जयशंकर प्रसाद की कविता की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
प्रसाद जी आधुनिक हिन्दी के ऐसे महाकवि थे जिनसे अपने युग की बँधी हुई काव्यधार को नये विषय, सम्पन्न कल्पना विधान और नई सौन्दर्य सृष्टि द्वारा एक दिशा में प्रवाहित कर युगा परिवर्तन किया। कवि के भावपक्ष एवं कलापक्ष के आधार पर उनकी काव्यगत विशेषताओं का मूल्यांकन इस प्रकार है-
भावपक्ष- प्रसाद जी के भावपक्ष के अन्तर्गत निम्न तथ्यों का निरूपण हुआ है-
देशभक्ति- प्रसाद जी सच्चे देशभक्त थे। उनकी रचनाओं में देशप्रेम का स्वर व्याप्त है। इतना अवश्य है कि अत्यधिक चिन्तन के कारण वे व्यावहारिक क्षेत्र में अपनी राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति कर सके, किन्तु राष्टीयता के सिद्धान्तों का उन्होंने यथाशक्ति, पालन किया देश के तत्कालीन विदेशी शासक हम अर्यों को बाहर का घोषित कर रहे थे। प्रसाद जी ने अपने ‘स्कन्दगुप्त’ नाटक से इस बात का खण्डन किया और कहा कि “हमारी जन्मभूमि थी यही कहीं से हम आये थे नहीं।” और अन्त में राष्ट्रप्रेम की भावना और भी बलवती होती जाती है। देश के लिये सर्वस्व समर्पण भी उनके लिए कुछ महत्त्व नहीं रखता।
सौन्दर्यपरक दृष्टि- प्रसाद जी मुख्यतः सौन्दर्यवादी कवि थे। उन्होंने सौन्दर्य का चित्रण विभिन्न रूपों किया है। इस सम्बन्ध में डॉ० गुलाबराय ने लिखा है कि ‘प्रसाद ने सौन्दर्य के भौतिक आकर्षण की अवहेलना ही नहीं की वह एक वैज्ञानिक सत्य है उसको स्वीकार करते हुए भी वे उनको नीचे की ओर नहीं ले गये हैं। उसका स्वर्गीय आनन्द चित्रण करते हुए उन्होंने उनकी केन्द्रीयता के भाव से ऐसा ग्रसित नहीं किया है कि उसकी प्रातः समीकरण की सी सुखद स्वच्छन्द, सूक्ष्मता और तरलता में बाधा पड़े।”
मानवतावादी दृष्टिकोण- प्रसाद जी की मानवतावादी दृष्टि द्विवेदी युग से भिन्न है। मैथिलीशरण गुप्त और हरिऔध जी की भाँति ईश्वर को मानव-मानकर और दलित-पीड़ित वर्ग के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करके भी प्रसाद जी की मानव कल्पना सन्तुष्ट न हो सकी थी। प्रसाद जी ने म में किसी अतिमानवीयता का आरोप न करके उन्हें सामान्य मानव के रूप में ही चित्रित किया है। सामान्य मानव की सभी विशेषताएँ मनु में हैं। मनु निराश बैठे हैं, श्रद्धा मनु को समझाती है कि वे निराश को तिलाञ्जलि देकर कर्मशील बनें। प्रसाद जी मानव को शक्तिशाली बनता हुआ देखना चाहते हैं किन्तु शक्ति का दुरुपयोग मानवता के लिए अभिशाप बन जाता है। वे शक्ति का उपयोग निर्माण कार्य के लिए चाहते हैं आतंक के लिए नहीं। उनके अन्दर ‘जियो और जीने दो’ की प्रवृत्ति रही है।
