बिहारी के काव्य के भाव पक्ष एवं कला पक्ष की सारगर्भित विवेचना कीजिए।
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भावपक्ष
प्रस्तावना – भावपक्ष का काव्य के आन्तरिक स्वरूप से सम्बन्ध होता है। इसमें रस, मार्मिक स्थल, प्रकृति-चित्रण आदि तत्वों का अध्ययन किया जाता है।
( 2 ) भक्ति-भावना- बिहारी रीतिकालीन कवि थे। रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार रस प्रधान कविताओं की ही सर्जना की रीतिकाल की यह भी परम्परा रही कि शृंगार रस के साथ-साथ भक्तिपूर्ण रचनाओं में भी कवियों का मन रमा है। केशव एवं देव की भाँति बिहारी के काव्य में भी भक्ति भावना के दर्शन होते हैं, किन्तु सूर और तुलसी की सी तन्मयता उनमें नहीं मिलती।
( 3 ) प्रकृति-चित्रण – शृंगार वर्णन करने में कवि को प्रकृति का सहारा लेना आवश्यक माना जाता है। शृंगारी कवि प्रकृति को शृंगार के संयोग तथा वियोग पक्ष का चित्रण करने के लिए उद्दीपन के रूप में ग्रहण करते हैं। प्रकृति मानव के जीवन को प्रत्येक क्षण प्रभावित करती रहती है। बिहारी सतसई में भी प्रकृति-चित्रण के अनेक रूप उद्दीपन के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं। ऋतु वर्णन वाले दोहों में बिहारी ने प्रकृति को उद्दीपन रूप में उपस्थित किया है।
( 4 ) रस-योजना- हिन्दी साहित्य में शृंगार वर्णन हृदय को स्पर्श करने वाला है। शृंगार रस का बिहारी सतसई में प्रचुर मात्रा में वर्णन किया गया है। बिहारी ने अपने दोहों का वर्गीकरण नहीं किया है, जहाँ उनकी समझ में जो भाव अथवा विचार आये हैं उनको उन्होंने दोहों के रूप में प्रस्तुत कर दिया है। उनके दोहों हम निम्नलिखित चार भागों में विभाजित कर सकते हैं-
(i) वैराग्य तथा भक्ति परक, (ii) भक्ति-भावना तथा दीन-भावना परक, (iii) संयोग शृंगार परक, एवं (iv) विप्रलम्भ शृंगार परक ।
( 5 ) कल्पना की समाहार शक्ति- बिहारी अपने युग के सर्वश्रेष्ठ मुक्तककार हैं। मुक्तककार में दो गुणों का होना आवयक है- एक तो कल्पना की समाहार शक्ति अथवा अनुभति की तीव्रता और दूसरे भाषा की समास शक्ति-बड़े-से-बड़े भावों की कम-से-कम शब्दों में अभिव्यक्ति बिहारी में उक्त दोनों ही गुण विद्यमान हैं। दोहे जैसे छोटे छन्द में बड़े बड़े भावों का विधान बिहारी ही कर सकते थे। अंग्रेजी कवि कालिराज ने कवि की परिभाषा देते हुए लिखा है- श्ठमेज वतके पद जीम इमेज वतकमतर अर्थात् कविता के लिए कवि का भाषा पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए। भाव कविता की आत्मा होते हैं तथा भाषा उसका शरीर। अतः भाव और भाषा का परस्परिक सम्बन्ध है। अतः कविता वही मानी जा सकती है, जिसमें भाव और भाषा का सुन्दर समन्वय हो। बिहारी की कविता में यह विशेषता सर्वत्र मिलती है।
कला-पक्ष-
कला-पक्ष का सम्बन्ध काव्य के अभिव्यक्ति पक्ष से होता है। इसके अन्तर्गत भाषा, छन्द, अलंकार, शैली आदि तत्वों का अध्ययन किया जाता है।
