कामायनी के आधार पर प्रसाद जी का काव्य सौन्दर्य निरुपित कीजिए। कामायानी के आधार पर जयशंकर प्रसाद की भाषा शैली पर प्रकाश डालिए।
आधुनिक युग का अभिनव आविर्भाव है कामायनी, जिसे बीसवीं सदी की सर्वश्रेष्ठ कृति होने का गौरव प्राप्त है। आचार्य नन्द दुलारे बाजपेयी ने कामायनी को एक आश्चर्यमयी घटना माना है। विजयेन्द्र स्नातक ने इसे छायावादी काव्यधारा की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकार किया है। डॉ० प्रेमशंकर ने कामायनी को प्रसाद के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति माना है। यही नहीं समालोचकों ने इसे तुलसी के मानस के बाद जन-जीवन, युग का प्रवृत्तात्मक जीवन का दर्शन कराने वाली एकमात्र समग्र एवं सम्पूर्ण रचना कहा है।
स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह ही छायावाद है। छायावाद के चार आधार स्तम्भ प्रसाद, पन्त, निराला और महादेवी वर्मा। सुमित्रानन्दन पन्त के अनुसार, “प्रसाद जी को हम छायावाद का जनक मान सकते हैं। छायावादी प्रवृत्ति के बीज चित्राधार से प्रारम्भ होकर कानन कुसुम, झरना, आंसू, लहर और ‘कामायनी’ में वृक्ष रुप में पल्लिवित हुई।”
प्रसाद की प्रतिभा सर्वतोमुखी है। वे हिन्दी के रवीन्द्र और शेक्सपियर हैं। ‘कामायनी’ में छायावाद का चरमोत्कर्ष विद्यमान है। कामायनीकार मुख्यतः एवं मूलतः सांस्कृतिक राष्ट्रीय चेतनाओं से संयत छायावादी कवि हैं। अतः छायावादी काव्य के जितने भी गुण, धर्म एवं वैशिष्ट्य स्वयं प्रसाद जी ने अपने निबन्धों में उल्लिखित किये छायावाद के अन्य सभी प्रकार के समालोचकों ने मान्य ठहराये, वे सभी सहज ही कामायनी में देखे जा सकते हैं। उन समग्र विशेषताओं का उद्घाटन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है जिनके आधार पर कामायनी छायावादी काव्य प्रवृत्ति की सर्वश्रेष्ठ कृति ठहरती है।
सौन्दर्य निरुपण कामायनी में प्रसाद जी ने सौन्दर्य की सृष्टि करने से सृष्टि-कर्ता की उस कलापूर्ण ममता का, जो उनके अन्दर स्थित थी, परिचय दिया है, प्रकृति के द्वारा इन्द्र धनुष में रंगे सौन्दर्य की सृष्टि कवि ने कामायनी के काव्य में की है। कामायनी के समस्त सर्गों में ‘लज्जा सर्ग’ एक ऐसा सर्ग है जो सौन्दर्य के आभूषणों से परिपूर्ण है। सुकुमारता और मृदुलता की आत्मा का स्पष्टीकरण कवि ने किया है। जब लज्जा अपना परिचय स्वयं देती है, उसकी उक्तियों में कवि ने अमृत का सागर उड़ेल दिया है, जिसमें स्वयं को निमग्न करके पाठक कुछ समय के लिये अपनी सत्ता को भूलकर अमरता का ख्वाब देखने लगता है इस दृष्टि से लज्जा सर्ग की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य है-
“मै रति की प्रतिकृति लज्जा हूँ, मैं शालीनता सिखाती हूँ।
मतवाली सुन्दरता पग में, नूपुर-सी लिपट मनाती हूँ।।
चंचल किशोर सुन्दरता की, मैं करती रहती रखवाली।
मै वह हल्की सी मसलन हूँ, जो बनती कानों की लाली॥”
सौन्दर्य परिभाषित करते हुये प्रसाद जी ने लिखा है-
