शिक्षाशास्त्र / Education

शिक्षा के साधन के रूप में परिवार का महत्व | Importance of family as a means of education

शिक्षा के साधन के रूप में परिवार का महत्व | Importance of family as a means of education
शिक्षा के साधन के रूप में परिवार का महत्व | Importance of family as a means of education

शिक्षा के साधन के रूप में परिवार का महत्व बताइये।

शिक्षा के साधन के रूप में परिवार का महत्व- शिक्षा के अनौपचारिक साधनों में परिवार का विशिष्ट स्थान है। परिवार अंग्रेजी भाषा के शब्द “फेमिली’ का हिन्दी रूपान्तर है। फेमिली शब्द का तात्पर्य लैटिन भाषा के शब्द “फेमुलस’ से होता है, जिसका अर्थ नगर है। आधुनिक युग में परिवार का यह अर्थ नहीं लगाया जाता है। आधुनिक युग में परिवार को समाज की एक ऐसी आधारभूत सामाजिक इकाई माना जाता है जिसमें पति-पत्नी एवं उनके बच्चे सम्मिलित रहते हैं, जो उत्तरदायित्व एवं स्नेह की भावना में बंधे रहते हैं। क्लेयर ने परिवार की परिभाषा देते हुए लिखा है- “परिवार को हम सम्बन्धों की वह व्यवस्था समझते हैं जो माता-पिता तथा उनकी सन्तानों के मध्य पायी जाती है।”

मजूमदार ने परिवार की परिभाषा देते हुए लिखा है- “परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो एक मकान में रहते हैं, जिनमें रक्त का सम्बन्ध होता है और जिनमें स्थान के आधार पर समान होने की चेतना होती है।”

बगेंस ने परिवार की परिभाषा देते हुए लिखा है- “परिवार उन व्यक्तियों के समूह को कहते हैं जो विवाह रीति सम्बन्ध या गोद ग्रहण द्वारा एक दूसरे से आपस में सम्बद्ध हों और जिन्होंने परस्पर मिलकर एक गृहस्थी का निर्माण किया हो और साथ ही जो पति-पत्नी के रूप में, मां बाप के रूप में, पुत्री और पुत्र के रूप में, बहन, भाई के रूप में अपने सामाजिक कार्यों के क्षेत्र में एक दूसरे पर अपना प्रभाव डाले और एक दूसरे के साथ अन्तः सम्पर्क रखें और इस भाँति एक सर्व-सामान्य संस्कृति का सृजन कर उसका अस्तित्व कायम रखें।

परिवार, बालक की शिक्षा में अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य करता है। वह बालक की प्रथम पाठशाला है। उसके महत्व को सभी शिक्षा शास्त्रियों ने स्वीकार किया है। रूसो का मत है कि- “आधुनिक सभ्यता में परिवार ही बालकों को सर्वोत्तम शिक्षा दे सकता है। पेस्टोलॉजी का मत है कि “घर ही शिक्षा का सर्वोत्तम साधन है और बालक का प्रथम विद्यालय है। “

उपर्युक्त विद्वानों के विचार से स्पष्ट है कि बालक की शिक्षा में परिवार की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण है। परिवार ही बालक की प्रथम पाठशाला है। वहाँ से वह प्रेम सम्बन्धी, अर्थ सम्बन्धी एवं मनोरंजन सम्बन्धी सभी बातों को सीखता है। जिस परिवार का वातावरण अच्छा नही होता वहाँ के बालक अच्छी शिक्षा नही ग्रहण कर पाते। बालक के भावी व्यक्तित्व और चरित्र की न व शैशवावस्था में ही पड़ जाती है। बालक के व्यक्तित्व, व्यवहार और चरित्र आदि के निर्माण में परिवार का महत्वपूर्ण हाथ होता है। चाहे वे बालक एक ही पाठशाला में पढ़ते हो, सामान्य रूचि रखते हो, एक ही अध्ययन करते हों और एक ही अध्यापक से विद्या ग्रहण करते हों परन्तु फिर भी उनमें विभिन्नता देखने को मिलती है। इसका मूल कारण पारिवारिक वातावरण ही होता है। बोगार्डस का मृत पूर्णतया उचित है कि है “परिवार समूह मानव की प्रथम पाठशाला है। प्रत्येक व्यक्ति की अनौपचारिक शिक्षा सामान्य रूप में परिवार में ही आरम्भ होती है। बालक की शिक्षा प्राप्ति का अत्यन्त महत्वपूर्ण समय परिवार में ही व्यतीत होता है।”

परिवार या घर के शैक्षणिक कार्य

परिवार अनेक शैक्षणिक कार्यों को सम्पादित करता है। इनमें महत्वपूर्ण शैक्षणिक कार्यो की चर्चा हम संक्षेप में करने जा रहें हैं-

(1) सीखने का पहला स्थान- परिवार ही बालक की शिक्षा का प्रथम स्थान है। रेमन्ड का मत है कि- “सामान्य रूप से घर ही वह स्थान है जहाँ पर कि बालक अपनी मां से चलना, बोलना, मैं और तुम में अन्तर करना और चारों ओर की वस्तुओं के सरल गुणों को सीखता है।”

