‘शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों के चित्रण में बिहारी दक्ष हैं।’ इस कथन की विवेचना कीजिए।
‘शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों के चित्रण में बिहारी दक्ष हैं।’ मानव जीवन के विभिन्न सम्बन्ध संदर्भों में भक्ति, श्रद्धा, स्नेह, वात्सल्य प्रेम के रूप में प्रकट होता है किन्तु इस भाव का उद्दाम प्रेम हमें दाम्पत्य रति में ही देखने को मिलता है। इस व्यापकता के कारण ही साहित्य मर्मज्ञों ने शृंगार को रसराज की पदवी प्रदान की है। कविवर बिहारी ने अपनी सतसई में शृंगार के उभय पक्षों का व्यापक सूक्ष्म और अत्यन्त कलात्मक चित्रण करके रसराज की पदवी को सार्थक बना दिया है। उनका मानना है. कि शृंगार का क्षेत्र बहुत व्यापक है, उसमें हृदय की अनेक भावनाओं का सम्मिश्रण किया गया है। शृंगार में दो पक्ष माने गये हैं-
1. सुखानुभति अर्थात् संयोग शृंगार और 2. दुखानुभति अर्थात् वियोग शृंगार। पहले को संभोग शृंगार तथा दूसरे को विप्रलम्भ शृंगार भी कहते हैं।
रीतिकाल में कवि लोग प्रेम वर्णन में शास्त्रों का आधार तो लेते ही थे। लेकिन कृष्ण और राधिका के प्रेम-चित्रण में बहुत सीमायें पैदा हो गयीं। प्रेम का विस्तृत रूप वहाँ नहीं मिलता है। पास-पड़ोस की सौत तक ही उनकी कविता की सीमा थी। प्रेम के संयोग पक्ष में कवि लोग अधिकतर आलम्बन के रूप का वर्णन और हृदय में पड़ने वाले उसके प्रभाव का ही वर्णन करते देखे जाते हैं। नाना प्रकार के हास्य-विनोद और क्रीड़ाओं का समावेश भी रहता है।
जहाँ तक बिहारी का प्रश्न है उन्होंने थोड़ा बहुत सबका वर्णन किया है। उद्दीपन के लिये प्रयोग किये गये प्रकृत चित्रणों का माध्यम बिहारी ने भी अपनाया है। वियोगपक्ष में बिहारी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है। नखशिख वर्णन में संयोग पक्ष का ही बोध होता है, कुछ सीमा तक बिहारी में यह भी पाया जाता है। इस प्रकार बिहारी सभी प्रकार के संयोग वर्णन में आ जाते हैं।
प्रेम में प्रेमियों को अपने प्रिय को सताने में आनन्द का अनुभव होता है उसके चित्त में स्थित वासना के कारण उसे कष्ट में भी सुख मिलता है। बिहारी में अधिक तो नहीं, लेकिन कुछ उदाहरण इस प्रकार के अवश्य मिल जाते हैं। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बिहारी का कवि हृदय बहुत अधिक संकुचित नहीं था। उदाहरण के लिये उनके कुछ दोहों को देखना अत्यन्त आवश्यक है।
उड़ति गुड़ी लखि लाल की, अँगना-अँगना माहि
वौरी लौ दौरी फिरत, छुवति छबीली छाँहि ॥
यहाँ नायक की गुड़ी उड़ रही है जिसे देखकर नायिका प्रेमविह्वल हो जाती है क्योंकि वह नायक की है, और यहाँ तक कि उसकी परछाहीं से भी उसको लगाव हो जाता है। इसी प्रकार नायक का कबूतर उड़ता है जिसको अपनी प्रिय वस्तु समझकर नायिका बड़े चाव से उसकी कलाबाजी देखती है। यहाँ अत्यन्त ही स्वाभाविक संयोग सुख का चित्रण है देखिये-
ऊँचै चितै सराहियत, गिरह कबूतर लेत।
झलकित दुग पुलकित वदन, तन पुलकित केहितु ॥
एक वर्णन में नायक और नायिका देवदर्शन के लिये जा रहे हैं, रास्ते में एक भाग साफ है और दूसरा कंकरीला है। नायक स्वयं कंकरीले मार्ग में चलता है और नायिका के मुँह से ‘सी’ ‘सी’ शब्द निकलता है, यह नायक को बहुत प्रिय लगता है। इसलिये वह बार-बार कॅकरीले मार्ग में चलता है तथा यह स्वांग दिखाता है कि वह भूलकर वहाँ चला जाता है।
बिहारी का चित्रण कितना स्वाभाविक है-
नाक चढ़ सी सी करै, जितै छबीली छैल।
फिरि-फिरि भलि वहै गहै, पिय कंकरीली गैल॥
भक्ति के क्षेत्र में जिस प्रकार उपास्य और उपासक का सम्बन्ध होता है प्रेम के क्षेत्र में वैसा ही प्रिय और प्रेमी का होता है। नायिका प्रेम में इतनी मग्न हो जाती है कि वह स्वयं को नायक समझकर अपने ही ऊपर रीझ जाती है।