‘उज्ज्वल वरदान चेतना का ‘सौन्दर्य’ जिसे सब कहते हैं।”
प्रसाद सौन्दर्य सम्राट कहे जाते हैं। श्रद्धा का सौन्दर्य वर्णन करने के लिये वे एक से अधिक उपमान ढूंढ़ लेते हैं-
“नील परिधान बीच सुकुमार, खिल रहा मृदुल अथखुला अंग।
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ बन बीच गुलाबी रंग।”
प्रकृति चित्रण प्रकृति और मानव का प्रारम्भ से ही न टूटने वाला सम्बन्ध रहा है। प्रकृति ने ही मानव को माँ का प्यार प्रदान किया तथा पथ-प्रदर्शन किया। वास्तव में कामायनी की कथा प्रकृति के रम्य स्थानों में ही चित्रित हुयी है। प्रसाद जी ने कामायनी में प्रकृति के आकर्षण और विनाशक दोनों ही रूपों का चित्रण किया है। निम्न पंक्तियों में प्रकृति का रम्य रूप अवलोकनीय है।
“उषा सुनहले तीन बरसती, जय लक्ष्मी सी उदित हुई।
उधर पराजित काल रात्रि भी, जल में अन्तर्निहित हुई।”
प्रकृति के वे उपकरण जो मिलन का संदेश सुनाते थे वही प्रलय के समय निगल जाने वाले बन जाते हैं। निम्न पंक्तियों में प्रकृति का प्रलयंकारी रुप दृष्टव्य है।
हाहाकार हुआ क्रन्दनमय, कठिन कुलिश होते थे चूर।
हुये दिगन्त बधिर भीषण-रव, बार बार होता था क्रूर ।।
नारी की महत्ता का प्रकाशन प्रसाद से पूर्व रीतिकाल में नारी के प्रति बड़ा हीन और संकुचित दृष्टिकोण था। प्रसाद जी ने कामायनी में नारी को महत्ता प्रदान की और उसे श्रद्धा की साक्षात प्रतिमा कहा। वास्तव में ‘श्रद्धा’ के रुप में प्रसाद ने अपने नारी विषयक दृष्टिकोण को विशद रुप में अंकित किया है-
“नारी तुम केवल श्रद्ध हो, विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।”
कामायनी की ‘श्रद्धा’ अगाध विश्वास, त्याग, सौन्दर्य एवं विश्वबन्धुत्व का मूर्तिमान प्रतीक है।
प्रसाद जी मंगल रुप के उपासक हैं और उसे जीवन में इतना महत्वपूर्ण मानते हैं कि न केवल भौतिक अपितु आध्यात्मिक आनन्द का मार्ग भी वहीं दिखती है।
दुख वेदना और निराशा का स्वर छायावादी कवियों में दुख, वेदना एवं निराशा का स्वर स्पष्ट झलकता है। चिन्ता सर्ग के कई छन्दों में बौद्ध दर्शन के दुखवाद की छाप देखने को मिलेगी। यथा-
“वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार।
उमड़ रहा है देव सुखों पर दुख जलधि का वाद अपार ॥”
विकासवाद ‘कामायनी’ के कई छन्द डार्विन के विकासवाद का समर्थन करते हुये मानव को विकास की प्रेरणा देते हैं
“यह नीड़ मनोहर कृतियों का, यह विश्व कर्म रंग स्थल है।
है परम्परा लग रही यहाँ ठहरा जिसमें जितना बल है।”
कामायनी में युग-बोध कामायनी में युग-बोध है। कालिदास की भाँति कामायनी का कवि पुरातनता से चिपटा रहना नहीं चाहता। उसकी मान्यता है
“प्रकृति के यौवन का श्रृंगार, करेंगे कभी न बासी फूल।
मिलेंगे वे जाकर अति शीघ्र, आह उत्सुक है उनकी धूल ॥ “
रस-विधान- प्रसाद जी रस को काव्य की आत्मा मानते थे। अलंकार या वक्रोक्ति को वे प्रधानता नहीं देते थे। कामायनी में कल्पना मिश्रित अनुभूति ही रस का संचार करने में समर्थ रही है।
