हिन्दी साहित्य

हिन्दी रीतिग्रन्थों के निर्माता, प्रमुख आचार्य कवि

हिन्दी रीतिग्रन्थों के निर्माता, प्रमुख आचार्य कवि
हिन्दी रीतिग्रन्थों के निर्माता, प्रमुख आचार्य कवि

हिन्दी रीतिग्रन्थों के निर्माता, प्रमुख आचार्य कवियों पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।

हिन्दी साहित्य के दो सौ वर्षों के रीतिकाल में अनेक लक्षण प्रन्थों का निर्माण हुआ। विषय की दृष्टि से हम उन लक्षण पन्थों को निम्न वर्गों में रख सकते हैं-

(1) रस-विषयक ग्रन्थ,

(2) अलंकार विषयक पन्थ तथा पिंगल शास्त्र सम्बन्धी रचनाएँ

(3) काव्य के सर्वांग निरूपक ग्रंथ ।

इन ग्रंथों में रीति ग्रन्थकारों ने दो प्रकार का प्रयास किया एक तो काव्य के विविध अंगों के लक्षण प्रस्तुत करना, दूसरे सुन्दर तथा सरस उदाहरण जुटाना। अतः नीचे के प्रकरण में उनके आचार्यत्व तथा कवि कर्म की समीक्षा करना हमें अभीष्ट है।

आचार्य कवि केशवदास जन्मस्थानादि

केशवदास का जन्म एक धनाढ्य ब्राह्मण कुल में हुआ। इनके पिता का नाम काशीनाथ था जो कि संस्कृत के घुरन्धर विद्वान थे। संस्कृत के ‘शीघ्र बोध’ नामक ज्योतिष ग्रंथ का निर्माण इन्होंने किया था। केशव का संबंध पंडितों के उस परिवार से था जहां दास-वर्ग भी संस्कृत भाषा का व्यवहार किया करता था। कदाचित् यही कारण है कि केशव को भाषा में कविता करते समय कुछ ग्लानि का अनुभव हुआ था और इस क्षतिपूर्ति का स्पष्ट प्रमाण उनका यत्र-तत्र पांडित्य-प्रदर्शन देखा जा सकता है। केशव ओरछा नरेश महाराज इन्द्रजीत की राजसभा में रहा करते थे जहां इनका बहुत मान था। ओरछा- नरेश इन्हें अपना गुरु स्वीकार करते थे और उन्होंने इन्हें 21 गांव दान में दिये थे। केशवदास हिन्दी के विशेष लोकप्रिय कवि बिहारी के गुरू थे। इनका जन्म अनुमानतः सं० 1612 विक्रमी माना जाता है और मृत्यु अनुमानतः सं० 1674 |

ग्रंथ – निम्नलिखित रचनायें केशव की प्रामाणिक रचनायें मानी जाती हैं-रसिकप्रिया, नखशिख, कविप्रिया, रामचंद्रिका, वीरसिंह-देव-चरित, रतन बावनी, विज्ञान-गीता और जहाँगीर-स-चन्द्रिका। इनमें प्रथम चार ग्रंथ काव्यशास्त्र से सम्बद्ध हैं। रामचन्द्रिका एक महाकाव्य है जिसमें रामचरित का गान वाल्मीकि की रामायण के आधार पर किया गया है। वीरसिंह देव चरित, रतन बावनी तथा जहाँगीर जस चन्द्रिका नाम के ग्रंथों में तत्तद्नामों से संबंधित राजा-महाराजाओं की वीरगाथायें एवं यशोगान हैं। विज्ञान गीता एक आध्यात्मिक ग्रंथ है, जिसका निर्माण प्रबोध-चन्द्रोदय की पद्धति पर हुआ है। इन ग्रंथों के वर्ण्य विषय के आधार पर कहा जा सकता है कि उनमें काव्य-निर्माण की विविध शैलियों की क्षमता थी। रामचन्द्रिका में महाकाव्य शैली का निदर्शन है, तो वीरसिंह देव चरित, रतन बावनी और जहाँगीर जस चन्द्रिका आदिकालीन वीर चरितात्मक शैली के उदाहरण हैं। एक ओर उन्होंने विज्ञान गीता में नाटक की रूपक शैली को अपनाया तो दूसरी ओर उन्होंने अपने काव्यशास्त्रीय ग्रंथों के द्वारा रीति-निरूपण की नूतन पद्धति का सुव्यवस्थित रूप से प्रवर्तन किया। इस दृष्टि से केशव का व्यक्तित्व बहुत कुछ भारतेन्दु जैसा लगता है।

आचार्यत्व- हिन्दी-साहित्य में केशव का आचार्य के नाते जितना महत्व है उतना कवि के नाते नहीं । कारण, केशव की चित्त-वृत्ति काव्यशास्त्रीय निरूपण में अधिक रमी है। इनकी रामचन्द्रिका विविध छंदों और अलंकारों का पिटारा मात्र है। केशव की रसिकप्रिया रस-विवेचन से सम्बद्ध ग्रंथ है, जिसमें प्रमुखतः शृंगार रस का वर्णन है, अन्य रसों का इन्होंने गौण रूप से वर्णन किया है। इस ग्रंथ के अंत में अनरस नाम से पांच रस दोषों का भी निरूपण किया है। शृंगार रस निरूपण में नायक-नायिका भेद का भी निरूपण किया गया है। इस संबंध में केशव पर भानुमिश्र की रसमंजरी, विश्वनाथ के साहित्य-दर्पण, भोज के शृंगारप्रकाश और काम संबंधी ग्रंथों का प्रभाव असंदिग्ध है। केशव ने शृंगार को रसराज माना है और उसमें अन्य सभी रसो का अन्तर्भाव कर दिया है। शृंगार का रस-राजस्व का ठीक है पर अन्य रसों और विशेषतः श्रृंगार के विरोधी रसों का शृंगार रस में अन्तर्भुक्त हो जाना नितान्त अशास्त्रीय है। केशव ने सभी रसों का वर्णन शृंगार रस के अधिष्ठाता कृष्ण को आलम्बन बना कर किया है। यह सब कुछ सरस और सुन्दर उदाहरण जुटाने की लालसा से है। अस्तु । केशव की इस मान्यता पर रूप गोस्वामी की उज्ज्वल नीलमणि का प्रभाव स्पष्ट है। केशव ने शृंगार रस के संयोग और वियोग के अतिरिक्त प्रच्छन्न और प्रकाश दो और भी भेद किये हैं। वास्तव में प्रच्छन्न को तो रस की संज्ञा ही प्राप्त नहीं होती क्योंकि विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से निष्पन्न व्यक्त स्थायी भाव ही रस-दशा को प्राप्त होता है। केशव की कविप्रिया में कवि-शिक्षा, अलंकार-निरूपण और दोषों का वर्णन है। कवि-शिक्षा प्रकरण में कवि के कर्तव्यों और कवियों के उत्तम, मध्यम, अधमादि भेदों का उल्लेख किया है। केशव के इस काव्य-विभाजन पर भर्तृहरि का प्रभाव स्पष्ट है और उनका यह भेद कोई असमीचीन भी नहीं है। केशव ने कुल मिलाकर 23 दोषों का वर्णन किया है। कविप्रिया के प्रथम पांच दोष, अंध, बधिर, पंगु, नग्न और मृतक आदि का नाम विचित्र सा लगता है और संभव है कोई आलोचक उन्हें इस मौलिक उदभावना की दाद भी दे किन्तु प्रथम चार का तो मम्मट वर्णित दोषों में अन्तर्भाव हो जाता है और उसका मृतक तो काव्य-दोष जान ही नहीं, पड़ता, क्योंकि जहाँ शब्द और अर्थ मृतप्राय होंगे वहाँ काव्यत्व संभव ही नहीं।

केशव ने काव्य के सभी विधायी उपकरणों को अलंकार कहा है। केशव की इस अलंकार संबंधी परिभाषा पर भामह, उद्भट, दण्डी का प्रभाव है जबकि इन आचार्यों के समय में अलंकार और अलंकार्य का भेद स्पष्ट नहीं हो पाया था। केशव के अलंकारों के साधारण और विशिष्ट-भेद भी तर्कसंगत नहीं। केशव ने अपने अनुवर्ती संस्कृत-आचार्यों के समान नव रसों का रसवत अलंकार के अंतर्गत वर्णन किया है जो वैज्ञानिक नहीं हैं। उन्होंने अंगी का अन्तर्भाव अंग के अंतर्गत कर दिया है। केशव ने सर्वगुण सम्पन्न अलंकार-रहित कविता को भी उसी प्रकार शोभाहीन माना है जिस प्रकार सर्वगुण संपन्न आभूषण रहित नारी को । केशव की इस अति अलंकरण-प्रियता को देखकर उन्हें अलंकारवादी आचार्य भी कहा जा सकता है, परन्तु उन्होंने रस की सर्वथा अवहेलना की हो ऐसी बात नहीं है। केशव अपने आधारभूत अलंकारों का निर्भात रूप से निरूपण नहीं कर पाये हैं। कहीं इनके लक्षण, कहीं उदाहरण और कहीं दोनों भ्रामक हैं। अलंकार-निरूपण में जहाँ उन्होंने कुछ मौलिकता का प्रदर्शन करना चाहा है वहां वे असफल ही रहे हैं। आचार्य शुक्ल इस संबंध में लिखते हैं- “नामों में अवश्य कहीं-कहीं थोड़ा हेर-फेर मिलता है जिससे गड़बड़ी के सिवाय और कुछ नहीं हुआ । उपमा के जो-जो भेद केशव ने रखे हैं उनमें 15 ज्यों के त्यों दण्डी के हैं, 5 के केवल नाम भर बदल दिये गये हैं। शेष रहे दो भेद-संकीर्णोपमा और विपरीतोपमा, इनमें विपरीतोपमा को तो अलंकार कहना ही व्यर्थ है। इसी प्रकार आक्षेप के जो 9 भेद केशव ने रखे हैं, उनमें चार तो ज्यों के त्यों दण्डी के हैं। पांचवां मरणाक्षेप दण्डी का मूर्च्छाक्षेप है। कविप्रिया का प्रेमालंकार दण्डी के प्रेयस का ही नामान्तर है। उत्तर अलंकार के चारों भेद वास्तव में पहेलियां हैं। कुछ भेदों को दण्डी से लेकर केशव ने उनका अर्थ और का और ही समझा है।”

