मूल्यांकन से क्या आशय है ? मूल्यांकन की विभिन्न विधियों का वर्णन कीजिए।
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मूल्यांकन का अर्थ एवं परिभाषाएँ
मूल्यांकन एक अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। किसी वस्तु में कितनी गुणवत्ता है यह मूल्यांकन करने से ही ज्ञात किया जा सकता है। हम किसी भी कार्य को करने से पूर्व उसके परिणाम को जानना चाहते हैं और अनुमान लगा लेते हैं, क्योंकि हम उसका मूल्यांकन (अच्छाई एवं बुराइयाँ) देख लेते हैं जिससे उसका परिणाम भी स्पष्ट हो जाता है। उसमें क्या अच्छा और क्या बुरा है ? यह मूल्यांकन करने पर ही ज्ञात होता है। बालक को शिक्षण करा दिया, किन्तु उसने सीखा की नहीं यह तो मूल्यांकन पर ही निर्भर है। वही सही निर्णय देगा कि आपके द्वारा कराये गए शिक्षण को बालक ने यहाँ तक ग्रहण किया, यह नहीं सीखा, यहाँ पर यह कमी थी, ये सब उसका विभिन्न विधियों [ परीक्षा (लिखित एवं मौखिक) आयोजित करके, सामान्य ज्ञान परीक्षण कराके, तर्क वितर्क, विचार विश्लेषण आदि] से मूल्यांकन करने पर ही स्पष्ट होगा।
सामान्य दृष्टिकोण से मूल्यांकन का अर्थ होगा- अध्यापक द्वारा कराये गए शिक्षण में उद्देश्यों की प्राप्ति कहाँ तक हुई। यह ज्ञात करना कि बालकों ने कितना अधिगम किया, कितना व्यवहार में ढाला, इसको ज्ञात करना तथा यदि निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति तथा अपेक्षित परिवर्तन नहीं हुआ तो क्यों नहीं हुआ, इसका कारण खोजना तथा अपेक्षित सुधार करना। उपर्युक्त तथ्यों को जिस विधि से जाना जा सकता है वही मूल्यांकन है। इसको हम मूल्य निर्धारण से समन्वित कर सकते हैं।
परिभाषाएँ –
आई.बी. वेस्ले के अनुसार, “मूल्यांकन एक समावेशित धारणा है कि जो किए गए प्रयास के स्तर तथा मूल्य एवं प्रभावशीलता की ओर संकेत करती है। यह वस्तुनिष्ठ प्रमाण और आत्मनिष्ठ निरीक्षण का समन्वय है।”
डोंडेकर के अनुसार, “मूल्यांकन से यह ज्ञात किया जाता है कि बालक ने प्राप्त उद्देश्यों को कहाँ तक प्राप्त किया है।”
टारगेर्सन तथा एडम्स के अनुसार, “किसी भी वस्तु अथवा प्रक्रिया का मूल्य निर्धारण करना मूल्यांकन है। शिक्षा में मूल्यांकन से तात्पर्य है कि शिक्षण प्रक्रिया अथवा सीखने (अधिगम करने) की क्रियाओं से उत्पन्न अनुभवों की उपयोगिता के विषय में निर्णय देना होता है।”
कोठारी शिक्षा आयोग, 1966 के अनुसार, “अब यह माना जाने लगा है कि मूल्यांकन एक निरन्तर क्रियान्वित रहने वाली प्रक्रिया है जो कि सम्पूर्ण शिक्षा प्रणाली का एक अभिन्न अंग है और यह शैक्षिक उद्देश्यों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है।”
मूल्यांकन की विशेषताएँ
मूल्यांकन बालक की ग्रहण क्षमता का पता लगाने की सर्वोत्तम विधि है। यह बालक के ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक व्यवहार में हुए परिवर्तन को प्रकट करती है। इसकी प्रमुख विशेषता इसकी वैधता तथा विश्वसनीयता है। इसकी अन्य विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार से है-
