नागरिकता से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन कीजिये।
नागरिकता से सम्बन्धित सिद्धान्त
नागरिकता से सम्बन्धित प्रमुख सिद्धान्त निम्न है-
1. यूनानी सिद्धान्त और नागरिकता की अवधारणा ( Greek Theory and concept of citizenship)- नागरिकता की अवधारणा के विकास के दौरान शुरू में ही प्लेटो और अरस्तू जैसे युनानी दार्शनिकों के विचार को रखा गया है। इस अवधारणा की विस्तृत व्याख्या अरस्तू के द्वारा अपनी पुस्तक ‘Politics’ में की गई है। Politics नामक अंग्रेजी शब्द Polis जैसे ग्रीक शब्द से बना है, जिसका अर्थ नगर-राज्य होता है। अरस्तू का मानना है कि यूनान के नगर राज्यों के राजनीतिक कार्यों में प्रत्यक्ष भागीदारी निभाने वाला ही नागरिक हो सकता है। अरस्तू ने कहा है कि “नागरिक वह व्यक्ति है जो नगर-राज्य के वैधानिक और न्यायिक पदों पर सुशोभित होने का अधिकार रखता है।”
अरस्तू के मतानुसार नागरिकता की अवधारणा का सम्बन्ध जन्म व कुलीनता से है। अरस्तू ने कहा है कि कुलीन के पुत्र ही नागरिक हो सकते हैं, क्योंकि उनमें ही राजनीतिक कार्यों के सम्पादन की क्षमता होती है। नागरिकता के यूनानी सिद्धान्त के अनुसार राजनीतिक कार्यों का सम्पादन, जो नागरिकता है, का सम्बन्ध विवेक और कला से है। यह विवेक और कला अनागरिकों के पास हो ही नहीं सकती, क्योंकि उनके माता-पिता कुलीन नहीं होते।
नागरिकता के सम्बन्ध में यूनानी सिद्धान्त, जो मुख्यतः अरस्तू का विचार है, कई आलोचनाएँ की गई हैं। ‘स्टोइक’ नामक यूनानी विचारधारा ने तो सभी मनुष्यों को ईश्वर की सन्तान मानते हुए समानता की बात कही है और सबको समान नागरिकता प्रदान करने पर जोर दिया है। इस विचारधारा के अनुसार नागरिकता सर्वव्यापी है, इसलिए इसको प्रदान करने में विभेद कैसा? यह तो सभी को प्राप्त होने चाहिए।
2. रोमन सिद्धान्त और नागरिकता की अवधारणा (Roman Theory and concept of citizenship ) — नागरिकता के सम्बन्ध में यूनानी दृष्टिकोण के विपरीत दृष्टिकोण का नाम रोमन सिद्धान्त है। रोमन सिद्धान्त के द्वारा नागरिकता को व्यापक और व्यावहारिक बनाया जाता है। रोम में तो निम्न वर्ग के विदेशियों को भी नागरिकता प्रदान की गयी। चौथी शताब्दी में रोमन सम्राट द्वारा नागरिकता की कुछ शर्तें निर्धारित कर दी गई। प्रथम – विजय राज्यों में रह रहे पुरुषों को रोमन साम्राज्य के द्वारा नागरिकता प्रदान की गयी। द्वितीय – रोमन साम्राज्य के द्वारा दोहरी नागरिकता की अवधारणा को भी स्वीकार किया गया। तृतीय – प्रत्येक नागरिक को कानूनी समानता का अधिकार प्रदान किया गया तथा नागरिकता के लिए वंश, परम्परा, कुलीनता, धन इत्यादि शर्तों को समाप्त किया गया।
रोमन साम्राज्य के द्वारा उठाये गये उपर्युक्त महत्वपूर्ण कदम से रोमन साम्राज्य में लहर दौड़ गई और तत्काल देश-प्रेम की प्रबल भावना दृष्टिगोचर होने लगी। परन्तु धीरे-धीरे साम्राज्य के विस्तार प्रजातन्त्र का ह्रास होने लगा और प्रबल राष्ट्रवादिता की जगह द्वेष एवं विषमताएँ घर करने लगीं।
3. उदारवादी सिद्धान्त और नागरिकता की अवधारणा (Liberal Theory and Concept of Citizenship)- उदारवाद चूँकि एक गतिशील अवधारणा का नाम है, इसलिए उसका दृष्टिकोण नागरिकता के सम्बन्ध में भला एक समान कैसे रह सकता है। ऐसे तो मध्यकाल में जब नागरिकता का लोप हो रहा था, व्यक्ति के अधिकारों का कोई नाम नहीं था तो उदारवाद ने ही इसे प्राप्त करने के लिए पोपशाही, निरंकुशतावाद और सामन्तशाही के विरुद्ध सर उठाने की हिम्मत दिखायी और दैवी सिद्धान्त पर आधारित मध्यकालीन व्यवस्था को बाराशायी होना पड़ा। परन्तु उदाहरवाद का आरम्भिक दृष्टिकोण हमेशा एक समान नहीं रहा, बल्कि बदले माहौल में इसने पूँजीवादी व्यवस्था को स्थापित करना शुरू कर दिया। सिद्धान्त रूप में इसके द्वारा तमाम लोगों को नागरिक बनाया जाता रहा, लेकिन नागरिकता सम्बन्धी अधिकार धनी लोगों के हित में राज्य को अपने नियन्त्रण में लेकर किया जाता रहा।