केशव का छंद- संबंधी ग्रंथ है ‘छन्दमाला’। यह एक छोटी सी पुस्तिका है जिसमें साधारण रूप से छंद-संबंधी शिक्षा दी गयी है। इस ग्रंथ का ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व है विषय-विवेचन की दृष्टि से नहीं ।

इस संक्षिप्त विवेचन के अनन्तर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में काव्यांगों का कोई गंभीर और प्रौढ़ विवेचन नहीं है। उन्होंने संस्कृत काव्यशास्त्र का हिन्दी-रूपान्तर प्रस्तुत किया है और उसमें भी इन्होंने काव्य के अनेक नियमों को स्पष्ट नहीं किया, बल्कि उनका सही अनुवाद भी नहीं किया है। उदाहरणों में वे प्रायः विषयेतर हो जाते हैं। लक्षण लिखते समय उनकी स्पष्टता की ओर ध्यान न देकर उन्हें काव्य- चमत्कार से युक्त बनाना चाहते हैं। उदाहरण लिखते समय उन्हें एक से अधिक अर्थ या एक से अधिक उद्देश्य सिद्ध करने की लगी रहती है। परिणामतः उनके दोनों काम कच्चे रह जाते हैं। केशव की दशा उस घुड़सवार जैसी है जो दो घोड़ों पर एकसाथ सवारी करना चाहता हो ।

अन्त में हम आचार्य केशव के संबंध में डॉ० भागीरथ मिश्र के शब्दों में कह सकते हैं- “केशवदास का महत्व सचमुच इस बात में है कि उन्होंने देशी भाषा में पहले काव्यशास्त्र के लगभग सभी अंगों पर प्रकाश डाला। केशवदास ने, चाहे उनकी रचना कितनी अपूर्ण हो, संस्कृत आचार्यों द्वारा प्रतिपादित काव्यशास्त्र के लगभग सभी अंगों पर विचार किया है और संक्षेप में लक्षण कहकर उनको अपने द्वारा बनाये उदाहरणों में युक्त किया है। केशव की मौलिकता बहुधा उदाहरण में और कहीं-कहीं नये वर्गीकरण में देखी जा सकती है।”

कवित्त- हिन्दी के मध्य युग के साहित्य में केशव ने प्रबन्ध और मुक्तक दोनों प्रकार के काव्यों का प्रणयन किया है। विज्ञान-गीता, वीरसिंहदेव चरित, जहाँगीर जस चन्द्रिका इनके प्रबन्ध काव्य हैं। विज्ञान-गीता में आध्यात्मिक विषयों की चर्चा है। जबकि बाकी के तीन काव्यों में प्रकृतजन गुणगान है। रतन बावनी में 52 पद्यों के स्थान पर आज 68 पद्य मिलते हैं। इससे स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है कि कुछ पद्य इसमें प्रक्षिप्त हैं। केशव की ‘रामचन्द्रिका’ में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित का गान है। केशव के इन ग्रंथों के आधारभूत ग्रंथ हैं- वाल्मीकि रामायण, हनुमन्नाटक तथा प्रसन्नराघव केशव ने इस ग्रंथ के संबंध में लिखा है कि वाल्मीकि मुनि ने स्वप्न में कहा कि “तू भला बुरा तो गुनता नहीं बेकार की बात लिखा करता है, कुछ राम का चरित गा नहीं तो तुझे स्वर्ग ही नहीं मिलेगा।” इससे यह तो स्पष्ट है कि केशव ने रतन-बावनी आदि ग्रंथों में जो उन्मुक्त कंठ से गान किया था, उसमें उन्हें आत्मग्लानि होने लग गई थी। पर एक बात इस प्रसंग में स्मरण रखनी होगी कि रामचन्द्रिका में जहां राम के पुनीत चरित का गान करना कवि का मुख्य उद्देश्य था वह गौण-सा हो गया और वहां भी वे वास्नाल, पांडित्य प्रदर्शन, छंद और अलंकारों के पचड़ों में पड़ गये। आज का आलोचक केशव की रामचन्द्रिका के महाकाव्यत्व को सन्देह की दृष्टि से देखता है। उसका कहना है कि इसमें कथा-प्रवाह स्थल-स्थल पर उखड़ा- उखड़ा है, कथा-क्रम में यत्र-तत्र व्याघात है, कथा-प्रसंग अपनी रुचि के अनुसार तोड़-मरोड़ गये हैं, अव्यवस्थित और असंतुलित हैं। चरित्र-चित्रण और शैली की दृष्टि से भी इस रचना को महाकाव्य की उदात्ता प्राप्त नहीं हो पाई है। कथा के बीच मार्मिक स्थलों की ओर केशव का ध्यान नहीं गया और दरअसल ऐसे ही स्थलों पर सच्चे कवि हृदय की पहचान हुआ करती है। वन पथ पर राम को देखकर लोगों से यह कहलवाना ‘किधौ मुनि शाषहत, किधौ ब्रह्मदोष रत, किधौ कोऊ ठग हौ” सन्देह अलंकार के मोह में पड़कर अपनी हृदयहीनता का परिचय देना है। केशव में आलंकारिक चमत्कार का मोह इतना बढ़ा-चढ़ा हुआ है कि कहीं-कहीं पर अत्यंत घटिया उपमानों का प्रयोग कर बैठते हैं। राम की वियोग-दशा का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं-

बासर की संपत्ति उलूक ज्यों न चितवत

इसी प्रकार इन्होंने पंचवटी के वर्णन के प्रसंग में शब्द-साम्य के आधार पर श्लेष के भेद खड़े किये हैं-“केशव केशव राय मनौ कमलासन के सिर ऊपर सोहे।” इसी प्रकार सीता के साथ वन-बालकों का श्लेष अलंकार में बातें करवाना भी नितान्त असंगत है । लगता है कि केशव केवल उक्ति वैचित्र्य और शब्द-क्रीड़ा के प्रेमी थे। जीवन के नाना गंभीर और मार्मिक पक्षों पर उनकी दृष्टि नहीं थी। संभव है कि उक्त प्रवृत्ति को तथा उनकी छिछली रसिकता को देखकर आलोचकों ने उन्हें कठिन काव्य का प्रेम एवं हृदयहीन कवि कहा हो। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी केशव के संबंध में लिखते हैं-“कवि को जिस प्रकार का संवेदनशील और प्रेषण धर्म वाला हृदय मिलना चाहिए वैसा केशवदास को नहीं मिलता था।” अस्तु !

केशव के पाठक के सम्मुख कुछ प्रश्न स्वतः ही उठने लगते हैं। क्या केशव कठिन काव्य के प्रेत हैं ? क्या उन्हें कवि के नाते कुछ भी सफलता नहीं मिली ? क्या उनके काव्य में रस नाम की वस्तु को ढूंढना ऐसा ही है जैसे मरुस्थल में जल ? मेरे विचार में केशव का मूल्यांकन करते समय या तो हीनोक्ति से काम लिया गया है या अतिशयोक्ति से केशव के कवि में वे सभी परिसीमायें हैं जो एक राजदरबारी कवि के जीवन में होना स्वाभाविक है। पर जहाँ केशव का हृदय रमा है वहां उनका कवि-रूप उभर आया है। युद्ध, सेना की तैयारी, उपवन, राजदरबार के ठाट-बाट तथा शृंगार और वीर रस के वर्णन के प्रसंगों में केशव को काफी प्रशस्य सफलता मिली है। संवाद- नियोजन की कला तो उनकी अनुपम ही है और इस दिशा में उन्हें तुलसी से भी अधिक सफलता मिली है। यदि वे प्रबन्ध-काव्य न लिखकर नाटक रचना करते तो उन्हें आशातीत सफलता मिलती।

निःसन्देह उनकी अभिव्यंजना शैली सदोष है। उनकी भाषा में च्युत-संस्कृति और न्यूनपदत्व आदि के दोष भी हैं, बाग्जाल और पांडित्य का मोह उनके काव्य-सौन्दर्य को यत्र-तत्र ध्वस्त कर देता है, आलंकारिक चमत्कार वृत्ति और भौंडी रसिकता उन्हें उदात्तभाव योजना नहीं करने देती, प्राकृतिक वर्णनों के प्रति वे प्रायः तटस्थ हैं, परन्तु फिर भी वे अपनी कतिपय विशिष्टताओं के कारण सूर और तुलसी के बाद स्थान पाते आए हैं। पंडित समाज में उनकी रामचन्द्रिका का आज भी यथेष्ट सम्मान है। वे हिन्दी की रीति-परंपरा के प्रवर्तक हैं और इस दिशा में कुछ-नकुछ अनुकरणीय भी रहे हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य सरणि को भक्ति पथ से रीति पथ की ओर अग्रसर किया, भले ही वे स्वयं इस नूतन पथ के सफल यात्री सिद्ध न हो सके हों और फिर केशव की इस राह पर चलने वाले परवर्ती राहियों की दशा तो और भी विचित्र हो गई।

केशव के पश्चात् हिन्दी कविता

केशव के अनन्तर हिन्दी कविता अपने ऊंचे शिखर से गिरकर अलंकारादि के मायाजाल में ऐसी फंसी कि वह हत्तंत्री को बजाने वाली और समस्त सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध को स्थापित करने वाली न रही। इसके कारण स्पष्ट हैं।

भक्ति-काल में कविता का उद्देश्य अत्यन्त उदात्त था । वे लोग पहले भक्त थे बाद में कवि । उन्होंने दुनिया को आँखों से देखा था और वे अनुभूति के धनी थे। उन्होंने जन-साधारण को मंगलमय सन्देश सुनाया। उनका उद्देश्य था – “कीरति भनिति भूति भुलि सोई।” उन्हें स्वान्तः सुखाय कविता करनी थी और उन्हें सीकरी से कोई सरोकार नहीं था। कबीर, सूर, तुलसी, मोरा और जायसी के हृदयोदगारों में जनमानस को सदियों तक उद्वेलित करने की अपार क्षमता है। उनकी कविता में भाव पक्ष को अभीष्ट प्रश्रय मिला है। काव्य के कलापक्ष को सबल और प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में ग्रहण किया गया हालांकिक इसकी ओर उनकी कोई विशेष रुचि नहीं थी। उनका आदर्श था ‘भाव उत्तम चाहिए भाषा कैसी होय।’ भक्तिकाल का रससिद्ध कवि अलंकार आदि कविता के बाह्य उपकरणों के पीछे बेतहाशा भाय नहीं, परन्तु ये उसकी रसमयी वाणी में स्वतः आ गये। इसके विपरीत रीतिकाल की कविता-कामिनी एक विचित्र बाना पहनकर काव्यशास्त्र की उँगली पकड़कर बड़ी सज-धज से बाहर निकली। उसने अलंकार को अपने ऊपर इतना लाद लिया कि कदाचित् मुक्त गति से चल भी न सकी और न ही सामाजिक वातावरण में खुलकर सांस ले सकी। भक्तिकाल में हृदय-पक्ष की प्रधानंता थी, जबकि रीतिकाल में कलापक्ष की । रीतिकाल का कवि शब्दचयन, स्वरलहरी, लाक्षणिक-वक्रता, उक्ति-वैचित्र्य पेचीदे मजमून, ऊहात्मकता और अलंकारों के खिलवाड़ में बुरी तरह फंस गया। रीतिकाल के कवि की दृष्टि जनजीवन के प्रतिदिन के संघर्षो से अपरिचित थी। वह महलों में विलासमय जीवन के चित्र उतारने में लगी रही।

