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स्रोत विधि क्या है?
अतीतकालीन इतिहास के बारे में स्पष्ट रूप से पता लगाना एक कठिन कार्य है। आधुनिक समय में कोई भी व्यक्ति वैयक्तिक रूप से, इस बात का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता कि शताब्दियों पूर्व किसी देश अथवा विदेश में क्या हुआ अथवा कौन-कौन सी घटनायें घटित हुई। इतिहास एक वैज्ञानिक विषय है। इस कारण से भी इतिहासकार उस समय की केवल यथार्थता का ही वर्णन करता है। इतिहास के मुख्य आधार तथ्य होते हैं, अतः इतिहासकार यथार्थ तथ्यों को आधार मानकर हो ऐतिहासिक घटनाओं का वर्णन करते हैं। कोई भी व्यक्ति अथवा इतिहासकार इसके अतीत काल में नहीं जा सकता। अतः उस समय विद्यमान व्यक्तियों द्वारा देखी गई तथा लिखित घटनाओं को आधार तथा प्रमाण मानकर, चाहे वे लिखित रूप में हों या अलिखित रूप में, तथ्य कहते हैं। ये विभिन्न तथ्य ही इतिहास के स्रोत हैं।
स्रोत के अर्थ को स्पष्ट करने हेतु श्री एस० वी० सी० एैया द्वारा प्रस्तुत विचार निम्नलिखित हैं-
“स्रोत अतीतकालीन घटनाओं द्वारा छोड़े गये शेष चिन्ह हैं। यद्यपि इतिहास की घटनायें वास्वतिक रूप में घटित होती हैं फिर भी वे अधिक समय तक वास्तविक नहीं रह पातीं। उनके द्वारा छोड़े गये शेष चिन्ह ही उन्हें वास्तविकता प्रदान करते हैं। इतिहासकार इन्हीं शेष चिन्हों के आधार पर कार्य करता है। वह इन्हीं शेष चिन्हों की सहायता से अतीत की घटनाओं का तार्किक एवं क्रमबद्ध वर्णन प्रस्तुत करने में समर्थ होता है। “
स्त्रोत-विधि के गुण
- इस विधि द्वारा अतीत को वास्तविक बनाया जा सकता है।
- स्रोत विधि द्वारा विद्यार्थियों को इतिहास की घटनाओं का यथार्थ एवं सत्य ज्ञान प्राप्त होता है।
- इस विधि के प्रयोग से इतिहास को रोचक एवं प्रभावपूर्ण बनाया जा सकता है।
- इस विधि द्वारा विद्यार्थियों को मानव के अतीत का ज्ञान कराकर उनकी जिज्ञासाओं को तृप्त कर उन्हें अनुशासित किया जा सकता है।
- स्रोत विधि से बालकों की मानसिक शक्तियों का विकास होता है।
- विद्यार्थियों में तर्क, कल्पना, निर्णय, तुलना आदि अनेक शक्तियों का विकास होता है।
- इस विधि के प्रयोग से शिक्षक को कक्षा में कम बोलना पड़ता है।
- इतिहास शिक्षण को पूर्ण रूप प्रदान करने हेतु स्रोत विधि का उपयोग करना परम आवश्यक है।
- इस विधि द्वारा व्याख्यान विधि में परिवर्तन होता है।
- विद्यार्थियों में इतिहास के प्रति रुचि उत्पन्न की जा सकती है।
स्रोत-विधि के दोष
- प्राचीन भारतीय सूत्रों अथवा स्रोतों के संकलन की कोई प्रामाणिक पुस्तक प्राप्त नहीं है।
- यह एक अत्यन्त व्यापक विधि है।
- वर्तमान परीक्षा पद्धति स्रोत-विधि के प्रयोग में बाधक बनी हुई है।
- इस विधि का प्रयोग केवल उच्च कक्षाओं में ही सम्भव है।
- इतिहास के स्रोत सरलता व सुगमता से प्राप्त नहीं होते हैं।
- इस विधि के प्रयोग हेतु अध्यापक को विशेष ज्ञान अथवा प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है।
- इस विधि के प्रयोग में समय अधिक लगता है
स्रोतों के प्रकार
