“दिनकर जी ने अपनी रचनाओं में सदैव मानवतावादी दृष्टिकोण सामने रखा है।” कथन की सत्यता का वर्णन कीजिए।
समकालीन कवियों में मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाने वाले दिनकर ही पहले व्यक्ति हैं। मानव का कल्याण ही उनके काव्य का लक्ष्य रहा है। उन्होंने सदैव समाज में गिरे हुए मनुष्य को ऊपर उठाकर उसमें सच्ची विचारधारायें भरने का प्रयास किया है। अतीत से वर्तमान तक दिनकर जी की दृष्टि मानवतावाद से प्रभावित है। गाँधी जैसे मानवतावाद के महान पुजारी उनकी काव्य प्रेरणा के स्रोत रहे हैं। जिस समय भारत परतन्त्र था तथा अन्धकार एवं निराशा के बवण्डर में भटक रहा था, उस समय गाँधी जी की नोआखाली यात्रा ने कवि को आशा की स्वर्ण किरण प्रदान की। इस सम्बन्ध में कवि की निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं-
“दुनियाँ भी देखे अन्धकार की कैसी भी फौज उमड़ती है,
ओ एक अकेली किरण ब्यूह में जाकर कैसे लड़ती है। “
द्विवेदी युगीन कवियों का मानवतावाद आदर्श की सीमाओं में जकड़ा हुआ था। छायावाद कवियों का मानवतावाद केवल मौखिक सहानुभूति के रूप में बना रहा। दिनकर जी की पाढ़ी ने उसे यथार्थ की भूमि पर देखा, समझा और उसके विकास के लिए प्रयत्न किया। मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण, उत्पीड़न, दमन निजी स्वार्थ तथा भेदभाव की भावनायें मानव जीवन को विघटित कर रही थीं। दिनकर जी ने इन्हीं सब प्रश्नों पर विचार किया और निष्कर्ष निकाला कि सच्चा मानव वही है, जो बुद्धि और हृदय को मिलाकर चलता है, जो मानव समुदाय से स्नेह का व्यवहार करता है, जो किसी भेदभाव को नहीं जानता है और दूसरों के कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहता है। ऐसे मनुष्य के द्वारा ही मानवता की स्थापना हो सकती है।
दूसरे देश का शासक वर्ग अपने स्वार्थों की सिद्धि के लिए समाज में भेदभाव तथा फूट उत्पन्न करता रहता है। वह मनुष्य समाज में कभी भी पारस्परिक स्नेह होने ही नहीं देता है। भय और आतंक के लिए समय-समय पर युद्ध करवा देता है और निरपराध जनता को उसका शिकार होना पड़ता है। दिनकर जी की यह मान्यता है कि जब वह शासक वर्ग समाप्त हो जायेगा तभी मनुष्यता को विकास का अवसर मिलेगा और तभी समाज में फैली हुई बर्बरता दूर हो सकती है।
मानवतावादी कवि सम्पूर्ण मानव का कल्याण चाहता है। दिनकर जी विलक्षण मानवतावादी कलाकार हैं। वे संसार में प्रेम एवं करुणा का साम्राज्य चाहते हैं तथा भाग्यवाद की अपेक्षा कर्मवाद में अधिक विश्वास करते हैं। उनका कुरुक्षेत्र महाकाव्य कर्मवाद का प्रधान पोषण है। दिनकर जी का विश्वास है कि मनुष्य ब्रह्मा से अपने भाग्य में लिखाकर कुछ भी नहीं आता है। संसार में उसने जो कुछ भी किया है वह कमों के द्वारा ही किया है। इसीलिए कवि ने भाग्यवाद की निन्दा करते लिए लिखा है कि-
“भाग्यवाद आवरण पाप का और शोषण का,
जिससे रखता दबा एक जन, भाग्य दूसरे जन का।”
मानवतावादी कवि शिवत्व की भावना से प्रेरित होकर बड़े से बड़ा निर्माण भी कर सकता है और अशिव की भावना से प्रेरित होकर बड़े से बड़ा विनाश भी कर सकता है। इसलिए दिनकर जी की रचनाओं में राग-विराग, आस्था तथा अनास्था के प्रति वैषम्य ही रहा है। उन्होंने अपने काव्य को प्रचार का साधन न बनाकर आनन्द की सृष्टि की है तभी तो उनके काव्य में बौद्धिकता कम तथा भावुकता अधिक मिलती है। उनकी रचनाओं में मानव की सभी समस्याओं का चित्रण भी हुआ है। समाज की विषमता के प्रति दिनकर जी में इतना आक्रोश है कि वे अपने आस-पास बसने वाले लोगों के भूख से छटपटाते बालकों तथा दूध की एक-एक बूँद के लिए तरसते हुए छोटे बच्चों से के लिए शासक, शोषण तथा पूंजीपतियों को ललकार भी देते हैं।
कवि के अनुसार, समाज में शोषण और शोषित आर्थिक वर्ग भेद शासक और शासित का राजनीतिक वर्गभेद, जाति-पाँति का भेदभाव भी मानवता को विच्छिन्न कर देता है। समाज के सुविधा प्राप्त व्यक्ति कुकृत्य, करने पर भी सम्मान के अधिकारी होते हैं तथा समाज में रहकर अनुचित लाभ उठाते हैं। दूसरी ओर प्रताड़ित जन समुदाय होता है, जिसके तनिक दोष पर भी समाज में रहना मुश्किल हो जाता है। उस जाति-पाँति, ऊँच-नीच का विचार किया जाता है। ‘रश्मिरथी’ में कर्ण के चरित्र के माध्यम से दिनकर जी ने ऊँच-नीच और जाति भेद की समस्या पर विचार किया है। अर्जुन को चुनौती देता हुआ कर्ण जब लड़ने के लिए युद्ध क्षेत्र में आ गया तब अर्जुन के गुरु कृपाचार्य ने कर्ण की वीरता को जानकर कहा कि अर्जुन से कोई छोटी जाति में जन्मा व्यक्ति युद्ध नहीं कर सकता है, क्योंकि कर्ण सूत का पुत्र था। गुरु के इस प्रकार अपमानजनक व्यवहार से कर्ण क्षुब्ध हो उठा और उच्च वर्ग की अनैतिकता का स्पष्टीकरण करता हुआ कहता है-
“जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखण्ड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदण्ड;
ऊपर शिर पर कनक छत्र, भीतर काले के काले,
शरमाते हैं नहीं जगत में, जाति पूछने वाले।
सूत पुत्र हूँ मैं, लेकिन पिता पार्थ के कौन ?
हिम्मत हो तो कहो, शर्म से रह जाओ मत मौन।”
इस प्रकार दिनकर का कर्ण जाति भेद का विरोधी है। तात्पर्य यह है कि कवि जाति पाँति ऊँच-नीच का उन्मूलन चाहता है और ममता का भाव लाना चाहता है। अतः दिनकर जी जन-साधारण के कवि हैं। मानव से विशेष अनुराग होने के कारण उनकी समस्त रचनाओं में मानव को स्थान मिला है।
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