जिस राम के पावन चरित्र पर तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ जैसा अमर ग्रंथ लिख डाला, वही रामचरित केशव के लिए छंद और अलंकारों के प्रदर्शन की सामग्री मात्र बन गया। ‘रामचन्द्र की चन्द्रिका बरनत हो बहुछन्द । एक प्रबन्ध के बीच मर्मस्पर्शी स्थलों के नियोजन के लिए जो सूक्ष्म-शक्ति और सहृदयता अपेक्षित होती है वे केशव में नहीं थी और न ही किसी अन्य रीति-पथ के राही में। वे कविता कामिनी की शारीरिक साजसज्जा में लीन रहे, आत्मा तक नहीं पहुंच सके और साथ-साथ अलंकारों के भार से कविता-कान्ता को रुद्ध-श्वास ही बना सके। उसका हृदय पक्ष निकल जाने से वह बुद्धि का खिलवाड़ मात्र रह गई। उसमें मन को रमाने की शक्ति न रही, वह केवल चमत्कार मात्र रह गई और वह भी हाथीदाँत पर खुदे बेल-बूटों तथा महीन चित्रों के समान जो क्षणिक मनोरंजन मात्र ही कर सकते हैं। भले ही रीतिमुक्त कवि घनानन्द आदि इसके अपवाद भी कहे जा सकते हैं।

रीतिकाल में अधिकांश कवियों ने लक्षण ग्रंथों की रचना की। इन लक्षण ग्रंथकारों का उद्देश्य हृदय के तारों को झंकृत करना नहीं था, वरन् लक्षण- उदाहरणों से अपना पांडित्य-प्रदर्शन था। लक्षण ग्रंथों के मोह में वे इतने बेसुध हुए कि उन्हें कविता की भी सुध न रही। वे संस्कृत के आचार्यों के लक्षण-ग्रंथों के अनुवाद एवं भावानुवाद में प्रवृत्त रहे और नायिका भेद के चक्रव्यूह में फंसकर अपनी सारी शक्ति उसी के शब्दांकन में लगा दी। यहां तक कि इस रीति-कल्लोलिनी की उत्ताल तरंगों के छींटों से वीर रस के उत्थापक कवि भूषण भी अपने आपको बचा न सके। बिहारी ने कोई स्वतंत्र लक्षण ग्रंथ नहीं लिखा, परन्तु फिर भी उनके बहुत से दोहों की पृष्ठभूमि में यह शास्त्र काम कर रहा है। अन्यथा देव, बिहारी, मतिराम, भूषण और पद्माकर भावप्रवण कवि थे, इनमें कवित्व की खूब शक्ति थी । यदि वे इस परम्परा में न बहते तो कितना अच्छा होता।

रीति-युग का कवि राजाश्रित था। उस युग में कविता हुक्म, आज्ञा या आर्डर पर बनती रही। रीति-कवि की अपनी परिसीमाएँ थीं और वह उनसे विवश था। परिणामतः उसकी सहज अनुभूतियों और कल्पना शक्ति का समुचित दिशा में विकास नहीं हो सका। सच यह है कि नौकरी और शायरी दो विरोधी वस्तुएँ हैं। प्रदर्शन-प्रधान उस युग में कवि आलंकारिक चमत्कार में मस्त रहा और रस अपेक्षाकृत उपेक्षित सा रह गया। फलस्वरूप कवित्व की ऊंची से ऊंची वस्तु रीतिकाल में नहीं आ पाई। एक उर्दू कवि के शब्दों में-

भरते हैं मेरी आह को वे ग्रामोफोन में।

कहते हैं आह खेंचिये और दाब लीजिये ।।

शुक्ल जी के कथनानुसार रीतिकाल में पेचीदे मजमून हैं, सीधे और सरल भाव नहीं हैं। इन मजमून बांधने वालों में बिहारी, देव और पद्माकर का नाम मुख्य है। बिहारी ने बहुत दूर की कौड़ी पकड़नी चाही है। बिहारी की इस उक्ति में ‘दृग उरझत टूटत कुटुम्ब’ असंगति अलंकार के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं । और देव की इस उक्ति में ‘वा चकई कौ भयो चितचीतो’ अनुप्रास और उत्प्रेक्षा की झड़ी मात्र है, हृदय को पकड़ लेने वाली कोई भी वस्तु नहीं है। ऐसी उक्तियों में एकमात्र श्रमसाध्यता है, भावनाओं का सहज उद्रेक नहीं है। कहीं-कहीं पर उनकी अतिरंजनापूर्ण कल्पनाएँ हास्यास्पद भी बन गई हैं। इनका प्रधान कारण भौंडी रसिकता और तत्कालीन विलासितामय वातावरण है। इस दिशा में विदेशी साहित्य का प्रभाव भी आंशिक रूप के कारण माना जा सकता है। ऐसी उक्तियां कविता न होकर खिलवाड़ मात्र हैं और पहेली बुझौवल हैं। बिहारी के निम्न दोहे इस प्रसंग में दृष्टव्य हैं-

इत आवति चलि जात उत चली छः सातक हाथ ।

चढ़ी हिंडोरे सी रहे लगी उसासन साथ ॥

आड़े दे आले वसन जाड़े हू की राति ।

साहस ककै सनेह बस सखी सबै ढिंग जाति ।।

प्रकृति-वर्णन में भी इन्होंने अपने हृदय की कृपणता का परिचय दिया है। इनमें प्रकृति के बिम्बग्राही चित्रण की शक्ति नहीं थी । संस्कृत के वाल्मीकि, कालिदास तथा भावभूति को तो जाने दीजिए, इन्होंने इस दिशा में सूर जैसी तन्मयता भी नहीं दिखलाई है। एक ऋतु पर एक-एक दोहा लिखकर बिहारी जैसे कवि ने प्रकृति-चित्रण से छुट्टी पा ली। इन लोगों ने प्रकृति का चित्रण उद्दीपन रूप में किया है और वह भी परम्परा-पालनार्थ। केशव जैसे कवि के लिए मुख की विद्यमानता में चन्द्र और कमल कुछ अर्थ ही नहीं रखते । केशव ने प्रकृति-चित्रण में कहीं-कहीं भद्दी भूलें की हैं। प्रकृति इनके लिए उद्दीपन का उपकरण मात्र बनकर रह गई, उसे इन्होंने सजीव इकाई के रूप में चित्रित नहीं किया, फिर इनसे अशेष प्रकृति के साथ रागात्मकता की आशा की बात तो दूर रही।

केशव में फिर भी यथाकथचित् कुछ मर्यादा या शिष्टता बनी रही। केशव को निज समय में ही कविता के अधोमुखी हास का आभास होने लगा था। उन्होंने अपनी कविप्रिया में तीन प्रकार के कवियों का वर्णन करते हुए उनकी मनोवृत्तियों और कविता-संबंधी दृष्टिकोणों का विश्लेषण किया है।

केशव तीनहु लोक में त्रिविध कविन के राय ।

मति पुनि तीन प्रकार की बरनत सब सुख पाय ।

उत्तम मध्यम अधम कवि उत्तम हरि रस लीन।

मध्यम मानत मानुषनि दोषनि अधम प्रवीन ॥

है अति उत्तम ते पुरुषारथ जे परमारथ के पंथ सोहै।

केशवदास अनुत्तम ते नर संतत स्वास्थ संजुत जो है ।।

स्वारथ हूँ परमारथ भोग न मध्यम लोगन के मन मोहे।

भारत पारथ मित्र कह्यौ, परमारथ स्वारथ हीन ते कोहै ॥

निःसन्देह केशव ने राम और सीता को शृंगारी रूप दे दिया है और वे तुलसी के समान मर्यादा का पालन नहीं कर सके फिर भी उन्होंने शृंगार-वर्णन में इतना हल्कापन नहीं आने दिया, जितना कि परवर्ती अन्य रीति-कवियों में है। केशव के पश्चात् तो रीतिकालीन कवियों ने राधा और कृष्ण के नाम पर शृंगार की वे गन्दी नालियाँ बहाई हैं कि कदाचित् सड़ांध तो अब भी उनमें मौजूद है। सूरदास ने अत्यंत सात्विकता के साथ राधा और कृष्ण के शृंगार का आध्यात्मिक स्तर पर वर्णन किया था, किन्तु इन अनधिकारियों के हाथों में पकड़कर वे साधारण नायक और नायिका बनकर ही रह गये और इनकी आड़ में रीतिकालीन कवि लगे मानसिक फफोले फोड़ने। इन्होंने अपनी आवश्यकता पूर्ति के लिए स्वकीया के वृत्त को भी बढ़ा लिया। इस काल में काम की सार्वभौम उपासना हुई और अश्लीलता अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी। इस काल का प्रायः प्रत्येक कवि उस्ताद ही निकला। समय पलटते-पलटते प्रकृति के अनुसार कवि लोग स्वयं महाराज के कानों में मकरध्वज की पिचकारियां छोड़ने लगे तथा शृंगार-चषक पिलाने लगे। इस संबंध में रीति युग के कुछ कवियों की निम्न उक्तियां द्रष्टव्य हैं-

