हिन्दी साहित्य

हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के बोध

हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के बोध
हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के बोध

हिन्दी साहित्य में आधुनिकता के बोध पर प्रकाश डालिए।

 हिन्दी साहित्य आधुनिकता का बोध

आधुनिकता का स्वरूप- “आज के ज्ञान-विज्ञान और टेक्नालोजी के फलस्वरूप उत्पन्न स्थितियों का नया बोध अथवा साक्षात्कार आधुनिकता है। यह नया बोध अरोमांटिक एवं अमिथकीय है। यह आधुनिकता औद्योगीकरण, नागरीयकरण और बौद्धिकता के युगसापेक्ष तत्वों से युक्त है। अपने ज्ञान-विज्ञान तथा प्रविधियों के कारण यह आधुनिकता मध्यकालीन बोध से भिन्न है।” यह आधुनिकता या आधुनिक बोध पाश्चात्य के अधुनातन दर्शन की उपज है जिससे कि उसके पारिभाषित अर्थ में ग्रहण करना होगा। इसे समकालीनता समसामयिकता या सामान्य अर्थ में ग्राह्य आधुनिकता का पर्यायवादी नहीं माना जा सकता है। साहित्य में मात्र चित्रित सामयिकता या तात्कालिकता, पत्रकारिता की कोटि से ऊपर नहीं उठ सकती अतः वह स्थायित्व को प्राप्त नहीं कर सकती। इसके साथ-साथ आधुनिकता को केवल बौद्धिकता को परिधि तक भी सीमित नहीं किया जा सकता, अन्यथा साहित्य और विज्ञान में अन्तर भी क्या रहेगा ? भले ही सामान्यतः आधुनिकता स्वसमय की सामाजिकता की अभिव्यक्ति करे, किन्तु वह शाश्वतता से अनुप्राणित होनी चाहिए तभी वह संप्रेष्य, संवेद्य और आस्वाद्य हो सकती है।

आधुनिकता : खोया हुआ व्यक्तित्व- हिन्दी के साठोत्तरी साहित्य में आधुनिकता तथा आधुनिक युग और सौन्दर्य बोध की चर्चा बड़े जोरों से हुई और आधुनिकता के द्वारा आज के मानव के खोये हुए व्यक्तित्व को खोज पाने के लिए आधुनिकता की संभावनाओं व क्षमताओं की जोरों से दुहाई दी गई। विगत युग की राजनीतिक, वैचारिक तथा साहित्यिक क्षेत्रों की क्रांतियों से मनुष्य उबरा नहीं अपितु उसका व्यक्तित्व खंडित व ध्वस्त हुआ है। साम्यवाद, प्रजातंत्र, लघुमानववाद तथा पुनर्जागरण (नासा) की विचारधाराओं से आज के मानव के सुनहरी स्वप्न साकार हो सके। औद्योगीकरण तथा प्रविधीकरण उसकी स्वर्गिक कल्पनाओं को मूर्तिमान कर सके। साम्यवाद एवं प्रजातंत्रवाद दोनों शासन पद्धतियां उसके लिए निराशाजनक सिद्ध हुई। परिणामतः आज का व्यक्ति आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, प्रविधि और व्यवस्था का निर्जीव पुर्जा व दास बनकर रह गया है। उसका स्वरूप, अस्तित्व व व्यक्तित्व प्रायः खो गये हैं। उस खोये हुए व्यक्तित्व की खोज का प्रयास आधुनिकता है।

बौद्धिकता का अतिरेक- आज के ज्ञान-विज्ञान आदि ने मानव को अतिबुद्धिवादी बना दिया है। वैज्ञानिक प्रगति ने निश्चयतावादी सिद्धान्त की जड़ें हिला दीं। विज्ञान के सापेक्षतावादी सिद्धान्तों (Theory of Raca timic and quandium) ने यह सिद्ध कर दिया कि न कोई सार्वजनिक सत्य है और न ही कोई शाश्वत नैतिकता। प्रसिद्ध दार्शनिक नीत्शे के द्वारा ईश्वर की मौत की घोषणा- “ईश्वर मर चुका है, चर्च उसकी कब्रगाह है” के बाद मानवीयता सभ्यता और संस्कृति में एक करुणापूर्ण अध्याय जुड़ा। अब धर्मग्रन्थ मानवीय आचार-विचार, रीति-नीति आदि के नियामक न रहे। उनकी प्रामाणिकता निःशेष हो गई। अब धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, अच्छे और बुरे की कसौटियाँ बदल गई। ईश्वर की मौत के बाद मानव का ऊर्ध्वमुखी सम्बन्ध समाप्त हो गया और विकारग्रस्त अधोमुखी संबन्ध बल पकड़ने लगे। फलतः अनैतिकता, यैन-व्यवहार, बेईमानी, धूर्तता तथा मानव मूल्यों का जोरदार विघटन जायज और चालू सिक्के हो गये। सार्त्र और कामू के अस्तित्ववादी दर्शन से उपर्युक्त मान्यताओं को और अधिक बल मिला।

अस्तित्ववादी दर्शन : तथा मनुष्य- सार्त्र और कामू के अस्तित्ववादी सिद्धान्त के अनुसार- “मनुष्य स्वतंत्र है, वह न वस्तु है न मशीन, वह क्रियात्मक शक्ति है। वह स्वतंत्र निर्णय लेने में समर्थ हैं और उसके लिए खुद जिम्मेदार है।” अस्तित्ववादी दर्शन समस्त विचारधाराओं का विरोध करता है जो मनुष्य को अमनुष्य और अस्तित्वशून्य बनाते हैं। इस दर्शन ने अपने पूर्ववर्ती दर्शनों का प्रबल खण्डन कर तथा वैज्ञानिक अमूर्तता पर प्रहार कर जीवन के कतिपय मौलिक सवालों के साथ अपना संबंध जोड़ा। वे बुनियादी सवाल हैं- “व्यक्ति की व्ययता, दुख, निराशा, अकेलापन, मृत्यु बोध, स्वतंत्रता, क्षणवाद, त्रास, अजनबीपन, अनिश्चय और आत्म-निर्वासन आदि।

