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महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर साकेत की समीक्षा कीजिये।
संस्कृत के आचार्यों द्वारा वर्णित महाकाव्य के लक्षण-
- महाकाव्य रागबद्ध होना चाहिए।
- सर्गों की संख्या आठ से अधिक होना चाहिए।
- प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द प्रयुक्त होना चाहिए।
- सर्ग का अन्तिम छन्द परिवर्तित होना चाहिए तथा उसमें आगामी सर्ग की कथा वस्तु का संकेत होना चाहिए।
- महाकाव्य के प्रारम्भ में मंगलाचरण होना चाहिए।
- प्रभात, संन्ध्या, सूर्य, चन्द्रमा, प्रदोष, रात-दिन, नदी, पर्वत, नगर, यात्रा, विवाह, आखेट, युद्ध आदि का वर्णन होना चाहिए।
- महाकाव्य का कथानक लोक विख्यात, विस्तृत तथा क्रमबद्ध होना चाहिए।
- शृंगार, वीर और शान्त रसों में से कोई एक रस प्रधान तथा अन्य रस गौण होना चाहिए।
- महाकाव्य का नायक धीरोदात्त होना चाहिए।
- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के वर्णन के साथ एक फल प्राप्ति होनी चाहिए।
- नाटक की सभी संधियाँ यथासंभव होनी चाहिए।
- महाकाव्य का नाम कवि के नाम से, चरित्र के नाम से अथवा चरित्र नायक के नाम से होना चाहिए।
- महाकाव्य की शैली विस्तृत विविध वर्णनों में समर्थ, गम्भीर तथा अलंकार युक्त होनी चाहिए।
संस्कृत आचार्यों द्वारा वर्णित महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर साकेत की परीक्षा करने से ज्ञात होता है कि उसमें महाकाव्य के सभी लक्षण विद्यमान हैं।
महाकाव्य की कसौटी पर साकेत की समीक्षा-
1. सर्गबद्धता- सर्गबद्धता की दृष्टि से साकेत महाकाव्य है, क्योंकि इसकी रचना सर्गबद्ध है तथा इसकी कथावस्तु बारह सर्गों में विभाजित है।
2. छन्द – छन्दों की दृष्टि से साकेतकार ने महाकाव्य के लक्ष्णों का पूर्ण रूप से पालन नहीं किया है, क्योंकि संस्कृत के आचार्यों के अनुसार एक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग होना चाहिए तथा सर्ग में अन्त में दो-तीन छन्द परिवर्तित होने चाहिए, जबकि साकेत के अधिकांश सर्गों में कई-कई छन्द प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरण के लिए नवम सर्ग को लिया जा सकता है। इस सर्ग में सर्वाधिक छन्द मुख्य है और सर्गान्त में छन्द परिवर्तन भी है। श्री रामस्वरूप दुबे ने साकेत के छन्दों का सर्गानुसार विवेचन इस प्रकार प्रस्तुत किया है-
- प्रथम सर्ग- पीयूषवर्ष छन्द मुख्य है, सर्गान्त में चौपाई और रूपमाला ।
- द्वितीय सर्ग- मुख्य छन्द शृंगार है, सर्गान्त में प्लवंगम और हाकलि।
- तृतीय सर्ग- मुख्य छन्द सुमेरु है, सर्गान्त में सरसी और राम छन्द ।
- चतुर्थ सर्ग – मानव अथवा हाकलि छन्द मुख्य हैं, सर्गान्त में सार और तोमर ।
- पंचम सर्ग -प्लवंगम छन्द मुख्य है, सर्गान्त में घनाक्षरी और दोहा छन्द ।
- षष्ठ सर्ग- पदपादाकुलक छन्द, सर्गान्त में गीतिका और मधुमालती छन्द ।
- सप्तम् सर्ग- चन्द्र छन्द या सरस छन्द मुख्य है, सर्गान्त में घनाक्षरी और समानिका ।
- अष्टम् सर्ग- राधिका छन्द मुख्य है, सर्गान्त में वीर और अरिल्ल ।