पिय कै ध्यान गही गही, रही वही हैं नारि।
आपु आपु हि आरसी, लखि रीझति रिझवारि॥
चीर-हरण, गोपिकाओं द्वारा कृष्ण को स्त्री बनाना, मट्ठे के लिये नाचने को विवश करना, मुरली छिपा लेना आदि ऐसी ही प्रक्रियायें या क्रीड़ायें हैं। मुरली चुरा कर रख लेती है तथा कृष्ण से मात्र बात करके आनन्द का अनुभव नहीं करती बल्कि अनेक प्रकार की आंगिक चेष्टायें भी करती है। उदाहरण-
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ।
सहि करै भौहनु हसै, देन कहै नटि जाय ॥
प्रियतम का प्रतिबिम्ब देखते हुए नायिका की मग्नावस्था देखिए-
कर मुंदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित ज्यों पाइ।
पीठि दिये निधरक लखै, इकटक डीढि लगाइ ॥
फाल्गुन के महीने में होली की क्रीड़ा का चित्रण देखिए-
ज्यों उझकि झांपति वदन, झुकति विहंसि सतसइ ।
तत्यौं ‘गुलाल मुठी झुठी, झलकावत त्यों जाइ ॥
नखशिख वर्णन का जहाँ तक प्रश्न है बिहारी ने इसका भी अत्यन्त ही उत्कृष्ट चित्रण किया है। साथ ही अंगों में आभूषणों की छटा का भी चित्रण किया है। अन्तर्गत भावों को मुख ही व्यक्त करता है तथा मुख में नेत्र ही सबसे प्रधान अंग है इसलिये नेत्रों का वर्णन सर्वत्र अधिक मिलता है। बिहारी में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है। जिन्होंने दृष्टि, संचार, हृदय को देखने की प्रक्रिया, चंचलता और विशाल होने आदि का भली-भाँति चित्रण किया है। जैसे-
पहुँचति डति रन सुभट लौं, रोकि सकै सब नाहिं।
लाखन हूँ की भीर मैं, आँखि उहीं चलि जाहि ॥
यहाँ एक अन्य उदाहरण दिया जाता है जिसमें रस अलंकार के रूप में प्रदर्शित किया गया है।
अनियारे दीरघ किती न तखन समान।
वह चितवनि और कछू, जिहिं बस होत सुजान ॥
बिहारी ने अपने वर्णन में सभी प्रकार की सामग्री का प्रयोग किया है जैसे उनके विन्दी, मेंहदी आदि का समावेश हुआ है। यह उसके विभाव पक्ष के अन्तर्गत आता है। साथ ही आलम्बन की चेष्टाओं का वर्णन जहाँ भी मिलता है, वह उद्दीपन के रूप में आया है। इनके शृंगार में बाहरी उद्दीपनों की भी सहायता ली गयी है। इसलिये ऋतु वर्णन तथा चन्द्रमा, पवन आदि का वर्णन उद्दीपन की ही दृष्टि से आया है। कहीं-कहीं ऋतुओं का वर्णन स्वतंत्र रूप से भी किया गया है। जैसे वसन्त ऋतु का एक वर्णन देखिये-
छकि रसाल सौरभ सने, मधुर माधुरी गंध।
ठौर-ठौर झौरत झपत, भौरि भौर मधु अन्ध॥
बसन्त ऋतु में खिले हुए पुष्पों के माध्यम से तथा वर्षा के जल आदि के माध्यम से अनेकों उक्तियों का समावेश किया गया है। सुकुमारिता और सौन्दर्य के चित्रण में बिहारी अपना सानी नहीं रखते हैं। नायिका के मुख के सौन्दर्य का वर्णन करते हुये बिहारी एक स्थान पर यह कहते हैं कि-
पत्रा की तिथि पाइयै, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहत, आनन-ओप उजास ॥
विरह वर्णन- विरह के प्रभाव में बिहारी की नायिका इतनी दुर्बल हो गई है कि उसके आस-पास की सखियाँ उसे पहचान नहीं पाती हैं। यह तो स्वाभाविक ही वर्णन कहा जायेगा लेकिन जब बिहारी यह कहते हैं कि-
इत आवत चलि जात उत, चली छसातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरैं सै रहें, लगी उसासनु साम॥
पूर्वानुराग
इस स्थिति में विरह जनित दुर्बलता स्वाभाविक नहीं लगती है क्योंकि मात्र साँस के आवागमन के प्रभाव से नायिका छः सात हाथ आगे-पीछे आती-जाती है, हास्यास्पद लगता है। बिहारी के इस प्रकार के ही वर्णन में बाहरी प्रभाव की झलक दिखाई देती है। विरह में तिहि उसरि की रावटी, खरी आवटी जाति ॥ अविाई सीसी सुलखि, विरह बरति विललात। परितप्त नायिका के सम्बन्ध में बिहारी की उक्तियाँ देखिये-
चिहिं निदाप उबहर रहैं, भई माघ को राति।
विनही सखि गुलाब गौ, ढीटौं छुई न गात॥
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