पारस्परिक विधि (अनुकरण तथा अभ्यास)
अनुकरण विधि- कला के शिक्षण में अनुकरण का अधिक महत्व होता है। यह विधि वैज्ञानिक तथा स्वाभाविक है। छात्र जो कुछ देखता है उसका अनुकरण वह अपनी कल्पनाओं और क्षमताओं के अनुरूप किया करता है। संगीत कला, अभिनय कला, नृत्य कला में तो इसका विशिष्ट स्थान होता है। छात्र किसी के हाव-भाव तथा प्रदर्शन को देखकर उसके अनुसार ही स्वयं करने का प्रयास करता है। वह राजा बनता है, सिपाही बनता है, जज बनता है, योद्धा बनता है। इस प्रकार अनेक अभिनय वह अनुकरण की प्रवृत्ति के वशीभूत होकर करता है। इसी प्रकार छात्र सृष्टा की कृति का अनुकरण कर अनकृति तैयार करता है। छात्र शिक्षक के प्रत्येक व्यवहार को आदर्श मानकर उसका अनुकरण करता है। शिक्षक की बहुत-सी आदतें छात्र में स्वतः ही आ जाती है। यदि शिक्षक में बुरी आदतें होती हैं तो छात्र भी उन आदतों से अछूता नहीं रहेगा। शिक्षक का लेख, उसकी चित्र तथा आकृति बनाने की क्षमताएँ, स्वच्छता और निर्णय की निष्पक्ष भावनाएँ छात्र को प्रभावित करती हैं। शिक्षक अनुकरण विधि के आधार पर निम्नलिखित प्रकार से छात्रों को कला-शिक्षण दे सकता है-
1. शिक्षक कलात्मक सिद्धान्तों तथा कला के तत्वों का ज्ञान देने के लिए छात्रों को अनुकरण की प्रवृत्ति का सहारा दे सकता है। वह स्पष्ट, स्वच्छ, चमकदार शुद्ध रेखाएँ खींचकर छात्रों में ऐसी रेखाएँ खींचने की आदत उत्पन्न कर सकता है। उनमें रंगों को स्वच्छतापूर्वक प्रयोग करने की आदत शिक्षक अपने आदर्श व्यवहार से उत्पन्न कर सकता है।
2. शिक्षक अपने कलात्मक लेख तथा लेखन शैली द्वारा छात्र में स्वच्छ लेख और कलात्मक लेखन की शैली उत्पन्न कर सकता है। कला में लेखन की शैली का महत्वपूर्ण स्थान है।
3. रूपकारी (आलेखन) तथा दृश्य चित्रण, आदि के लिए प्रस्तुत नमूना छात्रों द्वारा देखकर बनाने का अभ्यास कराया जा सकता है। छात्र के सामने जो भी कृति प्रस्तुत की जाए, वह इस उद्देश्य से की जाए कि छात्र-
(i) उसे अपनी क्षमतानुसार व्यवहार में ला सके, (ii) उसे अपनी रुचि के अनुसार स्वीकार करे, (iii) उसे अपने अनुभव का अंग समझे, (iv) उसे सरल बात माने, (v) उसे अपने सीमित साधनों द्वारा पूरा कर सके, (vi) उसे अपनी समझ के अनुसार बना सके, (vii) उसे अपने अनुकरण में आत्म-प्रदर्शन तथा आत्माभिव्यक्ति का अवसर मिल सके।
छात्र शिक्षक की क्रियाओं का अनुकरण स्वभावतः करता है। शिक्षक छात्रों से नर्सरी विधि से उत्तम कलाकृतियाँ बनवा सकता है। रेत की क्यारियों में मिट्टी के रंगों की सहायता से कौड़ियों, बीजों, गोलियों एवं रंगीन कंकड़ों की सहायता से विविध चित्रों का निर्माण कर सकता है। छात्र भी वैसा ही अनुकरण करते हुए चित्रांकन करना सीख सकते हैं। स्प्रे द्वारा स्टेन्सिल काटकर रंगना, अबरी बनाना, कागज मोड़ना, काटना तथा चिपकाना, आदि क्रियाओं द्वारा कला का ज्ञान छात्रों में अनुकरण की सहायता से कराया जा सकता है। यह विधि प्राथमिक तथा उच्च प्राथमिक कक्षाओं के लिए उपयुक्त है।
अभ्यासात्मक विधि- कला-शिक्षण में अभ्यास का महत्वपूर्ण योगदान है। छात्र अनुकरण करते समय अभ्यास करता है।
कला में छात्र अभ्यास करते-करते अधिक निपुण हो सकता है। अभ्यासात्मक प्रवृत्ति को यथार्थवादी प्रवृत्ति का हो एक रूप कहा जा सकता है। यथार्थवाद से तात्पर्य दर्पण के तुल्य चित्रण जैसी वस्तु आँखों से देखी जाए, उसका ठीक वैसा ही चित्र बनाना यथार्थवाद है। यथार्थवाद का प्रचलन यूरोप में भारत से अधिक मिलता है। ब्रिटिश सरकार ने भारत में कला-कौशल की उन्नति की दृष्टि से चित्रकला के अनेक विद्यालय खोले। भारतीय जनता ने उनका खूब स्वागत किया, भारतीय कलाओं का ह्रास हुआ तथा साहित्य, दर्शन एवं कला में यथार्थवाद पनपने लगा, हर क्षेत्र में यथार्थवाद अपनाया जाने लगा। भारतीय कला का अधिक पतन हुआ, उसे पुनः जीवित करने के लिए चित्रकार आगे आए। राजा रवि वर्मा सबसे पहले यथार्थवादी चित्रकार हुए। इनके समय में यथार्थवादी चित्रों का प्रसार सबसे अधिक हुआ। कुछ समय में ही पूरे भारत में यथार्थवादी कला व्याप्त हो गयी। उन्नीसवीं शताब्दी में इंग्लैण्ड के यथार्थवादी दो चित्रकार कान्सटेबुल तथा टर्नर हुए हैं। इन्होंने अधिकांशतः प्राकृतिक दृश्य बनाए हैं। जितनी सफलता उन्हें मिली, उतनी सफलता अन्य चित्रकारों को नहीं मिली है। कान्सटेबुल के चित्रों में प्रकृति सजीव है। भारतीय चित्रकला पर पाश्चात्य कला का प्रभाव सबसे पहले इस यथार्थवादी कला से ही प्रारम्भ होता है। मुम्बई (बम्बई), कलकत्ता, चेन्नई (मद्रास) के चित्रकारों पर यथार्थवादी कला का प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। शनैः शनैः यह प्रवृत्ति सारे देश में व्याप्त हो गयी। वास्तविकता तो यह है कि यथार्थवाद चित्रकला की शिक्षा का आधार बन गया है। शायद इसीलिए यथार्थवादी चित्रण को सबसे उत्तम चित्रण समझा जाता है।
अभ्यासात्मक प्रवृत्ति में यथार्थवाद से निम्नलिखित अपेक्षाएँ की जाती हैं, जिनको वह योग्यतानुसार पूर्ण करता है-
(1) सरलता पायी जाती है।
(2) दूर से देखने में सुन्दर, परन्तु पास से रंगों का ढेर प्रतीत होता है। धुँधलेपन की शैली प्रयोग की जाती है। अब इस प्रवृत्ति में सुधार हो रहा है। दूर एवं निकट की वस्तुओं को दर्शाने की शैली समझायी जाए। वस्तु-चित्रण, प्रकृति-चित्रण तथा मॉडल बनवाने की क्रियाओं से यथार्थवादी अध्ययन कराया जा सकता है।
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