मार्क्सवादी क्रान्ति के बाद उदारवाद को अब लगा कि वह सरेआम अपने अमीर लोगों को हित नहीं पहुँचा सकता तो पुनः इसने गरीबों के हित में कुछ ज्यादा ही बोलना शुरु कर दिया। में अब उदारवाद के द्वारा यह कहा जाने लगा कि नागरिकता विकास का परिणाम है जिसके मार्फत गरीबों को तरजीह प्रदान की जाएगी। सार रूप में, उदारवाद के द्वारा नागरिकता को विकासशील अवधारणा बताया जाता है तथा नागरिकों के बीच हर तरह की पूर्ण समानता को असम्भव बताया जाता है। उदारवाद के द्वारा जिस नागरिक सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है, उसका मार्क्सवादी विचरधारा द्वारा जबर्दस्त विरोध किया गया है। स्पष्टतः मार्क्सवादी नागरिकता सम्बन्धी सिद्धान्तों की व्याख्या से उदारवादी नागरिकता सम्बन्धी सिद्धान्त की खुद व खुद आलोचना हो जाती है।
4. मार्क्सवादी सिद्धान्त और नागरिकता की अवधारणा (Marxist Theory And Concept of Citizenship) – समसायकि राजनीतिक सिद्धान्त में नागरिकता सम्बन्धी मार्क्सवादी धारणा काफी महत्वपूर्ण है। मार्क्सवाद का मानना है कि नागरिकता वर्ग संघर्ष का परिणाम है, अर्थात् वर्ग-संघर्ष में कोई वर्ग अपने विरोधी वर्ग का दमन करके जो अधिकार प्राप्त करता है, वही नागरिकता का आधार है। नागरिकता सम्बन्धी माक्सवादी सिद्धान्त का प्रमुख व्याख्याकार ऐथनी गिडेस है। इन्होंने अपनी दो महत्वपूर्ण रचनाओं A Contemporary Critique of Historical Materialism 3 Profit and Critiques of Social Theory’s के अन्तर्गत अपना विचार दिया है, जो नागरिकता सम्बन्धी उदारवादी सिद्धान्त के विपरीत है।
उदारवाद नागरिकता के सम्बन्ध में कहता है कि यह ऐतिहासिक विकास का परिणाम है। और यह विकास सरल रखा की तरह निरन्तर ही एक दिशा में हुआ है। उदारवाद के इस नागरिकता सम्बन्धी सिद्धान्त का मार्क्सवाद विरोध करता है। मार्क्सवादी चिन्तक ऐथनी ग्रिडेस का मानना है कि नागरिकता से जुड़े अधिक वर्ग-संघर्ष का परिणाम है, नागरिकता का विकास एक सीधी रेखा न होकर उतार-चढ़ाव के रूप में होता रहा है। मार्क्सवाद नागरिकता के सम्बन्ध में दी गई इस उदारवादी धारणा को नहीं मानता कि नागरिकता नागरिक, राजनीतिक और सामाजिक अधिकार का मिला-जुला रूप है। गिडेस ने तो दो तरह के नागरिक अधिकारों में अन्तर किया है—व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और कानून के समक्ष समानता। पूँजीवादी में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का बोलबाला होता है और सिद्धान्त गरिकों के लिए कानून अवधारणा को स्वीकार किया जाता है; लेकिन व्यवहार में ठीक इसके विपरीत होता है। मार्क्सवाद का मानना है कि कामगार वर्ग और मजदूर संघ आन्दोलनकारियों ने बुर्जुआ फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष किया। इसमें मजदूर संघ के निर्माण, उसकी गतिविधियों के विचार, सौदेबाजी और हड़ताल का अधिकार सम्मिलित है; जिन्होंने पूँजीवादी प्रभुत्व को चुनौती दी। अधिकार सम्बन्धी सिद्धान्त की व्याख्या करते-करते निडेंस समसामयिक उदारवादी नागरिकता सम्बन्धी इस बात को स्वीकार करने लगे कि नागरिक होने के नाते लोगों को सबसे पहले राजनीतिक अधिकार मिलना चाहिए।
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