( 1 ) वाग्वैदग्ध्य और उक्ति वैचित्रय- काव्य में आवश्यक गुण उत्पन्न करने के लिए यह आवश्यक है कि कवि की प्रतिभा वाग्वैदग्ध्य और उक्ति-वैचित्र्य से पूर्ण हो । बिहारी में ये दोनों ही गुण समान रूप से पाये जाते हैं। मुक्तक रचना के कारण बिहारी ने किसी दोहे में किसी मुद्रा विशेष का वर्णन किया है, कहीं पर आलंकारिक सौन्दर्य का वर्णन कराया है, कहीं किसी भाव विशेष की व्यंजना कराई है और कहीं किसी तथ्य विशेष का निरूपण किया है। वाग्विदग्धता के कारण कवि ने अपने इच्छित अर्थ की पर्ति पूर्ण सफलता के साथ की है। प्रत्येक शब्द, प्रत्येक पद अपने सुनिश्चित स्थान पर उपस्थित होकर भाव की गरिमा को सम्बन्धित कर रहा है। बिहारी के वाग्वैदग्ध्य का रूप निम्नांकित दोहे में देखिए-
“मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ ।
जा तन की झाँई परै, स्यामु हरित द्युति होइ॥”
(2) ऊहात्क चमत्कार- उक्ति वैचित्र्य को लेकर प्रायः ऊहात्मक चमत्कार विधान कवि के पौरूष का प्रतीक भले ही हो, पर इसके द्वारा उसकी सहृदयता एवं सूक्ष्म भाव ग्राहिता के लिए प्रमाण-पत्र नहीं दिया जा सकता। सिद्ध कवि उक्ति वैचित्र्य द्वारा भाव की संप्रेषणीयता को संवर्धित कर उसे इस प्रकार हृदयंगम कराते हैं कि पाठक या श्रोता कवि प्रतिभा पर मुग्ध होकर रह जाता है। नीचे लिखे पद में देखिये-
“कीनैं हूँ कोटिक जनत, अब कहिहूँ काढे कौन।
भो मन मोहन-रूप मिलि, पानी में कौ लौनु॥”
( 3 ) भाषा-शैली- किसी भी कार्य की सफलता का आधार न केवल भाव-समृद्धि है और न भाषा-समृद्धि वरन् इन दोनों का समन्वय है। जो कवि इस समन्वय का निर्वाह कर लेता है, वह महाकवि के उच्च पद पर आसीन होता है। उसका काव्य अनश्वर और चिरन्तन होता है।” बिहारी की भाषा चलती हुई साहित्यिक ब्रज-भाषा है जिसमें बीच-बीच में पूर्वी प्रयोग भी पाये जाते हैं। बिहारी ने कहीं-कहीं शब्दों की अवधी प्रकृति को भी स्वीकार किया है। यथा- “है” का अवधी रूप “आहि” प्रयुक्त हुआ है-
“रही कराहि अति, अब मुँह आह न आहि।”
बिहारी के जीवन का कुछ भाग बुन्देलखण्ड में व्यतीत हुआ था अतएव इनकी रचनाओं में बुन्देलखण्डी प्रयोग ‘स्योंलने’ ‘चाला’ ‘गीधे’ आदि ज्यों-के-त्यों पाये जाते हैं। भाषा में ‘सजावट’ एवं ‘कसावट’ लाने के लिए छोटी-छोटी सामाजिक पदावलियों का प्रयोग भी बिहारी ने किया है। बिहारी की भाषा में भावों को व्यक्त करने की अपूर्व क्षमता है। उनकी पदावली इतनी संगठित एवं व्यंजक है कि भावों की अभिव्यक्ति में किसी प्रकार की भी न्यूनता नहीं प्रतीत होती है। यथा-स्थान मुहावरों के प्रयोग में अभिव्यक्तियों को लाक्षणिकता के गुणों से युक्त कर दिया है। यथा-
“जब जब सुधि कीजिए, तब तक सब सुधि जाहिं।
आँखिनु आँखि लगी रहैं, आँखें लागति नाहिं ॥”
अपनी रचना में अपनी भावाभिव्यक्ति को पूर्णतया सफल एवं प्रभावशालिनी बनाने के लिए बिहारी ने भिन्न-भिन्न शैलियों का प्रयोग किया है। इनमें प्रमुख हैं- समास शैली, ध्वनि-प्रधान शैली, वक्रोक्ति-प्रधान शैली और चमत्कारपूर्ण शैली ।
