राजनीति विज्ञान / Political Science

सकारात्मक विचारधारा के उत्पत्ति के कारण क्या थे?

सकारात्मक विचारधारा के उत्पत्ति के कारण क्या थे?
सकारात्मक विचारधारा के उत्पत्ति के कारण क्या थे?

सकारात्मक विचारधारा के उत्पत्ति के कारण क्या थे?

जैसा कि उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि उत्तर-व्यवहारवादी क्रांति का जन्म व्यवहारवादी रूढ़िवादिता, जड़ता और दिशाहीनता के कारण हुआ। उत्तर-व्यवहारवादी क्रांति के अभ्युदय के निम्नलिखित कारण हैं-

1. व्यवहारवादी शोध के प्रति असन्तोष- उत्तर-व्यवहारवादी समर्थकों के अनुसार व्यवहारवाद द्वारा किये जाने वाले शोध कार्य अत्यन्त छोटे वर्ग के लिये उपयुक्त थे। इनसे किसी सर्वमान्य सिद्धान्त अथवा समस्त व्यवस्थाओं में सदैव लागू होने वाला सिद्धान्त निर्मित होना असम्भव था। व्यवहारवादियों का यह प्रयास कि राजनैतिक अध्ययन को प्राकृतिक विज्ञानों के तुल्य बना लिया जाये, व्यर्थ तथा असम्भव था।

2. तथ्य-मूल्य विच्छिन्नता पर बल अप्रासंगिक- व्यवहारवादी शोध में तथ्य-मूल्य विच्छिन्न पर बल दिया गया है। व्यवहारवाद में मूल्यों के अध्ययन को वैज्ञानिकता की दुर्बलता माना गया है तथा तथ्य प्रधान अध्ययन को विज्ञान का पर्याय माना गया है क्योंकि तथ्य प्रधान अध्ययन वस्तुस्थिति का यथार्थ अध्ययन है, मूल्य प्रधान अध्ययन की तरह आदर्श स्थिति का नहीं। लेकिन उत्तर-व्यवहारवादियों का मानना है कि तथ्य और मूल्य दोनों ही व्यक्ति के सन्दर्भ में प्रासंगिक हैं, अतः इन दोनों में भेद करना कृत्रिम है।

3. तकनीकी विकास और परमाणु शक्ति का आविष्कार- तकनीकी विकास और परमाणु शक्ति के आविष्कार के कारण राष्ट्रों के मध्य सम्बन्धों में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया। निर्भर राष्ट्रों और विकासशील देशों की विभिन्न समस्याएँ जैसे-जातीय भेद, राजनीतिक असन्तुलन के परिणामस्वरूप उत्पन्न समस्याएँ अपेक्षाकृत अधिक उम्र हो उठीं। इन समस्याओं का समाधान अपरिहार्य था, पर व्यवहारवाद इस कार्य को सम्पन्न करने में असमर्थ था। इस कारण उत्तर-व्यवहारवादियों ने अपना ध्यान आर्थिक विकास की व्यवस्थाओं के असन्तुलन पर केन्द्रित किया।

4. व्यवहारवाद की सार्थकता में कमी- व्यवहारवाद में विद्यमान सार्थकता और क्रिया की कमी के कारण व्यवहारवाद के स्थान पर अन्य किसी सिद्धान्त की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। इसी कारण व्यवहारवाद के स्थान पर उत्तर-व्यवहारवाद की स्थापना की गयी।

5. व्यवहारवाद का सीमित क्षेत्र- व्यवहारवादी विचारकों का ध्यान केवल व्यवस्थाओं के सन्तुलन और स्थायित्व तक ही सीमित था। उन्होंने पुस्तकालयों से बाहर निकलकर वास्तविक सामाजिक व्यवस्था को कभी नहीं देखा।

क्या उत्तर-व्यवहारवाद परम्परावाद है?  (Is Post -Behaviouralism akim to Traditionalism)

कुछ विद्वान उत्तर-व्यवहारवाद को परम्परावाद के सदृश्य मानते हैं, लेकिन उत्तर-व्यवहारवाद परम्परावाद से भिन्न है। जो विद्वान उत्तर-व्यवहारवाद को परम्परावाद के सदृश्य मानते हैं, वे अपने पक्ष के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-

दोनों में समानता 

(i) परम्परावाद एवं उत्तर-व्यवहारवाद दोनों ही व्यवहारवादी आन्दोलन के कटु आलोचक है।

(ii) उत्तर-व्यवहारवादी विद्वानों ने पम्परागत सिद्धान्तों के अध्ययन में रुचि ली है।

(iii) उत्तर-व्यवहारवादियों ने मूल्य को शोध में पुनः केन्द्रीय स्थान पर स्थापित करने का प्रयत्न किया है।