क्षणवादी जीवन दर्शन- उक्त दर्शन वर्तमान जीवन के प्रत्येक क्षण में आपादमस्तक निमग्न होकर उसके समग्र भौतिक आनन्द के उपयोग की बलवती प्रेरणा देता है। एक क्षणवादी दार्शनिक के अनुसार- क्षणवादी जीवन दर्शन को अपनाये बिना वर्तमान जीवन को जीना तनिक कठिन है। उसके विश्वासानुसार यदि आप एक क्षण के चारों ओर एक चहारदीवारी बांधकर उस क्षण की अवधि तक उसके साथ पूरा तादात्म्य नहीं स्थापित कर लेंगे, तो वह या तो बीते हुए क्षणों की ओर आप को बरबस पीछे की ओर खींचेगा या फिर आने वाले क्षणों की काल्पनिक या वास्तविक उलझनें आपकी नकेल पकड़कर आपको बरबस आगे की ओर घसीटेंगी। और इन दोनों स्थितियों को साथ लेकर आप वर्तमान के महत्वपूर्ण और एकमात्र ठोस क्षण का उपयोग भी नहीं कर सकेंगे। या तो भूत आपको दबाता रहेगा या भविष्य झूठी आशंकाओं की मरीचिका और काल्पनिक आशंकाओं के भंवरजाल में भरमाता रहेगा। इसलिए इस अनन्त वर्तमान काल में बीत रहे जीवन के प्रत्येक क्षण में उसकी पूरी अवधि तक मग्न रह कर उसका पूरा उपयोग कीजिये फिर वह चाहे किसी भी रूप में क्यों न प्रकट हो। तभी आप जीवन के अनन्त क्षणों की पारस्परिक संबद्धता का भी आनन्द उठा सकेंगे।

क्षणवादी दार्शनिक जीवन के सहज प्रवाह को मृत्यु की धारा से भिन्न या कटा हुआ कभी मानता ही नहीं और न ही वह जीवन की किसी विवशता को कभी कोई मान्यता देता है। वह जीवन के प्रत्येक क्षण में पृथक-पृथक रूप से जीने तथा मृत्यु के प्रत्येक क्षण का उपभोग करने का परामर्श देता है। जीवन की अटूट गति पर अटूट विश्वास और जीवन तथा मृत्यु के बीच किसी प्रकार की खाई को मान्यता न देना, क्षणवादी जीवन दर्शन की सहज प्रवृत्ति है। आधुनिक अस्तित्ववाद में अडिग आस्था के कारण एक क्षणवादी न तो कभी मृत्यु को अपनी अन्तरतम चेतना के आयाम के रूप में ग्रहण करता है। उसके दर्शनानुसार- “मरने के बाद भी जीवन की मूल और अखंड धारा के ऊपर व्यक्ति की निजी अनुभूति तैरती रहती है और उस अनुभूति का स्वरूप वही होता है, जिसका निर्माण अपनी जीवित अवस्था में अपने नये संस्कारों के विकास के साथ-साथ व्यक्ति स्वयं करता है।”

भारतीय दर्शन में जहां काल की अनन्त और क्रमबद्धता संपादित है वहां काल को क्षण का क्रमबद्ध रूप ही स्वीकार किया गया है। क्योंकि काल क्षण का एक अविच्छिन्न क्रम है। क्षण के क्रम से ही बुद्धि में काल ज्ञान का उदय होता है। क्षण तथा उसके क्रम के ऊपर संयम करने से विवेचन ज्ञान का उदय होता है। प्राचीन काल में क्षणिकतावादी बौद्धों, स्फोटवादी वैयाकरणों तथा कश्मीर में उदित शैव संप्रदाय में काल व क्षण क्रम की आलोचना प्रचलित थी। किन्तु भारत के पुरातन मनीषियों का क्षण चिन्तनः पाश्चात्य दर्शन के आधुनिक क्षणवाद से विवेच्य प्रयोजन तथा जीवनात्मक दृष्टिकोण इन सब दृष्टियों से सर्वथा भिन्न है। इस भिन्नता के मुख्य कारण पाश्चात्य दर्शन की ऐहिक प्रधानता तथा भारतीय दर्शन की आमुष्मिक अभिलक्ष्यता है।

साठोत्तरी हिन्दी साहित्य पर आधुनिकता का प्रभाव

सन् साठ के बाद हिन्दी साहित्य में प्रणीत अकविता, अकहानी, अ-उपन्यास, अ-नाटक आदि विधाओं पर आधुनिकता बोध की उपर्युक्त प्रवृत्तियां प्रभूत मात्रा में लक्षित होती हैं। नैराश्य, विषाद, वेदना, अनास्था, संशयालुता, मान, क्लिष्टता, क्षणाभिरुचि, भोगवाद, अचेतन व अवचेतन का निरर्गल विश्लेषण निर्बाध वैयक्तिकता, घुटन, नूतनता का सर्वाग्रही मोह, बिम्बातरेक, असंतोष और कुंठाओं का कोहरा अति आधुनिकता की होड़ में लिखे गये हिन्दी साहित्य में सर्वत्र छाया रहा किन्तु सन्तोष की बात यह है कि आठवें दशक को हिन्दी साहित्यकार तथाकथिति आधुनिकता के माया जाल से मुक्ति पाने के लिए आतुर दृष्टिगोचर हो रहा है।