(2) दूसरे के अनुकूलन की शिक्षा- परिवार में रहकर बालक अपने माता-पिता, भाई-बहन का अनुकरण करता है। यहाँ से उसको, दूसरों के अनुकूलन की शिक्षा प्राप्त होती है।

(3) प्रेम की शिक्षा- बालक मां से जो प्रेम प्राप्त करता है वह अद्वितीय है। परिवार के अतिरिक्त अन्य सदस्य भी उससे प्रेम करते हैं और इस प्रकार बालक को प्रेम की शिक्षा भी परिवार से प्राप्त होती है और बड़ा होकर वह समाज, देश और विश्व प्रेम का पाठ पढ़ता है।

(4) त्याग की शिक्षा – बालक अपने माता-पिता को देखता है कि वह स्वयं न खाकर उसे खिलाते हैं। स्वयं कष्ट उठाकर उसे आराम देते हैं। इससे बालक त्याग की शिक्षा ग्रहण करता है।

( 5 ) सहयोग की शिक्षा – जैसे-जैसे बालक का मानसिक विकास होता जाता है। वैसे-वैसे वह परिवार के सदस्यों में सहयोग की भावना के दर्शन करता है। वह देखता है कि माता गृहस्थी का कार्य करती है, पिता धन अर्जित करता है और उसके अन्य भाई-बहन, माता-पिता के कार्यों में हाथ बंटाते हैं, इनसे वह सहयोग की शिक्षा ग्रहण करता है।

(6) परोपकार की शिक्षा – बालक घर में देखता है कि यदि परिवार का कोई सदस्य बीमार पड़ जाता है तो अन्य सदस्य उसकी सहायता करने को तत्पर रहते हैं। इससे वह परोपकार की शिक्षा ग्रहण करता है।

(7) आज्ञापालन एवं अनुशासन की शिक्षा प्रत्येक परिवार में सभी बड़े-बूढ़ की आज्ञा का पालन करते हैं और वृद्ध लोगों के अनुशासन में रहते हैं जब यह कार्य बालक स्वयं करता है तो उसमें अपने आप ही आज्ञापालन और अनुशासन की भावना आ जाती है। आज्ञापालन और अनुशासन की यह भावना सामाजिक जीवन के लिए अत्यन्त हितकारी सिद्ध होती है।

(8) कर्त्तव्य पालन की शिक्षा – परिवार में बालक यह देखता है कि मात नियमानुसार भोजन बनाती है एवं पिता नियमानुसार धन अर्जित करने के लिए जाते हैं। इ लोगों को अपने कर्त्तव्य करते देखकर वह भी अपने कार्यों को करना अपना कर्त्तव्य समझ लगता है और इस प्रकार कर्तव्य पालन का प्रारम्भ परिवार से ही होता है।

(9) आर्थिक सिद्धान्त की शिक्षा- परिवार में बालक अनेक प्रकार की आर्थि क्रियाओं को देखता है। पिता किस प्रकार लेन-देन करते हैं और भाई-बहन किस प्रक मिल-जुलकर धन की बचत करते हैं तथा सहकारिता से कार्य करते हैं, यह बातें प्रारम्भ से बालक परिवार में देखता है। इससे बालक को आर्थिक सिद्धान्त की शिक्षा प्राप्त होती हैं।

(10) सहिष्णुता की शिक्षा – परिवार में विभिन्न स्वभाव व प्रकृति के हैं। उनमें कुछ कड़े स्वभाव के होते हैं तो कुछ शान्त स्वभाव के विभिन्न स्वभाव के होते मनुष्य होते हुए भी परिवार के समस्त सदस्य एक दूसरे के स्वभाव को सहन करते हैं और अपनी सहिष्णुता का परिचय देते हैं। इस प्रकार का वातावरण बालक को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाता

(11) अन्य उपयोगी शिक्षा – उपर्युक्त शिक्षाओं के अतिरिक्त बालक कुछ अन्य शिक्षाएं भी परिवार से ग्रहण करता है। यह शिक्षाएं है दूसरों का सम्मान करना, स्वास्थ्य नियमों का पालन करना, ऐतिहासिक एवं राजनीतिक शिक्षा, आध्यात्मिक शिक्षा, कला व संगीत की शिक्षा आदि। बालक की मानसिक और भावात्मक प्रवृत्ति का विकास परिवार में ही होता है। परिश्रम की शिक्षा भी वह परिवार में ही ग्रहण करता है। इस प्रकार बालक के व्यक्तित्व के विकास का कार्य परिवार में ही प्रारम्भ होता है।

उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष कर पहुँचते हैं कि परिवार या घर के अनेक शैक्षणिक कार्य है और बालक विभिन्न प्रकार की शिक्षाए परिवार में ही प्राप्त करता है। इसीलिए कहा गया है कि परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है। परिवार को जो महत्व प्राप्त है वह किसी भी अन्य स्थान को प्राप्त नहीं है।

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Anjali Yadav

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