1. अनवरत चलने वाली प्रक्रिया- मूल्यांकन एक सतत् प्रक्रिया है। यह आजन्म मृत्युपर्यन्त चलती रहती है। मानव स्वभाव है कि किसी वस्तु को देखकर उसके प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। वह उसके गुण-दोषों का निरूपण करता है। प्रत्येक दिन मानव किसी न किसी वस्तु से परिचित होता है। उसके सम्पर्क में आकर उसका स्थान निर्धारित करता है। बालक को शिक्षण कराके उसमें वाँछित परिवर्तन लाना शिक्षण का परमोद्देश्य है। मूल्यांकन ही वह शक्ति है जो बालक के व्यवहार का अंकन करके उसका स्थान निर्धारित करती है। शिक्षण उद्देश्यों से इसका घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रत्येक दिन बालक अध्ययन करते हैं। अतः मूल्यांकन भी होता रहता है। विद्यालय परिसर से बाहर भी बालक की मूल्यांकन प्रक्रिया चलती रहती है। परीक्षा निश्चित समय पर ही होती है। किन्तु यह अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है।
2. व्यापक प्रक्रिया- मूल्यांकन किसी क्षेत्र विशेष के अधीन नहीं होता है। इसमें मात्र बालक के ज्ञानात्मक व्यवहार का ही परिणाम प्राप्त नहीं होता अपितु उसके भाव और क्रियापक्ष का भी मूल्यांकन संभव होता है। उसके नैतिक चरित्र, सामाजिक मर्यादा, सामान्य ज्ञान, शारीरिक तथा मानसिक विकास का भी मूल्यांकन होता है। व्यक्ति (बालक) के बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार के व्यक्तित्व को विभिन्न विधियों से ज्ञात कर उसका मूल्यांकन किया जा सकता है। उसका स्थान तथा श्रेणी निर्धारित की जाती है। विद्यालय के बाहर भी समाज में बालक का मूल्यांकन होता है। समाज उसे, वह समाज को किस दृष्टि से देखते हैं। यह उसके मूल्यांकन से ही संभव है। विद्यार्थी के व्यक्तित्व को मूल्यांकन ही निखारता है। उसके सभी पक्षों से यह घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है।
3. बाल केन्द्रित प्रक्रिया- मूल्यांकन प्रक्रिया में बालक के सभी पक्षों का अवलोकन तथा निरीक्षण किया जाता है। बालक के बिना मूल्यांकन अधूरा-सा होता है, क्योंकि अधिगम बालक ही करता है। उसके व्यवहार परिवर्तन करने में यह अत्यंत सहायक है। त्रुटियों को खोजकर निवारणोपाय बताने से बालक अपेक्षित सुधार कर सकता है।
4. सामाजिक प्रक्रिया- बालक को आदर्श पुरुष बनाना शिक्षा तथा शिक्षण का प्रधान लक्ष्य होता है। सर्वांगीण विकास होगा तो बालक आदर्श पुरुष बन सकेगा। बालक को आदर्श बनाने में मूल्यांकन की प्रमुख भूमिका होती है। मूल्यांकन से उसमें निहित दोषों को ढूंढ़ा जा सकता है तथा समाज के अनुरूप आचरण करने योग्य बनाया जा सकता है। जैसाकि पहले बताया जा चुका है कि बालक का समाज से कितना सम्बन्ध है तथा समाज का बालक से कितना। यह इसी विधि से ज्ञात किया जाता है। मूल्यांकन से स्पष्ट होता है कि दिए जाने वाला ज्ञान बालक को सामाजिक बना रहा है या नहीं। उसमें सामाजिक गुणों का उदय हुआ कि नहीं आदि।
उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त भी कई अन्य विशेषतायें हैं-
- इसके माध्यम से शिक्षण प्रक्रिया में परिवर्तन करके उसे प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
- समुचित विधि-प्रविधियों के उपयोग का स्थान निर्धारित करता है।
