बौद्ध शिक्षण विधियों का उल्लेख कीजिए ।
बौद्ध काल में मौखिक शिक्षा का प्रचलन था परन्तु इस समय अनेक शिक्षण विधियाँ भी प्रचलित थीं। जनशिक्षा का प्रचार अधिकांशतः मौखिक प्रणाली होता था। बौद्ध काल में प्रचलित शिक्षा प्रमुख विधियों को निम्नवत् है-
(1) व्याख्या प्रणाली- गुरु निश्चित भाषण देता था और दर्शन तथा धर्म सम्बन्धी अनेक गूढ़ तत्वों की सरल व्याख्या प्रस्तुत करता था। छात्रों को पुस्तक ज्ञान के साथ-साथ इस व्याख्या को भी भली प्रकार समझना और याद करना आवश्यक था। समय-समय पर गुरु शिष्यों से गूढ़ तत्वों की व्याख्या करवाता था। इस प्रकार की प्रणाली से छात्रों के मनन और चिन्तन की शक्ति को विकसित किया जाता था। व्याख्या प्रणाली में विषयों का तुलनात्मक अध्ययन भी होता था। इसके लिए अनेक विषयों का ज्ञान आवश्यक था। तर्क और विवेक बुद्धि का भी प्रयोग किया जाता था।
(2) सम्मेलन विधि- समय-समय पर विभिन्न विषयों के पंडितों और विशेषज्ञों को शिक्षा केन्द्रों में आमन्त्रित किया जाता था। वे भिन्न-भिन्न विषयों पर भाषाण देते थे। भिक्षुओं के सम्मेलन भी होते थे। इस प्रकार की विधि से शिष्य की मानसिक योग्यता की वृद्धि होती थी, विभिन्न विषयों को समझने की क्षमता आती थी और उसकी ज्ञान परिधि का विकास होता था। ये सम्मेलन पूर्णिमा और प्रतिपदा के दिन होते थे। इन सम्मेलनों में संघ के प्रत्येक भिक्षुक की उपस्थिति अनिवार्य थी।
(3) प्रवचन विधि – गुरु एक-एक विद्यार्थी को अलग-अलग पाठ देता था और उसका पाठ सुनता था और अशुद्धियों का सुधार करता था। आचार्य और शिष्य मठों में साथ-साथ रहते थे, अत: आचार्य शिष्यों को नियमित रूप से पाठ देता था, जिन्हें वे कंठस्थ करते थे। व्याकरण के धात और रूपों को कंठस्थ कराया जाता था। पुराने पाठ को पूरी तरह कंठस्थ कर लेने पर ही गुरु आगे का पाठ देता था। कभी-कभी विद्यार्थी की योग्यता और स्मरण शक्ति जाँचने के लिए शिक्षक पुराने पाठ में से प्रश्न भी करते थे। इस विधि में भाषण, श्रवण और कंठस्थीकरण आदि क्रियाओं का प्रयोग होता था। शुद्ध उच्चारण आवश्यक था।
(4) कक्षानायकीय प्रणाली- बौद्ध शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत यह व्यवस्था थी कि पुराने छात्र अपनी अपेक्षा नये छात्रों को शिक्षा देते थे। इस प्रकार सभी छात्रों को अपने अध्ययन काल में ही अध्यापन सम्बन्धी ज्ञान का भी अनुभव हो जाता था।
(5) प्रश्नोत्तर प्रणाली- कभी-कभी गुरु वार्तालाप और प्रश्नोत्तर शैली में भी शिक्षा प्रदान करता था। प्रवचन देने के बाद गुरु विद्यार्थियों को अपनी शंका निवारण के लिए प्रश्न करने की आज्ञा देता था, जिनका उत्तर गुरु स्वयं देता था। गुरु स्वयं भी विभिन्न विषयों पर अपने शिष्यों से प्रश्न करता था और उनके स्वाध्याय की परीक्षा लेता था। कभी-कभी इस प्रणाली में गुरु शिष्य की जिज्ञासा जागृत करके गहन अध्ययन के लिए प्रेरणा देता था। मार्गदर्शन वह स्वयं ही करता था।
