राजनीति विज्ञान का पाठ्यक्रम निर्माण करने के मूलभूत सिद्धान्त बताइये।
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राजनीति विज्ञान
राजनीति विज्ञान को पाठ्यक्रम निर्माण करते समय निम्नांकित सिद्धांतों को ध्यान रखना चाहिए:-
1. प्रेरणा का सिद्धांत –
पाठ्यक्रम प्रेरणात्मक होना चाहिए। यदि पाठ्यक्रम स्वयं छात्रों को कुछ सीखने के लिए प्रेरित नही करता है तो वह कभी भी अपने वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता है। पाठ्यक्रम उस समय तक छात्रों को प्ररेणा प्रदान नहीं कर सकता है जब तक कि वह छात्रों की रूचि, इच्छा, योग्यता एवं क्षमताओं पर आधारित न हो। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम को मनोवैज्ञानिक भी होना अत्यन्त आवश्यक है। ऐसे पाठ्यक्रम की रचना केवल बाल-मनोवैज्ञानिक ही कर सकता है। यदि पाठ्यक्रम इन सिद्धान्तों की अवहेलना करता है तो छात्र पाठ में कोई त्रुटि नहीं लेंगे। कक्षा में छात्र शिक्षक के भय से शांत बैठा रहेगा, पर वह कभी भी कक्षा-शिक्षण में सक्रिय भाग नहीं लेगा। वह कक्षा में एक श्रोता मात्र ही रह जायेगा। वह कक्षा में ऊब का अनुभव करेगा। इस प्रकार छात्र तथा विद्यालय के मध्य एक ऐसी गहरी दरार पड़ जायेगी जो कभी पूरी नहीं हो सकती ।
2. व्यापकता का सिद्धांत –
(i) पाठ्यक्रम व्यापक होना चाहिए। पाठ्यक्रम – को पुस्तकों, कक्षाओं तथा पुस्तकालयों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। सामाजिक अध्ययन विषय के ज्ञान का अर्जन करने के साधन केवल पुस्तकों तथा कक्षा-शिक्षण तक ही सीमित नहीं रहने चाहिए। राजनीति विज्ञान का ज्ञान सम्पूर्ण शैक्षणिक वातावरण से अर्जित कराने की व्यवस्था होनी चाहिए।
(ii) व्यापकता को हम यहाँ दूसरे दृष्टिकोण से भी नियोजित कर सकते हैं। पाठ्यक्रम इस प्रकार निर्मित करना चाहिए कि उससे किसी की भावनाओं तथा धर्म पर आघात न लगें एवं उनके द्वारा किसी पर कटाक्ष न हो। इस प्रकार के पाठ्यक्रम द्वारा छात्रों का दृष्टिकोण भी व्यापक बनेगा।
3. क्रिया का सिद्धांत-
(i) पाठ्यक्रम क्रियाप्रधान होना। बच्चे ‘करके सीखते’ है। ‘करके सीखना’ स्वयं अपनी श्रेष्ठता प्राप्त कर चुका है। जिस ज्ञान को छात्र हाथ द्वारा सम्पादित करके सीखता है, वह ज्ञान अधिक स्थायी तथा प्रभावशाली होता है। इसके अलावा मनोविज्ञान हमें बतलाता है कि बच्चे स्वभावत, ही क्रियाशील होते हैं।
यदि बालकों की इस क्रियाशील को सामाजिक दृष्किोण से उपयोगी कार्यों में प्रयोग न किया गया तो अबोध बालक, हो सकता है, अपनी क्रियाशीलता के कारण असामाजिक कार्य कर बैठें। यदि पाठ्यक्रम बालकों की सक्रिया को उचित कार्यों में व्यय कराने में सफल हो जाता है तो पाठ्क्रम सार्थक समझा जायेगा। इस दृष्टिकोण से हम कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम में क्रियाशीलता को पूरा-पूरा स्थान मिलना चाहिए।
4. जीवन से सम्बन्धित का सिद्धांत –
(i) छात्रों में किसी विषय के प्रति रूचि उत्पन्न करने तथा किसी विषय को अधिक आकर्षक बनाने के लिए यह आवश्यक है कि पाठ्यक्रम उनके जीवन से सम्बन्धित कर दिया जाए, क्योंकि यह एक प्रामाणिक सत्य है। कि जो वस्तु हमारे जीवन से सम्बन्धित होती है उसके बारे में हम अधिक से अधिक जानने की चेष्टा करते हैं, उनमें हमारी अधिक रूचि हो ही जाती है। राजनीति विज्ञान के पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय इस सिद्धांत को सदैव ध्यान में रखना चाहिए।
5. उपयोगिता का सिद्धांत –