बिहारी-

1. लरिका लैवे के मिसन |

2. विहंसि बुलाई विलोक उन ।

3. कन दैवो सौंप्यो ससुर ।

4. राधा हरि, हरि राधिक बनि आये संकेत ।

मतिराम – केलि की गति अघाने नहीं प्रभु ।

पद्माकर- नींबी और बार संभारिवे की सुभई सुधि नारि को चार घरी में ।

गवाल- 1. हाय हम आगे जबही कछु करन लागे। तब ही उलट पापी पलक जुदे भये ।

2. जैसी पालाहरन सकित प्यारी बाला में।

सचमुच ये लोग इस दिशा में वात्स्यायन तथा फ्रायड के भी उस्ताद निकले हैं। इनकी दृष्टि में सामाजिक महत्व तो कुछ था ही नहीं। ऐसी रचनाएँ कामशास्त्र की कोटि में भले ही आ जायें इन्हें उदात्त कविता की कोटि में नहीं रखा जा सकता, जहाँ काम और न रहकर अंगी के रूप में चित्रित हुआ है। आचार्य शुक्ल ने एक स्थान पर बिहारी की कविता को लक्ष्य रखकर केहा है-“भावों का बहुत उत्कृष्ट और उदात्त रूप बिहारी में नहीं मिलता। कविता उनकी श्रृंगारी है पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुंचती, नीचे रह जाती है।” यह कथन प्रायः रीतिकाल के सभी कवियों पर चरितार्थ होता है। देव के अष्टयाम में रात-दिन के भोगविलास की दिनचर्या है जो उस काल के अकर्मण्य और विलासी राजाओं के काल-यापन के उद्देश्य से लिखी गई। रीतिकाल की कविता एकदम हीन है, ऐसी बात भी नहीं है। भले ही उस युग के कवि सूर और तुलसी की समकक्षता में नहीं आ सक फिर भी वे अच्छे हैं और उनका यह महत्व तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में देखने से और भी बढ़ जाता है।

रीतिकालीन कवियों को रीतिबद्ध और रीतिमुक्त दो कोटियों में रखा गया है। बिहारी, देव, मतिराम, भूषण, पद्माकर आदि रीतिबद्ध हैं, परन्तु वे प्रगल्भ-प्रतिभा संपन्न भावुक कवि भी हैं। यदि ये लक्षण-परम्परा की दलदल में न पड़ते तो निश्चित रूप से उनकी कविता का सुन्दर विकास हो सकता था। रीतिमुक्त कोटि में घनानन्द, बोधा और ठाकुर का नाम लिया जा सकता है। इनकी कविता में हृदय की मार्मिक अनुभूतियां हैं। रीतिबद्ध कवियों के संबंध में हिन्दी साहित्य के अत्यंत विचारशील आलोचक रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है- “इन कवियों का उद्देश्य कविता करना था न कि शास्त्रीय पद्धति पर काव्यांगों का निरूपण करना। अतः इनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों और अलंकारों के बहुत से सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यंत प्रचुर परिमाण में प्रस्तुत हुए हैं। ऐसे मनोहर और सरस उदाहरण संस्कृत के लक्षण-ग्रंथों से चुनकर इकट्ठे किये भी जायें तो भी उनकी संख्या हिन्दी रीति-काव्यों में दिए गए लक्षणों से अधिक न होगी।”

भले ही रीतिकाल की कविता बाह्य आडम्बर प्रधान है, उसमें भक्तिकालीन शालीनता और उदारता नहीं, सामाजिकता की भी उसमें घोर अवहेलना है और वह केवल सुन्दर को ही प्रश्रय देती रही है फिर भी उनमें वे तत्व तो हैं ही, जिनसे तत्कालीन समाज का मन बहलता रहा है और आज भी वह कविता मन बहला रही है।

आचार्य चिन्तामणि

जन्मस्थानादि- चिन्तामणि तिकवापुर (कानपुर) के निवासी रत्नाकर त्रिपाठी के पुत्र थे। भूषण, मतिराम और जटाशंकर ये तीनों इनके भाई थे। इन सबको त्रिपाठी बन्धु के नाम से पुकारा जाता था। चिन्तामणि का जन्मकाल सं० 1666 के लगभग माना जाता है। ये बहुत दिनों तक नागपुर में सूर्यवंशी भौसला मकरन्द शाह के यहां रहे थे।

ग्रन्थ- इनके बनाये हुए पांच ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। काव्य-विवेक, कविकुल कल्पतरु, काव्यप्रकाश, रसमंजरी, पिंगल और रामायण उपर्युक्त ग्रंथों में से केवल दो ही उपलब्ध हैं, कविकुल कल्पतरु और पिंगल। कविकुल कल्पतरु में इन्होंने काव्य के सभी अंगों का निरूपण किया है। केवल गुणीभूत व्यंग्य का निरूपण नहीं हुआ है। काव्य-स्वरूप, शब्द-शक्ति, ध्वनि, गुण, दोष-प्रकरणों में ये आचार्य मम्मट से प्रभावित हैं। रस-प्रकरण में इन पर मम्मट औन विश्वनाथ दोनों का प्रभाव है। अलंकार-प्रकरण में इन्होंने उक्त आयाच के अतिरिक्त धनंजय और दीक्षित के ग्रंथों से भी सहायता ली है। नायिका-भेद में ये विश्वनाथ और भानुमिश्र दोनों से प्रभावित हैं। लक्षणों का प्रतिपादन दोहा, सोरठा और छंदों में किया गया है और उदाहरणों के लिए कवित्त, सवैया को अपनाया गया है। कोई दो-चार स्थलों पर स्पष्टीकरण के लिए गद्य का भी आश्रय लिया गया है। इन्होंने लक्षण निर्माण के समय संस्कृत के आचार्ची के लक्षणों का शाब्दिक अनुवाद ही प्रस्तुत किया है। शब्द-शक्ति और गुण- प्रकरण को छोड़कर इनकी शैली गंभीर, व्यक्तिगत और विषयानुकूल रही है। शब्द-शक्तियों के विवेचन में इनका मन रमा ही नहीं। इस प्रकार काव्य के सभी अंगों के निरूपण का मार्ग सर्वप्रथम हिन्दी में इन्होंने ही चलाया और इसका अनुसरण परवर्ती लेखकों ने भी किया। चाहे हम इसे एक संयोग भी कह लें किन्तु यह तो निश्चित है कि समन्वयवादी मम्मट की काव्य-निरूपण की पद्धति का श्रीगणेश हिन्दी में इन्होंने ही किया।

चिन्तामणि का छंदसंबंधी ग्रंथ है पिंगल और इसका आधारभूत ग्रंथ है प्राकृत पिंगल । आचार्य शुक्ल ने चिन्तामणि के पिंगल ग्रंथ का नाम ‘छंद विचार’ बताया है। इसमें विविध छंदों के लक्षण, उदाहरण सरल ब्रजभाषा में प्रस्तुत करते हुए इन्होंने कुछ हिन्दी के नूतन छंदों का भी उल्लेख किया है। कुल मिलाकर यह ग्रंथ साधारण कोटि का बन पड़ा है।

कवित्व- आचार्य-कर्म के साथ-साथ इनका कवि-कर्म भी महत्वपूर्ण है। रसवादी होने के कारण इनके काव्य में विशेषतः शृंगार रस का सम्यक् परिपाक बन पड़ा है। इन्होंने अपनी सहज अनुभूतियों को सरल भाषा में अभिव्यक्त किया है। डॉ० महेन्द्र कमार के शब्दों में हम इनके संबंध में कह सकते हैं कि- “इनका काव्य देव और परवर्ती कवियों के समान नहीं है-न तो इनमें देव का सा आवेग ही आ पाया है और न वैसी चित्रमयता ही। कल्पना की ऊंची उड़ान भी ये नहीं भर पाये। केवल मतिराम के समान सीधी-सादी शब्दावली में अपनी सच्ची अनुभूति को व्यक्त कर गये हैं यही कारण है कि इनके काव्य में बिहारी की सी नक्काशी के स्थान पर ऐसी स्वाभाविकता देखने को मिलती है, जिससे इनकी रचनाओं को मतिराम के समकक्ष कहने में संकोच नहीं होता।”

इस प्रकार आचार्यत्व और कवि दोनों दृष्टियों से चिन्तामणि अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यदि इन्हें रीति-परम्परा का प्रवर्तक आचार्य न भी मानें तो भी हिन्दी के सर्वांग-निरूपक सर्वप्रथम सफल आचार्य तो ये हैं ही और कवित्व की दृष्टि से भी इन्हें मतिराम जैसा सम्मान प्राप्त है।

मतिराम

रससिद्ध कवि मतिराम, चिन्तामणि और भूषण के भाई थे। इनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी था। मतिराम का जन्म- काल संवत् 1667 के लगभग और स्वर्गवास 1750 के लगभग माना जाता है। मतिराम अनेक राजाओं के आश्रय में रहे थे। इनमें स्वच्छंद कविता की मनोहारिणी प्रतिभा थी और ये सरस, ललित एवं सुकुमार रचना के धनी थे।

ग्रन्थ- मतिराम की प्रसिद्ध रचनायें ये हैं-ललित ललाम, रसराज, फूल मंजरी, छंदसार-पिंगल, मतिराम सतसई, साहित्यसार, लक्षण- शृंगार और अलंकार पंचाशिका रसराज और ललित ललाम इनके प्रसिद्धतम ग्रंथ हैं। साहित्य सार और लक्षण श्रृंगार इनके छोटे-छोटे ग्रंथ हैं। साहित्य सार में नायिका भेद का वर्णन है और लक्षण-शृंगार में भावों और विभावों का वर्णन। शुक्ल जी इनके रसराज और ललित ललाम के संबंध में लिखते हैं- “रसराज और ललित ललाम मतिराम के ये दो ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध हैं, क्योंकि रस और अलंकार की शिक्षा में इनका उपयोग बराबर चलता आया है।” वास्तव में अपने विषय के ये अनुपम ग्रंथ हैं। उदाहरणों की रमणीयता से अनायास रसों और अलंकारों का आभास हो जाता है। रसराज का कहना ही क्या है। ललित ललाम में भी अलंकारों के उदाहरण बहुत ही सरस और स्पष्ट।

आचार्यत्व- इनके रसराज में शृंगार रस का वर्णन है परन्तु प्रधानतः इसमें नायिका भेद का विस्तार है। नायिका मतिराम के विचारानुसार वह है जिसको देखकर चित्त के भीतर भाव की उत्पत्ति होती है। इनका नायिका-भेद भानुमिश्र की रस-मंजरी पर आधृत है। नायिका-भेद विवेचन में कोई मौलिकता नहीं है। हाँ, नायिका-भेद के उदाहरण अत्यंत सरस हैं जो कि काव्य का सुन्दर नमूना है। उदाहरणार्थ-