साहित्यकार का दायित्व – आधुनिकता का बोध एक वास्तविकता अवश्य है किन्तु (स्थायी) सत्य नहीं है। आधुनिक बोध किसी भी साहित्य की ऐतिहासिक अनिवार्यता है क्योंकि कोई भी साहित्यकार अपने परिवेश से कटकर युग जीवन-सत्यों के प्रति आंख नहीं मूंद सकता है किन्तु अपने परिवेश को विस्मृत कर हठात् पाश्चात्य परिवेश की मृग मरीचिका में भटककर वैज्ञानिकता और आधुनिकता के बोध की आड़ में अपनी मूल्यवादी परंपराओं से सर्वथा संबन्ध विच्छिन्न कर तथा समस्त मानव मूल्यों को बलात् कब्र में दफनाकर नितान्त अनभ्यस्त एवं अपरिचित देशी वाणी के अनुपयुक्त स्वरों से अपने साहित्य को भरना सर्वथा अनभिवांछनीय है । आधुनिक हिन्दी साहित्यकार को सदा इस बात का ध्यान रखना होगा कि आधुनिकता के अत्यधिक मोह में उसके काव्य में मात्र आधुनिकता ही न रह जाये और बेचारी साहित्यिकता का निर्वासन हो जाये। आधुनिकता में सहजता का होना अनिवार्य है। वह केवल ऊपर से ओढ़ी हुई नहीं होनी चाहिए। विघटित जीवन का अंकन आधुनिकता नहीं बल्कि वह एकांगिता है। समूचे भारतीय जीवन के परिवेश की निश्छल अभिव्यक्ति आधुनिकता का मूल तत्व होना चाहिए। अपने परिवेश के अनुकूल बाह्य प्रभावों को आत्मसात् कर निजानुभूत-सत्यों का प्रकाशन और वस्तु है और आधुनिकता का फैशन एक अलग चीज है। “खंडित चेतना न ही केवल नागरिक जीवन का अत्याधुनिक (अल्ट्रामाडर्न) रूप है और न ही वैयक्तिक कुंठा में आज आधुनिकता है। युग जीवन के समूचे व्यापकत्व को भोगना, समझना और उसे कलात्मक अभिव्यक्ति देना सच्ची आधुनिकता है।” आधुनिक बोध और सौन्दर्य के नाम पर विश्व साहित्य के सर्वस्वीकृत शाश्वत सत्य को बासी कहना, सुन्दर को वीभत्स कहना और शिव की व्यर्थता सिद्ध करना, नकली मुखौटों के सिवा और कुछ नहीं है। कोई भी आधुनिक बोध साहित्य में स्थायी नहीं बन सकता जब तक वह सहन अनुभूति के रूप में साहित्य की विकास मान परंपरा का अंग न बन जाए। पाश्चात्य दर्शन और मतवाद हमें सचेत तो कर सकते हैं, किन्तु हमें दृष्टि नहीं दे सकते। जीवन दृष्टि तो निजी परिवेश से प्राप्त होती है। सार्व का अस्तित्ववाद फ्रांसीसी परंपराओं से सर्वथा अलग नहीं है। अतः आधुनिक भारतीय साहित्यकार का आधुनिकता-प्रेम यहां की परंपराओं की अनुरूपता में अर्थवान् बन सकता है। आज के जीवन में त्वरित गति से आने वाले बदलाव, संघर्ष और नये-नये अर्थों की राह यहां के जीवन-संदर्भों की अपेक्षा के बिना नहीं बन सकती। हमारे भावी जीवन साहित्य, चिन्तन और कला का भविष्य इसी संतुलित दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। अध्यारोपित आधुनिकता के मायाजाल को दूर फेंकने में ही कविकर्म की सफलता है।

आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रबन्ध काव्य

निःसंदेह आधुनिक हिन्दी-साहित्य में गद्य का प्राचुर्य रहा और उसकी नाना विधाओं का क्षित्र गति से विकास हुआ तथा हो रहा है। इसके अतिरिक्त आधुनिक काल में मुक्तक-काव्य की विपुल राशि की सृष्टि हुई है किन्तु इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं कि प्रस्तुत काल में प्रबन्ध काव्यधारा नितान्त सूख गई या बिल्कुल विलुप्त हो गई है। वस्तुस्थिति तो यह है कि प्रबन्ध काव्यों की यह धारा रामचरित मानस, पद्मावती, साकेत, प्रिय प्रवास, कामायनी, कृष्णायन, कुरुक्षेत्र, साकेत का संत, लोकायतन, उर्वशी और मानवेन्द्र तक परम्परात्मक रूप में सदा अजस्र गति से प्रवाहमान रही है। सच तो यह है कि कोई भी युग उसका साहित्य प्रबन्ध-काव्यों के बिना पूर्णता को प्राप्त नहीं हो सकता है। प्रत्येक युग का जीवन प्रबन्ध काव्यों के विराट फलक पर ही पूर्णतया अंकित हो सकता है। साहित्य की यही विधा मनुष्यता की क्रमागत प्रगति और उसके भावात्मक विकास मार्ग की सूचिका है। दिनकर जी के शब्दों में- “विश्व के महाकाव्य मनुष्यता की प्रगति मार्ग में मील के पत्थरों के समान होते हैं, वे व्यंजित करते हैं कि मनुष्य किस युग में, कहाँ तक प्रगति कर सका है।” भारतेन्दु युग में मुक्तक शैली का ही प्रयोग हुआ, जबकि द्विवेदी युग में काव्यक्षेत्र में बहुधा प्रबन्धात्मक शैली को प्रतिष्ठा मिली। इस काल में इतिवृत्तात्मकता प्रधान शताधिक प्रबन्ध काव्यों की रचना हुई। द्विवेदी युग के प्रबन्ध काव्यों में आवश्यकतानुसार काव्यशास्त्रीय लक्षणों को अपनाते हुए भी प्रबंधकारों ने अपनी रचनाओं में युगानुकूल आधुनिकता को भी प्रतिबिम्बित किया है। इस युग के काव्यों में चारित्रिक दृष्टि से भी एक महान परिवर्तन लक्षित होता है। इन प्रबन्ध काव्यों में चित्रित देवी पात्र राम और कृष्ण आदि आदर्श मानव के रूप में प्रस्तुत किये गए हैं। इनकी राधा और सीता नारी जाति का प्रतिनिधित्व करती हुई आदर्श नारियों के रूप में आई हैं। उर्मिला, केकयी, रावण, नकुल तथा एकलव्य, भरत जैसे उपेक्षित पात्रों की चरित्रगत विशेषताओं को प्रकाश में लाना भी इन प्रवन्ध काव्यों की एक विशेषता है। प्रसाद युग में इतिवृत्तात्मकता के स्थान पर भावात्मकता को प्रश्रय दिया गया। स्वर्गीय जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ आधुनिक हिन्दी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है। इसमें भावात्मकता, चारित्रिकता और मानवीय मनोवृत्तियों के अतिसूक्ष्म विश्लेषण के साथ दर्शन तथा आधुनिकता का हृदयावर्जक समन्वय है। प्रसाद जी ने परंपरागत काव्यशास्त्रीय लक्षणों की उपेक्षा करते हुए भावात्मक प्रबन्ध काव्यों की एक स्वस्थ परम्परा को प्रशस्त किया। प्रसादोत्तर काल में प्रणीत प्रवन्ध कार्यो में भी काव्यशास्त्र के महाकाव्य सम्बन्धी बाह्य तत्वों की उपेक्षा करके उनमें राष्ट्रीय जीवन के व्यापक आदर्शों के चित्रण तथा मानवता के नये मूल्यों के अंकन पर विशेष बल दिया गया है। हम द्विवेदी युग और छायावादी कावयों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करते हुए उन युगों के प्रतिनिधि कवियों और उनके प्रबन्ध काव्यों का प्रासंगिक रूप से उल्लेख कर चुके हैं। यहाँ हमें प्रसादोत्तरकाल में रचित कतिपय प्रतिनिधि प्रबन्ध कावयों का संक्षिप्त प्रवृत्यात्मक परिचय देना अभीष्ट है।

आधुनिक काल में रचित प्रबन्ध काव्यों की कितनी प्रभूत सृष्टि हुई है, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हम, रचयिताओं और उनकी रचनाओं को काल-निर्देश पूर्वक एक संक्षिप्त तालिका प्रस्तुत करना उचित समझते हैं-

तालिका – सर्वश्री श्रीधर पाठक- एकान्तवासी योगी, उजड़ ग्राम, श्रान्त पथिक, महावीर प्रसाद द्विवेदी कुमारसंभव सार, मैथिलीशरण गुप्त – रंग में भंग, जयद्रथ वध, भारत भारती, विरहिणी बजांगना, वैतालिक, शकुन्तला, पलासी का युद्ध, पंचवटी, अनध, शक्ति, त्रिपथगा, विकटभट्ट, गुरुकुल, साकेत, यशोधरा, द्वापर, सिद्धराज नहुष, जयभारत 1952, हरिऔध – प्रिय प्रवास, पारिजात, वैदेही वनवास 39, गिरधर शर्मा- सती-सावित्री, सियारामशरण गुप्त मौर्य विजय, नकुल, अनार्थ, आत्मोत्सर्ग 33, भगवानदीन- वीरक्षत्राणी, वीर बालक वीर पंचरत्न, लोचन प्रसाद पांडेय- मेवाड़गाथा, मृगीदुखमोचन, गोकुलचन्द- प्रणवीर प्रताप, रामनरेश त्रिपाठी-मिलन, पथिक स्वप्न, रामचरित उपाध्यक्ष- देवदूत, देवी द्रोपदी, राष्ट्र-भारती, रामचरित चन्द्रिका, रामचरित चिन्तामणि, रामचन्द्र शुक्ल-बुद्ध चरित, उदयशंकर भट्ट – तक्षशिला, मानसी 39, प्रतापनारायण-नलनरेश, केशरीसिंह – प्रताप चरित्र, गुरुभक्तसिंह- नूरजहाँ, विक्रमादित्य 47, रामनाथ ज्योतिषी – रामचन्द्रोदय, अनुप शर्मा- सिद्धार्थ 39, शर्वाणी 48, वर्द्धमान 51. तुलसीराम शर्मा-पुरुषोत्तम निराला-सिद्धार्थ 39, श्यामनारायण पांडेय- हल्दीघाटी 39, जौहर 45, हरदयालुसिंह- दैत्यवंश, रावण 52, प्रद्युम्न – कृष्ण चरित मानस 41, मोहनलाल मेहतो- आर्यावर्त 43, द्वारिका प्रसाद मिश्र कृष्णायन 43, डॉ० रामकुमार वर्मा – जोहर 43, एकलव्य 48. सुधीन्द्र- जौहर 43, बलदेव प्रसाद मिश्र – साकेत का सन्त 46 रामराज्य 60, रामधारीसिंह दिनकर – कुरुक्षेत्र 46 रश्मिरथी 57, उर्वशी 61, ठाकुरप्रसाद सिंह-महामानव 46 रघुवीरशरण मित्र- जननायक 49. मानवेन्द्र 65, आनन्द कुमार- अंगराज 50, करील-देवार्चन 52, गोपालशरण सिंह- जगदालोक 52, रामानन्द तिवारी- पार्वती 55, श्यामनारायण प्रसाद-झांसी की रानी 55, लक्ष्मीनारायण कुशवाहा- तात्या टोपे 57, अतुल कृष्ण गोस्वामी नारी 57. परमेश्वर द्विरेफ-मीरा 57, युगदृष्टा प्रेमचन्द 59 तारादत्त हारीत-दमयन्ती 57, बालकृष्ण शर्मा नवीन- उर्मिला 58, गिरिजादत्त शुक्ल गिरीश- तारकबध 58, लक्ष्मीनारयण मिश्र-सेनापति कर्ण 58, आनन्द मिश्र – झाँसी की रानी 59, नरेन्द्र शर्मा- द्रौपदी 60, वासुदेव प्रसाद खरे-देवयानी 60, रामावतार अरुण- वाणाम्बरी 61, रामगोपाल दिनेश सारथी 61, डॉ० पुतूलाल शुक्ल- अनंग 61, नन्दकिशोर झा प्रिय मिलन 64, सुमित्रानन्दन पन्त लोकायतन 64 |