(iv) उत्तर-व्यवहारवादी दर्शन और विज्ञान दोनों को बराबर महत्व देने लगे थे।

(v) संस्थाओं के अध्ययन को अवज्ञा की दृष्टि से नहीं देखा जाने लगा।

दोनों में अन्तर— उत्तर-व्यवहारवादी राजनीतिक धारा की उक्त मान्यताओं व प्रवृत्तियों के कारण अनेक विद्वानों ने उत्तर-व्यवहारवाद को परम्परावाद के सदृश्य माना है, लेकिन दोनों में पर्याप्त अन्तर है।

परम्परावाद और उत्तर-व्यवहारवाद के दृष्टिकोण में मूल अन्तर यह है कि परम्परावादी व्यवहारवादी उपागम की सार्थकता को ही स्वीकार करता है और राजनीति विज्ञान की शास्त्रीय परम्पराओं में अपने विश्वास को दोहराता है, जबकि उत्तर-व्यवहारवादी व्यवहारवादी युग उपलब्धियों को स्वीकार करते हैं, परन्तु राजनीति विज्ञान के क्षितिज को नये आयामों में विस्तृत करने की ओर प्रयत्नशील हैं।

उत्तर-व्यवहारवाद व्यवहारवाद का परिष्कार है या व्यवहारवाद और उत्तर-व्यवहारवाद में अन्तर या डेविड ईस्टन के अनुसार उत्तर-व्यवहारवाद के सिद्धान्त

उत्तर-व्यवहारवाद किसी एक विचारधारा से बँधा हुआ नहीं है, क्योंकि उसके प्रतिपादकों में सभी विचारों और दृष्टिकोणों का समर्थन करने वाले राजनीतिशास्त्री हैं। उत्तर-व्यवहारवाद व्यवहारवाद का परिष्कार है, इसे निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है-

1. चिन्तनोन्मुख ज्ञान की जगह क्रियाशील ज्ञान पर जोर- उत्तर-व्यवहारवादियों ने व्यवहारवादियों के चिन्तनोन्मुख ज्ञान के स्थान पर क्रियाशील ज्ञान पर जोर दिया। उनका मानना था कि जब अध्ययन सामाजिक समस्याओं को समझकर और उनसे सम्बद्ध होकर किया जायेगा, जो कि आवश्यक है, तो राजनीति शास्त्री क्रियानिष्ठता (Action) से अलग रहकर शीघ्र कार्य नहीं कर सकेंगे। अतः ज्ञान का क्रियात्मक होना आवश्यक है।

2. मूल्यों को उनकी केन्द्रीय स्थिति या फिर से स्थापित करना- व्यवहारवादी शोध ने मूल्य और तथ्यों को पूर्णतः पृथक कर तथ्यों के मूल्य-निरपेक्ष अध्ययन पर जोर देकर मूल्यों की सर्वथा उपेक्षा कर दी थी, जबकि राजनीति में मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान है।

वैज्ञानिकता के नाम पर राजनीतिक अध्ययन से मूल्यों को बहिष्कृत नहीं किया जा सकता। उत्तर-व्यवहारवादियों ने तथ्यों के महत्व को स्वीकारते हुए भी मूल्यों को उनकी केन्द्रीय स्थिति में फिर से स्थापित करने पर जोर दिया।

3. यथार्थता से सम्बद्धता- व्यवहारवादी आन्दोलन घटनाओं की यथार्थताओं के प्रति आँख मूंदकर चल रहा था, उत्तर-व्यवहारवाद ने उसे आँखें खोलकर तथा यथार्थताओं से सम्बद्ध रहकर अपने अध्ययन को उपयोगी बनाने पर जोर दिया।

4. सार वस्तु के महत्व की स्वीकृति- व्यवहारवादी आन्दोलन केवल तकनीक पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करता है और सार-वस्तु की उपेक्षा कर देता है। उत्तर-व्यवहारवादियों का मानना है कि शोध के लिए परिष्कृत उपकरणों का विकास करना उपयोगी है, परन्तु उससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात वह उद्देश्य है जिसके लिए इन उपकरणों को प्रयोग में लाया जा रहा है। अतः वैज्ञानिक शोध के समकालीन आवश्यक सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं की दृष्टि से सुसंगत तथा सारगर्भित होने पर ही उस पर ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए।

5. सामाजिक परिरक्षण के साथ सामाजिक परिवर्तन का भी समावेश- व्यवहारवादी राजनैतिक शोध का प्रमुख ध्यान सामाजिक परिरक्षण पर था और सामाजिक परिवर्तन की वे अपेक्षा कर रहे थे। उत्तर-व्यवहारवाद ने एक व्यापक सामाजिक सन्दर्भ में उन तथ्यों को समझकर उनके संग्रह रहे थे। उत्तर-व्यवहारवाद ने एक व्यापक सामाजिक सन्दर्भ में उन तथ्यों को समझकर उनके संग्रह तथा विश्लेषण पर जोर देकर, व्यवहार का परिष्कार किया है, जो तथ्यों की सामाजिक सन्दर्भ में समझने की अपेक्षा करता रहा।

