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समेकित उपागम-सामूहिक कार्य, प्रायोजनाएँ तथा मंचन
विद्यालयों में कला की शिक्षा की क्रियाएँ अनेक प्रकार की हो सकती हैं। अनेक क्रियाओं को मिलाकर भी चलाया जा सकता है। छात्रों से यह कहा जा सकता है कि वे अपने दैनिक जीवन के अनुभवों का वर्णन करें अथवा यह बताएँ कि वे अभिनय, ध्वनियों तथा चित्रों के माध्यम से स्कूल में क्या सीख सकते हैं ? विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्ति को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिससे उन्हें विभिन्न योग्यताओं के लिए अवसर मिल सकें।
विषय मूलक गतिविधियों को अन्य विद्यालयों के क्षेत्रों से समेकित किया जाना चाहिए, जिसमें समूह कार्य, प्रायोजनाएँ तथा मंचन, स्वांग, संगीत तथा अन्य सृजनात्मक कार्य सम्मिलित किए जा सकते हैं। ये कला की क्रियाएँ छात्रों को दूसरी विधियों का ज्ञान देने में सहायक होती हैं। सृजनात्मक चित्राभ्यास, अक्षर गीत, गणना, वर्गीकरण तथा खेल, आदि द्वारा भी छात्र पढ़ाई में आवश्यक योग्यता प्राप्त कर सकते हैं।
सामूहिक कार्य
सामूहिक कार्य कला के शिक्षण में आवश्यक है। इस प्रकार कार्य करने से छात्रों में सामाजिकता, सहयोग, सद्भावना, कर्त्तव्य तथा अधिकार का ज्ञान, उत्तरदायित्व की भावना, आत्मनिर्भरता जैसे गुण विकसित होते हैं।
शिक्षक इस प्रकार के कार्य करने हेतु कक्षा को प्रोत्साहित करता है। कक्षा-कार्य करने की परिस्थिति में आते ही किसी योजना का चुनाव कर लेता है। उस योजना को पूर्ण करने के लिए एक योजना बनायी जाती है। योजना में भाग लेने वाले छात्रों को कार्य बाँट दिया जाता है। सभी छात्र शिक्षक द्वारा प्रस्तुत एवं व्यवस्थित वातावरण में कार्य करना प्रारम्भ करते हैं। अपना-अपना कार्य करते हुए जब कार्य-विधि पूर्ण होती है तो वे कक्षा में सभी किए गए कार्य की परख तथा निर्णय करते हैं। इस प्रकार छात्र यह पता लगाते हैं कि उन्होंने कितना कार्य किया तथा कितना कार्य करना शेष है ? उस किए गए कार्य का लेखा-जोखा रखा जाता है। उदाहरणार्थ, किसी “कला-कक्ष की सज्जा” अथवा “भारत की प्राकृतिक दशा” का छोटा वास्तविक प्रतिरूप तैयार करने की योजना समूह कार्य में की जा सकती है। इन कार्यों की योजना बनाकर कक्षा के प्रत्येक छात्र को उसका उत्तरदायित्व तथा कार्य समूह में बाँट दिया जाए। जब छात्र अपना-अपना कार्य करेंगे तो उनमें कर्त्तव्य-परायणता, उत्तरदायित्व निभाने की भावना, सहयोग और सद्भावना जैसे गुणों का विकास होगा। कार्य समाप्त होने पर कार्य की परख और निर्णय लेने होंगे तथा कार्य करने होंगे तथा कार्य का ब्यौरा रखना होगा। इसी प्रकार ‘कला-कक्ष की साज-सज्जा’ की योजना भी समूह-कार्य में बनायी जा सकती है।
कला शिक्षण की प्रायोजना अथवा योजना पद्धति