प्रतिपाद्य- द्वारिकाप्रसाद मिश्र का अवधी भाषा में रचित कृष्णायन महाकाव्य रामचरितमानस के समान सात काण्डों में विभक्त है। इसमें लेखक को कृष्ण की चारित्रिक उदात्तता के अंकन में पर्याप्त सफलता मिली है। प्रस्तुत काव्यधारा में दिनकर जी के तीन प्रबन्ध काव्य-कुरुक्षेत्र 46 रश्मिरथी 52 तथा उर्वशी 61 विशेष उल्लेखनीय हैं। कुरुक्षेत्र में युधिष्ठिर और भीष्म के ओजस्वी सजीव और मार्मिक वार्तालाप के माध्यम से युद्ध की समस्या पर आधुनिक युग के व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचार किया गया है। रश्मिरथी महाभारत पर आधारित है जिसमें महादानी कर्ण के आदर्श एवं उदान चरित्र को उपन्यस्त किया गया है। कुरुक्षेत्र और रश्मिरथी में महाकाव्योचित इतिवृत्त के अभाव के होते हुए भी कवि की सहज भाव प्रवणता ने उनमें शिथिलता नहीं आने दी है। उर्वशी ऋग्वेद के पुरुरवा और उर्वशी के संवाद पर आभूत है जिसमें कवि ने प्रेम, काम और सौन्दर्य को शाश्वत समस्याओं को मार्मिक रूप में चित्रित किया है। नारी जीवन को उसके व्यापक परिपार्श्व में देखना इस काव्य की महती विशेषता है। इसमें रोमांस की अतीव कलात्मक अभिव्यंजना हुई है। नीरज के शब्दों में-“कामायनी के उपरान्त बीसवीं शताब्दी की अन्यतम काव्य कृति कदाचित उर्वशी ही है।” बलदेवप्रसाद मिश्र का साकेत का सन्त एक सफल महाकाव्य है। इसमें साकेत-सन्त-भरत के चरित्र को अतीव उज्ज्वल एवं उदात्त रूप में अंकित किया गया है। श्यामनारायण पांडेय की दोनों रचनाएँ हल्दीघाटी तथा जौहर राजपूती इतिहास से संबद्ध हैं। हल्दीघाटी में महाराणा प्रताप के अतुल पराक्रम, शौर्य, प्रताप, साहस और बलिदान को सशक्त तथा ओजस्विनी भाषा में निबद्ध किया गया है। डॉ० रामकुमार वर्मा ने महाभारत के उपेक्षित पात्र एकलव्य की गुरुभक्ति को 14 सर्गों में सफलतापूर्वक अभिव्यंजित किया है। नरेन्द्र शर्मा प्रणीत द्रौपदी के माध्यम से कवि ने त्याग, बलिदान, श्रद्धा और शक्ति जैसे नारी जीवन के शश्वत मूल्यों की कलात्मक अभिव्यक्ति की है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अनेक सेनानियों-महारानी झाँसी, तात्या टोपे, गणेशशंकर, महात्मा गाँधी तथा नेहरू को लक्ष्य रखकर महारानी झाँसी (अनेक लेखकों के द्वारा) जगदालोक, जगनायक, महामानव (गाँधी से संबद्ध) तथा मानवेन्द्र 65 (नेहरू से संबद्ध) चरितात्मक महाकाव्यों का प्रणयन हुआ है। इसके अतिरिक्त अनेक साहित्य-सृष्टाओं द्वारा- बाण पर बाणाम्बरी तुलसीदास पर तुलसीदास तथा देवार्चन और प्रेमचन्द पर युगद्रष्टा नामक सफल प्रबन्ध काव्यों की सृष्टि हुई है।

रामावतार तरुण की प्रकाशित रचनाओं में उनकी नवीन कृति ‘बाणाम्बरी‘ महत्वपूर्ण है। इस रचना का नामकरण कदाचित् आधुनिक हिन्दी साहित्य में प्रकाशित चिदम्बरी, ऋतंबरा तथा रूपाम्बरा काव्यों के सादृश्य पर हुआ है अथवा बाणभट्ट की कादम्बरी के मिथ्या सादृश्य के आधार पर इसे बाणाम्बरी कह दिया गया है।

यह एक बीस सर्गों का प्रबन्ध काव्य है जिसमें रससिद्ध वाणी के अवतार महाकवि बाण का चरित्र एक बृहत् सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में चित्रित है। श्री तरुण ने बाण की रचनाओं- हर्ष चरित, कादम्बरी के अतिरिक्त आचार्य हजारी प्रसाद की ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ तथा वासुदेव शरण अग्रवाल के हर्ष चरित एक अध्ययन’ की सामग्री का उपयोग किया है। इसके अतिरिक्त कवि ने निजी कल्पना का भी सराहनीय प्रयोग किया है। बाणाम्बरी बाणभट्ट की आत्मकथा का एक पूरक ग्रंथ है जिसमें कल्पना का उपयोग करते हुए भी बड़ी सतर्कता के साथ इतिहास की रक्षा की गई है। इस प्रबन्ध काव्य में वर्णनात्मकता तथा कल्पना का प्राधान्य है। कलापक्ष की दृष्टि से भी यह ग्रंथ पर्याप्त सुन्दर बन पड़ा है।

