राजनीतिक सिद्धान्त की मुख्य अवधारणा का वर्णन कीजिये।
राजनीतिक सिद्धान्त की मौलिक धारणा में परिवर्तन लाने वाली मुख्य अवधारणाएँ निम्नलिखित हैं—
1. शास्त्रीय राजनीतिक सिद्धान्त ( Classical Political Theory ) – शास्त्रीय राजनीतिक सिद्धान्त का प्रतिपादन प्राचीन यूनानी विचारक प्लेटों, अरस्तू तथा रोमन दार्शनिकों के द्वारा किया गया। इस विचारधारा के द्वारा इन विद्वानों का उद्देश्य सार्वजनिक विषयों का व्यवस्थित अध्ययन करना था। इन विद्वानों के द्वारा राजनीतिक सिद्धान्तों का दर्शनिक आधार पर प्रतिपादन किया गया तथा राज्य को भी नैतिक व दैविक संस्था के रूप में प्रतिपादित किया गया। शास्त्रीय राजनीतिक सिद्धान्त के समर्थकों ने व्यक्ति के सम्पूर्ण विकास के लिए भी शास्त्रीय अवधारणा को सही बताया। इनके द्वारा राज्य और व्यक्ति के बीच साम्यता दिखाकर सामूहिक हित में व्यक्तिगत हित को जोड़ने का प्रयास किया गया। आदर्शवादी विचारकों हीगेल, टी. एच. ग्रीन, बोसांके, काण्ट आदि पर इस विचारधारा का प्रभाव पड़ा है, क्योंकि उन्होंने भी राज्य के आदर्शवादी स्वरूप की व्याख्या की है।
2. उदारवादी राजनीतिक सिद्धान्त (Liberal Political Theory) – 16वीं शताब्दी में चर्चशाही, सामंतवाद व निरंकुशवाद के खिलाफ उदारवाद का आगमन एक क्रान्तिकारी विचारधारा के रूप में हुआ। उदारवादी राजनीतिक विचारकों द्वारा धर्म के नाम पर हो रहे अत्याचार का जबर्दस्त विरोध कर व्यक्ति को स्वयं की मर्जी से जीने की वकालत की गई। जान लॉक, एडम स्मिथ, हर्बर्ट स्पेन्सर, हॉब्स, रूसो आदि ने राज्य को मानव द्वारा निर्मित संस्था मानते हुए सीमित राज्य का समर्थन किया। यह उदारवाद का रूप हमेशा बरकरार नहीं रहा, बल्कि उसमें बदलाव आता गया। इसीलिए तो उदारवाद को दो भागों में विभक्त किया जाता है – परम्परागत उदारवाद और आधुनिक उदारवाद। परम्परागत उदारवाद के द्वारा राज्य के सम्बन्ध में धारणा है उसे परम्परागत उदारवादी राजनीतिक सिद्धान्त कहा जाता है। स्पष्ट है कि परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त व्यक्ति के लिए धर्म को आंतरिक एवं निजी मामला मानता है यानि व्यक्तिगत स्वतन्त्रता (Individual Freedom) की बात करता है, सीमित राज्य के अस्तित्व को स्वीकार व समर्थन करता है तथा सामाजिक प्रतिमान में एकता का समर्थन करता है।
बाद में चलकर उदारवाद एक क्रान्तिकारी विचारधारा नहीं रहता; बल्कि वर्ग-विशेष की विचारधारा यानि समाज के मुट्ठी भर अमीर लोगों की विचारधारा के रूप में स्थापित होता है, निजी सम्पत्ति का जबर्दस्त समर्थन करता है, इसके कारण मानवीय जीवन में असमानता का आगमन शुरू हो जाता है। उदारवाद अब पूँजीवाद का पर्यायवाची बन जाता है। इस पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ वैज्ञानिक मार्क्सवादी क्रान्ति की शुरूआत होती है, जिसके द्वारा मानवीय जीवन में समानता लाने के लिए तलवार उठाई जाने लगती है। इसका परिणाम उदारवाद पर पड़ता है और उदारवाद का रूप बदल जाता है जिसे समसामयिक उदारवाद (नवीनतम रूप में आधुनिक उदारवाद) कहा जाता है। समसामयिक उदारवाद के द्वारा लोक-कल्याणकारी राज्य का समर्थन किया जाता है, निजी सम्पत्ति पर अंकुश के लिए पूँजीपतियों पर कर (Tax) लगाने की बात की जाती है। ये सभी सिद्धान्त समसामयिक उदारवाद या आधुनिक उदारवादी सिद्धान्त आधुनिक उदारवादी सिद्धान्त के समर्थकों में लास्की मैकाइवर, बार्कर जैसे-विचारकों का नाम लिया जा सकता है, जो परम्परागत उदारवाद और समाजवाद के बीच का रास्ता अपनाते हैं।
3. मार्क्सवादी राजनीतिक सिद्धान्त (Marxist Political Theory ) – कार्ल मार्क्स को वैज्ञानिक समाजवाद का जन्मदाता माना जाता है, जिसने सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की गूढ़ बातों को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिकवादी के माध्यम से समझाया। मार्क्स ने परिवर्तन के तीन चरण, वाद (Thesis) प्रतिवाद (Antithesis) और संवाद (sythesis) बताये, जहाँ पदार्थ के कारण संघर्ष और परिवर्तन होता है। इतिहास के विभाजन के पीछे उत्पादन-प्रणाली की महत्वपूर्ण भूमिका की ओर मार्क्स ने इशारा किया है।
