महादेवी वर्मा के दार्शनिक चिन्तन पर प्रकाश डालते हुए आध्यात्मिक चेतना का वर्णन कीजिए।
महादेवी वर्मा के काव्यों में विरह स्वर आत्मा की अभिव्यक्ति के रूप में हुआ है। लेकिन कवयित्री ने अलौकिक के प्रति प्रेम को समर्पित कर दिया गया है। ऐसा प्रायः छायावादी कवियों में देखने को मिलता है-
इसलिये जहाँ रहस्योन्मुखता सभी छायावादी काव्य की एक प्रवृत्ति है, वहीं ‘महादेवी वर्मा’ के काव्य में इस रहस्यानुभूति का पूर्ण एवं भाव प्रवण परिपाक हुआ है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ‘छायावादी कहे जाने वाले कवियों में महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं।
वस्तुतः उनकी काव्यगत प्रणयानुभूति आध्यात्मिक रही है। उनकी कल्पित प्रणयानुभूति में उच्चकोटि की आध्यात्मिकता है। अलोकिकता की उपासना में उन्होंने भाव प्रवणता को ही प्रमुखता दी है तथा उपासना के लिये सूक्ष्म तत्वों को ही प्रस्तुत किया है तथा ईश्वर की पूजा के उपकरण भी आध्यात्मिक सन्दर्भों में ही व्यक्त हुये हैं। उनके आध्यात्मिक वर्णन के सन्दर्भ में कुछ तत्वों पर विचार करने से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।
वस्तुतः आध्यात्मिक चेतना के अन्तर्गत मुख्य उद्देश्य तो आत्मा का परमात्मा से मिलन पर रहस्यात्मकता के आवरण में इस मिलन की परिणति लौकिक प्रेम-शब्दावली और प्रेम प्रसंगों के रूप में हो जाती है। आत्मा के मिलन की स्थिति लोभ ग्राह्य नहीं है केवल मिलनो कण्ठा ही गोचर है और इस उत्कण्ठा के कारण विरह जागृत होता है।
ऐसे व्यापक प्रिय की उपासना के लिये महादेवी जी ने जो क्रम बनाया वह इस प्रकार है-
1. स्थूल के लिये सूक्ष्म तत्व- महादेवी जी ने प्रेम के चित्रण के लिये सूक्ष्म तत्वों को ही प्रस्तुत किया है।
2. पूजा-अर्चना के उपकरण- महादेवी जी ने कान्त-भाव के सन्दर्भ में भी आराधना की सामग्री का उल्लेख किया है। यह सामग्री उनके काव्य में ‘नाइट क्लब’ का वातावरण उत्पन्न करने के स्थान पर पूजा-गृह के पर्यावरण की सृष्टि करती है। रोली, चन्दन, अक्षत्, पुष्प, प्रतिमा, देवालय, मंगल घट, माल, शंख, घंटे तथा नैवेद्य के साथ दीप बनाकर सिहर-सिहर जलने वाली महादेवी जब कृष्णाभिसारिका बनकर परम प्रियतम से मिलने चलती है, तब भी आरती का थाल सजाना नहीं भूलती। सात्विक वातावरण का इस प्रकार सृजन कर लेने के कारण कवयित्री मिलन में भी उपासिका के रूप को नहीं त्यागती और विरह तथा पीड़ा ने उन्हें परम प्रियतम से ला मिलाया था।
3. आत्मा एवं विश्वव्यापी सहानुभूति का विस्तार- महादेवी जी ने अपनी आत्मा को चराचर विश्व को आवृत करने वाला विस्तार देकर भी प्रणयानुभूति को ऊर्जास्वित रूप दिया है। उनके दुःख-सुख, जड़-चेतन के दुःख-सुख बनकर सारी प्रकृति पर छा जाते हैं। जो विश्वव्यापी सहानुभूति जायसी ने केवल विरह को प्रदान की थी, वह महादेवी जी विरह और मिलन दोनों को दे सकीं।
4. निगुण निराकार के प्रति मानवात्मा का ज्ञानात्मक प्रेम- इसके अस्पष्ट संकेत ही महादेवी जी के काव्य में मिले हैं, हाँ कबीर का निराकार को साकार होते देखकर आँख न खोलना प्रकारान्तर से महादेवी ने भी व्यंजित किया हैं-
“कल्पना निज देखकर साकार होते
और उसमें प्राण का संचार होते,
क्या अमरों का लोक मिलेगा तेरी करुणा का उपहार ?
रहने दो, हे देव! अरे यह मेरा मिटने का अधिकार, ‘
5. विलास, वासना और एन्द्रिकता का त्याग- महादेवी जी ने अपनी साधना में ‘काम-विजय’ जैसी कोई सिद्धि भले न पाई हो परन्तु उदात्त-आलम्बन के प्रति आत्मनिवेदित होने के कारण अपने अन्दर की ऐन्द्रिकता का मदन दहन करने वाले सुन्दरतम रूप का उद्घाटन किया है। वासनाजन्य ऐन्दिक विलास का संकेत न देकर उन्होंने मिलन के प्रसंगों में ही सूक्ष्म भावात्मक समर्पण का संकेत दिया है।
इस प्रकार महादेवी वर्मा के गीतों में आध्यात्मिक चिन्तन की भावप्रवण अभिव्यक्ति हुई है और उनकी कविता में मूलतः करुणा एवं वेदना का भाव ही आध्यात्मिक रहस्यवाद को अभिव्यक्त करने में सक्षम रहा है।
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