(6) देशाटन एवं प्रकृति- निरीक्षण शिक्षा की एक प्रमुख प्रणाली देशाटन भी थी। आचार्य देश भ्रमण द्वारा जन-साधारण में शिक्षा का प्रचार करते थे। विद्यार्थी भी शिक्षा समाप्त करने के। उपरान्त व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए देशाटन करते थे। इससे ज्ञान वृद्धि होती थी और शिक्षा का व्यावहारिक एवं ठोस रूप भी उन्हें देखने को मिलता था।
(7) वाद-विवाद और शास्त्रार्थ प्रणाली- शास्त्रार्थ द्वारा भी शिक्षा दी जाती थी। शिष्य परस्पर वाद-विवाद करते थे तथा गूढ़ तत्वों का हल निकालते थे। बौद्ध धर्म एक नया धर्म था जिसके प्रचार की पर्याप्त आवश्यकता थी, अतः वाद-विवाद शैली द्वारा अपने तर्क को सत्य सिद्ध करना आवश्यक था यही कारण है कि तत्कालीन शिक्षा में तर्कशास्त्र और वाद-विवाद के ऊपर विशेष बल दिया गया। वाद-विवाद में तर्क की पुष्टि के लिए कुछ नियम भी निर्धारित किये गये, जो आठ प्रमाण कहलाते हैं
1. सिद्धान्त, 2. हेतु, 3. उदाहरण, 4. साद्धर्म्य, 5. वैधर्म्य, 6. प्रत्यक्ष, 7. अनुमान, 8. आगम बौद्ध धर्म ग्रन्थों में उल्लेख है कि शास्त्रार्थ करने वाले व्यक्ति को भाषा पर पूर्णधिकार होना चाहिए तथा उसे शास्त्रार्थ सम्बन्धी विषय की विस्तृत जानकारी होनी चाहिए। तब ही वह श्रोताओं को प्रभावित कर सकता है। कभी-कभी सार्वजनिक शास्त्रार्थों का आयोजन होता था, जिन्हें सुनने के लिए नगर के लोग भी आते थे। इस प्रणाली से विद्यार्थियों के विचार और विश्लेषण की प्रवृत्ति विकसित होती थी। उनमें वाक्पटुता, चिन्तन, मनन, निरीक्षण, तुलना आदि विविध मानसिक शक्तियाँ प्रस्फुटित एवं पुष्ट होती थीं। तथा उन्हें वास्तविक ज्ञान प्राप्त होता था ।
(8) पुस्तकों का अध्ययन – इस समय पर्याप्त पुस्तकों की रचना हो चुकी थी। विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में हजारों पुस्तकें थीं। इन पुस्तकों में से अनेक को विद्यार्थी कंठस्थ कर लेते थे तथा इनकी प्रतिलिपियाँ भी तैयार करते थे। पुस्तकों की व्याख्या भी की जाती थी। प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर ज्ञात है कि परवर्ती काल में कुछ संस्थाओं में विद्यार्थी की योग्यता की परीक्षा लेने के लिए सुई की नोंक किसी पढ़ी हुई पुस्तक में भेदी जाती थी। जिस पृष्ठ पर जाकर सुई रुक जाती थी उस पृष्ठ की व्याख्या छात्र को करनी पड़ती थी। स्पष्ट है कि पुस्तक का पूर्ण ज्ञान आवश्यक था।
(9) निदिध्यासन – इस प्रकार की शिक्षा साधारणत: प्रचलित पद्धतियों में नहीं थी। किन्तु कुछ गिने-चुने ज्ञानवान भिक्षुक इस प्रकार की पद्धति द्वारा शिक्षा ग्रहण करते थे। कुछ भिक्षुक अपने उपाध्यायों द्वारा प्राप्त ज्ञान के विषय में स्वयं निर्जन वनों में समाधिस्थ होकर एकाग्र भाव से चिन्तन करते थे तथा अन्तर्ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करते थे।
उपरोक्त के अतिरिक्त इस समय जीवनोपयोगी और व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए छात्र कुशल कारीगरों के निरीक्षण में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे।
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