कुन्दन को रंग फीकौ लगे, झलके अति अंगनि चारु गोराई।

आँखिन में अलसानि, चितौन में मंजु विलासन की सरसाई ।।

को बिनु मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि मिठाई ।

ज्यौ-ज्यौ निहारिये नेरे हूँ नैननि त्यों-त्यों निकरै-सी निकाई ॥

इनका ललित ललाम ग्रंथ अलंकारों पर लिखा गया है। अलंकारों के लक्षण दोहों में दिये गये हैं और उदाहरण कवित्त और सवैयों में अलंकारों के शास्त्रीय विवेचन की दृष्टि से इस ग्रंथ का कोई विशेष महत्व नहीं है। हाँ, कविता की दृष्टि से यह ग्रंथ काफी सुन्दर है। रस और अलंकार इन दो विषयों को छोड़कर मतिराम ने काव्यशास्त्र की अन्य समस्याओं पर भी प्रकाश डाला है। लेकिन आचार्य की दृष्टि से इनका कोई विशेष महत्व नहीं है। वे मुख्य रूप से कवि हैं और इनमें आचार्यत्व की अपेक्षा कविता की लगन प्रधान है। चिन्तामणि की दिशा इनसे सर्वथा विपरीत है, वे पहले आचार्य हैं और उनमें आचार्यत्व की लगन प्रधान है।

कवित्व – मतिराम की कविता सुकुमार, सुन्दर और कोमल कल्पना के गुणों से संपन्न है। उसमें कहीं भी भावों की कृत्रिमता नहीं है। वह शब्दाडम्बर से सर्वथा मुक्त है। भाव-व्यंजना अत्यंत स्वच्छ और स्वाभाविक भाषा में हुई है। इनके चित्रण व्यक्ति, वस्तु, भाव को सजीव रूप से प्रस्तुत करने की विशेषता रखते हैं। आचार्य शुक्ल इनकी भाषा के संबंध में लिखते हैं-” रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़कर और किसी कवि में मतिराम की सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती. बिहारी की प्रसिद्धि का बहुत कुछ कारण उनका वाग्वैदग्ध है।”

आचार्य शुक्ल ने अन्य स्थान पर इनके संबंध में लिखा है- “भाषा के समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम हैं और न उसके व्यंजक व्यापार और चेष्टायें। भावों को आसमान पर चढ़ाने और दूर की कौड़ी लाने के फेर में यह नहीं पड़े हैं। नायिका के विरह ताप को लेकर बिहारी के समान मजाक इन्होंने नहीं किया है। इनके भाव-व्यंजक व्यापारों की श्रृंखला सीधी और सरल है, बिहारी के समान चक्करदार नहीं । वचनवक्रता भी इन्हें बहुत पसन्द नहीं थी। जिस प्रकार शब्द-वैचित्र्य को ये वास्तविक काव्य से पृथक् वस्तु मानते थे, उसी प्रकार ख्याल की झूठी बारीकी को भी। इनका कवि हृदय सच्चा था। ये यदि समय की प्रथा के अनुसार रीति की बंधी लकीरों पर चलने के लिए विवश न होते, अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार चल पाते, तो और भी सच्ची भाव-विभूति दिखाते, इसमें कोई सन्देह नहीं ।” मतिराम के काव्य में गृहस्थ जीवन के अतीव सरस, सुन्दर, स्वस्थ और हृदयग्राही चित्र मिलते हैं। रीतिकाल के कवियों में दाम्पत्य जीवन के ऐसे विशुद्ध, निरीह एवं निष्कपट चित्र उतारने की कला इन्हीं में ही है।

भूषण

चिन्तामणि और मतिराम के भाई भूषण हिन्दी के सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ वीर रस के कवियों में एक हैं। वस्तुतः ये वीर रस के उत्थापक कवि हैं। इनका वास्तविक नाम क्या था, इस संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। भूषण की उपाधि इन्हें चित्रकूट के सोलंकी राजा रुद्रदेव से प्राप्त हुई थी। वे कई आश्रयदाताओं के पास रहे। महाराज छत्रसाल और शिवाजी इनको अधिक प्रिय लगे। भूषण के काव्य का उद्देश्य वाणी को कलियुग के कलुषित स्त्रैण से निकाल कर वीरत्व की दीप्ति सरिता में पवित्र करना था। घोर शृंगार रस के युग में वीर रस की अपूर्व कविता लिखकर अपना प्रमुख स्थान बना लेने में ही भूषण कवि का कृतित्व है। इनका काल है सं० 1670-1772 तक ।

ग्रंथ- कवि भूषण की 6 रचनायें मानी जाती हैं। शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक, भूषण उल्लास, दूषण उल्लास तथा भूषण हजारा। उनमें प्रथम तीन ग्रंथ ही प्राप्य हैं। शिवराज भूषण अलंकार ग्रंथ है। शिवा बावनी तथा छत्रसाल दशक वीर रस संबंधी छोटे-छोटे ग्रंथ हैं जिनमें शिवाजी और छत्रसाल के वीर कृत्यों का गौरवमय गान है।

आचार्यत्व – ‘शिवराज भूषण’ नामक ग्रंथ में इन्होंने अलंकारों के लक्षण देकर उदाहरणों में शिवाजी तथा उनकी वीरता और यश पर कवित्त और सवैये लिखे हैं। अलंकारों का लक्षण संबंधी विवेचन तो प्रौढ़ नहीं है वरन् कहीं-कहीं पर तो भ्रान्त है पर उदाहरण अत्यंत सरस और उत्कृष्ट बन पड़े हैं। भूषण उल्लास और दूषण उल्लास अलंकारों और दोषों पर लिखे गये ग्रंथ हैं। पर वे अप्राप्य हैं। शिवराज भूषण में इन्होंने 105 अलंकारों का नाम गिनाया है। इनमें से केवल अधिक प्रसिद्ध अलंकारों का वर्णन किया है। बहुत से अलंकारों तथा उनके भेद-प्रभेदों को छोड़ दिया गया है। अधिकांश स्थलों पर इनके लक्षण अस्पष्ट तथा अनुपयुक्त हैं। लक्षणों की गड़बड़ी पंचम प्रतीप, संकर, विरोध, छेकानुप्रास, लाटानुप्रास, भ्रम, सन्देह और स्मरण अलंकारों में है तथा उदाहरणा की गड़बड़ी परिणाम, लुप्तोपमा, निदर्शना, सम, परिकर, विभावना, काव्यलिंग, अर्थान्तरन्यास और निरुक्ति में है। इससे स्पष्ट है कि इनमें आचार्यत्व की प्रेरणा केवल ऊपर की है। अतः इस क्षेत्र में इनका कोई महत्व नहीं है। हाँ, उदाहरणों से स्पष्ट है कि उनमें प्रबन्ध काव्य लिखने की भी अद्भुत क्षमता थी किन्तु रीति के प्रवाह में बह जाने के कारण वह उसका सदुपयोग नहीं कर सके।

कवित्व- भूषण वीर रस के ही कवि थे। उनके दो-चार पद्य शृंगार के भी मिलते हैं पर वे गिनती के योग्य नहीं हैं। वस्तुतः वे वीर रस के उन्नायक और उत्थापक हैं। उन्होंने शिवाजी और छत्रसाल की वीरता की अत्यंत प्रशंसामयी उक्तियां लिखी हैं। और उनमें चापलूसी और खुशामद की गंध तक नहीं, अतः वे आदिकालीन तथा रीतिकालीन आश्रयदाताओं के अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसामयी कविता लिखने वाले कवियों से बहुत ऊपर उठ जाते हैं। आचार्य शुक्ल इस संबंध में लिखते हैं-“पर भूषण ने जिन दो नायकों के कृत्यों को अपने वीर काव्य का विषय बनाया वे अन्याय- दमन में तत्पर, हिन्दू धर्म के रक्षक दो इतिहास प्रसिद्ध वीर थे। उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा, हिन्दू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बनी रही या बढ़ती गई। इसी से भूषण के वीर रस के उद्गार सारी जनता के हृदय की सम्पत्ति हुए। भूषण की कविता कीर्ति संबंधी एक अविचल सत्य का दृष्टांत है जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा और उस कवि की कीर्ति तब तक बनी रहेगी जब तक स्वीकृति बनी रहेगी।”

डॉ० ओमप्रकाश भूषण की कविता के संबंध में लिखते हैं- “भूषण के काव्य में वीर रस का अपूर्व प्रवाह है। इनकी है उक्तियों में दर्प और आतंक के ओजपूर्ण चित्र हैं। इनकी तुलना खुशामदी कवियों से नहीं की जा सकती। यह सत्य है कि भूषण ने अपने आश्रयदाता की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा की है, परन्तु यह भी सत्य है कि वह आश्रयदाता उस युग का नेता था और वह केवल अपने स्वार्थ के लिए ही युद्ध न करके जनता के स्वत्व की रक्षा के लिए जीवन अर्पण कर बैठा था। यह प्रशंसा जीवन को पवित्र, महान तथा उदार बनाने वाली है। अस्तु और शृंगारी घटनाओं में बिजली के समान चमकने वाली भूषण की ओजस्विनी प्रतिभा आश्रयभोगी कवियों की प्रशंसामयी रुचि से तुलनीय नहीं है। निश्चय ही भूषण आदिकाल और रीतिकाल के कवियों से अधिक गौरव के भागी हैं।”

निःसन्देह भूषण की अभिव्यंजना- पद्धति ओजपूर्ण है पर उनकी भाषा अधिकतर अव्यवस्थित है। उसमें प्रायः व्याकरण का उल्लंघन है। वाक्य रचना में भी प्रायः गड़बड़ी है। इसके अतिरिक्त इन्होंने शब्दों को स्वेच्छा से बुरी तरह तोड़ा-मरोड़ा है। कहीं-कहीं तो एकदम गढ़न्त शब्द हैं। पर सर्वत्र इनकी भाषा में गड़बड़झाला हो, ऐसी बात नहीं है। इनके कई कवित्त अत्यंत सशक्त और प्रभावशाली हैं। हाँ, जहाँ ये आलंकारिक चमत्कार के मोह में अधिक पड़े हैं, वहाँ भाषा में काफी गड़बड़ी आ गई है ।

हिन्दी-साहित्य में भूषण का महत्व वीर रस के कवि के नाते है, आचार्य के नाते नहीं। आचार्य कर्म तो एक परम्परा निर्वाह मात्र था। भूषण के कवि का महत्व तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में देखने से और भी अधिक बढ़ जाता है। वस्तुतः वे हिन्दी-साहित्य में वीर रस के उत्थापक कवि हैं। उनकी कविता के कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं-

