कला को संक्षेप में इस प्रकार उभारा जा सकता है-
( 1 ) वस्तु-वर्णन- वर्ण्य विषय की दृष्टि से सूर के सम्पूर्ण काव्य को छः भागों में बाँटा जा सकता है- (i) विनय के पद, (ii) बालक कृष्ण से सम्बन्धित मनोवैज्ञानिक पद, (iii) कृष्ण का रूप माधुर्य-सम्बन्धी पद, (iv) श्रीकृष्ण और राधा के रति भाव सम्बन्धी पद, (v) मुरली सम्बन्धी पद, (vi) वियोग शृंगार के भ्रमर गीत वाले पद।
प्रकृति चित्रण- सूर ने प्रकृति की रमणीय झाँकी अंकित करते हुए षट्ऋतुओं में परिवर्तन होने वाले दिव्य-सौन्दर्य का अच्छा निरूपण किया है। उनके गोकुल में सदा बसन्त ही बना रहता है-
सदा बसन्त रहत जहाँ बासा।
सदा हर्ष जहँ नहीं उदासा ॥
विविध सुमन वन फूले डार उन्मत मधुकर भ्रमर अपार ।
भाव और वस्तु चित्र- सूर के काव्य में विभिन्न मनोभाव अंकित हुए हैं। प्रेम असूया (उदासीनता) ईर्ष्या, वितर्क, क्षोभ, स्पर्धा, क्रोध, उत्साह, रति, हास, शौक, जुगुप्सा आदि मनोभावों का सफल और सरस चित्रण हुआ है।
सूर के पद सहृदयता सरसता भावुकता के भंडार हैं जिनमें विविध भावों की योजना इतनी सुव्यवस्थित ढंग से की गई है कि प्रत्येक पद मर्मस्पर्शी एवं हृदयद्रावक बन गया है। यही कारण है कि सूर के पदों में विभिन्न भावों के साथ-साथ विभिन्न रसों की भी सुन्दर एवं सजीव झाँकी मिलती है।
(क) संयोग शृंगार- सूर का संयोग शृंगार अनेक भाव भमियों को लेकर प्रकट है। पारस्परिक छेड़छाड़ का एक सुखद चित्र देखिये। कृष्ण गाय का दूध काढ़ रहे हैं, अचानक राधा वहाँ आ जाती है, वे उनके कपोल पर दूध की धार चला देते हैं। राधा उनकी खिल्ली उड़ाती हुई कहती हैं-
तुम पै कौन दुहावै गया।
इत चितवत उत धार चलावत यह सिखयो है मैया ॥
(ख) वियोग शृंगार- सूर वात्सल्य और वियोग के तो सम्राट ही माने जाते हैं। उनका वियोग शृंगार बड़ा ही मार्मिक बन पड़ा है। गोपियों की विरह-व्यथा नाना रूपों में उभरी है। एक पंक्ति देखिए-
पिया बिनु नागिन कारी रात।
(ग) हास्य- सूर ने वचन वक्रता के साथ हास्य को भी समेटा है-
मैया मोरी मैं नहिं माखन खायो।
भोर भये गइयन के पाछे मधुबन मोहि पठायौ ॥
(घ) वात्सल्य- वात्सल्य का तो सूर कोना-कोना झांक आये हैं-
किलकत कान्ह घुटुरूवनि आवत ।
मनिमय कनक नन्द के आंगन बिम्ब पकरिवै धावत ॥
इस प्रकार विविध मनोवैज्ञानिक चित्रों को समेटती हुई सूर की उद्भावना शक्ति बहुत प्रखर है।
कला-पक्ष
( 1 ) भाषा- सूर की भाषा ब्रज है जिसमें शब्द-चंयन अनूठा है और विभिन्न भाषा के शब्दों का भी समावेश है। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना ने सूर के समूचे शब्द चयन को छः भागों में विभाजित किया है-
( 2 ) संस्कृत के शब्द- ये तीन प्रकार के होते हैं-
(अ) तत्सम शब्द- मुखार बिन्दु, कपोल आस, मकरावृत्ति, उलूक आदि।
(आ) अर्द्ध तत्सम शब्द- स्थान, दर्पन, बिलम्ब आदि।
(इ) तद्भव शब्द- ताती, पाती, उबटन, पाहन, मोती, लिलाट आदि।
(i) गुजराती एवं पंजाबी के शब्द- सूर ने संस्कृत के शब्दों के अतिरिक्त अन्य प्रान्तीय भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है जिनमें गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी भाषा के शब्द भी प्रयुक्त हैं।
(ii) हिन्दी की अन्य बोलियों के शब्द- सूर ने अपनी भाषा में खड़ी बोली, अवधी, कन्नौजी, बुन्देलखण्डी आदि बोलियों के शब्दों का भी प्रयोग किया हैं-
