राजनीति विज्ञान / Political Science

मार्क्सवाद (साम्यवाद) के सिद्धान्त एवं उसके महत्व

मार्क्सवाद (साम्यवाद) के सिद्धान्त एवं उसके महत्व
मार्क्सवाद (साम्यवाद) के सिद्धान्त एवं उसके महत्व

मार्क्सवाद (साम्यवाद) के सिद्धान्त एवं उसके महत्व

साम्यवादी विचारधारा कोई नवीन विचारधारा नहीं है। इसके दर्शन प्लेटो की रिपब्लिक में होते हैं। परन्तु प्लेटो का सम्पत्ति एवं स्त्रियों का साम्यवाद आधुनिक साम्यवाद से भिन्न है। आधुनिक साम्यवाद का जनक कार्ल मार्क्स को माना जाता है। वह 1818 में जर्मनी के यहूदी परिवार में पैदा हुआ था। उसने अतिरिक्त मूल्य, द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी, वर्ग संघर्ष और वर्ग एवं राज्यविहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य रखा जिनमें मानव के आपसी द्वेष और शोषण समाप्त हो जाये। उनकी अमर रचनाओं दास-कैपिटल (Das-Capital) और कम्युनिष्ट मैनिफेस्टो (Communist Manfesto) में सम्पूर्ण समाजवादी सिद्धान्तों के दर्शन होते हैं। मार्क्स हीगेल से प्रभावित अवश्य था परन्तु उसने अपने द्वन्द्ववाद में हीगेल के आत्मवाद के स्थान पर भौतिकवाद को प्रमुख स्थान दिया। इस आधार पर हम कह सकते है कि मार्क्स का दर्शन हीगेल के दर्शन का उल्टा है। अपनी विश्वविख्यात पुस्तक पूंजी (Das-Capital) में मार्क्स स्वयं लिखता है, “मैंने हीगेल के दर्शन को सिर के बल पाया, मैने उसे पैरों के बल खड़ा कर दिया।” (I found the Hegalian dialectic standing on its head. I put it on its foot) मार्क्स के बाद उसके विचारों का प्रचार कार्य ऐजिल्स ने किया। तत्पश्चात् लेनिन और स्टैलिन आदि ने इस विचारधारा को प्रसारित करने का बीड़ा उठाया। मार्क्स की इस विचारधारा को ही आधुनिक युग के मार्क्सवादी विचारधारा के नाम से पुकारा जाता है।

मार्क्सवाद (साम्यवाद) के सिद्धान्त (Principles of Marxism Communism)

साम्यवाद मार्क्सवाद का व्यापक रूप है। मार्क्स के सिद्धान्तों को संशोधित एवं परिवर्तित करके और समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उन्हें नवीन रूप प्रदान किया गया है। मार्क्सवाद के सिद्धान्तों को हम निम्नलिखित रूप में प्रकट कर सकते हैं।

1. पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध- मार्क्सवादी पूँजीवादी व्यवस्था का घोर विरोधी है और उसके अनिवार्य रूप से विनाश करते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था के स्थान पर सर्वहारा वर्ग के निरंकुश शासन की कल्पना करता है। मार्क्सवादियों का मत है कि पूँजीवादियों की कब्र पर मार्क्सवादी व्यवस्था स्थापित हो सकती है।

2. पूँजीवादी व्यवस्था के उन्मूलन के हेतु क्रान्तिकारी साधन- मार्क्सवादियों का मत है कि पूँजीवादी का अन्त क्रान्तिकारी साधनों के द्वारा ही हो सकता है। पूँजीवादियों की चालाकी के सम्मुख संवैधानिक सिद्धान्त काम में नहीं आ सकते और इस कारण क्रान्तिकारी उपायों द्वारा पूँजीवादी व्यवस्था की समाधि पर मार्क्सवादी व्यवस्था की स्थापना की जा सकती है।

3. प्रजातन्त्र का विरोधी- मार्क्सवाद का लोकतन्त्रीय विचारधारा में कोई विश्वास नहीं है। वे लोकतन्त्रीय संस्थाओं को पूँजीपतियों की संस्थाएँ ही मानते हैं और कहते है कि उनसे श्रमिकों को ही लाभ होता है। अतएव लोकतन्त्रीय संस्थाओं को नष्ट कर दिया जाना चाहिए। लोकतन्त्रीय पूँजीपतियों का एक दिखावामात्र है और उसके द्वारा पूँजीपति मजदूरों का शोषण ही करते हैं।