6. परिवर्तनवादी– व्यवहारवाद यथास्थिति को उचित ठहराने के कारण रूढ़िवादी है। इसके विपरीत, उत्तर-व्यवहारवाद परिवर्तनवादी है।

7. व्यवसाय का राजनीतिकरण- व्यवहारवादी तटस्थ रहने में गर्व अनुभव करते हैं। वे समाज की राजनैतिक गहमागहमी में स्वयं को शामिल करके सक्रिय भूमिका अदा करने में विश्वास नहीं रखते। जबकि उत्तर-व्यबहारवादी की मान्यता है कि राजनीतिशास्त्र को समाज में सकार मक भूमिका अदा करनी चाहिए जिससे समाज के उद्देश्यों को एक सुव्यवस्थित दिशा प्रदान की जा सके।

‘उत्तर-व्यवहारवादी क्रांति की प्रकृति (Nature of Post-behaviouralism)

उत्तर-व्यवहारवादी विचारों के सम्बन्ध में उपर्युक्त विवेचना के आधार पर इसकी निम्नलिखित प्रकृति (Nature) स्पष्ट होती है-

1. भविष्यगामी- उत्तर व्यवहारवादी क्रांति भविष्यगामी है। यह न तो राजनीतिक शोध के किसी स्वर्णयुग की ओर लौटने का प्रयास है और न ही इसका मन्तव्य किसी पद्धतीय विशेष का विनाश करना है।

2. वास्तविक क्रांति- उत्तर व्यवहारवादी क्रांति एक प्रतिक्रिया न होकर एक वास्तविक क्रांति है।

3. दोहरा आन्दोलन- उत्तर व्यवहारवाद एक दोहरा आन्दोलन है। इसमें कठोर विज्ञानवादियों से लेकर समर्पित परम्परावादी तक भाग ले रहे हैं। इस आन्दोलन की किसी पद्धति विशेष में निष्ठा नहीं है। यह व्यक्ति, समूह और बौद्धिक प्रवृत्ति दोनों का प्रतिनिधित्व करता है। इसके समर्थन में आज नई पीढ़ी के स्नातकोत्तर विद्यार्थी और व्यवसाय के बुजुर्ग नेता समान रूप भाग ले रहे हैं।

4. विभिन्न विकृतियाँ- सम-सामयिक राजनीतिक सिद्धान्त में अनेक प्रकार की मूल संकल्प-नात्मक विकृतियाँ आ गयी हैं। ये विकृतियाँ व्यवहारवाद द्वारा इस विषय को व्यवहारपरक और मानपरक दो अर्द्ध-भागों में बाँटने के प्रयास के कारण उत्पन्न हुई हैं। यह द्वि-विभाजन दोषपूर्ण ज्ञान मीमांसा पर आधारित है। अतएव सैद्धांतिक असंगतियों, अक्षमताओं और प्रवंचनाओं को उत्पन्न किये बिना इसे विद्यमान नहीं रखा जा सकता।

5. उत्तर-व्यवहारवाद, व्यवहारवाद व परम्परावाद के परिष्कार (परिशुद्धीकरण) हैं- उत्तर-व्यवहारवाद न केवल व्यवहावाद आन्दोलन है, बल्कि उससे कुछ अधिक है और इसी प्रकार यह परम्परावादी उपागम से कुछ अधिक है, दोनों का विकास और सुधार की दिशा में एक नवीन विकासात्मक कदम है।

उत्तर-व्यवहारवाद की आलोचना (Criticism of post-behaviouralism)

उत्तर-व्यवहारवाद की आलोचना निम्न आधारों पर की गयी है—

( 1 ) परम्परागत राजनीतिक सिद्धान्त को महत्व प्रदान करने में उत्तर-व्यवहारवादी असफल रहे हैं।

( 2 ) संकल्पना तथा सिद्धान्त की विवेचना करने में सक्षम नहीं- उत्तर-व्यवहारवाद ने व्यवहारवाद की विज्ञानवाद के प्रति पागलपूर्ण सनक का खण्डन तो किया है। तथापि उत्तर-व्यवहार-वादी संकल्पना और सिद्धान्त विवेचना करने में सक्षम नहीं है। इसमें व्यवहारवाद के अनुरूप विज्ञानवाद के प्रति पागलपूर्ण सनक बनी हुई है, अन्तर केवल इतना है कि व्यवहारवादी क्रांति में मात्र विज्ञानवाद की अपेक्षा की गयी, जबकि उत्तर-व्यवहारवादी इसे सामाजिक प्रयोजन और कार्य से सम्बन्धित करना चाहती है। अन्तः में निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि उत्तर व्यवहारवाद व्यवहारवाद की कमियों को दूर करने का प्रयास है।

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Anjali Yadav

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