कामायनी में वात्सल्य, वीर, भयानक, अद्भुत, करुण आदि रसों की अच्छी अभिव्यक्ति मिलती है परन्तु कामायनी का मूल रस श्रृंगार ही है। अन्य रसों का प्रभाव अस्थायी होने पर भी श्रृंगार का व्यापक प्रभाव रहता है। अतः कामायनी श्रृंगार प्रधान रचना है।
श्रृंगार का स्थायी भाव ‘रति’ को माना गया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रसाद जी ने कामायनी में श्रृद्धा के सौन्दर्य का वर्णन किया है-
“घिर रहे थे घुंघराले बाल, अंश अवलम्बित मुख के पास।
नील घन शावक से सुकुमार, सुधा भरने को विधु के पास।”
अनुराग का अवसान परिणय में ही होता है। श्रद्धा का आत्म-समर्पण मनु को स्वीकार करना पड़ता है। संयोग श्रृंगार का वर्णन प्रसाद के शब्दों में
“मुधर क्रीड़ा मिश्र चिन्ता साथ ले उल्लास
हृदय का आनन्द कूजन लगा करने रास ॥
गिर रही पलकें, झुकी थीं नासिका की नोक।
भू-लता थी कान तक चढ़ती रही बेरोक॥”
संयोग के बाद श्रृंगार के वियोग पक्ष की अनुभूति अत्यन्त गहरी होकर कामायनी में अनेकशः अभिव्यंजित हो पाई है। यथा निम्न पंक्तियों में वियोग का दाह साकार हो उठा है।
“विस्मृति हों वे बीती रातें अब जिनमें कुछ सार नहीं।
वह जलती छाती, न रही अब वैसा शीतल प्यार नहीं।।”
इसी प्रकार वात्सल्य, अद्भुत, शान्त, वीर, रौद्र आदि अन्य रसों की सृष्टि में भी कविवर प्रसाद को पूर्ण सफलता मिली है।
अलंकार विधान- कामायनी में अलंकारों का प्रयोग करने का प्रसाद जी का एकमात्र उद्देश्य यही रहा कि भावों का उत्कर्ष हो। प्रसाद जी ने नये-पुराने सभी प्रकार के अलंकारों का बड़ी ताजगी के साथ प्रयोग किया है। अनुप्रास और उपमा अलंकार का समन्वित प्रयोग निम्न पंक्ति में अवलोकनीय है।
“तरुण तपस्वी-सा वह बैठा।”
प्रतीप और उपमा अलंकारों के सुन्दर प्रयोग का उदाहरण भी प्रस्तुत है-
“उस तपस्वी से लम्बे थे देवदारु दो-चार खड़े।”
उत्प्रेक्षाओं के माधुर्य से तो कविवर प्रसाद जी का काव्य भरा पड़ा है। एक उदाहरण अवलोकनीय है –
“शरद इन्दिरा के मन्दिर की मानो कोई गैल रही।”
इस प्रकार अन्य अलंकारों की छटा भी कामायनी में अवलोकनीय है।
छन्द विधान- छन्द के कलेवर में भाषा की प्रौढ़ता सिमटी होती है। छन्द-विधान की दृष्टि से कामायनी स्वर-लय, ताल-तरन्नुम और संगीतात्मकता की कसौटी पर पूर्ण खरा उतरता है। उन्होंने नवीन, प्राचीन दोनों प्रकार के छन्दों का सुसाधित प्रयोग अपने काव्यों में किया है। मुक्त छन्दों के प्रयोग में भी वे सिद्ध हस्त थे। गीतिकाव्य की परम्परागत राग-रागनियों के बन्धन से मुक्त सर्जना में उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। कामायनी में तोरक तथा रोला आदि छन्दों का प्रयोग किया गया है। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि कामायनी में तीन प्रकार के छन्द प्राप्त होते हैं शास्त्रीय छन्द, मिश्रित छन्द और निर्मित छन्द। ध्यातव्य यह है कि वर्ण्य विषय के अनुरूप छन्द प्रयोग में उन्होंने अपने मौलिक कला-कौशल का अद्भुत परिचय दिया है।
