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‘पन्त’ और ‘प्रसाद’ के प्रकृति-चित्रण का तुलनात्मक वर्णन कीजिए।
प्रसाद और पन्त दोनों ही छायावादी युग के कीर्ति स्तम्भ माने जाते हैं। दोनों ही कवियों ने प्रकृति के सहज स्वाभाविक रूप सौन्दर्य को अपने काव्य में चित्रित किया हैं।
पन्त और प्रसाद में सम्यता
प्रकृति से प्रेरणा- दोनों कवियों ने अपने-अपने काव्य सृजन की प्रेरणा प्रकृति से ग्रहण की और दोनों ही प्रकृति के पल-पल परिवर्तित वेश को देखकर मुग्ध हुए हैं।
सहज सचेतन रूप- दोनों कवियों ने प्रकृति सौन्दर्य के सहज सचेतन रूप व्यापारों का अवलोकन किया, दोनों ने मानवीय चेतना और व्यापारों का आरोप भी प्रकृति पर किया है। पन्त की ‘सन्ध्या’ इसी प्रकार की है-
कहो, रूपसि तुम कौन
व्योम से उतर रही चुपचाप
सुनहला फैला केश कलाप
मधुर मन्थर मृदु मौन।
प्रसाद ने भी ‘कामायनी’ में ऐसा ही रूप उभारा है। ‘आशा’ सर्ग में प्रकृति के रूप सौन्दर्य को देखिए-
पगली! हाँ सम्हाल ले, कैसे छूट पड़ा तेरा अंचल,
देख बिखरती है मणिराजा, अरी उठा बेसुध चंचल।
आलम्बन- उद्दीपन रूप- दोनों ही कवियों ने प्रकृति के आलम्बन पर और उद्दीपन रूप की मधुर व्यंजना की है। प्रसाद की ये पंक्तियाँ उद्दीपन रूप की छटा बिखेर रहा है-
चुम्बन अंकित प्राची का पीला कपोल दिखलाता,
मैं कोरी आँख निरखता पथ प्रात समय सो जाता।
वहीं पन्त के लिए भी प्रकृति कम उद्दीपनकारी नहीं है-
धधकती है जलदों से ज्वाला तन गया नीलम व्योम प्रवाल,
आज सोने का सायंकाल जल रहा जतु गृह सा विकराल ॥
वातावरण निर्माण में- यह रूप भी दोनों ही कवियों के काव्य में समान है जिसके माध्यम से सभी प्रकार के वातवरण की सृष्टि की गयी है जिससे पाठकों को कवियों के सहज स्वाभाविक भावों को समझने में बड़ी सहायता मिली है। ‘कायमनी’ में काम निरूपण करने से पूर्व यौवन के आगमन की चर्चा करते हुए प्रकृति के माध्यम से सजीव वातावरण की सृष्टि की गयी है, जिसमें कामोदीप्त पूर्व वातावरण का अच्छा आभास मिलता है। पन्त ने ‘परिवर्तन’ कविता के आरम्भ में जगती में परिवर्तन की बड़ी सुन्दर एवं सजीव भूमिका प्रस्तुत की है, जिसमें परिवर्तन की बड़ी सुन्दर एवं सजीव भूमिका प्रस्तुत की है, जिसमें परिवर्तन का सहज एवं स्वाभाविक वातावरण निर्मित हो उठा है।
व्यापक प्रकृति का चित्रण- डॉ. द्वारिका प्रसार सक्सेना ने स्वीकार किया है। कि दोनों ही कवियों ने देशगत, कालगत और सांस्कृतिक विशेषताओं को अपनाते हुए अपने युग के वन, गिरि, नदी, निर्झर, पुष्प लता, तरु आदि का यथातत्य वर्णन किया है और प्रकृति चित्रण की संकुचित प्रणाली को अधिकाधिक व्यापक बनाने का प्रयत्न किया है।
पन्त और प्रसाद में वैषम्यता- इस साम्य के साथ इन कवियों के प्रकृति-चित्रण में कुछ विषमता भी पायी जाती है-
सुकुमार-भयानक रूप- जहाँ पन्त के काव्य में प्रकृति का सुकुमार रूप ही अधिक – मादक है, वहाँ प्रसाद ने प्रकृति के भयानक रूप की भी व्यंजना मधुर रूप के साथ-साथ की है –
उधर गरजती सिंध लहरियाँ कुटिल काल की जालों-सी ।
चली आ रही फेन उगलती फन फैलाये ब्यालों-सी ॥
गोचर-अगोचर रूप में पन्त के लिए प्रकृति अधिकांशतः नित्य संकेत करने वाली अगोचर एवं गोचर दोनों रूपों में है, जबकि प्रसाद के लिए प्रकृति सदैव भावानुकूल कार्य करने वाली सत्ता है, जिसके दर्शन अधिकांश गोचर रूप में ही होते हैं-
नव कोमल आलोक बिखरता हिम संसृति पर भर अनुराग,
सित सरोज पर क्रीड़ा करता जैसे मधुमय पिंग पराग।
संवेदनात्मक-भावाक्षिप्त रूप- जहाँ पन्त ने प्रकृति ने संवेदनात्मक रूपों की भरमार है वहीं प्रसाद का झुकाव प्रकृति के भावाक्षिप्त रूपों की ओर अधिक है। इसी से प्रसाद की प्रकृति घूँघट उठाकर मुस्कराती हैं-
घूँघट उठा देख मुस्क्याती किसे ठिठकती-सी आती।
तादात्म्य – पन्त प्रकृति की सुरभ्य गोद में जन्मे । अतः प्रकृति उनकी सहचरी रही जिसने उसे काव्य प्रेरणा दी। अतः उनका प्रकृति से तादात्म्य होना स्वाभाविक है और यह है भी पर प्रसाद के काव्य में प्रकृति के साथ कवि का वैसा तादात्म्य लक्षित नहीं होता, पर वह उनके भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम अवश्य बनी है।
उपसंहार- पत्न जी पहले प्रकृति के सुकुमार चितेरे रहे, उसके सामने उनको सारे सौन्दर्य के फीके लगे, पर ज्यों-ज्यों उनकी विचारधारा में परिवर्तन आता गया वैसे-ही-वैसे उनकी काव्य चेतना ‘मानव’ होने लगी। प्रसाद ने प्रकृति और मानव साहचर्य और प्रकृति को मानव के समान सुन्दर तथा उसे कल्याणी भी माना।
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