(क) कैंप कदली में, वारि बुन्द बदली में,

शिवराज अदली के राज में यों राजनीति है।

(ख) आयो आयो सुनत ही, सिव सरजा तुव गाँव ।

वैरि नारि दृग जलन सौ, बूढ़ि जात अरि गाँव ।

(ख) इन्द्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अम्ब पर,

रावन सर्दभ पर रघुकुल राज है।

पौन वारिवाह पर शम्भु रतिनवाह पर,

ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज है।

दावा द्रुम दंड पर, चीता मृग झुंड पर,

भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज है।

तेज तम अंश पर, कान्ह जिमि कंस पर,

त्यों मलेच्छ बंस पर सेर सिवराज है।

भूषण की कविता में राष्ट्रीयता – आधुनिक युग के कतिपय आलोचक भूषण के साहित्य में नीचे की पंक्तियों को देखकर इसमें जातीयता तथा साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं का आरोप कर बैठते हैं। वे पंक्तियाँ हैं-

वेद राखे विदित पुराण राखे सारयुत। तथा

हिन्दुअन की चोटी राखी रोटी राखी रहे सिपाहिन की तथा

राख्यो हिन्दुआनी, हिन्दुआन को तिलक राख्यो ।

किन्तु उनकी यह धारण सर्वथा निर्भ्रान्त नहीं कही जा सकती। भूषण की कविता में आये हुए वेद, पुराण, हिन्दू, तिलक और चोटी शब्दों को देखकर उन्हें राष्ट्रीय कवि के सम्मान से वंचित नहीं किया जा सकता, ऐसा करना उनके साथ सरासर अन्याय होगा। भूषण के युग की राष्ट्रीयता के सम्यक् ज्ञान के लिए हमें आधुनिक युग के राष्ट्रीयता के चश्मों को उतारकर परे रखना होगा। भूषण के समय व्यक्ति विशेष के द्वारा अधिकृत एक भू-भाग राष्ट्र समझा जाता था और उसके प्रति प्रेम और स्वार्थ त्याग राष्ट्रीयता समझी जाती थी। उस समय राष्ट्रीयता का स्वरूप आज जैसा व्यापक नहीं था जिसमें हिमालय से लेकर कन्याकुमारी पर्यन्त रहने वालों में हिन्दू-मुस्लिम, सिख-ईसाई, सब आपस में भाई-भाई’ की भावना आ पाती।  भूषण ने उस युग की राष्ट्रीयता के अनुसार अपना कर्तव्य पूरा सोलह आने निभाया है, इसमें दो मत नहीं हो सकते।

भूषण साहित्य में हिन्दू, पुराण और वेद की दुहाई निश्चित रूप से मिलती है, किन्तु किसी भी नागरिक के लिए निज जाति और संस्कृति का प्रेम अनुचित नहीं होता। वस्तुतः ये विश्व प्रेम की सीढ़ियाँ हैं। इसके साथ-साथ एक बात और भी कि किसी भी युग के प्रतिनिधि सजग कहलाकार का यह प्रथम कर्तव्य हो जाता है कि वह अन्याय, अत्याचार और शोषण का डटकर विरोध करे। औरंगजेब घोर अत्याचारी तथा कट्टर असहिष्णु था। भूषण ने अपने साहित्य में जो औरंगजेब की निन्दा की है उसे व्यक्तिगत समझना चाहिए। भूषण ने मुसलमान जाति या मुस्लिम धर्म की निन्दा नहीं की। यदि औरंगजेब की निन्दा के कारण भूषण अंतर्राष्ट्रीय कवि हैं तो अंग्रेजों की शोषण नीति का विरोध करने वाले आधुनिक युग के गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी तथा दिनकर जैसे राष्ट्रीय कवियों को तथा नेहरू जैसे नेताओं को भी उसी कोटि में रखना पड़ेगा, किन्तु ऐसा करना नितान्त असमीचीन है। सच यह है कि भूषण का भी मुस्लिम जाति से विरोध करना अभीष्ट नहीं है, उन्हें यदि अभीष्ट है तो औरंगजेब का विरोध करना और उसके अन्याय तथा अत्याचार के विरुद्ध आवाज बुलन्द करना। इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह विरोध केवल भूषण ने ही नहीं किया वरन् देश के कोने-कोने से हुआ। भूषण ने बाबर, हुमायूँ और अकबर की सहिष्णुतापूर्ण समन्वयात्मक नीति की इन शब्दों में “बाबर, अकबर, हुमायूँ हदि बाँधि गये” मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। जातीय विरोध औरंगजेब के समय में अपनी चरम सीमा तक पहुंच गया था और उसका भूषण ने विरोध किया है। भूषण ने किसी राष्ट्र-विरोधी शासक का विरोध किया है चाहे वह मुसलमान था या हिन्दू। उन्होंने जसवन्तसिंह और उदयभानुसिंह की कड़ी निन्दा की है हालांकि वे हिन्दू नरेश थे।

शिवाजी की नीति अत्यंत उदार थी। उनके दरबार में मुसलमान उच्च पदों पर नियुक्त थे। शिवाजी का आदेश था कि कोई भी किसी मुसलमान स्त्री, उनके धर्मग्रंथ और मस्जिद आदि को हानि न पहुंचाये। सच तो यह है कि शिवाजी को उस महती राष्ट्रीय क्रांति में जो आशातीत सफलता मिली उसका श्रेय हिन्दू और मुसलमान दोनों को है। फिर शिवाजी का राज्याश्रित कवि मुसलमानों के प्रति विष उगलता यह संभव भी कैसे था। शिवाजी केवल शासक ही नहीं नेता भी थे और जनता की पूर्ण सहानुभूति उन्हें प्राप्त थी ।

भूषण की कविता किसी संकीर्ण भावना, साम्प्रदायिकता अथवा चाटुकारिता के उद्देश्य से नहीं लिखी गयी। वह राष्ट्रीय उत्थान के लिए लिखी गयी और इसीलिए वह शाश्वत और अमर है। इस संबंध में आचार्य शुक्ल के शब्द विशेष स्मरणीय हैं- ” पर भूषण ने जिन दो नायकों की कृति को अपने वीर काव्य का विषय बनाया ये अन्याय दमन में तत्पर, हिन्दू धर्म के संरक्षक दो इतिहासप्रसिद्ध वीर थे। उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिन्दू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गयी। इसी से भूषण के वीर रस के उद्गार सारी जनता के हृदय की सम्पत्ति हुए। भूषण की कविता कविकीर्ति-संबंधी एक अविचल सत्य का दृष्टान्त है। जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा, उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी जब तक स्वीकृति बनी रहेगी।”

यह सच है कि भूषण की कविता शिवाजी के चरित्र का शृंगार है और शिवाजी हमारी राष्ट्रीयता के पावन किरीट हैं। शिवाजी भूषण को पाकर धन्य हुए तो भूषण शिवाजी को पाकर।

दो अन्य भूषण नामधारी

कवि- शिवाराज भूषण तथा छत्रसाल दशक के रचयिता महाकवि भूषण के अतिरिक्त इन्हीं के समकालीन भूषण नामधारी दो अन्य कवियों की रचनायें भी प्रकाश में आई हैं। इनमें एक है ‘छन्दो हृदय प्रकाश’ के प्रणेता मुरलीधर भूषण तथा दूसरे हैं वृतान्तमुक्तावली के स्रष्टा ब्रज भूषण कैप्टेन शूरवीरसिंह ने एक हस्तलिखित प्रति के आधार पर मुरलीधर भूषण कृत ‘अलंकार प्रकाश’ नाम के ग्रंथ को प्रकाशित किया है जिसकी भूमिका में उन्होंने मुरलीधर भूषण को महाकवि भूषण से अभिन्न ठहराया है। अस्तु ! इस विषय में अभी तक निर्णायत्मक रूप से कुछ कह सकना निरापद नहीं है।”

वृतान्तमुक्तावली के रचयिता का पूरा नाम ब्रजभूषण था। उनकी कविताओं में ब्रजभूषण तथा भूषण दोनों नाम मिलते हैं। उक्त रचना के आधार पर कहा जा सकता है कि ब्रजभूषण निजानन्द (प्रणामी सम्प्रदाय के एक प्रतिष्ठित वक्ता एवं साधक थे। उनका बज, बुन्देलखंडी तथा संस्कृत भाषाओं पर असामान्य अधिकार था। कवीन्द्र चन्द्रोदय तथा कवीन्द्र चन्द्रिका नामक अभिनन्दन ग्रंथों में इनकी संकलित रचनायें इसका स्पष्ट प्रमाण हैं। ब्रजभूषण महाराज छत्रसाल के विशेष कृपापात्र थे और कदाचित् उनकी प्रेरणा से इन्होंने वृतान्त मुक्तावली की रचना की थी। जनश्रुति है कि ब्रजभूषण महाराज छत्रसाल के आध्यात्मिक गुरू थे। जिस प्रकार महाकवि भूषण की रचनाओं में तत्कालीन राजनीतिक चेतना उबुद्ध रूप में दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार ब्रजभूषण के काव्य में उस युग की सांस्कृतिक गतिविधि की सजगता पाई जाती है। इन दोनों भूषणों को एक समझना ठीक नहीं है। महाकवि भूषण की प्रतिभा वीर और ओज की ओर उन्मुख थी जबकि ब्रजभूषण दर्शन और भक्ति में आकंठ निमग्न थे। एक राजनीति के विद्रोह के समय थे तो दूसरे अध्यात्म के । इतिहास से यह स्पष्ट है कि दोनों कालक्रम की दृष्टि से एक साथ नहीं थे। ब्रजभूषण की रचनाओं और उनके जीवन वृत्त का अनुसंधान आवश्यक है।

आचार्य कवि देव

जीवनवृत्त – देव का पूरा नाम देवदत्त था। देव उनका उपनाम है। देव इटावा (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे। ये काश्यप गोत्री, कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनका जन्म सं० 1730-31 है और मृत्यु 1824-25 में मानी जाती है। इस प्रकार उनकी कुल आयु 94-95 वर्ष ठहरती है। इन्हीं जीविका निर्वाह के लिए अनेक आश्रयताओं के पास जाना पड़ा था। इनके आश्रयदाताओं के नाम ये हैं- आजमशाह, भवानी दत्त वैश्य, कुशलसिंह उदोनसिंह और राजा भोगीलाल अन्ततोगत्वा इनका मन भोगीलाल के यहाँ अधिक रमा ।

ग्रन्थ- इनके ग्रंथों की संख्या 72 कही जाती है। आचार्य शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में इनके उपलब्ध 25 ग्रंथों का नामोल्लेख किया है। इनके मुख्य ग्रंथ ये हैं-