सामान्य प्रवृत्तियाँ- (क) प्रसादोत्तर काल में रचित प्रबन्ध काव्य प्रतिपाद्य की दृष्टि से अतीव व्यापक पटभूमि पर आधारित है। इनमें जहाँ एक ओर उर्वशी जैसे महाकाव्य का आधार ऋग्वेद है, वहाँ सेनापति कर्ण, द्रौपदी और एकलव्य जैसी रचनाओं का इतिवृत्त पौराणिक है, सिद्धार्थ और वर्द्धमान आदि धार्मिक नेताओं से संबद्ध हैं। मौर्य विजय, हल्दी घाटी, जौहर, विक्रमादित्य, महारानी झाँसी तथा तात्या टोपे जैसे महाकाव्य इतिहास पर अधृत हैं, जगनायक, जगदालोक और मानवेन्द्र आदि आधुनिक युग के महा मानवी-गाँधी और नेहरू जी के जीवन चरित्रों से संबद्ध हैं और बाणाम्बरी, देवार्चन तथा युगद्रष्टा प्रेमचन्द साहित्य ‘भ्रष्टाओं के जीवनवृत्तों को आधार बनाकर लिखे गये हैं। इन सब महाकाव्यों का भारतीय संस्कृति के अभ्युत्थान और राष्ट्रीयता के जागरण में एक मूल्यवान योगदान है। इन काव्यों के कथावस्तु के चयन और उसमें युगानुरूप नवीनता का समावेश कर जहाँ इनके मनीषी प्रणेताओं ने अपनी मौलिक प्रतिभा को अक्षुण्ण बनाये रखा है वहाँ उन्होंने इनके सफल शिल्प-विधान में भी अपनी असाधारण रचना- क्षमता का परिचय दिया है।

(ख) चरित्रांकन में अभिनन्दनीय मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाया गया है। इनमें जहाँ राम और कृष्ण जैसे देव पात्रों को वैज्ञानिक युग की अनुरूपता में आदर्श मानव के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है वहाँ उपेक्षित पात्रों- भरत, नकुल, कर्ण, उर्मिला और एकलव्य की चारित्रिक महत्ता को भी यथेष्ठ आलोक में लाया गया है। इसके अतिरिक्त अभी तक हेय समझे जाने वाले रावण जैसे पात्रों के चरित्र के उज्ज्वल पक्ष को अतीव चित्रित किया है। इन काव्यों में नारी जीवन की नानाविध समस्याओं को सहृदयता से उपन्यस्त कर उसके आदर्श रूप की प्रतिष्ठा की स्तुत्य चेष्टा की गई है।

(ग) प्रस्तुत काव्यधारा शिल्प-विधान की दृष्टि से भी अभिनन्दनीय है। इन काव्यों की भाषा-शैली सरल, सुबोध तथा भावानुकूल है। नई कविता के समान इनमें कहीं भी अस्पष्ट प्रतीकों, बिम्बों और जटिल अप्रस्तुत विधानों का दुराग्रह नहीं है। इनमें वास्तविक काव्य कला की मनोरम झांकी मिलती है तथा इनमें रस परिपाक का पूर्ण ध्यान रखा गया है। इनमें काम कुंठाओं की अनावश्यक पहेलियाँ नहीं बुझाई गई हैं। इनके प्रणेताओं ने भारतीय काव्यशास्त्रीय प्रबन्ध-काव्यों की परम्पराओं को ध्यान में रखते हुए युगानुकूल महाकाव्यों के स्वरूप विधान का स्तुत्य प्रयास किया है।

(घ) इन प्रबन्ध काव्यों का लक्ष्य भी परम महनीय है। इनमें भारतीय सांस्कृतिक चेतना को उनके व्यापक, यथार्थ, स्वरूप और कलात्मक रूप में प्रशस्त किया गया है। उस पर कहीं भी फ्रायड, सार्व और कामू की वासनात्मक रुग्णता, क्षणवाद और अनास्था आदि को अवांछनीय भावनाओं की प्रेतछाया नहीं मंडराती है। प्रो. देवीप्रसाद गुप्त के शब्दों में- “इन काव्यों में देश-प्रेम, स्वजातीय गौरव, राष्ट्रीय सम्मान, मानवीय मूल्यों की प्रतिष्ठा तथा समसामयिक जीवनादर्शों के अनुरूप युगीन प्रश्नों के समाधान की विराट चेष्टा की गई है। समष्टि रूप में मानवतावादी जीवन-दर्शन, सांस्कृतिक निष्ठायें, उत्थानमूलक जीवनादर्श, नारी चेतना के मुखरित स्वर, जन-जागृति का उद्घोष, रचना-शिल्प की नवीनता तथा चरित्रों की युगीन सन्दर्भ में अवतारणा-प्रमादोत्तर काल के महाकाव्यों की ऐसी विशेषतायें हैं, जिनके आधार पर इन काव्य-ग्रन्थों को माँ भारती के भण्डार की महत्वपूर्ण उपलब्धि निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है।”

