हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में अपभ्रंश के प्रभाव पर प्रकाश डालिए।
आदिकाल में हिन्दी साहित्य के समानान्तर संस्कृत और अपभ्रंश-साहित्य की भी रचना हो रही थी। इनमें से संस्कृत-साहित्य का तो सामान्य जनता तथा हिन्दी कवियों पर उतना प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ रहा था, किन्तु अपभ्रंश-साहित्य भाषा की निकटता के कारण हिन्दी साहित्य के लिए निरन्तर साथ चलनेवाली पृष्ठभूमि का काम कर रहा था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ‘अपभ्रंश-काल’ के अन्तर्गत अपभ्रंश और आरम्भिक हिन्दी दोनों की रचनाएँ सम्मिलित कर ली हैं, किन्तु नवीन खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि उनमें से कुछ रचनाएँ आरम्भिक हिन्दी-साहित्य के अन्तर्गत आती हैं और अन्य को अपभ्रंश-साहित्य में रखा जाना ही उचित है। डॉ० देवेन्द्रकुमार जेन स्वयम्भू, पुष्पदन्त, धनपाल, घाहिल, कनकामर, अब्दुर्रहमान, जिनदत सूरि, जोइन्दु, रामसिंह, लक्ष्मीचन्द या देवसेन, लुई या सिद्ध कवि भुसुक, किलपाद, दीपंकर, श्रीज्ञान, कृष्णाचार्य, धर्मपाद, टेंटया, महीधर तथा कम्बलावरपाद को अपभ्रंश के कवि मानते हैं ।
कवि स्वयंभू 783 ई० के आसपास विद्यमान थे। उनके जन्म एवं मृत्यु-काल, जन्म-स्थान आदि के सम्बन्ध में कुछ भी विदित नहीं हो सका है। डॉ० जैन के मतानुसार वे कर्णाटक प्रदेश के निवासी थे। ‘पउमचरिउ’, ‘रिट्ठणेमि चरिउ’ तथा ‘स्वयम्भू छन्द नामक तीन ग्रन्थ उन्होंने लिखे थे। ‘पउमचरिउ’ अपूर्ण है, फिर भी इसमें राम का चरित्र विस्तार से वर्णित है। कथा के अन्त में राम निर्वाण प्राप्त करते हैं और मुनीन्द्र उपदेश देते हैं कि राग से दूर रहकर ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। यद्यपि स्वयम्भू ने प्रचलित राम कथा के सत्यों से पलायन नहीं किया है, तथापि राग-विराग की दार्शनिक स्थितियाँ सर्वत्र प्रधान रही हैं।
अपभ्रंश के दूसरे कवि पुष्पदन्त दसवीं शताब्दी में हुए थे। वे शैव थे, किन्तु बाद में अपने आश्रयदाता के अनुरोध से जैन हो गये थे। उनकी भी तीन रचनाएँ मिलती हैं-महापुराण, णयकुमार चरिउ तथा जसहर चरिउ इनकी रचना धार्मिक उद्देश्य से हुई है, फलस्वरूप साहित्यिक शिल्प तथा तात्विक दृष्टि से इन पर ‘जिन-भक्ति’ का प्रभाव सर्वत्र मिलता है। ‘महापुराण’ में अनेक घटनाएँ और चरित्र हैं- कवि ने 63 महापुरुषों की जीवन घटनाओं को वर्णन का विषय बनाया है। प्रसंगवश इसमें राम-कथा को भी स्थान मिला है। धार्मिक ग्रन्थ होने पर भी इसके काव्यत्व में किसी प्रकार की कमी नहीं है। पुष्पदन्त ने प्राकृतिक सरस सौन्दर्य का अत्यन्त निकट से साक्षात्कार किया है। इस ग्रन्थ की भाषा में स्पष्टतः हिन्दी भाषा के अंकुर दबे हुए दिखाई देते हैं। एक उदाहरण देखिए-
पडु तडि-वडण पडिय बियडायल, रुज्जिय सीह दाउणो ।
णच्चिय मल मोर कल-कल रथ पूरिय सयल काणणो ।। (2/13)
पुष्पदन्त की साहित्य-रचना शुद्ध धार्मिक भाव से हुई है। महापुराण के प्रथम अध्याय में उन्होंने स्पष्ट लिखा है “भैरव राजा की स्तुति में काव्य बनाने से जिस ‘मिथ्या’ ने जन्म लिया था, उसे दूर करने के लिए ही मैंने महापुराण की रचना की है।”