4. धर्म में अविश्वास– मार्क्सवादी प्रगतिशील विचारों के सम्मुख धर्म को सबसे बड़ा बाधक मानते है। वे कहते हैं कि धर्म ने सदैव गरीबों को गरीब एवं अमीरों की और अमीर बनाने में बल दिया है और मनुष्य को भाग्यशाली एवं निष्क्रिय बनाया है। मार्क्स लिखता है, “धर्म जनता की वह अफीम है जिसे खाकर जनता ऊँघती रहती है।” धर्म के नाम पर जनता का आर्थिक एवं राजनीतिक शोषण किया जाता है। मार्क्सवादी धार्मिक महन्तों और पादरियों के राजनीति में भाग लेने के सख्त विरोधी है।

5. अन्तर्राष्ट्रीय मार्क्सवादी में विश्वास- मार्क्सवादी अन्तर्राष्ट्रीय मार्क्सवाद में विश्वास करते हैं। परन्तु उनकी अन्तर्राष्ट्रीय पूँजीवादी अन्तर्राष्ट्रीयता से अलग है। मार्क्सवाद अन्तर्राष्ट्रीयता का अर्थ शोषित वर्ग से पददलित होने देना मानते हैं और कहते हैं कि श्रमिकों का कोई राष्ट्र या धन नहीं होता। विश्व के सभी श्रमिकों के हित समान होते हैं और सबको पूँजीवादी व्यवस्था को समाप्त करने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। मार्क्स ने लिखा है, “संसार के श्रमिक वर्ग, तुम्हारी मार्क्सवादी क्रान्ति के सम्मुख पूँजीवादी वर्ग हिलने लगेगा। इस क्रान्ति में तुम्हारे पास खोने के लिए कुछ नहीं है, केवल अपनी बेड़ियाँ हैं। प्राप्ति के लिए तुम्हें एक विशाल संसार है, समस्त देशों के मजदूरों एक हो जाओं।” इस अन्तर्राष्ट्रीय विचारधारा को स्टालिन ने राष्ट्रीय विचारधारा का रूप प्रदान किया। उसने स्पष्ट किया कि मार्क्सवाद की स्थापना पहले एक देश में स्थापित होना चाहिए और तब उसे सभी देशों में फैलाना चाहिए।

6. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में विश्वास – मार्क्स के दर्शन का आधार द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है। उसने इस सिद्धान्त को जर्मनी के आदर्शवादी विचारक हेगेल से लिया था परन्तु मार्क्स का द्वन्द्ववाद हेगेल के द्वन्द्ववाद से भिन्न है। हेगेल आत्मवादी था और कहता था कि मनुष्य का विवेक कभी एक समान न रहकर गतिशील रहता है। मनुष्य के मस्तिष्क में एक विचार उत्पन्न होता है और उसके समर्थन में अनेक विचार उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार एक वाद (Thesis) तैयार होता है। इस वाद (Thesis) में कुछ त्रुटियाँ रह जाती है अतएव इसके विरुद्ध विचार उत्पन्न होते हैं जिन्हें प्रतिवाद (Anti-thesis) कहा जाता है। बाद में इन दो विरोधी विचारों-वाद एवं प्रतिवाद में समझौता (Compromise) होता है और इन दोनों के मेल को संवाद (Synthesis) कहा जाता है। फिर इस संवाद (Synthesis) के विरुद्ध प्रतिक्रिया होती है और दुबारा वाद का जन्म होता है फिर वाद का प्रतिवाद होता है और फिर संवाद उत्पन्न होता है। इस प्रकार विश्व-आत्मा को वाद, प्रतिवाद एवं संवादों के क्रम से गुजरना होता है। मार्क्स ने हेगेल के आत्म-वाद के स्थान पर भौतिकवाद को स्थान दिया और इस प्रकार एक दृष्टि से मार्क्स ने हेगेल के विचारों को पूरी तरह उलट दिया। उसने स्वयं लिखा है, “मैने हेगेलके दर्शन को सिर के बल पर खड़ा पाया। मैंने उसे पैरो के बल खड़ा कर दिया।”

