‘अरे यायावर रहेगा याद’ का सारांश अपने शब्दों में प्रस्तुत कीजिए।
अज्ञेय द्वारा रचित ‘अरे यायावर रहेगा याद’ का आरम्भ परशुराम के लेख से होता है। इसका सारांश इस प्रकार है- लेखक को सेना में नौकरी के समय असम प्रदेश तूरखम में रहने का अवसर मिला। यात्रा के लिए जो ट्रक मिला था उसका एक ही टायर भरोसे लायक था और करबुरेटर खराब था, कांच टूटे थे, ब्रेक कमजोर, बत्ती जलती नहीं थी ठीक से, पर लेखक के लिए चाँदनी में तो पूरा प्रदेश दिखता है जबकि बत्ती जलवाने से बस सड़क, यही सत्य था। लेखक का मानना था कि न जाने कब फिर ब्रह्मपुत्र की यात्रा का आरम्भ बिन्दु परशुराम का तपोवन और कुंड, कुंडिनपुरक उन महलों के अवशेष, जहाँ बैठकर रुक्मणी ने कृष्ण की प्रतीक्षा की होगी, गैंडे, हाथी और मिळून द्वारा सोवित कदली-वन, सदिया सीमा प्रदेश के दुर्भेद्य जंगल, देखने को मिलेंगे।
वहाँ से चालीस मील जाकर टामेइ का पड़ाव था। टामेइ तक गाड़ी जाती है, वहाँ से घाट पार कर चार-पाँच मील जंगल पैदल पार करना पड़ता है। टामेइ घाट पर ब्रह्मपुत्र को लुहित कहते हैं। नदी पार कर जंगल जिसकी तुलना नहीं और सामने परशुराम का कुंड। सदिया के कई स्मारक अपने में इतिहास छिपाये हुए हैं। सदिया भी प्राचीन सुटिया राज्य का अवशेष है, जो कदाचित् महाभारतकालीन राजा भीष्मक के वंश के ह्रास के बाद खड़ा हुआ था। कथा है कि भीष्मक का एक वंशधर वीरपाल (अथवा बीरबर) सेनागिरि का राजा था। उसकी रानी रूपवती ने पुत्र-लाभ के लिए कुबेर की स्तुति की। कुबेर ने पतिरूप ग्रहण कर उसके साथ रमण किया। वीरपाल को पुत्र गौरीनारायण की प्राप्ति हुई, जो रत्नध्वजपाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। रत्नध्वज का पुत्र बंगाल के गौड़ेश्वर के यहाँ शिक्षा ग्रहण करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुआ। गौड़ेश्वर ने इसी स्थान पर उसका शव रत्नध्वज को सौंपा तब से उसका नाम स-दिया (जहाँ शव दिया गया) पड़ गया।
सिलिगुड़ी का मार्ग जब कूच बिहार से द्वार प्रदेश से गुजरता है, तब उसकी शोभा अवर्णनीय होती है। इस अंचल में हिमालय के बारह द्वार हैं, जिनसे मोटिये, नेपाली, तिब्बती आदि आते-जाते हैं। जैसे-जैसे दार्जिलिंग की ओर बढ़ो चाय के बागानों की भरमार है। तिस्ता नदी का दुर्गम पुल दर्शनीय स्थल है जिसे यायावर ने पार किया और सिलिगुड़ी जा पहुँचे। सिलिगुड़ी से एक रास्ता पूर्णिया को जाता है। एक फौजी मालगाड़ी में लदकर यहां से कानवाई कलकत्ते रवाना हुआ। बैरकपुर पहुंचकर ट्रक रेलगाड़ी से उतारे गये। वहीं पाँच मील दूर कैम्प में रात कटी। प्रातःकाल चलकर विलिंगड ब्रिज द्वारा हुगली नदी पार करके वर्धमान (बर्दमान) होते हुए आसनसोल पहुंच गये, यहीं रात कटी कैंप में कानपुर स्टेशन पर भोजन किया। आगरा होते हुए जाना था। बाहरी फाटक से ही ताज को झांककर देखते हुए मियां नजीर उपेक्षित कन्न देखी। कारवाँ पानीपत कुरूक्षेत्र अंबाला होते हुए जालंधर पहुँच गया।