राज-स्तुति से दूर रहकर शुद्ध धार्मिक भाव से साहित्य-रचना की यह प्रवृत्ति अपभ्रंश से हिन्दी में भी आयी। फलत: आदिकाल में धार्मिक साहित्य की एक पृथक धारा बहती रही, जिसका विकास मध्यकाल में भक्तिकाव्य के रूप में हुआ। कवि स्वयम्भू का इस धारा के आविर्भाव में महत्वपूर्ण योगदान था तथा पुष्पदन्त ने उसको आगे बढ़ाने के लिए अपनी प्रतिभा की शक्ति दी।
अपभ्रंश के तीसरे प्रमुख कवि धनपाल ने दसवीं शती में ‘भविसयत्तकहा’ की रचना की, जो मनुष्य हृदय की अत्यन्त मार्मिक अभिव्यक्ति है। यद्यपि धर्म-भावना इसकी भी रीढ़ है, तथापि प्रत्यक्षतः लोक-हृदय की विभिन्न स्थितियों से इसका सम्बन्ध है। इसमें एक वणिक की कथा को स्वाभाविक घटनाओं के संयोजन द्वारा हृदय के विभिन्न घात-प्रतिघातों की अभिव्यक्ति में पूर्ण सफल बनाया गया है। धनपाल की यह रचना चरित काव्यों की एक नयी कड़ी है, जिसका प्रभाव आदिकालीन हिन्दी रचनाओं पर भी पड़ा।
अपभ्रंश-साहित्य के समर्थ कवियों में अब्दुल रहमान का नाम आता है, जिसने ‘सन्देशरासक’ लिखकर हिन्दी-काव्य के लिए एक स्थायी प्रेरणा का काम किया। विद्वानों ने उसका समय बारहवीं शती का उत्तरार्ध और तेरहवीं शती का आरम्भ माना है। ‘सन्देशरासक’ एक खण्डकाव्य है, जिसमें विक्रमपुर की एक वियोगिन के विरह की कथा है। कवि ने उसका नखशिख-वर्णन तथा पति के लिए सन्देश अत्यन्त सहज भाव-भूमि पर चित्रितक रके काव्य को मार्मिक बना दिया है। आदिकालीन हिन्दी-साहित्य में शृंगार रस की एक धारा इसी प्रकार की अपभ्रंश कृतियों के अनुकरण पर बह निकली, जो भक्तिकाल में होती हुई रीतिकाल में जाकर प्रधानता प्राप्त कर सकी।
अपभ्रंश में चरित-काव्यों की परम्परा से भिन्न एक राम-काव्य-परम्परा भी आरम्भ हुई थी। बारहवीं शताब्दी के जिनदत्त सूरि का ‘उपदेशरसायनरास’ इस दृष्टि से उल्लेख्य है। 80 पद्यों का यह नृत्य गीत-काव्य रासलीला के उस मूल रूप की ओर ले जाता है, जिसमें हिन्दी के आदिकाल रासो काव्य लिखे गये होंगे और बाद में वे विकसित होकर अगेय बन गये। कृष्ण की रास-लीला के नृत्य-गीत-काव्यों की भक्तिकालीन कड़ी अपभ्रंश की इसी काव्य-परम्परा से जुड़ती है।
अपभ्रंश में दोहा-काव्य की परम्परा भी चल रही थी। कुछ कवि कोण के रूप में दोहा-काव्य लिखते थे और कुछ फुटकर रूप में। जोइन्दु नामक कवि की छठी शताब्दी की ‘परमात्मप्रकाश’ तथा ‘योगसार’ नामक रचनाओं से अपभ्रंश में दोहा-काव्य आरम्भ होता है और उसकी परम्परा पन्द्रहवीं शती तक चलती है। इसी परम्परा में ग्यारहवीं शती में रामसिंह ने ‘पाहुड दोहा’ नामक ग्रन्थ लिखा। इसमें इन्द्रिय-सुख और अन्य सांसारिक सुखों की निन्दा की गयी है तथा त्याग, आत्मज्ञान और आत्मानुभूति को महत्व दिया गया है। निश्चय ही जोइन्दु से आरम्भ होने वाली परम्परा में लिखित ‘पाहुड दोहा’ दार्शनिक काव्य-रचना की एक ऐसी कड़ी है, जो हिन्दी-साहित्य में आदिकाल से रीतिकाल तक निरन्तर जुड़ती चली गयी है। अपभ्रंश के दोहों में ही उपदेशों के साथ-साथ शृंगार और वीर रसों की अभिव्यक्ति करने वाले दोहे भी मिलने लगे थे, जिनकी परम्परा में हिन्दी दोहा-काव्य का विकास हुआ।
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