भाव-विलास, अष्टयामी, भवानी – विलास, प्रेमतरंग, कुशल-विलास, देवचरित्र, जाति विलास, प्रेम चन्द्रिका, सुजानविनोद या रसानन्द लहरी, शब्द रसायन या काव्य रसायन, सुखसागर तरंग, रागरत्नाकर, प्रेम पच्चीसी, तत्व दर्शन पच्चीसी, आत्मदर्शन पच्चीसी, जगद्दर्शन पच्चीसी तथा देवमायां प्रपंच। वर्ण्य विषय के आधार पर इनके ग्रंथों को दो भागों में बांटा जा सकता है- काव्यशास्त्रीय ग्रंथ तथा अन्य ग्रंथ प्रेम चन्द्रिका, रागरत्नाकर, देव शतक के चारों भाग (पच्चीसी ग्रंथ) देव चरित्र और माया प्रपंच को छोड़कर शेष ग्रंथ काव्यशास्त्र से सम्बद्ध हैं। ये जितने ग्रंथ हैं एक-दूसरे से पूर्ण स्वतंत्र नहीं हैं। बहुत सारे पद जो एक ग्रंथ में पाये जाते हैं वे दूसरे ग्रंथों में भी देखे जा सकते हैं। थोड़ी-बहुत घटत बढ़त के पश्चात् देव एक नया ग्रंथ तैयार कर लिया करते थे। यह था भी स्वाभाविक क्योंकि देव को उपयुक्त आश्रयदाता की खोज में बहुत भटकना पड़ा था और उन्हें अपने आश्रयदाता को ग्रंथ समर्पण करने के लिए ऐसा करना पड़ा होगा। देव की यह प्रवृत्ति और भी स्पष्ट हो जाती यदि उनके समस्त ग्रंथ उपलब्ध होते ।

प्रेमचन्द्रिका में प्रेम का सामान्य रूप में वर्णन किया है और उनके भेदोपभेदों का उल्लेख है। रागरत्नाकर राग-रागिनियों से सम्बद्ध एक ग्रंथ है। इनके तीन पच्चीसी ग्रंथों में वैराग्य का वर्णन है जो कि इनके ग्रंथों के प्रति जनता की उदासीनता की प्रतिक्रिया का फल है। प्रेम-पच्चीसी में गोपियों और कृष्ण के प्रेम का मनोरम वर्णन है। देवशतक इनकी प्रौढ़ रचना है जिसमें काव्य और दर्शन का सुन्दर सम्मिश्रण है। देव-चरित्र एक खण्ड-काव्य है, जिसमें इन्होंने श्रीकष्ण के जीवन का चित्रण किया है।

आचार्यत्व – देव के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों के अध्ययन के आधार पर कहा जा सकता है कि इन्होंने काव्य के सभी अंगों का वर्णन अपने विविध ग्रंथों में किया है। एक कवि द्वारा एक ही विषय से सम्बद्ध अनेक ग्रंथों के प्रणयन का परिणाम यह हुआ कि एक विषय की दूसरे ग्रंथों में पुनरावृत्ति होती रही। इनके काव्यशास्त्रीय ग्रंथों पर काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण, रस-तरंगिनी और रस-मंजरी का स्पष्ट प्रभाव है। देव ने काव्यशास्त्रीय विवेचन में कुछ नवीन उद्भावनाओं से भी काम लिया है, उनमें से कुछ मान्य हैं और कुछ अमान्य काव्य-स्वरूप का वर्णन करते हुए शब्द रचना को काव्य का तन, रस को जीव तथा अलंकार को शोभाकारक धर्म कहा है। उनकी यह धारणा परम्परानुकूल है, अतः मान्य है। एक दूसरे स्थान पर इन्होंने शब्द को काव्य का जीव, अर्थ और मन तथा रसमय सौन्दर्य को काव्य का शरीर माना है। उनकी यह धारणा सर्वथा अमान्य और परम्परा विरुद्ध भी है। शब्द शक्ति विवेचन के प्रकरण में इन्होंने तात्पर्या नाम की शक्ति की कल्पना की है जो असंगत है। अभिधा और विद्यमानता में इनकी आवश्यकता ही नहीं है। यह उनकी कोई नवीन उद्भावना भी नहीं क्योंकि इसका उल्लेख साहित्य और न्याय के ग्रंथों में पहले से ही हो चुका। लक्षणा और व्यंजना-शक्ति के भेदों के वर्णन में ये बहुत कुछ भ्रान्त हो गये हैं। रस-क्षेत्र में देव के प्रशंसकों का कहना है कि इन्होंने छल नामक संचारी भाव का भी नवीन आविष्कार किया है जो कि इनकी मौलिक उद्भावना है, किन्तु स्मरण रखना होगा कि इसका अन्तर्भाव अवहित्था नामक संचारी भाव में हो जाता है और यह इनकी कोई मौलिक उद्भावना नहीं, रस तरंगिणी में इसका पहले उल्लेख हो चुका था। देव ने केशव के समान रस के लौकिक और अलौकिक भेद करके शृंगार रस के प्रच्छन्न और प्रकाश दो भेद कर दिये हैं। रस का प्रच्छन्न नामक भेद सर्वथा अमान्य है क्योंकि स्थायी भाव संचारी भाव आदि के सहयोग से अभिव्यक्त होकर रस संज्ञा को प्राप्त होता है और उसके प्रच्छन्न होने का प्रश्न ही नहीं उठता। रस के इस वर्गीकरण का आधार उन्हें भोज तथा रुद्रट से मिला। इनकी शृंगार रस के अंतर्गत अन्य रसों के अन्तर्भुक्त हो जाने की कल्पना भी कोई महत्वपूर्ण नहीं है। नायिका-भेद और उनकी संख्या विस्तार के संबंध में जितनी रुचि देव ने प्रदर्शित की है, इतनी रीतिकालीन अन्य किसी कवि ने नहीं की। इनके नायिका भेद के आधार हैं-जति, कर्म, गुण, देश-काल, व्यवस्था, प्रकृति और सत्व। इस दिशा में देव पर साहित्यदर्पण, रसतरंगिणी, रस मंजरी और वात्स्यायन के कामसूत्र का प्रभाव स्पष्ट है। देव के इस संख्या-विस्तार से नायिका भेद के शास्त्रीय निरूपण में कोई महत्वपूर्ण वृद्धि नही हुई। प्रकृति के आधार पर नायिका के वर्गीकरण से ऐसा लगता है जैसे कि आयुर्वेद शास्त्र का ज्ञान प्रदर्शित कर रहे हों। अलंकार-निरूपण में वे भामह, दंडी और अप्पय दीक्षित से विशेष प्रभावित हैं। देव ने पिंगलशास्त्र पर भी लिखा है। इस संबंध में वे संस्कृत के छंद-ग्रंथों से प्रभावित हैं। इस विवेचन के अन्तर स्पष्ट हो जाता है कि देव का आचार्यत्व उच्च कोटि का एवं शास्त्रसम्मत नहीं है पर कवित्व की दृष्टि से रीतिकालीन आयाच में इनका महत्वपूर्ण स्थान है।

कवित्व- देव मुख्यतः शृंगार रस के कवि हैं। इनके काव्य में जो वैराग्य भावना की अभिव्यक्ति हुई है, वह इनके शृंगारी जीवन की प्रतिक्रिया रूप में समझनी चाहिए। इनमें सूर और तुलसी जैसी अपने उपास्य देव के प्रति अनन्यता नहीं है। यह सच है कि प्रेम प्रसंगों में इनकी मनोवृत्ति अधिक रमी है। इनके किसी भी पद्य को उठाकर देख लीजिए उसमें प्रेम का आवेग इतना अधिक मिलेगा कि सहज की उसकी रस चेतना की गंभीरता का आभास मिल जायेगा। आचार्य शुक्ल इनके संबंध में लिखते हैं- “इनका सा अर्थ-सौठव और नवोन्मेष विरले ही कवियों में मिलता है। रीतिकाल के कवियों में ये बड़े ही प्रगम्भ और प्रतिभासम्पन्न कवि थे इसमें सन्देह नहीं ।” देव के काव्य-वैभव के संबंध में डॉ० महेन्द्रकुमार के शब्द विशेषतः दृष्टव्य हैं- “देव की रचनाओं में कल्पना-वैभव भी कम नहीं है। इस संबंध में यह कहना अनुचित न होगा कि उनके समस्त शृंगारी काव्य की रसार्दता में कल्पना की ऊँची उड़ान का पर्याप्त योग है। जिसे मूर्तरूप प्रदान करने के लिए उन्होंने साधारणतः ऐसे चित्रों की योजना की है, जिनमें प्रत्येक रेखा अपना विशिष्ट रहा महत्व तो रखती ही है, साथ में रंग-वैभव और प्रसाधन सामग्री ने उसमें और भी सौन्दर्य-सृष्टि की है। क्या स्थिर और क्या गतिशील किसी भी चित्र को उठा लीजिए, सबमें कवि की भावना का आवेश अपने आप में उभरता-सा दिखाई देगा और यही कारण है कि सहदय को उसके धरातल तक पहुंचने में देर नहीं लगती यद्यपि इन चित्रों में कहीं-कहीं क्लिष्ठता आ गई है, यद्यपि इसका कारण कवि का दृष्टि दोष न मानकर उसकी भावना का आवेग ही मानना चाहिए।”

देव की अभिव्यंजना-शैली भी प्रशस्य है। उनकी शब्द चयन विषयानुसार हुआ है। भावावेग की दशा में उन्होंने भावात्मक शैली को अपनाया है। कहीं-कहीं पर अक्षरमैत्री के ध्यान से इन्होंने अशक्त शब्दों का भी प्रयोग किया है। तुकान्त और अनुप्रास के मोह में पड़कर इन्होंने कहीं-कहीं शब्दों और वाक्यों तक को तोड़-मरोड़ दिया है। कहीं-कहीं शब्द-व्यय अधिक हुआ है और अर्थ अल्प | आचार्य शुक्ल इस संबंध में लिखते हैं- “कवित्व शक्ति और मौलिकता देव में खूब थी पर उनके सम्यक् स्फुरण में उनकी रुचि – विशेष प्रायः बाधक हुई है। कभी-कभी वे कुछ बड़े और पेचीदे मजमून का हौसला बांधते थे, पर अनुप्रास के आडम्बर की रुचि बीच ही में उसका अंग-भंग करके सारे पद्य को कीचड़ में फंसा छकड़ा बना देती थी। भाषा में कहीं-कहीं स्निग्ध प्रवाह न आने का एक कारण यह भी था।” निःसन्देह देव की भाषा व्याकरण की दृष्टि से अपेक्षाकृत सदोष है। उसमें शब्दों की तोड़-मरोड़ है। उसमें पुनरुक्तियाँ भी हैं और अनुप्रास आदि शब्दालंकारों का विशेष आग्रह भी है, किन्तु यह सब कुछ उन्होंने काव्य में सौन्दर्य वृद्धि के लिए किया है। जहाँ इनकी भाषा सुव्यवस्थित और स्वच्छ है वहाँ इनकी कविता अत्यंत सरस और हृदयग्राही बन पड़ी है। उदाहरणार्थ देखिए-

