“बिहारी के काव्य में अलंकारिक चमत्कार का संयोजन है।” सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
अलंकार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है- ‘अल’ और ‘कार’ । ‘अल’ का अर्थ है- भूषण और ‘कार’ का अर्थ है- करने वाला। इस प्रकार ‘अलंकार’ का अर्थ हुआ वह साधन जो किसी वस्तु को अलंकृत करे या जिससे वस्तु अलंकृत की जाय। डॉ. भाटी का कथन है कि यदि अलंकारों का बलात् प्रयोग न होकर स्वाभाविक प्रयोग हो तो वे काव्य के काव्यत्व को उसी प्रकार भावोत्कर्ष पूर्ण बना देते हैं, जिस प्रकार हार तथा आंगद आभूषण वास्तविक सौन्दर्य के लावण्य में वृद्धि कर देते हैं।
बिहारी का अलंकार विधान अत्यन्त समृद्ध एवं विशाल है। कदाचित ही कोई ऐसा अलंकार शेष रहा हो जिसका भेदोपभेद-सहित बिहारी ने प्रयोग न किया हो। बिहारी ने जितने अलंकारों का प्रयोग किया है, उन्हें तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- शब्दालंकार, अर्थालंकार और मिश्रितालंकार।
1. शब्दालंकार- बिहारी ने केवल चमत्कार के लिए शब्दालंकारों का बहुत ही कम प्रयोग किया है। इनके द्वारा प्रमुख शब्दालंकार हैं- अनुप्रास, यमक, श्लेष और वक्रोक्ति।
अनुप्रास-
‘रस’ सिंगार मंजनु किए, कंजनु भंजन दैन।
अंजन रंजनहू बिना, खंजनु गंजनु नैन ॥ “
यहाँ पर कवि की ध्वन्यात्मकता की संयोजना कवि की सफलता की सूचक है।
यमक-
“कनक-कनक तैं सौ गुनी, मादकता अधिकाइ ।
वा खायें बौराइ नर, इहिंपायें बौराई।”
यहाँ पर कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का अर्थ है- सोना।
श्लेष-
“चिरजीवौ जोरी, जुरे क्यों न सनेह गम्भीर।
को घटि, ए वृषभानुजा, वे हलधर के वीर॥”
यहाँ पर ‘वृषभानुजा’ के तीन अर्थ हैं- (1) वृषभानु की पुत्री, (2) वृष राशि में स्थित सूर्य की पुत्री, (3) बैल की बहित अर्थात् गाय। इसको खण्ड श्लेष भी कह सकते हैं।
वक्रोक्ति-
“कर समेट कच भुज उलटि, खएँ सीस-पटु टारि।
काको मनु बाँधे न यह, जूरा बाँधन हारि॥”
डॉ. भाटी ने लिखा है कि ‘काको मनु बाँधे न यह’ का अर्थ- यह किसका मन नहीं बाँधती ? काकु ध्वनि से इसका अर्थ है- यह सबके मन को बन्दी बना लेती है। यही कवि का इष्टार्थ है। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- “रीतिकाल के कवियों में शब्दालंकार के प्रयोग बहुत हैं, पर अधिकतर वे काव्य के घटिया प्रभाव को उत्पन्न करके रह जाते हैं, अर्थ की बाह्य सत्ता से उनका जितना सम्बन्ध होता है उतना रमणीयता उत्पन्न करने के लिए। पर्याप्त नहीं होता। बिहारी ने अर्थ की रमणीयता का ध्यान बराबर रखा है इसीलिए उनके शब्दालंकार रसोद्रेक में सहायक होकर आते हैं।”
2. अर्थालंकार- अर्थालंकार की न तो संख्या ही निश्चित है और न वर्गीकरण ही। बिहारी की विशाल अलंकार-योजना का मूल्यांकन करने के लिए-औपम्यमूलक, वैषम्यमूलक, श्रृंखलामूलक, न्यायमूलक, गूढार्थ प्रतीतिमूलक, व्यंग्यमूलक और रसाभिव्यंजनामूलक।
- औपम्यमूलक में उपमा, रूपक, अपन्हुति, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, दीपक एवं व्यतिरेक आदि अलंकारों का अध्ययन करते हैं।
- वैषम्यमूलक में विरोधाभास, विभावना, विशेषोक्ति, असंगति एवं विषम आदि कालाकारों का निरूपण करते हैं।
- श्रृंखलामूलक में एकावली एवं माला दीपक का अध्ययन है।
- न्यायमूलक में काव्यलिंग यथासांख्य, पर्याय, परिवृत्ति एवं मीलित अलंकारों का अवलोकन है।
- गूढ़ार्थ प्रतीति मूलक में न्यायोक्ति एवं सूक्ष्म दर्शनीय है।
- व्यंग्यमूलक में पर्यायोक्ति, आक्षेप, अप्रस्तुत प्रशंसा आदि प्रमुख है।
- ‘रसाभिव्यंजनामूलक में रसवत्, ओजस्वी, प्रेयस् और समाहित सम्मिलित हैं।
3. मिश्रितालंकार- डॉ. भाटी ने लिखा है कि मिश्रितालंकार में एक से अधिक अलंकारों की एक ही साथ स्थिति होती है अर्थात् जहाँ अनेक अलंकार मिश्रित रूप में एकत्र हों, वहाँ मिश्रितालंकार होता है। अलंकारों के मिश्रण की तीन स्थितियाँ होती हैं-
- शब्दालंकार का शब्दालंकार के साथ मिश्रण।
- शब्दालंकार का अर्थालंकार के साथ मिश्रण।
- अर्थालंकार का अर्थालंकार के साथ मिश्रण।
अन्त में कहा जा सकता है कि बिहारी का अलंकार-विधान अत्यन्त समृद्ध एवं सफल है। इन्होंने अलंकारों का प्रयोग भावोत्कर्ष के लिये किया है और इसमें इन्हें पूर्ण सफलता भी मिली है। एकाध स्थलों पर जो केवल चमत्कारमूलक प्रयोग मिलते हैं, वह युगीन प्रभाव और परिस्थितियों की विवशता है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के शब्दों में कह सकते हैं “बिहारी अलंकार शास्त्र में प्रवीण थे। कहीं-कहीं अलंकार का ऐसा चमत्कार है, जो लक्षण ग्रन्थ लिखने वालों को नसीब नहीं। ऐसी निपुणता शास्त्र के अनुशीलन अभ्यास और सामर्थ्य का पता देती है। अलंकारों की सतसई बिहारी को रीतिकाल का प्रतिनिधि सिद्ध करती है।” उपर्युक्त विवेचन बिहारी के काव्य के आलंकारिक चमत्कार का दिग्दर्शन है।
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