( 4 ) छन्द विधान- “बिहारी ने अपनी काव्य रचना दोहा और सोरठा इन दो छन्दों में ही की है। सोरठा छन्दों की संख्या नगण्य है और फिर दोहा तथा सोरठा छन्दों में कोई मूलभूत अन्तर भी नहीं है, केवल चरणों की अदला-बदली है। बिहारी की रचना दोहों में है। दोहा यद्यपि बहुत ही छोटा छन्द है और प्रत्यक्षतः बड़ा सरल प्रतीत होता है पर भाव की व्याप्ति की दृष्टि से दोहे का रचना-विधान बड़ा ही जटिल और कौशल-सापेक्ष होता है। प्रथम तथा तृतीय चरणों में 13 और द्वितीय तथा चतुर्थ चरणों में 11 मात्राओं के हिसाब के चारों चरणों में कुल 48 मात्रायें होती हैं। एक दोहे में एक ही भाव की व्याप्ति होती है। इस प्रकार के लघुकाय छन्द में भाव को बाँधकर चलाना बड़े ही सिद्धहस्त कवि का काम है। इसमें भाषा की दृष्टि से समास पद्धति का अनुसरण करना पड़ता है। संक्षिप्त पदावली में अधिक से-अधिक भाव भरकर बिहारी ने काव्य क्षेत्र में बड़ा ही प्रशंसनीय स्थान प्राप्त किया है। बिहारी को मानव प्रकृति एवं बाह्य प्रकृति दोनों का ही सम्यक् ज्ञान था। यही कारण है कि इन्होंने इन दोनों के ऐसे सुन्दर, संश्लिष्ट चित्रण उपस्थित किये हैं जो भाव की व्यापकता एवं मार्मिकता दोनों ही दृष्टियों से बड़े महत्वपूर्ण हैं।
(5) अलंकार- बिहारी की कविता में रस और अलंकार दोनों की ही संगति है। बिहारी अतिशयवादी कवि नहीं हैं। उन्होंने अलग से किसी अलंकार ग्रन्थ की रचना नहीं की। भावों की अभिव्यक्ति में उनको उतनी सफलता मिली है, जितनी अलंकार योजना में। किन्तु अलंकार-विधान के कारण उनका वर्णन सजीव हो उठा है। कहीं-कहीं उनकी कविता-कामिनी अलंकारों के बोझ से इतनी दब जाती है कि वह अपने को सम्भाल नहीं पाती। उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है-
‘भूषन भारू सँभारि हैं, कैसे तन सुकुमार
सूधे पाँव न धर-परत, सोभा ही के भार॥”
रीतिकाल के कवियों ने अनेक लक्षण ग्रन्थ लिखे। उनमें शब्दालंकार को ही अधिक महत्व दिया गया है। किन्तु बिहारी ने काव्य के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले अर्थालंकारों का भी पर्याप्त प्रयोग किया है। इस प्रकार वे शब्दालंकारों एवं अर्थालंकारों के बीच सन्तुलतन बनाये रखते हैं। यह सन्तुलन उनके काव्य को संगीत जैसी मधुरता एवं सरलता प्रदान करता है। उनके अलंकारों ने उनके प्रत्येक दोहे को चित्रोपमता प्रदान की है।
उपसंहार- सारांश यह है कि बिहारी सतसई में लगभग सभी अलंकारों के उदाहरण मिल जाएंगे यह उसके शास्त्राध्ययन, अभ्यास तथा परिश्रम का ही परिणाम है कि सतसई में लक्षण ग्रन्थों की भाँति सभी अलंकारों का प्रयोग मिल जाता है। इस प्रकार बिहारी रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं।
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