सांसन ही में समीर गयो अरु आँसुन ही सब नीर गयो ढरि ।

तेज गयो गुन लै अपनो अरु भूमि गई तनु की तनुता करि ॥

देव जियें मिलिबेई की आस कै आसहु पास अकास रह्यौ भरि ।

जा दिन ते मुख हेरि हरै हँसि हरि हियो जु लियो हरिजू हरि ।।

आचार्य भिखरीदास

जीवन-वृत्त – भिखरीदास जाति के कायस्थ थे और प्रतापगढ़ (अवध) के पास टूयोंगा नामक ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम कृपाल दास था। ये संवत् 1791 से 1807 तक प्रतापगढ़ के अधिपति श्री पृथ्वीसिंह के भाई हिन्दूपतिसिंह के आश्रय में थे।

ग्रन्थ- दास के सात ग्रंथ उपलब्ध है- रससारांश, काव्य-निर्णय, शृंगार-निर्णय, छन्दार्णव पिंगल, शब्दनाम प्रकाश, विष्णुपुराण भाषा और शतरंजशतिका। इनमें से प्रथम तीन ग्रंथ काव्यशास्त्रीय हैं, चौथा छन्दशास्त्र से सम्बद्ध है और अंतिम तीन ग्रंथों का विषय उनके नाम से स्पष्ट है। रससारांश के दोनों संस्करण उपलब्ध होते हैं। बड़े में लक्षणोदाहरण दोनों हैं और छोटे में केवल लक्षण। यह छोटा संस्करण भी इन्होंने स्वयं तैयार किया था। रससारांश में सभी रसों का विवेचन है। शृंगार रस का वर्णन अत्यंत विस्तृत है, उसमें नायिकाओं, हावों भावों का भी विस्तृत वर्णन है। इसमें अन्य रसों का भी संक्षेप में वर्णन कर दिया गया है। श्रृंगार निर्णय भी इनका रस से सम्बद्ध ग्रंथ है, किन्तु इसमें रससारांश के समान रस-निष्पत्ति संबंधी गंभीर प्रश्नों को नहीं लिया गया है और न ही इसमें शृंगारेतर रसों का उल्लेख है। इस ग्रंथ का उद्देश्य शृंगार की विस्तृत विषय सामग्री प्रस्तुत करना है। इनकी विशेष ख्याति का कारण इनका ग्रंथ काव्य-निर्णय है। इसके भी रससारांश के समान छोटा और बड़ा दोनों संस्करण मिलते हैं।

आचार्यत्व – मिश्रबन्धुओं ने हिन्दी साहित्य के रीतिकाल को अलंकृत काल के नाम से अभिहित किया है और उसको भी इन्होंने दो भागों में बांट दिया है- पूर्वालंकृत काल और उत्तरांलंकृत काल। उन्होंने पूर्वालंकृत काल का सबसे बड़ा आचार्य चिन्तामणि त्रिपाठी को माना है और उत्तरालंकृत काल का सबसे बड़ा आचार्य भिखरीदास को स्वीकार किया है। डॉ० भागीरथ मिश्र इनके संबंध में लिखते हैं- “भिखरीदास का कोई ऐसा नवीन प्रभाव उनके परवर्ती कवियों पर नहीं पड़ा जिससे उनकी कोई विशेष छाप दिखलाई पड़े फिर भी यह बात मान्य है कि भिखारीदास रीतिकालीन अंतिम वर्ग के सबसे बड़े आचार्य थे। उनके वर्णन में, विशेषतः काव्य-निर्णय में चाहे उसकी सामग्री हिन्दी के सभी पूर्ववर्ती कवियों, काव्याचार्यों केशव, चिन्तामणि, सुरति, श्रीपति आदि से ली गई हो-जो पूर्णता है वह बड़ी संतोषकारी है और उससे भिखारीदास की विद्वत्ता ही टपकती है। भिखारीदास की गणना काव्यशास्त्र के उन यथार्थ आयाचों में है जो कवि-प्रतिभा के साथ उससे अधिक काव्यशास्त्र का ज्ञान लेकर लिखने बैठे थे।”

आचार्य भिखारीदास ने काव्य के सभी अंगों का विवेचन किया और प्रायः अच्छा ही किया। कहीं-कहीं पर उन्होंने काव्यशास्त्र संबंधी भूलें भी कीं। जैसे काव्य-लक्षण को छोड़कर ही दिया, शब्द शक्ति-विवेचन प्रायः शिथिल है। ध्वनि के कई नवीन भेदों की कल्पना की परन्तु उनका स्पष्टीकरण नहीं कर पाये। अस्तु इतना होते हुए भी भिखारीदास ने हिन्दी काव्यशास्त्र के इतिहास में महत्वपूर्ण योग दिया है। इन पर काव्यप्रकाश और साहित्य दर्पण का विशेष प्रभाव है।

कवित्व— कवि की दृष्टि से भी भिखारीदास का हिन्दी में महत्वपूर्ण स्थान है। मुख्य रूप से इन्होंने श्रृंगार रस संबंधों कविताएँ लिखी हैं। कहीं-कहीं पर नीति संबंधी फुटकर उक्तियाँ भी इनमें मिल जाती हैं। भिखारीदास रस तथा ध्वनिवादी लेखक हैं। अत: इनकी रचनाओं में रसानुभूति की विशेष मात्रा है और ध्वनि का भी सुन्दर विशद् रूप है। कल्पना क्षेत्र में आचार्य भिखारीदास निःसन्देह देव से पीछे रह जाते हैं परन्तु फिर भी इनके काव्य में प्रसादन की मात्रा पर्याप्त है। इनकी कविता की रेखाओं के चित्र काफी आकर्षक और मार्मिक हैं।

इनकी भाषा काफी परिमार्जित है । शब्दों का चयन इन्होंने विषयानुसार किया है। भाषा संबंधी गड़बड़ी जो देवादि में मिलती है वह इनमें नहीं है। इनकी अभिव्यंजना-पद्धति सरस और व्यंग्य प्रधान है। इनकी ब्रजभाषा में संस्कृत शब्दों के अतिरिक्त उर्दू और फारसी के शब्द भी आ गये हैं। भाषा और भाव दोनों दृष्टियों से दास ब्रजभाषा के कवियों में अत्यंत सफल रहे हैं।

कुलपति मिश्र

ये आगरा के निवासी माथुर चौबे परशुराम के पुत्र थे। प्रसिद्ध कवि बिहारीलाल इनके मामा कहे जाते हैं। इनके बनाये हुए पांच ग्रंथ उपलब्ध हैं- द्रोण पर्व, मुक्ति तरंगिणी, नख-शिख, संग्रामसार और रस रहस्य। इनमें से अंतिम ग्रंथ काव्यशास्त्रीय है। इसमें लक्षणों को दोहा छंद में लिखा गया है और उदाहरणों के लिए यत्र-तत्र गद्य का भी आश्रय लिया गया है। इन्होंने रस-रहस्य का आधार मम्मट के काव्यशास्त्र को बनाया। वैसे इन पर साहित्यदर्पण, केशव की कविप्रिया तथा रसतरंगिणी और रसमंजरी का भी प्रभाव है। कुलपति मिश्र ने काव्यप्रकाश का केवल अनुवाद भर ही नहीं प्रस्तुत कर दिया वरन् शास्त्रीय सामग्री को सुबोध और सरल रूप में प्रस्तुत किया है। हिन्दी-रीतिकालीन आयाचों में जिनकी प्रवृत्ति काव्यशास्त्र के गंभीर प्रसंगों के विवेचन की ओर रही है उनमें कुलपति का नाम भी उल्लेखनीय है। काव्यशास्त्र के विवेचन में इन्होंने कुछ मौलिक उद्भावनाओं से भी काम लिया है परन्तु वहाँ ये विशेष सफल नहीं रहे। इन्होंने काव्य के सभी अंगों का निरूपण किया है। शब्द-शक्ति के विवेचन में भी इनमें अपेक्षित स्पष्टीकरण नहीं आ सका। रस-प्रकरण में भाव का स्वरूप अस्पष्ट है। इनका रस- दोष प्रकरण भी अपूर्ण है। इसके अतिरिक्त मिश्र का काव्यशास्त्रीय निरूपण विशुद्ध, व्यवस्थित, गंभीर एवं सुबोध बन पड़ा है।

कुलपति मिश्र पहले आचार्य थे और बाद में कवि आचार्यत्व में इनका मन खूब रमा और वे कवित्व पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर सके । फलस्वरूप इनका कविता पक्ष देव आदि कवियों के समान ऊँचा नहीं उठ सका, किन्तु फिर भी रस परिपाक की दृष्टि से इनका काव्य किसी प्रकार से हीन नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कुलपति मिश्र आचार्य के नाते रीतिकाल के आयाचों की प्रथम श्रेणी में आते है और कवि के नाते द्वितीय श्रेणी में कहीं वीरदर्प से क्षुब्ध वाहिनी के समान अकड़ती और कड़कती हुई चलती है और कहीं शांत सरोवर के समान स्थिर और गंभीर होकर मनुष्य जीवन-विश्रांति की छाया दिखाती है। सारांश यह है कि इनकी भाषा में वह अनेकरूपता है जो एक बड़े कवि में होनी चाहिए। भाषा की ऐसी अनेकरूपता गोस्वामी जी में ही दिखाई पड़ती है।” शुक्ल जी के ही शब्दों में पद्माकर के कवि के संबंध में कह सकते हैं- ” रीतिकाल के कवियों में सहृदय समाज इन्हें बहुत श्रेष्ठ स्थान देता आया है। ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड़कर दूसरा नहीं हुआ है। जिस प्रकार ये अपनी परम्परा के परमोत्कृष्ट कवि हैं इसी प्रकार प्रसिद्धि में अन्तिम भी।”

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Anjali Yadav

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