(i) ऐसा ज्ञान जो हमारे जीवन के लिए उपयोगी नहीं है, व्यर्थ होता है। ठीक इसी प्रकार वह अध्ययन सामग्री जिससे हम कोई लाभ न उठा सकें, व्यर्थ होती है और व्यर्थ चीज के लिए परिश्रम करना भी बेकार होता है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि पाठ्यक्रम ऐसा बनाया जाए, जो छात्रों को जीवनोपयोगी ज्ञान प्रदान करें। छात्रों को ऐसा ज्ञान प्राप्त होना चाहिए जिससे वे अपने व्यावहारिक जीवन में लाभकारी रूप से प्रयोग कर सकें। जब छात्र किसी विषय की उपयोगिता जान लेते हैं तो उसके प्रति उनकी रूचि एवं प्रेरणा स्वतः ही जाग्रत हो जाती है, अतः पाठ्यक्रम बनाते समय सदैव ध्यान रखना चाहिए कि पाठ्यक्रम उपयोगी हो ।
6. प्रजातान्त्रिक सम्बन्धों का सिद्धांत –
(i) पाठ्यक्रम प्रजातन्त्र के सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए, क्योंकि वर्तमान युग प्रजातन्त्र का युग है। प्रजातन्त्र की सफलता देश के सुनागरिकों पर ही निर्भर है। छात्र ही भावी नागरिक हैं, अतः पाठ्यक्रम ऐसा बनाना चाहिए जो छात्रों को प्रजातन्त्र देश के सुनागरिकों के लिए आवश्यक गुणों से अवगत कराए। पाठ्यक्रम ऐसा बनाया जाए जो छात्रों में कुछ आवश्यक सद्गुण, जैसे सहयोग, सहानुभूति सहिष्णुता, ईमानदारी, समानता और भ्रातृत्व की भावना का विकास करें।
7. संरक्षणता व हस्तान्तरण का सिद्धांत –
(i) प्रत्येक समाज की अपनी स्वयं की एक संस्कृति और अपनी-अपनी परम्पराएँ, रीति-रिवाज, चाल-चलन एवं मान्यताएँ होती है इन्हीं के कारण समाज का अपना पृथक अस्तित्व होता है। यदि समाज से समाज की परम्पराएँ आदि समाप्त हो जायें तो समाज भी समाप्त हो जाता है इसलिए समाज को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए वह आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी संस्कृति, परम्पराओं तथा मान्यताओं को बनाए रखें। इसके लिए समाज शिक्षा की व्यवस्था कर उसे यह कार्य सौंप देता है। समाज शिक्षा से यह आशा करता है कि वह समाज की संस्कृति व सभ्यता बनाए रखेगी। यदि शिक्षा ऐसा नहीं कर पाती है तो समाज उस असफल शिक्षा को सहन नहीं कर सकेंगा, अतः यह आवश्यक हो जाता है कि शिक्षा स्वयं अपने अस्तित्व के लिए छात्रों को समाज की प्राचीन सभ्यता, संस्कृति और गौरव का पाठ पढ़ाए। पाठ्यक्रम निर्माण करते समय हमें ध्यान रखना चाहिए कि पाठ्यक्रम में सभ्यता व संस्कृति के पाठ की पूरी-पूरी व्यवस्था हो ।
8. समन्वय का सिद्धान्त
हम अपने इस छोटे से जीवन में अनेकों प्रकार के ज्ञान प्राप्त करते हैं और ये ज्ञान एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्धित होते हैं। यह सब शारीरिक व मानसिक रचना के कारण होता है। पाठ्यक्रम इस प्रकार बनाना चाहिए कि वह विभिन्न ज्ञानों को सम्बन्धित करने में सहायक हो। इससे ज्ञान सरल, सुगम तथा स्पष्ट हो जायेगा। एक विषय का सीधा सम्पर्क दूसरे विषय से स्थापित करने की चेष्टा पाठ्यक्रम में होनी चाहिए।
इन सिद्धान्तों के अतिरिक्त भी अनेकों विद्वानों ने पाठ्यक्रम निर्माण के विभिन्न सिद्धान्तों की विवेचना करते हुए अपने अलग से कुछ सिद्धान्तों का उल्लेख किया है पर वास्तविक रूप से देखा जाए तो इस प्रकार के सिद्धान्तो में कोई नवीनता न होकर केवल सिद्धान्तों के नामों की संख्या ही बढ़ायी गयी है। इन सिद्धान्तों में चयन का सिद्धान्त, आधुनिकता का सिद्धान्त, विवेचना शक्ति का सिद्धान्त, अवकाश के समय का सदुपयोग सिद्धान्त आदि प्रमुख है।
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