इतिहास के सूत्र अतीत काल के व्यक्तियों द्वारा छोड़े गये शेषचिन्ह हैं। इतिहास के सूत्र अथवा शेषचिन्ह अनेक प्रकारों में पाये जाते हैं। इन स्रोतों को निम्नलिखित भागों में विभक्त किया जा सकता है-
1. साहित्य सम्बन्धी स्रोत – प्राचीन समय में विभिन्न कालों में विभिन्न प्रकार के साहित्य लिखे गये। इन विभिन्न प्रकार के साहित्य को साहित्य सम्बन्धी स्रोत कहा जाता है। इन स्रोतों का विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है-
लौकिक साहित्य- लौकिक साहित्य के अन्तर्गत व्यक्तिगत साहित्य तथा सार्वजनिक साहित्य का अध्ययन किया जाता है। वह रचना जो व्यक्ति ने व्यक्तिगत रूप से लिखी, व्यक्तिगत साहित्य कहलाती है, यथा- कौटिल्य का अर्थशास्त्र, हर्ष द्वारा लिखित-नागानंद व रत्नावली, बाणभट्ट का हर्ष चरित्र, कालिदास द्वारा रचित अभिज्ञान शाकुन्तलम् आदि तथा सार्वजनिक साहित्य के अन्तर्गत किन्हीं अधिकारी द्वारा तैयार किया गया साहित्य को रखा जाता है, यथा-राजकीय आदेश इत्यादि।
2. विदेशी विवरण – विदेशी विवरण अथवा प्रमाणों के अन्तर्गत विभिन्न विदेशी व्यक्तियों द्वारा लिखे गये वर्णन आते हैं, यथा- युआनच्चांग, मैगस्थनीज द्वारा लिखित विवरण इन विदेशी विवरणों से भी इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारी, प्राप्त होती है।
3. पुरातत्वीय स्रोत – पुरातत्वीय स्रोतों के अन्तर्गत निम्नलिखित स्रोतों का वर्णन किया जा सकता है-
(i) अभिलेख सम्बन्धी स्रोत- अभिलेख सम्बन्धी स्रोतों द्वारा भारतीय इतिहास के विभिन्न पर्यो का अध्ययन करने के लिये अत्यन्त सहायता प्राप्त होती है, इनसे अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण प्रमाण प्राप्त होते हैं। ये अभिलेख चट्टानों, ताम्रपत्रों, पत्थरों, भवनों की दीवारों आदि पर खुदे हुए प्राप्त हुए हैं।
(ii) मुद्रा- शास्त्रीय स्त्रोत- मुद्रा शास्त्रीय स्रोतों के अन्तर्गत प्राचीन भारत के विभिन्न कालों में प्रचलित मुद्राओं को रखा जाता है। इन सिक्कों के अध्ययन द्वारा इतिहास को महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। इन सिक्कों का अध्ययन करके विभिन्न कालों की आर्थिक स्थिति के बारे में स्पष्ट तथा पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
(iii) स्मारक सम्वन्धी स्रोत— इन स्त्रोतों के अन्तर्गत प्राचीन काल के मकान, मूर्तियाँ, बर्तन, आदि आते हैं। लार्ड कर्जन द्वारा भारत में पुरातत्त्व विभाग की स्थापना की गई थी। इस विभाग ने अनेक स्थानों की खुदाई कर, यथा-कालीबंगा, हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, काशी, नालन्दा इत्यादि से अनेक वस्तुयें प्राप्त कीं, जिनके आधार पर हम आज इतिहास का अध्ययन करते हैं।
4. मौखिक परम्परायें- मौखिक परम्पराओं का प्रयोग इतिहास के स्रोतों के रूप में किया जाता है। इन परम्पराओं द्वारा विभिन्न कालों का इतिहास तथा स्थानों के नाम के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इन स्थानों के नामों का क्या महत्त्व है ? इस सम्बन्ध में ये परम्परा महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं।