- विशेष तथ्य के स्पष्टीकरण में सहायता प्रदान करता है।
- यह व्यक्ति के व्यक्तित्व का दर्पण होता है। इसमें देखकर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व में निखार ला सकता है। कहाँ पर अवगुणों रूपी धूल-मिट्टी लगी है। उसे दूर करने में व्यक्ति सक्षम होता है।
- इस प्रक्रिया में व्यक्ति अपना मूल्यांकन स्वयं कर सकता है।
मूल्यांकन के उद्देश्य
शिक्षा में मूल्यांकन का निश्चित उद्देश्य हैं। इसका मुख्य उद्देश्य यह ज्ञात करना है कि जो कुछ पढ़ाया गया है वह बालकों द्वारा सीखा गया है अथवा नहीं और यदि सीखा गया है तो कितनी मात्रा में सीखा गया है। मूल्यांकन द्वारा ही ज्ञात हो पाता है कि अपने अनुभवों के उचित एवं अनुचित प्रभाव क्या हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि शिक्षा में मूल्यांकन का विशेष महत्त्व है।
शिक्षा प्रक्रिया के मूल्यांकन के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार हैं-
- मूल्यांकन का एक उद्देश्य छात्रों को व्यक्तिगत एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जानकारी कराना है।
- मूल्यांकन का प्रयोग अनुदेशन की प्रभावशीलता जानने के लिए एवं उसके अनुरूप क्रियाओं के नियोजन में किया जाना।
- मूल्यांकन का सर्वप्रथम उद्देश्य जिसे मुख्य उद्देश्य की संज्ञा भी दी जा सकती है, छात्रों का वर्गीकरण करना है।
- मूल्यांकन के आधार पर पाठ्यक्रम व पाठ्य चर्चा में व्यापक व उचित संशोधन किया जाना।
- मूल्यांकन का प्रयोग छात्रों के अधिगम सम्बन्धी परिणाम को ज्ञात करने के लिए किया जाना।
मूल्यांकन के सिद्धान्त
1. मूल्यांकन प्रक्रिया में त्रुटियों से बचने के लिए अत्यन्त सावधानीपूर्वक कार्य करना चाहिए।
2. मूल्यांकन प्रक्रिया में निर्णय एवं मूल्य अत्यन्त आवश्यक है अतः शिक्षा के प्रत्येक स्तर पर वस्तुनिष्ठ एवं परिपक्व निर्णय होना चाहिए।
3. मूल्यांकन की प्रत्येक विधा तथा उपकरण का प्रयोग करते समय उनकी उपयोगिता के सम्बन्ध में मूल्यांकनकर्त्ता को पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। इनकी विशेषताओं एवं सीमाओं को ध्यान में रखते हुए इन्हें उपयोग में लाना चाहिए।
4. मूल्यांकन को अन्त न समझकर इसे दूसरी वस्तुओं या प्रत्ययों की प्राप्ति का साधन मानकर चलना चाहिए।
मूल्यांकन के उपकरण या विधाएँ
(1) परीक्षण प्रक्रियाएँ- परीक्षण द्वारा एक समय में बालक के किसी एक प्रकार के निश्चित व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। ये परीक्षण व्यक्ति की बुद्धि, सृजनात्मकता, कौशल, अभिक्षमता अभिवृत्ति, रुचि, उपलब्धि, मूल्य, व्यक्तित्व आदि के अध्ययन हेतु प्रयोग में लाये जाते हैं।
(2) स्वयं आलेख प्रविधियाँ- प्रत्येक बालक अपने सम्बन्ध में अनेक सूचनाएँ एवं अनुभव रखता है। वह अपने विषय में क्या-क्या सोचता है, किससे बात करने पर उसे प्रसन्नता होती है तथा कौनसी बात उसे कष्ट पहुँचाती है आदि पहलुओं पर बालक से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सूचना ली जा सकती है।
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