क्या आधुनिक कविता में गत्यावरोध है ?- अब तक हमने आधुनिक हिन्दी साहित्य की कविता की विकासात्मक गतिविधियों का पर्यवेक्षण किया है। आधुनिक हिन्दी साहित्य की कविता राष्ट्रीय जागरण से लेकर अब तक के प्रयोगवादी युग तक अनेक पड़ावों पर गुजरती हुई पहुँची है। उसमें अनेक परिवर्तन आए। उसमें छायावादी युग तक भाव और कला क्षेत्र में उत्तरोत्तर, विकास एवं उत्कर्ष आया। उत्तर-छायावादी प्रगतिवादी कविता भी लोकसंग्रह की भावना से संवलित होकर अपनी गरिमा को बनाये रही। हिन्द साहित्य को भारतेन्दु हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, पन्त, निराला, महादेवी, दिनकर आदि सजग मनीषी कलाकारों तथा उनकी अमर कलाकृतियों पर गर्व है जो कि सर्वथा उचित है, किन्तु आधुनिक हिन्दी साहित्य की कविता के विकास की कहानी को जानने वालों से यह बात छिपी नहीं है कि उत्तर छायावादी काल में हिन्दी कविता में हासोन्मुखी प्रवृत्तियों का समावेश भी होने लग गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक कविता क्षेत्र में जिस किसी रूप में व्यक्तिचित उदात्तता फिर भी बनी रही, किन्तु इसके अनन्तर कविता अपने उच्चासन से उतरकर बालकों के खेल-खिलवाड़ में रम गई। नवीन विलक्षण प्रयासों के नाम पर उसमें असामाजिक, स्वार्थप्रेरित अहंनिष्ठ, घोर रुग्ण व्यक्तिवाद, दमित वासनाओं और कुंठाओं, चीटियों और चप्पलो जैसे विषयों को ज्यों के त्यों रूप में निरुद्देश्य अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति को कविता में समाविष्ट कर देने को अत्यधिक प्रश्रय दिया जाने लगा है। आज की तथाकथित नयी कविता में विघटन, ध्वंसात्मकता, अति बौद्धिकता, रुचि-विहीनता आदि की दूषित प्रवृत्तियों को उनके उम्र रूप में देखा जा सकता है। आज की नयी कविता में युग की उदात्त भावनाओं और जीवन के कलात्मक “अंकन का सर्वथा अभाव है। लगता है कि आज की प्रयोगवादी या नयी कविता पथभ्रष्ट होकर मणि-मुक्ताओं के स्थान पर धूलि भरे, घुन खाये घोघों को समेटने में रही है। निश्चित रूप से कविता की विद्रूप अथवा दयनीय दशा हिन्दी जगत् के लिए महती विचारणीय समस्या है।

-(शिवदान सिंह)

लेकिन कविता की उक्त दशा को देखकर उसमें गत्यावरोध कहना भ्रामक होगा, क्योंकि कविता किसी एक स्थान पर आकर रुक नहीं गई है। कविता में मानव-जीवन के समान परिवर्तन, विकास एवं ह्रास की स्थितियाँ आती रहती हैं। अधिक से अधिक इस प्रसंग में हम कह सकते हैं कि आज की कविता हासोन्मुखी है और उसमें मूल्यों के विघटन की प्रक्रिया जोरों पर है। अवरोध एक जड़ता है जो कि नितान्त निन्दनीय है। विकास और ह्रास चिरस्थायी नहीं होते। आज कविता में जो हासोन्मुखता है वह निःसन्देह क्षणस्थायी है। आज राष्ट्रीय-जीवन में मूल्यों के विघटन की जो प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है वह कविता में मूल्यों के लिए उत्तरदायी है, किन्तु यह निश्चित है कि राष्ट्र के जीवन में विघटन की यह प्रक्रिया जल्दी ही समाप्त हो जायेगी। शिवदान सिंह चौहान इन हास के कारणों का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं- “विश्व-मंच पर पूंजीवाद के पतन और समाजवाद के उत्थान का यह संक्रांति-युग इस समय कला-निर्माण के लिए अनुकूल नहीं सिद्ध हो रहा, लेकिन विश्व शान्ति की कोई स्थाई व्यवस्था हो गई और तीसरे महायुद्ध की सर्वनाशी विभीषिका से मनुष्य जाति बच गई तो निश्चय ही हमारे सांस्कृतिक जीवन का अगला उत्थान राष्ट्र-निर्माण का नया आशीर्वाद लेकर पैदा होगा और भारतीय साहित्य को नई उदात्त प्रेरणाओं, नई कल्पनाओं और भावनाओं से अनुप्राणित करेगा।” उस समय हिन्दी कवि को समाज के साथ तादात्म्य स्थापित करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। उसकी प्रतिभा युग-निर्माणकारी तत्वों को संजोकर युग-जीवन के सत्यों के उद्घाटन में अपने आपको कृतकार्य समझेगी। आशा है कि साहित्य को प्रसाद जैसे युगान्तर उपस्थित करने वाले, बहुमुखी प्रतिभासम्पन्न, उदारचेता कलाकार मिलेंगे। हिन्दी कविता का भविष्य आशामय है। क्षणस्थायी हासोन्मुखता, का अन्त अवश्यंभावी है। हिन्दी कविता का आने वाला रूप क्या और कैसा होगा, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ कह सकना खतरे से खाली नहीं होगा, किन्तु इतना अवश्य दिखाई देता है कि “नये उत्थान का साहित्य व्यक्तिवाद की घोर अनास्था, अतिबुद्धिवाद और समाजद्रोही अहमन्यता का एकांगी, व्यक्तित्व को खंडित और कुंठित करने वाला साहित्य न होगा, बल्कि ज्ञान-विज्ञान की संचेतना को आत्मसात् करके मनुष्य के सम्पूर्ण अन्तर्बाह्य जीवन को मूर्त कलात्मक अभिव्यक्ति देने वाला साहित्य होगा जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का उदात्त और नैतिक, अखण्डित और मुक्त विकास प्रेरणा ग्रहण कर सकेगा। लेखक केवल अपने स्वधर्मी लोगों के लिए नहीं लिखेगा, बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र और प्रकारान्तर से सम्पूर्ण मानव जाति के लिए लिखेगा और अपनी रचना को सबके लिए प्रेपणीय बनाने का उत्साह लेकर आगे बढ़ेगा अर्थात् स्वयं अपने रचनाशील व्यक्तित्व की गरिमा और दायित्व को पहचानेगा।” (शिवदानसिंह चौहान)। उस समय की कविता मनुष्य की वाणी में बोलने वाले विकृत मानव द्वारा निर्मित सरीसृपों का जगत् न होकर इस धरती के सचेत मानव द्वारा निर्मित मानव के हर्ष उल्लास, रुदन और हास से सम्पन्न दुनिया होगी। आशा है कि आधुनिक कविता प्रयोगवाद के दलदल से निकलकर जीवन-निर्माण के स्वस्थ धरातल पर शीघ्र अपने पाँव टिकायेगी और उसका लेखक निरर्थक अन्धानुकरण के मोहजाल से निकलकर निजी जीवन्त अनुभूतियों के अंकन को प्रश्रय देगा। वह अति घोर वैयक्तिकता, अहंवादिता, कामुकता, स्वार्थपरता और अनैतिकता की अवांछनीय प्रवृत्तियों को छोड़कर उदार अखंड एवं व्यापक मानवता के लोक मंगल विधायक उद्घोष से हिन्दी भारती को सप्राण उज्ज्वल एवं पुनीत बनायेगा। उसे यह याद रखना होगा कि मानवता सब आदर्शों से ऊपर है।