लेखक को सीमा प्रदेश के दौरे करने का आदेश मिला और लेखक अमृतसर गोविन्दगढ़ किला होते हुए गुजरांवाला पहुँचा, जो महाराजा रणजीत सिंह का जन्मस्थान है, जहाँ से स्यालकोट और फिर गुजरात में रैनबसेरा होगा। दिन भर की दौड़ में लेखक ने पंचनद में से तीन नदियाँ पार कर ली थी- व्यास, रावी और चिनाव। पाँचों नदियों में चिनाब सबसे सुन्दर नदी मानी जाती है। झेलम और सतलज को भी वह देख चुका है। आगे लेखक ने हसन अब्दाल में डेरा जमाया जहाँ सिक्खों का तीर्थ स्थान ‘पंजा साहब’ है। मुसलमानों के अनुसार ‘बाबा वली का चश्मा’ है। यहाँ से एबटाबाद जो जंगली नरगिस के लिए प्रसिद्ध है। नरगिस का फूल उतना ही स्त्रैण है, जितना कि गेंदे का फूल मर्दाना। पहाड़ों पर छाये नरगिस के पौधों को पीछे छोड़ सिन्धु के बायें तट पर बना अटक का भव्य दुर्ग आकर्षित करता है। अकबर के बनवाये इस किले से सिन्धु पार कर खैराबाद स्टेशन पड़ता है। लेखक के अनुसार “भारत के नगरों की अपनी-अपनी विशेषतायें हैं। यों तो किसी भी शहर को एक विशेषण से नहीं बांध लिया जा सकता क्योंकि प्रत्येक में विविधता है, किन्तु उस विविधता की भी अलग लीके हैं। यथा जोधपुर में रंगों की विविधता उसे विशिष्ट करती है, श्रीनगर में गन्धों की विविधता (सहस्रगंधा नगरी), लाहौर में गंदगी की (इस विषय में कलकत्ते को प्रतियोगी मान लें तो) फैशन की, इत्यादि । “
पेशावर अपने बाजारों के लिए प्रसिद्ध है। पेशावर से चलने पर लेखक का कुनबा बढ़ गया। एन्तोन तो था ही, चित्रकार केवल, कृष्ण और पत्नी देवयानी भी साथ थीं। इस्लामिया कॉलेज के सामने सीधी सड़क पर सामने खैबर की पहाड़ियाँ थी। पहाड़ की श्रृंखला के आर-पार रास्ते को दर्श कहते हैं और खैबर दर्रा उपयुक्त नाम है। खैबर की सड़क कोटों और दुर्गों से पटी हुई है। जबरूद के बाद फोर्ट मॉड, शगई और अली मस्जिद के किले और फिर बड़ी छावनी लंडी।
लंडी खाने से पहले पथ के उत्तर को मिचनी कंडाव का किला पड़ता है। मिचनी कंडाव से आगे का मार्ग दूर तक खुला जिसमें तूरमख का टीला ही थोड़ा अवरोध करता है। भारत का सीमांत यात्रियों को यहाँ से आगे जाने की आज्ञा नहीं लेखक लाहौर से प्रारम्भ कर रावलपिंडी, कोहमरी दुमेल होता हुआ कश्मीर पहुंचा था। श्रीनगर पहुँचकर अनुभव किया कि अब यहाँ आने पर पहले जैसा उत्साह न था।
गुरू- दम्पत्ति लेखक के साथ हैं, जिसमें पत्नी को गुरू की विशेष चिन्ता हो रही है। लेखक के भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर ईसाई धर्म के अनुयायी थे पर उन्होंने कभी धर्म सिद्धान्तों की बात कही हो, ऐसा लेखक को याद नहीं। सर्वदा प्रयोगशाला ने यंत्रशाला में कुछ बनाने वाले गुरू जी कई वर्षों से डॉ. कांप्टन (नोबेल पुरस्कार विजेता) के साथ कॉस्मिक किरणों पर शोध कर रहे थे। इस बार कांप्टन अमेरिका में ऊँचे तल पर वायुमंडल में माप ले रहे थे (गुब्बारे के द्वारा) और पानी की गहराइयों में माप लेने का काम लेखक के गुरू जी का था।