रहस्यवादी भावना- अदृश्य अथवा असीम के प्रति आत्मा का आकर्षण और उससे मिलने की आतुरता रहस्यवाद कहलाती है। व्यक्ति-चेतना परोक्ष शक्ति का आभास पाकर अथवा उसकी रहस्यमयता का अनुरूप कर आश्चर्य चकित होती है, उसे जानना चाहती है अथवा उसमें एकाकार हो जाना चाहती है। प्रसाद जी की आरम्भिक कृतियों में इसी प्रकार की रहस्यभावना है।
नियतिवाद का चित्रण- प्रसाद जी का विश्वास है कि संसार में जो प्राकृतिक परिवर्तन होता है उसका संचालन प्रकृति करती है। सम्पूर्ण जन-जीवन का नियमन भी वही करती है। नियति जीवन के विघटन को रोककर सन्तुलन स्थापित करती है।
प्राकृतिक चित्रण- छायावाद के समस्त कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रकृति अत्यधिक महत्त्व दिया है। प्रसाद जी को तो प्रकृति से इतना मोह है कि उन्होंने अपनी रचनाओं के नाम भी प्रकृति पर रखे हैं यथा लहर, झरना, कानन कुसुम आदि। प्रसाद जी ने प्रकृति के सौन्दयों को अपनी लेखनी के द्वारा सजीव एवं साकार कर दिया है। उनका कामायाबी महाकाव्य तो प्रकृति की अप्रतिम कृति हैं। उन्होंने प्रकृति के कोमन तथा भीषण दोनों ही रूपों का चित्रण किया है। ‘चन्द्रगुप्त’ नाटक में कार्नेलिया प्रकृति की कोमल भावनाओं के द्वारा भारत देश भारत देश को अपना समझकर उसकी प्रशंसा करती है-
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।
कलापक्ष- प्रसाद जी प्रतिभा के धनी एवं कुशल कलाकार थे। उनकी रचनाओं में कला के सभी तत्त्वों का सम्यक् निरूपण हुआ है। प्रो० फूलचन्द्र जी ने लिखा है- “प्रसाद जी की कला बड़ी ऐश्वर्यमयी, सरस मादक है। उनमें कहीं खिन्नता, दीनता और हीनता का भाव नहीं है।” प्रसाद जी की अभिव्यक्ति अत्यन्त समर्थ है। यहाँ हम कला पक्ष के समस्त तत्त्वों का पृथक-पृथक विवेचन करेंगे।
भाषा-शैली- प्रसाद जी की भाषा उनके गहन चिंतन एवं मनन के अनुकूल है। क्षेत्र में प्रवेश करते समय वे व्रजभाषा में रचना करते थे। उस समय की समस्त रचनाएँ उनके ‘चित्रधारा काव्य में संग्रहीत हैं। इसके बाद उन्होंने खड़ी बोली को अपनाया। बोली को भी उन्होंने माधुर्य गुण से युक्त कर दिया। भाषा पर उनका अटूट अधिकार था, इसलिये उनकी भाषा शुद्ध संस्कृतनिष्ठ, परिष्कृत एवं स्वाभाविक है। उसमें कहीं भी बोझिलता परिलक्षित नहीं होती है। उनकी प्रत्येक पंक्ति उनके व्यक्तित्व का प्रकाशन करने में सक्षम है। गागर में सागर भरने की प्रवृत्ति विशेष हैं। चित्रमयता प्रतीकात्मकता और लाक्षणिकता उनकी शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
प्रसाद जी ने शब्द और अर्थ दोनों में ही लाक्षणिक प्रयोग खूब जमकर किये हैं। इसमें उनकी काव्यकला निखर उठी है। लाक्षणिकता का चमत्कारपूर्ण अर्थ से है। इसके साथ ही उन्होंने नये-नये प्रतीकों की उद्भावनाएँ भी की हैं। उनके सभी पात्र एक ही भाषा बोलते हैं। उनकी भाषा भावों के सामने हाथ जोड़े खड़ी रहती है-
“शशि मुख पर घूँघट डालें, अँचल में दीप छिपाये,