मार्क्स के द्वारा इतिहास का वर्गीकरण किया गया है-(1) आदिम युग, (2) दास युग, (3) सामंतवादी युग, (4) पूँजीवादी युग, (5) समाजवादी युग, (6) साम्यवादी युग (यह आदर्शवादी एवं मार्क्सवादी कल्पना है।
मार्क्स के अनुसार युग परिवर्तन उत्पादन प्रणाली के कारण हुआ है और इतिहास परिवर्तन के प्रत्येक चरण यानि हर युग की अपनी विशेषता है। आदिम साम्यवादी युग में समाज खुशहाल था, क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति के बीच जाति, वर्ग, साम्प्रदाय को कायम करने वाली व्यक्तिगत सम्पत्ति की दीवार न थी। दास युग में दास और मालिक दो वर्गों का निर्माण हो गया, दोनों की आर्थिक सामाजिक स्थिति भिन्न थी। सामंतवादी युग, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है सामंती व्यवस्था पर आधारित थी, जहाँ जमीन का मालिक बगैर मेहनत किये लाभ हासिल करता था। मेहनत करने वालों को न तो वाजिब हक ही मिलता था और न इज्जत सम्मान ही। सामंतयुग के बाद प्राइवेट पूँजी का अपार संग्रह हो गया, सम्पूर्ण समाज में निजी सम्पत्ति ने अपना घिनौना रूप बिखाना शुरू कर दिया, पैसा ही सब कुछ हो गया। पैसे से गरीबों की बहू बेटियों की इज्जत नीलाम की जाने लगी, पैसे के लिए लोग कुकर्म करने को तैयार हो गये। चांदी के चंद सिक्कों पर ईमानदारी कुर्बान होने लगी। इस पूँजीवादी अराजकता के खिलाफ मार्क्सवादी आन्दोलन का आगमन हुआ और समाजवादी युग की शुरूआत हुई। समाजवादी युग ने पूँजीवादी और साम्यवादी युग की विशेषताओं को लेकर चलना शुरू किया, जिसका लक्ष्य साम्यवाद प्राप्त करना रहा साम्यवादी युग को मार्क्स के लक्ष्य या कल्पना के रूप में देखा जा सकता है।
4. अनुभववादी- राजनीतिक सिद्धान्त (Emiprical Political Theory ) – 20वीं शताब्दी में राजनीतिक सिद्धान्त के क्षेत्र में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। ‘The Process of Government’ के लेखक आर्थर बंटले तथा ‘Human nature in Politics’ के लेखक ग्राहम वालास आदि ने राजनैतिक सिद्धान्त के व्यावहारिक पक्ष पर जोर दिया। इनके द्वारा इस बात पर भी जोर दिया गया कि राजनीति का अध्ययन तथ्यपूर्ण होना चाहिए।
ग्राहम वालास और ऑर्थर बंटले के इस प्रयास में ‘New Aspect of Politics’ के लेखक मेरियम का विशेष योगदान रहा तथा जार्ज कैटलिन ने ‘अन्तर्विषयक’ उपागम (Interdiciplinary approach) पर जोर देकर मेरियम की बात को और आगे बढ़ाया। इन सबके परिणामस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् एक नवीन राजनीतिक विचारधारा का विकास शिकागों विश्वविद्यालय, अमरीका में हुआ। लासवेल, आमंड व पॉवेल, शिल्स, डेविड ईस्टन आदि ने जोरदार रूप में व्यावहारिक राजनीति के अध्ययन पर बल दिया। इन लोगों ने न केवल औपचारिक राजनीति, बल्कि राजनीति के अनौपचारिक पहलू को भी महत्वपूर्ण मानते हुए ‘राजनीतिक व्यवस्था’ को समझने का प्रयास किया, संरचना के साथ-साथ कार्य पर भी इनका काफी ध्यान रहा। तभी तो आमंड व पॉवेल ने संरचनात्मक कार्यात्मक उपागम (Structural functional approach) का प्रतिपादन किया।
5. समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त (Contemporary Political Theory ) – व्यवहारवाद के प्रतिक्रिया स्वरूप नवीन विचारधारा का विकास हुआ। 1970 के बाद यूरोपीय तथा अमरीकी राजनीतिक चिन्तकों ने परम्परागत नैतिक मूल्यों तथा ऐतिहासिक सन्दर्भों पर जोर दिया। थॉमस कून के द्वारा विज्ञान के सम्पूर्ण प्रतिमान या मॉडल को चुनौती दी गई तथा समकालीन चिन्तकों ने भी अनुभववादी दृष्टिकोण की आलोचना की। इन्होंने व्यवहारवादियों के द्वारा नजरअंदाज की गई ऐतिहासिक पद्धति को ज्यादा महत्व दिया, फिर नये ढंग से समकालीन चिन्तकों ने न्याय, स्वतन्त्रता, लोक कल्याणकारी धारणाओं के परीक्षण, पुनर्विचार एवं प्रयोग पर बल दिया। डेविल हैल्ड ने ती राजनीतिक पहलू को दार्शनिक पहलू से जोड़ने की बात तक कह डाली। स्पष्ट है कि समकालीन राजनीतिक सिद्धान्त व्यवहारवादी कट्टरता और अनुभववादी राजनीतिक सिद्धान्त के विरोध में आये एक नवीन सिद्धान्त का नाम है।
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