- नवम् सर्ग- मन्दाक्रान्ता, द्रुतविलम्बित, आर्या, दोहा, गीतिका आदि अनेक छन्द ।
- दशम सर्ग – वियोगिनी वृत्त मुख्य है, सर्गान्त में मालिनी और अनुष्टुप ।
- एकादश सर्ग- वीर और ताटंक छन्द मुख्य हैं, अन्त में मनहरण कवित्त और दोहा छन्द।
- द्वादश सर्ग- रोला छन्द मुख्य है, सर्गान्त में मनहरण कवित्त और दोहा छन्द ।
3. मंगलाचरण- साकेत में गुप्त जी ने मंगलाचरण का नियम पूर्णतः निभाया है। उन्होंने ग्रन्थ के प्रारम्भ में गणेश वन्दना करके इसे महाकाव्य की शृंखला में आबद्ध कर दिया है।
4. प्रकृति वर्णन- साकेत में प्रभात, सन्ध्या, सूर्य, पर्वत, नदी, आदि, प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन मिलते हैं इसके अतिरिक्त राम-वन-गमन के रूप में यात्रा वर्णन, राम-रावण युद्ध के रूप में युद्ध वर्णन मिलता है। अतः प्रकृति वर्णन की दृष्टि से साकेत महाकाव्य की कसौटी पर पूर्ण रूप से खरा उतरता है।
5. लोक विख्यात कथानक- लोक विख्यात कथानक की दृष्टि से भी साकेत महाकाव्य की कसौटी पर खरा उतरता है क्योंकि इसमें जिस राम कथा का वर्णन है वह युग-युगान्तर से जन मानस में अपना स्थान बनाये हुए है।
6. रस- साकेत में शृंगार रस की प्रधानता है तथा अन्य रस गौण रूप में आये हैं। अतः रसों की दृष्टि से भी साकेत महाकाव्य की कोटि का माना जाता है।
7. नायक – राम काव्य परम्परा का अमूल्य रत्न होते हुए भी साकेत में राम को नायकत्व नहीं प्रदान किया गया है। यह एक नायिका प्रधान महाकाव्य है। इसकी नायिका विविध गुणों से समन्वित उर्मिला है। वास्तविक नायकत्व उर्मिला का ही है, औपचारिक नायकत्व लक्ष्मण को दिया जा सकता है जो कि धीरोदात्त नायक हैं। राम का चरित्र अवश्य धीरोदात्त है किन्तु वे साकेत के नायक न होकर प्रधान पात्र ही हैं।
8. फल प्राप्ति- अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष में से साकेत में धर्म को फल के रूप में स्वीकार किया गया है।
9. नाटकीय संधियाँ- साकेत में यदि हम प्रयत्न करके ढूँढना चाहें तो नाटकीय संधियाँ, अथ प्रकृतियाँ एवं कार्य की अवस्थाएँ ढूँढ़ सकते डॉ० नागेन्द्र ने कार्य की अवस्थाएँ खोजी भी हैं। उनका कहना है कि पूर्णतया के प्रसंग में प्रप्त्याशा, लक्ष्मण की मूर्च्छा भंग से नियताप्ति और मेघनाद वध के अनन्तर फलागम की अवस्था है परन्तु डॉ० कमलाकान्त पाठक ने इसे न्याय संगत नहीं माना है। उनका मत है कि प्रथम दस सर्गों में केवल प्रारम्भ और प्रयत्न तथा शेष दो सर्गों में अन्य अवस्थाओं को ढूँढ़ना उचित नहीं है। गुप्त जी ने इस दिशा में परम्परा पालन को आवश्यक नहीं समझा है। साकेत में नाटकीय संधियों के स्थान पर आदि, मध्य और पर्यवसान देख लेना अधिक उचित है। आरम्भ से लेकर चित्रकूट प्रसंग तक ग्रन्थ का आरम्भ है। नवम और दशम सर्ग (उर्मिला विरह वर्णन) कथा का मध्य भाग है तथा अन्तिम दो संर्गों में पर्यवसान है। इस प्रकार साकेत महाकाव्य है। इसे आधुनिक हिन्दी का युगप्रवर्तक महाकाव्य माना जाता है।
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