‘मातृभूमि’ कविता का सारांश प्रस्तुत कीजिए। अथवा मैथिलीशरण गुप्त की कविता ‘मातृभूमि’ पर अपने विचार प्रस्तुत कीजिए।
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने मातृभूमि में अपनी मातृभूमि की महत्ता एवं उसके प्रति अपने प्रगाढ़ प्रेम का ऋणस्वीकारी-भाव चित्रण किया है। ‘शेवफन-सिंहासन’ पर बैठे हुए अपनी मातृभूमि कवि को ‘सर्वेश की सगुण मूर्ति लगती है, वह इस पर बलि बलि जाता है— बलिहारी जाता है जो पृथ्वी पर पैदा होते ही नवजात को सहारा देती हैं, ममतापूर्वक अपनी गोद में लेकर उसकी रक्षा करती है और जो अपनी जननी की भी पालनहार है, उस मातृभूमि पृथ्वी से यह पूज्यभाव से ‘मातामही’ के रूप में अपना अटूट रिश्ता जोड़ता है।
कवि जिस पृथ्वी के धूलकरण में लोट-पोटकर धूल-धूसरित हो बढ़ा हुआ है, जिस पर घुटनों के बल रेंगते-सरकते-दौड़ते खड़े हो जाना है और जिसकी गोद में प्रसन्नतापूर्वक खेलते-कूदते जवान हुआ है, उस मातृभूमि को देखकर वह बारम्बार ‘मगनमन’ होता है। कवि इस बात को जानता एवं मानता है कि यह पृथ्वी जो सबके जन्म और पालन-पोषण का कारण एवं माध्यम है, सबके निवास के निमित्त बनी घासफूस की कूटी-झोपड़ी से लेकर बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ एवं विशालकाय भवन-महल इस पृथ्वी के तत्त्व से ही पृथ्वी पर निर्मित हैं। यह मातृभूमि पृथ्वी जिस दिन जिस क्षण शरण नहीं देगी, बस उसी दिन, उसी क्षण हम सब प्रलय के पेट में समा जायेंगे, हमारा अस्तित्व समाप्त-प्राय हो जायेगा। कवि कहता है-
“मृतक-समान अशक्त विवश आँखों को मीचे
गिरता हुआ विलोक गर्भ से हमको नीचे।
कर के जिसने कृपा हमें अवलम्ब दिया था,
लेकर अपने अतुल अङ्क में त्राण किया था।
जो जननी का भी सर्वदा, थी पालन करती रही।
तू क्यों न हमारी पूज्य हो, मातृभूमि मातामही ॥
जो जीवन का आधार अन्न है, वह हमें पृथ्वी ही देती है, उसके बदले में वह हमसे कुछ भी नहीं लेती, कुछ भी कामना नहीं करती। एक-से-एक मूल्यवान पदार्थ प्रदान कर वह हमारा प्रेमपूर्वक पोषण करती है। यदि कभी ऐसा हुआ कि कृषि उपज न हो तो हम सब ‘पेट की आग’ में तड़प-तड़प कर जलने-मरने लगते हैं। पृथ्वी पर उत्पन्न प्राकृतिक उपादानों से ही हम सारा वैभव भोगते हैं, सुखोपभोग करते हैं, क्या इसका कोई प्रत्युपकार दे पाना सम्भव है? मिट्टी की यह देह इस मिट्टी (पृथ्वी) से ही विनिर्मित है, उसके ही रस में सनी-गँथी है और यह देह जिस दिन निश्चल-निर्जीव हो जायेगी, उस दिन फिर इसी मातृभूमि-मिट्टी में मिल जायेगी।
गुप्त जी का मानना है कि इस दुनिया में जिससे भी हमारा नाता-रिश्ता-जुड़ाव है, जो भी हमारी प्रसन्नता का कारण है, उस सब में भी इस मातृभूमि का ही तत्त्व व्याप्त है। इस लिहाज से भी उसकी दृष्टि में मातृभूमि का महत्त्व असंदिग्ध है। वे प्राकृतिक उपादान जो मानव जीवन और मानव-प्रसन्नता के कारण हैं। उन सबका भी अद्भव-विकास इस मातृभूमि पृथ्वी से ही है। अर्थात् यह मातृभूमि-पृथ्वी जन्म ही नहीं देती है, अपितु उसके भरण-पोषण, सुख-सुविधा, हर्ष प्रसन्नता सब का प्रबंध भी करती है। कवि कहता है कि-
“पाकर तुझसे सभी सुखों को हमने भोगा,
तेरा प्रत्युपकार कभी क्या हमसे होगा?
तेरी ही यह देह तुझी से बनी हुई है,
बस तेरे ही सुरस-सार सनी हुई है।।
हा! अन्त समय तू ही इसे, अचल देख अपनाएगी।
हे मातृभूमि! यह अन्त में तू ही मिल जाएगी।”
सूर्य, मनमोदक-सुखद नानारूपरंगधारी प्रसून, तृप्तिप्रदायक सरस-सुधोपन नानाविधि फल, जीवरक्षक एक-से-एक ओषधियाँ, ऐश्वर्य-वैभव की प्रतीक तथा बहुविधि शुभ फलकारक सोने-चाँदी, पत्रा-पुखराज, हीरे-मोती, नीलम-माणिक-जैसी श्रेष्ठ धातुरत्नों वाली खानें, दूर-दूर तक प्रसरित शृंग-श्रेणियाँ एवं सधन वनालियाँ, जीवनदायिनी नदियाँ आदि इत्यादि इस मातृभूमि पृथ्वी से ही व्युत्पन्न, पृथ्वी पर ही अधिराजित-प्रतिष्ठित है। इस-ऐसी दया-दानमयी, क्षमामयी, वत्सला-प्रेममयी, सुख-शांतिकारिणी, दुखहन्त्रीं-विश्वपालिनी मातृभूमि के प्रति कवि अपनी कृतज्ञता एवं सारस्वत-भाव अभिव्यक्ति करता है। उसके उपकार याद आते ही कवि-मन मुग्ध एवं भक्तिभाव से आपूरित हो जाता है। वह पूजायोग्य मातृभूमि की कीर्ति का अनेकशः बखान करता है, उसकी चंदनवर्णी धूल को सिर-माथे पर लगाता है और प्रत्युपकार में अक्षम असमर्थ होने के कारण मातृभूमि के प्रति केवल नतशिर होकर, उसके द्वारा किये उपकार का बदला देता है।
गुप्त जी कवि की यह भी अधिमान्यता है कि उसकी मातृभूमि की धूल परम पवित्र है। यह धूल शोकदार में दहते हुए प्राणी को दुःख सहने की क्षमता देती है। पाखण्डी-ढोंगी व्यक्ति भी इस धूली को तन-माथे लगाकर साधु-सज्जन बन जाता है। इस मिट्टी में वह शक्ति है जो क्रूर हिंस्र में भी भक्तिभाव पैदा कर सकती है। इस मातृभूमि की यह रेखांकनीय विशिष्टता है कि वह सभी प्राणियों को सम-समानभाव से देखती है, उसे सब जीव एक जैसे प्रिय हैं, उसके लिए कोई भी विशेष अपना-पराया नहीं है, मात्र कर्मफल के कारण सबकी स्थिति अलग-अलग है। इस तथ्य-सत्य को नहीं समझता और इसमें ‘भेद-दृष्टि’ मानता है, वह ‘मूर्ख’ है।
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