ऐजिल्स ने मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में प्रकट करने का प्रयास किया है। उसने एक जौ के दाने का उदाहरण लेकर कहा है कि यदि एक जौ के दाने को पृथ्वी में बोया जाता है तो वह नमी और गरमी पाकर फूट जाता है और इस प्रकार वह जौ का दाना नष्ट हो जाता है। परन्तु उससे एक पौधा बन जाता है। इस पौधे में जौ के दाने लगते हैं। और किसान की मेहनत से वह दाने पहले की अपेक्षा अच्छे होते हैं। कुछ समय बाद वह पौधा फिर नष्ट होता है और उससे उत्पन्न बीजों से अनेक पौधे उत्पन्न होते हैं। ऐजिल्स ने बीज का वाद (Thesis) पौधे को प्रतिवाद, (Anti-Thesis) और पौधे से उत्पन्न हुए दानों को संवाद (Synthesis) माना है। ऐजिल्स ने एक दूसरा उदाहरण देते हुए लिखा है, प्रारम्भिक काल में भूमि पर समस्त समाज का नियन्त्रण था। यह एक थीसिस या एक विचार था और बाद में इसके विरुद्ध विचार उत्पन्न हुए कि भूमि पर समाज के बजाय व्यक्तिगत स्वामित्व होना चाहिए, यह प्रतिवाद था। भूमि पर वैयक्तिक स्वामित्व स्थापित हो गया, उत्पादन में वृद्धि हुई, इससे लोगों को यह अच्छा लगा। औद्योगिक क्रांति के बाद मशीनों का आविष्कार हुआ और मशीनों से खेती करना अच्छा समझा गया, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति के लिए कई मशीनों का उपभोग करना सम्भव नहीं था, इसलिये पुनः यह विचार दृढ़ हुआ कि समाज का भूमि पर दायित्व है और कल कारखानों का राष्ट्रीयकरण किया जाय। इस प्रकार यह क्रम निरंतर चलता रहता है।

संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि मार्क्सवादी या साम्यवादी विचार में हेगेल के द्वन्द्ववाद को अवश्य अपनाया गया है। परन्तु जहाँ हेगेल का द्वन्द्ववाद आत्मवादी है, साम्यवादियों का द्वन्द्ववाद भौतिकवादी।

7. इतिहास की आर्थिक व्यवस्था- मार्क्स ने इतिहास को आर्थिक प्रभाव का फल माना है और कहा है कि समाज अथवा इतिहास में परिवर्तनों का आधार आर्थिक दशाएँ ही रही हैं। इतिहास में बड़े-बड़े परिवर्तन उत्तपादन में परिवर्तन के फलस्वरूप ही हुए है। उत्पादन प्रणाली ही समाज में संगठन और उसकी विभिन्न वर्गों की रूप-रेखा को निर्धारित करती है। मानव-जीवन में आर्थिक तत्वों का जितना अधिक मूल्य है उतना अधिक किसी अन्य तत्व का नहीं। मानव के धार्मिक विश्वास, आदर्श, कला, संस्कृत एवं साहित्य आदि में परिवर्तन आर्थिक के फलस्वरूप आते हैं। मार्क्स ने इतिहास को 6 भागों में बाँटा है—(1) आदिम युग, (2), दास युग, (3) सामन्तवादी युग, (4) पूँजीवादी युग। (5) सम्पत्ति-विहीन श्रमिक वर्ग के अधिनायकत्व का युग और (6) साम्यवादी युग,

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि मार्क्स द्वारा दी गई इतिहास की भौतिक व्याख्या यह है कि इतिहास का प्रत्येक परिवर्तन तत्वों के फलस्वरूप ही होता है।

8. वर्ग युद्ध में विश्वास – मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष को आवश्यक बतलाते हैं। मार्क्स कहता है कि वर्ग-संघर्ष का इतिहास ही मानवता का इतिहास है। समाज में आरम्भ से ही दो वर्ग रहे हैं। (1) धनी वर्ग और (2) निर्धन श्रमिक वर्ग। आदि काल ही इन दोनों वर्गों में संघर्ष होता रहा है। परन्तु मार्क्सवादियों का यह विश्वास है कि छोटे पूँजीपति कुछ समय बाद श्रमिक वर्ग में ही सम्मिलित हो जायेंगे और फिर पूँजीपतियों के स्थान पर सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित हो जायेगी।

9. अतिरिक्त मूल्य का सिद्धान्त- मार्क्स ने अतिरिक्त मूल्य के सिद्धान्त का भी प्रतिपादन किया। अतिरिक्त मूल्य की परिभाषा देते हुए उसने लिखा है, “यह दोनों मूल्यों का अन्तर है जिन्हें एक मजदूर पैदा करता है और पाता है, उसी अतिरिक्त मूल्य को हड़प कर पूँजीपति धनी बन जाता है। उदाहरण के लिए यदि एक जूता बनाने वाली फैक्टरी के मजदूर को छः रुपया प्रति जूता मजदूरी मिलती है और जूते में लगने वाली सामग्री 8 रुपये की है तो कुल लागत 14 रुपया की हुई। किन्तु वही जूता बाजार में 20 रुपये का बिकता है और इस प्रकार जूता फैक्टरी के मालिक पूँजीपति को बिना हाथ-पैर डुलाये 6 रुपये प्राप्त हो जाते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मजदूर वर्ग नहीं पनपता और पूँजीपति वर्ग निरन्तर पनपता रहता है। इसी कारण पूँजीपतियों और मजदूरों के मध्य की खाई गहरी होती जाती है और वर्ग-संघर्ष लगातार चलता रहता है।