वैज्ञानिक अभियान के लिए बहुत सी व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं। कोंसरनाग तक जाने के लिए शुपियां तक सड़क है, पुल सब कच्चे हैं, उन पर मोटर चलाने का परमिट लेना होगा। श्रीनगर के गवर्नर से मिलना होगा। पूरा दल जिसमें लेखक उनके गुरू के अतिरिक्त दो और लोग थे-एक रसायनशास्त्र के प्रोफेसर और दूसरे उनके भतीजे छोटे जोशी जी। दल में पाँचवा व्यक्ति था-खानसामा रहमत, जो पहाड़ी अभियानों का अनुभव प्राप्त कर चुका था। जुलाई के दूसरे सप्ताह के एक दिन प्रातःकाल सब श्रीनगर से जम्मू की सड़क पकड़ निकल गये। वहाँ से पामपुर पहुँचे जहाँ की बाकरखानी और ‘शीरमाल’ प्रसिद्ध थे। जम्मू वाली सड़क छोड़कर अब कच्ची सड़क पर आ गये, जो शुपियाँ तक जाती है जो पीर पंजाल श्रेणी की उत्तर उपत्यका में है। पीर पंजाल का ही एक बड़ा सरोवर है कोंसरनाग। इसकी ऊँचाई 12 हजार फीट थी। विशुद्ध वातावरण में कॉस्मिक किरणों के स्वभाव, शक्ति, भेदकता आदि का अध्ययन सरलता से किया जा सकता है। पामपुर से राम और रामू से शुपियां तक कीचड़ में बहुत मालगाड़ी फंसी और खाली करके पुल पर किये गये। नदी पार कर सभी शुपियां आ गये। वहाँ झील तक सभी पहुँच चुके तथा दो सौ फुट और चढ़कर किनारे की ओर उतरना था। अब सभी लोग कोंसरनाग की झील पर थे, जहाँ की सुन्दरता अनिर्वचनीय, अवर्णनीय थी। झील में नवनीत के बहुत बड़े-बड़े गोलों सी बर्फ की चट्टाने तिर रही थीं। घोर निस्तब्धता, निश्चलता, नीरवता का साम्राज्य । झील के उतार पर खुली जगह सभी ने एक शिविर डाला। कॉस्मिक किरणे सम्बन्धी तथ्य पर अनेक प्रकार के अनुमान थे और उन्हीं के आधार पर विभित्र देशों के वैज्ञानिक विभिन्न दिशाओं में खोज यंत्रों का आविष्कार और सम्बद्ध क्रियाओं, घटनाओं का मापन कर रहे थे।
झील में डाला गया विद्युत यंत्र कांटे से निकल गया था और तीन दिन तक गहरी झील में बैङ्गने पर भी नहीं मिल रहा था। नया विद्युत यंत्र बनाने में एक साल का समय लगता। गुरू जी ने कहा, “अब तोते के पिंजरे से ही कितना काम लिया जा सके कुछ तो नतीजा लेकर जाना चाहिए।” काम और भी उत्साह से चलने लगा। प्रवास लम्बा होने के कारण रसद की व्यवस्था की गयी। दूसरी सितम्बर को कुछ पक्षी झील पर उतरे तो घोड़े वालों ने हमें वापस चलने की हिदायत दी क्योंकि ये पक्षी बर्फ गिरने का संदेश लेकर आते हैं। अतः तीन सितम्बर को हम लोग जो काम हो गया उसे समेटकर वापिस शूपिंग आ गये।
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