स्रोत-विधि का प्रयोग करते समय ध्यान रखने योग्य बातें– स्रोत-विधि का प्रयोग करते समय इतिहास शिक्षक को निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है-
(i) शिक्षक को उन पुस्तकों की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करना चाहिये, जिनमें इतिहास के स्रोत संकलित हो ।
(ii) छात्रों में स्व-अध्ययन की आदत का विकास करना चाहिये।
(iii) वाद-विवाद के उपरान्त उन्हें गृहकार्य अवश्य देना चाहिये।
(iv) शिक्षकों को स्रोतों को समयानुसार क्रम में प्रस्तुत करना चाहिये।
(v) कक्षा में पढ़ाते समय सूत्रों का प्रयोग आवश्यकता अनुसार ही करना चाहिये।
(vi) स्रोतों की सहायता से विद्यार्थियों को स्रोतों के अध्ययन हेतु प्रोत्साहित करना चाहिये ।
(vii) छात्रों को वाद-विवाद हेतु तैयार करना चाहिये।
(viii) शिक्षक को विद्यार्थियों के मध्य केवल अनुसंधानकर्ता ही नहीं बने रहना चाहिये।
इतिहास-शिक्षण में स्रोतों का प्रयोग-इतिहास- शिक्षण में स्रोतों का प्रयोग विभिन्न स्तरों पर किया जा सकता है-
(i) पाठ का विकास करने के लिये भी इन सूत्रों का प्रयोग किया जा सकता है। विद्यार्थियों को प्रदान किये जाने वाले ज्ञान को स्पष्ट व स्थायी बनाना ही, इसका अभीष्ट होता है।
(ii) पाठ के प्रारम्भ में शिक्षक इन सूत्रों का प्रयोग कर सकता है। विद्यार्थियों में जिज्ञासा उत्पन्न करने हेतु वह विभिन्न स्रोतों से सम्बन्धित प्रश्न पूछ सकता है।
(iii) शिक्षक पाठ की समाप्ति के उपरान्त भी इनका उपयोग कर सकता है। वह विद्यार्थियों को मौलिक स्रोतों से उपयुक्त उद्धरण का चयन करके, उस उद्धरण के आधार पर किसी प्रश्न का उत्तर लिखवा कर, विद्यार्थियों की इतिहास के प्रति रुचि को बनाये रख सकता है।
इसके अतिरिक्त इतिहास-शिक्षक, अध्ययन कराते समय इनका प्रयोग निम्नवर्णित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये भी कर सकता है-
- छात्रों में उत्तम आदतों का निर्माण करने के लिये।
- कक्षा में ऐतिहासिक वातावरण उत्पन्न करने के लिए।
- अतीत को वास्तविक बनाने के लिये।
- छात्रों के अनुसंधान कार्य करने हेतु प्रेरित करने के लिये।
- मौखिक पाठ को पूर्णता प्रदान करने के लिये।
- पाठ्य पुस्तकों की सत्यता को स्पष्ट करने के लिये।
स्रोतों की विश्वसनीयता – विश्वसनीयता से तात्पर्य है-जिस वस्तु की जाँच करना चाहते हैं, वह किस सीमा तक शुद्ध रूप में जाँची जा सकती है, जिससे प्राप्त परिणामों पर विश्वास कर सकें। इतिहास में प्राप्त समस्त सूत्र विश्वसनीय नहीं होते। अतः इतिहास शिक्षक को इन सूत्रों की विश्वसनीयता की जाँच करने हेतु विभिन्न रीतियों का प्रयोग करना चाहिये-
(i) शिक्षक को स्रोतों की विश्वसनीयता की जाँच करने हेतु सूत्रों को कालक्रमानुसार जाँचना चाहिये।
(ii) सर्वप्रथम शिक्षक को यह देखना चाहिये कि, स्रोत के रचयिता ने अपने पात्र का निष्पक्ष रूप से वर्णन किया है अथवा नहीं।
(iii) किसी विषय अथवा प्रकरण पर विरोधी विचारधाराओं की जाँच प्रामाणिक आलोचनात्मक तरीके से की जानी चाहिये तथा आवश्यकतानुसार उसे अपने निर्णय का भी प्रयोग करना चाहिये ।
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