आज समूचा राष्ट्र संक्रांति के नाना दौरों से गुजर रहा है। आज प्रत्येक भारतवासी के सामने आदर्श मानव मूल्यों तथा समृद्ध एवं उन्नत भारत के सृजन की समस्या है। इस दशा में साहित्यकार का सहयोग सर्वाधिक सुन्दर और फलप्रद सिद्ध हो सकता है। किन्तु खेद का विषय है कि आज का तथाकथित नया कवि नवीनता के अन्धाधुंध मोह में केवल निजी विज्ञापनार्थ बरसाती मेंढकों के समान नित्य नवीन काव्य सम्प्रदायों की सृष्टि में व्यस्त है। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि उसका नया काव्य जन मानस का प्रतिनिधित्व न करके अभिजात्य वर्ग के हितों का समर्थन करता है। उसकी रचनायें काव्योचित सहज संवेदना से शून्य तथा कृत्रिम बनती जा रही हैं। वे रचनायें काव्य के महनीय आदर्श से दूर होने के कारण नितान्त हल्की और शिल्प प्रधान की दृष्टि से प्रायः भौंड़ी बनती जा रही हैं। आज के नवीन काव्य संप्रदायों के प्रतिफल नवापही पुरोधाओं को यह स्मरण रखना होगा कि “कविता सम्पूर्ण चेतना की अखंड अभिव्यक्ति है, वह खंडित व्यक्तित्व की बौद्धिक शब्द लीला मात्र नहीं है।” असंबद्ध शब्द-जाल और व्यक्ति वैचित्र्यवाद की कारीगरी से पाठक को उलझाने और वास्तविक कवि कर्म में वृहदन्तर है। कविधर्म कोरे फैशन से भिन्न होता है। नया भावबोध या नयी अभिव्यक्ति के चिल्लाने मात्र से काव्य का महत्त्व नहीं बढ़ जाता। किसी काव्य की क्षमता उसमें चित्रित अनुभूति गहनता और शाश्वत मानवीय मूल्यों के प्रति सजगता में नहित है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए काव्य में हृदय के सहज उद्रेक और उसके साथ निश्छल अभिव्यक्ति का योग अनिवार्य है। एजरा पाऊंड, रिम्बों और एमीलावल के भारतीय अन्ध श्रद्धालु भक्तों को ग्राह्य और अग्राह्य के सम्बन्ध में विवेक बुद्धि से काम लेकर निजी अनुभूतियों के सहारे जीवित रहने की कला सीखनी होगी। उन्हें अनुभूतियों के उस आयाम पर पहुँचना होगा जहाँ काव्य स्वयं प्रस्फुटित हो जाता है। कहीं ऐसा न हो कि “कौवा चला हंस की चाल अपनी भी भूल गया” की उक्ति नये कवि पर चरितार्थ होने लगे । केवल नवीनता ही काव्योत्कर्ष की विधायिनी शक्ति नहीं हुआ करती है। कालिदास के शब्दों में-

पुराणमित्येव न साधु सर्वम्,

न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।

सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते

मूद: पर प्रत्ययनेय बुद्धि । -मा० अग्निमित्रम् 1 2

पुरानी होने से ही न तो सब वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न कोई वस्तु नई के कारण हेय एवं तुच्छ होती है। विवेकशील मनुष्य गुणों और दोषों की परीक्षा कर श्रेष्ठतर वस्तु को अपनाते हैं। मूढ़ जन दूसरों के बताने पर ग्राह्य और अग्राह्य का निर्णय किया करते हैं।

IMPORTANT LINK

Disclaimer: Target Notes does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: targetnotes1@gmail.com

About the author

Anjali Yadav

इस वेब साईट में हम College Subjective Notes सामग्री को रोचक रूप में प्रकट करने की कोशिश कर रहे हैं | हमारा लक्ष्य उन छात्रों को प्रतियोगी परीक्षाओं की सभी किताबें उपलब्ध कराना है जो पैसे ना होने की वजह से इन पुस्तकों को खरीद नहीं पाते हैं और इस वजह से वे परीक्षा में असफल हो जाते हैं और अपने सपनों को पूरे नही कर पाते है, हम चाहते है कि वे सभी छात्र हमारे माध्यम से अपने सपनों को पूरा कर सकें। धन्यवाद..

Leave a Comment