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पंतजी की काव्य भाषा | Pantji Poetry Language in Hindi

पंतजी की काव्य भाषा | Pantji Poetry Language in Hindi
पंतजी की काव्य भाषा | Pantji Poetry Language in Hindi
पंतजी की काव्य भाषा का वर्णन कीजिये।

सुमित्रानंदन पंत जी कोमल भावना के कवि जाने जाते हैं। पंत जी ने अपने छायावादी काव्य संकलन ‘पल्लव’ में चालीस पृष्ठों की लम्बी भूमिका ‘प्रवेश शीर्षक से दी है। जिसमें उन्होंने काव्य भाषा के सम्बन्ध में टिप्पणियाँ दी है।

भावाभिव्यक्ति में प्रेषणीयता एवं सार्थकता तभी आ पाती है जब कवि शब्द चयन सादृश्य योजना के प्रति पूर्ण सजग रहा हो। पंत जी भाषा, छंद विधान, अप्रस्तुत योजना, नाद सौन्दर्य एवं अलंकार विधान के अभिनव प्रयोग अपनी रचनाओं में करते हैं।

पल्लव को उसकी भूमिका के कारण छायावाद का मनीफेस्टो कहा गया है। भाषा एवं भाव की एकता पर पंत जी विशेष बल देते हैं। अनुभूति को प्रेषणीय बनाने के लिए वे व्याकरण की लौह-शृंखलाओं को तोड़ते हुए विचलन प्रवृत्ति का भी परिचय देते हैं। पल्लव की भूमिका में कवि ने खड़ी बोली को हिन्दी काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने की जोरदार वकालत करते हुए लिखा- “हिन्दी ने अब तुतलाना छोड़ दिया, वह प्रिय को ‘प्रिय’ कहने लगी। उसका किशोर कण्ठ फूट गया, अस्फुट अंग कट-छट गए।” पल्लव की भाषा को भावानुकूल बनाने के लिए कवि ने पर्याप्त श्रम किया है। पल्लव की भूमिका में इसका संकेत निम्न पंक्तियों में प्राप्त होता है-

“जिस प्रकार बड़ी चुवाने से पहले उड़द की पीठी को मथकर हल्का तथा कोमल कर लेना पड़ता है, कविता के स्वरूप में भावों को सांचे में ढालने के पूर्व भाषा को भी हृदय के ताप में गलाकर कोमल, करुण, सरस एवं प्रांजल कर लेना पड़ता है।”

काव्य भाषा सामान्य भाषा से अलग होती है क्योंकि उसमें रागात्मकता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता एवं ध्वनि आदि तत्व रहते हैं। काव्य भाषा अपनी अर्थवत्ता के लिए नये-नये उपादानों का संधान करती है। इसीलिए वह सामान्य भाषा की तुलना में विचलित और अटपटी, स्वच्छन्द और लचीली, सुसंस्कृत और परिमार्जित, जीवंत और प्रभावी बहुव्यंजक और अनुभूति प्रेषक होती है। अपनी अभिव्यक्ति को धारदार बनाने के लिए पंत जी ने भी कहीं-कहीं व्याकरणीय नियमों का उल्लंघन कर नवीन प्रयोग किए हैं। कवि के लिए नितान्त आवश्यक तत्व है- प्रेषणीयता। इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए वह सामान्य भाषा से काव्य भाषा को विचलित कर देता है। शब्द के स्तर पर उपलब्ध वह अनेक विकल्पनों में से ऐसे विकल्प का चयन करता है जो उसके विचार तथा विषय को भली-भाँति व्यक्त करने में समर्थ होता है।

पंत की भाषा उनकी संवेदनाओं को चित्रोपम ढंग से अभिव्यक्ति करती है अर्थात् उसमें चित्रोपमता का गुण विद्यमान है। उदाहरणार्थ-

एक पल मेरे प्रिया के दृग पलक,
थे उठे ऊपर सहज नीचे गिरे
चपलता ने इसे विकम्पित पुलक से
दृढ़ किया मानों प्रणय सम्बन्ध था।

पंत की भाषा में सुकुमारता, कोमलता, नाद सौन्दर्य एवं माधुर्य भी विद्यमान है। उदाहरण के लिए नौका विहार कविता की निम्न पंक्तियाँ उद्धृत है-

मृदु मन्द-मन्द मन्थर-मन्थर
लघुतरणि हंसिनी सी सुन्दर
तिर रही खोल पालों के पर।

पंत की भाषा में नाद सौन्दर्य प्रतीकात्मकता एवं अलंकारिकता जैसे गुण भी उपलब्ध होते हैं। उनकी उपमायें भावव्यंजना को तीव्र करने में सहायक हुई हैं जैसे-

जब अचानक अनिल की छवि में पला
एक जलकण जलद शिशु-सा पलक पर
आ पड़ा सुकुमारता का गान-सा
चाह-सा सुधि-सा सगुन-सा स्वप्न- सा ॥

पंत जी अलंकारों को काव्य के वाह्य रूप की सजावट करने वाला साधन मात्र नहीं मानते। अनुसार, “अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भाव की अभव्यक्ति के विशेष उनके द्वार हैं। हे वाणी के हास, अश्रु, स्वप्न पुलक, हाव-भाव हैं।”

पंत की शब्द चयन की शक्ति अपूर्व है। युगवाणी युगान्त एवं ग्राम्या में उनकी भाषा का स्वरूप बदला हुआ है तो अन्तश्चेतनावादी एवं नवमानवतावादी कृतियों में भी भाषा का स्वरूप अलग है। पल्लव में संकलित परिवर्तन कविता में भाषा का संस्कृतिनिष्ठ रूप है। जैसे-

लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरन्तर ।
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर।

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Anjali Yadav

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