भाषा-शैली- भाषा भाव की अभिव्यक्ति का एक साधन है। कामायनी की भाषा शैली, कोमल-कान्त, सरस-सुकुमार, लाक्षणिक एवं मसृण शब्दावली से संयत है। भावों की सहज अभिव्यक्ति के लिये उन्होंने वर्ण्य-विषयों के आत्म, सौन्दर्य तत्व से संयुक्त प्रतीकात्मक, अप्रस्तुत योजनाओं से पूरित, चित्रमय, नाद-सौन्दर्य वाली स्वाभाविक भाषा-शैली को अपनाया है। व्यंग्यार्थ से संयत उनकी भाषा-शैली का एक उदाहरण द्रष्टव्य है-
“पतझड़ सा झाड़ खड़े थे, सूखी सी फुलवारी में,
किसलय नवकुसुम बिछाकर, आये तुम इस क्यारी में।”
चित्रात्मकता और संगीतात्मकता प्रसाद की भाषा-शैली का अन्य विशिष्ट गुण है। उदाहरण अवलोकनीय है-
नील परिधान बीच सुकुमार……… मेघ वन बीच गुलाबी रंग।
प्रतीक-विधान के लिए कवि ने मुख्यतः प्रकृति का ही सहारा लिया है, जिससे वर्ण्य विषय में सघनता सजीवता आ गयी है। यथा-
“सिन्धु- सेज पर धरा वधू अब तनिक संकुचित बैठी-सी।
प्रलय-निशा की हलचल स्मृति में मान किए-सी ऐंठी सी॥”
बिम्ब-बिधान में भी कविवर प्रसाद पूर्ण सफल रहे हैं। दो सजीव साकार कल्पना और भाव बिम्बों के उदाहरण प्रस्तुत हैं-
“शशि मुख पर घूघंट डाले, अंचल में दीप छिपाये।
जीवन की गोधूलि में, कौतूहल से तुम आये ॥”
“घिर रहे थे घुंघराले बाल, अंस अवलम्बित मुख के पास।
नील धन-शावक से सुकुमार, सुधा भरने को विधु के पास॥”
कामायनी में लोकोत्तियों एवं मुहावरों का भी सफल प्रयोग हुआ है। यथा “हार बैठे जीवन का दाव” अर्थात् जीवन का दाँव हारना ।
प्रसाद की काव्य शैली सर्वदा नवीन है। वे अपनी शैली के स्वयं निर्माता हैं। काव्य-क्षेत्र में मुख्यतः सरल शैली, अलंकृत शैली, गुफित शैली एवं सांकेतिक शैली के दर्शन होते हैं। कामायनी में इनका पूर्ण उत्कर्ष प्राप्त होता है। सरल शैली के अन्तर्गत कामायनी की श्रद्धा कहती है –
“मैं हंसती हूँ रो लेती हूँ मैं पाती हूँ खो देती हूँ।
इससे ले उसको देती हूँ मैं दुख का सुख कर लेती हूँ॥”
शाश्वत सन्देश ‘कामायनी’ का शाश्वत सन्देश निम्न पंक्तियों में अभिव्यंजित हुआ हैं-
“शक्ति के विद्युतकण जो व्यस्त, विकल बिखरे हैं, हो निरुपाय।
समन्वय उसका करे समस्त, विजयिनी मानवता हो जाय॥”
अर्थात् ‘कामायनी’ मानवता की विजय की ही कहानी है और श्रद्धा (नारी) का हार्दिक सहयोग और उद्बोधन ही उस विषय की मूल शक्ति और प्रेरणा रही है।
इस प्रकार, कहा जा सकता है कि छायावादी काव्य-युग की समस्त अन्तः बाह्य विशेषतायें, धर्म और गुण उसमें से सहज ही खोजे जा सकते हैं, इसलिये कामायनी छायावादी काव्य-प्रवृत्ति की सर्वश्रेष्ठ कृति है। कामायनी जैसी उत्कृष्ट रचना प्रसाद जी की वह भव्य देन है, कि जिसे युगों-युगों तक विस्मृत कर पाना सम्भव नहीं है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कामायनी मानव की शाश्वत भावनाओं का शाश्वत गायन है और इसी कारण वह चिर अमर है।
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