(अ) खड़ी बोली- गाया, आया, बताया, चरण कमल चित लागया है।
(आ) अवधी- छोट, बड़, अस आदि।
(इ) कन्नौजी- हुतो, हुती इत्यादि।
(उ) बुन्देलखण्डी- जानवी, प्रकटवी आदि।
(iii) विदेशी शब्द- सूर ने विदेशी भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग किया है। यथा- चुगली, आवाज, असवार, मर्दन, जहर, बेशर्म इत्यादि ।
(iv) देशज शब्द- ये वे शब्द हैं जिनकी उत्पत्ति आदि का कोई पता नहीं पर वे प्रचलित हैं। सूर ने इनका सही ढंग से प्रयोग किया है। यथा-टकटोरत, बुर्का, टुक-टुक, ढहकावत, खुनुस झुनक झुनुक।
(आ) लोकोक्ति-मुहावरे- सूर ने अपनी भाषा को वैशिष्ट्य प्रदान करने के लिए उसे लोकोक्ति और मुहावरों से भी सजाया है जिनके प्रयोग से भाषा में विशिष्ट लावण्य आ गया है और भाषा की सजीवता, सशक्तता एवं प्रभावोत्पादकता की वृद्धि हुई है। कतिपय उदाहरण देखिये
- जोई-जोई आवतवा मथुरा ते एक डार के तोरे ।
- कहा कहत मासी के आगे जानत नानी-नाना।
- ताको कहा परेखो कीजै जानत छाछन दूधौ।
(इ) उक्ति-वैचित्र्य- सूर ने ऐसी उक्तियों का भी प्रयोग किया है और पर्याप्त मात्रा में किया है जिनसे जहाँ उनकी भाषा में रागोत्प्रेरकता की वृद्धि हुई है वहीं वे आगे चलकर लोकोक्तियाँ बन गई हैं-
- सूरदास तीनौं नहिं उपजत धनियाँ, धान, कुम्हाड़े ।
- सूर-मूर अक्रूर गये लै ब्याज निवेरत ऊधौ ।
(उ) शब्द-शक्ति- सूर ने भावपूर्ण स्थलों पर सरस एवं सुबोध भाषा का प्रयोग करते हुए शक्ति को अपनाया है, वहीं वाग्वैदग्ध्य की सृष्टि करते हुए उत्कृष्ट कोटि का लाक्षणिक चमत्कार भी दर्शाया है। उनकी लाक्षणिकता, भावाभिव्यंजना की स्निग्धता, सशक्तता एवं सुकुमारता से परिपूर्ण हैं। एक दो उदाहरण प्रस्तुत हैं-
- नैना नैनन मोहि समाने ।
- पिया बिनु नागिन कारी रात।
- ये बतियाँ लिखि राखीं जे नन्दलाल कहीं।
(ऊ) माधुर्य की प्रधानता- सूर की भाषा माधुर्य युक्त है आर ब्रजभाषा के सम्राट माने जाते हैं। माधुर्य के कारण उनकी भाषा सरस और प्रभावी बन पड़ी है।
(2) अलंकार-योजना- सूर की अलंकार योजना की विशेषता यह है कि उसमें सहृदयता का पुट रहा है। सूर ने सभी अलंकारों का समावेश किया है किन्तु उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त आदि की प्रचुरता है।
- सांगरूपक- देखियत कालिंदी अति कारी- पद में सफल सांगरूपक का निर्वाह हुआ है।
- उपमा- सूरदास प्रभु को मग जोबत अखियाँ भई बटन ज्यौ गुंजै ।
- दृष्टान्त- दाख छाँहि के कटुक निबौरी को अपने मुख लावै ।
(3) संगीतात्मकता- सूर के काव्य में 61 रागों में पद-रचना हुई है जो सूर के विस्तृत संगीत ज्ञान का परिचय देती है। इसी से प्रभावित होकर आचार्य शुक्लजी ने स्वीकार किया है कि ‘सूरसागर’ में कोई राग या रागिनी छूटी नहीं होगी। साथ ही सूर ने लयबद्ध और गेय पदों की सरस रचना की है जो पर्याप्त प्रभावी बन पड़ी है।
उपसंहार- निःसंदेह सूर का काव्य भाव और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से अनूठा है। तभी तो उन्हें हिन्दी साहित्याकाश का सूर्य कहा जाता है। किसी विद्वान ने तो यहाँ तक कहा है “तत्व तत्व सूरा कही” अतः सूर अपनी कल के कारण भी हिन्दी कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं।
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