जीवन की गोधूली में कौतूहल से तुम आये।”
छन्द विधान – प्रसाद जी ने अपनी कविता का प्रारम्भ ब्रजभाषा में किया था इसलिए उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में कवित्त और सवैये मिलते हैं। लेकिन बाद में रचनाओं में छन्दों में विविधता है। प्रसाद जी ने अपने ‘प्रेम पथिक’ में अतुकान्त छन्दों का प्रयोग किया है। ‘आँसू’ की रचना में ‘प्रसाद’ छन्द अपनाया है। छन्दों के विषय में प्रसाद जी का अभिमत है कि “प्रायः” संक्षिप्त और प्रभावमयी तथा चिरस्थायिनी जितनी पद्यमय रचना होती है उतनी गद्य रचना नहीं। इसी स्थान में हम संगीत की भी योजना कर सकते हैं। सद्यः प्रभावोत्पादक जैसा संगीतमय पद्य होता है, वैसी गद्य रचना।” अस्तु प्रसाद जी ने अपने छन्दों में स्वर संगीत को प्रधानता दी। कामावनी में अधिकांशतः वीर छन्द का प्रयोग हुआ है। डॉ० नगेन्द्र के शब्दों में “वीर भावों के साथ अकड़ कर चलते हैं, विकास भावनाओं के साथ इंगितपूर्ण नृत्य करते हैं और वेदना के साथ कराहते हैं।’ यथा-
“निकल रही थी मर्म वेदना, करुण विकल कहानी सी।”
इस प्रकार प्रसाद जी ने अपनी रचनाओं में तुकान्त, अतुकान्त, सानेट, कवि या सवैयों का प्रयोग किया है।
अलंकार योजना- अलंकारों के प्रयोग से प्रसाद जी की भाषा और भी अधिक सजी संवरी दिखाई पड़ती है। उनकी अलंकार योजना सर्वथा मौलिक है। लेकिन अलंकारों से भाषा और भाव बोझिल नहीं होने पाये हैं। उनके उपमा अलंकार का एक उदाहरण प्रस्तुत है-
उपमा- “नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखिला अंग,
खिला हो ज्यों बिजली का फूल, मेघ-वन-बीच गुलाबी रंग ।’
कल्पना की प्रधानता- कल्पना की प्रधानता छायावादी कवियों की प्रमुख विशेषता रही है। पुराणों, ब्राह्मण ग्रन्थों तथा उपनिषदों की घटनाओं का चित्रण करते हुए भी उन्होंने कल्पना को नहीं छोड़ा है। उदाहरणार्थ कामायनी की कथा ऐतिहासिक हैं। सब कुछ पुराणों से लिया गया है, लेकिन फिर भी कल्पना के योग से काव्य में सौन्दर्य जिज्ञासा का भाव चमत्कार दूना हो गया है।
- कामायनी के मनु ऐतिहासिक पुरुष हैं, पुराणों में वर्णित कथा के आधार पर इड़ा मनु की पत्नी हैं जबकि प्रसाद जी ने श्रद्धा को पत्नी माना है।
- ऐतिहासिक कथा के आधार पर हिमालय के शिखर पर इड़ा की भेंट मनु से होती है जबकि प्रसाद जी ने श्रद्धा की भेंट करायी है।
- पुराणों में यज्ञ के अवशिष्ट अन्न से श्रद्धा का पोषण होता है। प्रसाद जी के मनु नियम पालन के लिए यज्ञ करते हैं।
- पुराणों में यज्ञ, पुत्रोत्पत्ति के लिए बताया गया है, जबकि मनु को पुत्रोत्पत्ति से घृणा होती है। आदि।
इस प्रकार प्रसाद जी का भावपक्ष और कलापक्ष अत्यन्त समर्थ और प्रभावोत्पाद है भावपक्ष के अन्तर्गत भावना और कल्पना का सजीव अंकन हुआ है।
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