10. अन्तरिम समय में श्रमिकों के अधिनायकत्व में विश्वास – मार्क्सवादी विचारधारा या मार्क्सवाद मजदूरों और पूँजीपतियों के समझौते को असम्भव मानती है और कहती है कि शासकों और शासितों में कभी भी समझौता नहीं हो सकता। पूँजीपतियों को क्रान्तिकारी साधनों से नष्ट ही करना होगा। इस क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व श्रमजीवी वर्ग करेगा। पूँजीवाद से मार्क्सवाद तक आने के लिये एक संक्रमण-काल में होकर गुजरना होगा। इस काल में श्रमिकों के हाथ में समस्त शक्तियाँ होगी और वे पूँजीपतियों एवं उनके सहयोगियों को नष्ट करने के लिए सभी साधन अपनायेंगे। जी. अनातालौव ने लिखा है, “मार्क्सवाद के अनुसार मार्क्सवादी क्रान्ति का सार परिवर्तन काल में समस्त परिस्थितियों में श्रमिकों का अधिनायकत्व है। बिना इस अदिनायकत्व के समाजवाद की ओर ले जाने वाली संसदात्मक सड़क असम्भव है।” इससे स्पष्ट है कि मार्क्सवादी संक्रमण काल में मजदूरों की तानाशाही के पक्षपाती है।

11. राज्य के विलीनीकरण में विश्वास- साम्यवादियों का अन्तिम उद्देश्य राज्य विहीन समाज की स्थापना करना है। वे राजकीय सत्ता में विश्वास नहीं करते। आरम्भ में भले ही राज्य के अस्तित्व को न समाप्त किया जाय परन्तु शनैः शनैः राज्य की समाप्ति आवश्यक ही है। जब श्रमिकों की तानाशाही पूँजीपति वर्ग को पूर्णतया उन्मूलित कर देगी तब राज्य की कोई भी आवश्यकता नहीं रह जायगी। इस राज्य विहीन आदर्श समाज में किसी भी आधार पर कोई भी भेद-भाव नहीं होगा और प्रत्येक को अधिकतम न्याय प्राप्त होगा।

मार्क्सवाद और लेनिन- मार्क्स के बाद भी मार्क्सवादी विचारधारा की गति जारी रही और 1917ई0 की बोलाशेविक क्रान्ति के बाद लेनिन के नेतृत्व मे रूस ने मार्क्सवाद को एक व्यापक दर्शन का रूप देने का प्रयत्न किया। बादशाही की समाप्ति के बाद वहाँ सर्वहारा सरकार की स्थापना हुई। लेनिन मार्क्स के चरण-चिन्ह पर ही चला परन्तु परिस्थितियों के अनुसार उसने मार्क्सवादी विचारधारा में कुछ संशोधन किए। लेनिन ने प्रचण्ड रक्तपात पूर्ण क्रान्तियों का समर्थन किया। उसने प्रजातन्त्र को एक प्रवंचना मात्र कहा और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का समर्थन किया। इस प्रकार लेनिन ने मार्क्सवाद को रूस की परिस्थितियों को अनुसार ढाला और उसके क्रान्तिकारी पक्ष पर अधिक बल दिया।

मार्क्सवाद और स्टालिन-1924ई० में लेनिन की मृत्यु के बाद स्टालिन ने मार्क्सवादी रूस का नेतृत्व सँभाला और उसके नेतृत्व में रूस संसार के दो उन्नतिशील देशों में से एक बन गया और विश्व के सभी देश साम्यवादी रूस का लोहा मानने लगे। स्टालिन के काल में सर्वहारा वर्ग का अधिनायत्व व्यक्तिगत अधिनायकत्व में बदल गया। स्टालिन का कहना था कि समग्न संसार में मार्क्सवाद को लाने के लिए पहले एक जगह उसकी जड़ें जमानी होंगी और इसी आधार पर उसने राष्ट्रीयता का समर्थन किया। कालान्तर में स्टालिन भी अन्तर्राष्ट्रीयतावादी बन गया और उसने मार्क्सवाद को अन्तर्राष्ट्रीयता के रंगमंच पर लाने के लिए प्रयत्न किया।

स्टालिन के बाद की स्थिति- स्टालिन के बाद दुश्चेव के नेतृत्व में मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार हुआ। चीन में माओत्सेतुंग के नेतृत्व में जिस तरह के मार्क्सवाद की स्थापना की गई वह अधिनायकवाद का ही दूसरा रूप था। पोलैण्ड, हंगरी, चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, रोमानिया आदि में साम्यवादियों की जड़े काफी समय तक रहीं। आधुनिक युग में साम्यवाद का पहले जैसा महत्व नहीं रहा है। परन्तु अनेकानेक देशों में इसके अनुयायी बड़ी संख्या में है।

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Anjali Yadav

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