प्रायोजना पद्धति में विद्यालय में प्राप्त किए गए ज्ञान को प्रत्यक्ष जीवन से सम्बन्धित करने की कोशिश की जाती है. तथा छात्रों को ‘क्रिया द्वारा सीखना’ के सिद्धान्त की पद्धति का यह व्यावहारिक रूप है। विद्यालय में इस पद्धति का कम प्रयोग होता है, इसका मुख्य कारण यह है कि शिक्षक छात्रों को परीक्षा के लिए तैयार करते हैं। अतः छात्रों को विषय-वस्तु का ज्ञान कराने के लिए व्याख्यानों का प्रयोग किया जाता है। योजना पद्धति बालकों में स्वयं क्रिया करके ज्ञान प्राप्त करने का तरीका है। इसके माध्यम से प्राप्त ज्ञान स्थायी होता है। आज के परीक्षक इस पद्धति पर कम ध्यान देते हैं, क्योंकि इसमें विषय-वस्तु का आधार अधिक है तथा व्यवस्था और अवसर की अपर्याप्तता है।
जॉन डीवी के प्रयोजनवाद का शिक्षा के सम्बन्ध में यह उद्देश्य है कि किस प्रकार से आज के विश्व को शिक्षा द्वारा उपयोगी बना सकते हैं ? आज की सामाजिक तथा नैतिक समस्याओं के हल के लिए प्रयोजनवादी दृष्टिकोण रखना आवश्यक है। शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। इस सम्बन्ध में विद्यालय ऐसा होना चाहिए, जहाँ वालक अन्य साथियों के सम्पर्क में अपने अनुभवों से सीखता है। जॉन डीवी की शिक्षा प्रक्रिया के दो पक्ष अधिक महत्वपूर्ण हैं-
1. मनोवैज्ञानिक पक्ष- डीवी ने छात्रों की निम्नलिखित चार रुचियों को अधिक महत्वपूर्ण बताया है-
- वस्तुओं के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने की जिज्ञासा ।
- कलात्मक प्रदर्शन की रुचि ।
- वार्तालाप तथा विचारों के आदान-प्रदान की पद्धति ।
- वस्तुओं का स्वयं निर्माण करने की रुचि ।
डीवी ने इन चारों रुचियों को पाठ्यक्रम में अधिक महत्व देने पर बल दिया। वह रचनात्मक क्रियाओं को प्रोत्साहित करने को महत्व देता है।
2. सामाजिक पक्ष-डीवी ने अपनी पुस्तक ‘प्रजातन्त्र एवं शिक्षा’ में शिक्षा को सामाजिक क्रिया बतलाया है। शिक्षा सामाजिक वातावरण में दी जाती है, जिससे समाज का उत्थान होता है। इस प्रकार की शिक्षा के तीन प्रमुख पहलू होते हैं-
(i) निर्देशन, (ii) नियन्त्रण तथा (iii) पथ-प्रदर्शन।
(i) निर्देशन – छात्रों को वांछनीय कार्य करने को प्रोत्साहित करने के लिए आवश्यक है।
(ii) नियंत्रण- नियन्त्रण उसे कहते हैं, जिसके द्वारा छात्र अपनी दुष्प्रवृत्तियों पर अनुशासन रखे। योजना के अनुसार
कार्य करते रहने .से उन्हें बुरी भावनाओं अथवा बुरे कार्यों के लिए अवसर नहीं मिल पाता है। (iii) पथ-प्रदर्शन-भय के बजाय सुझाव तथा सलाह देकर छात्रों से कार्य कराना पथ-प्रदर्शन है। शिक्षकों को इसके लिए छात्रों की अनुकरण प्रवृत्ति से लाभ उठाना चाहिए।
योजना पद्धति की परिभाषाएँ
अमेरिकी शिक्षाशास्त्री श्री जॉन डीवी के प्रयोजनवादी सिद्धान्त पर डब्लू० एच० किलपैट्रिक ने अपनी प्रायोजना पद्धति को सन् 1918 में तैयार किया।
1. “योजना (Project) तो एक समस्यामूलक कार्य है, जो अपने स्वाभाविक वातावरण में पूर्णता को प्राप्त होता है। ” -स्टीवेन्सन
2. “प्रोजेक्ट पद्धति पर पूर्ण हार्दिक उद्देश्ययुक्त कार्य है, जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाता है।” -किलपैट्रिक
3. “प्रोजेक्ट स्वाभाविक रीति से छात्र द्वारा नियोजित तथा पूर्ण की हुई समस्यामूलक क्रिया की ऐसी महत्वपूर्ण व्यावहारिक इकाई है, जिसमें अनुभव की पूर्ति के लिए भौतिक साधनों तथा वस्तुओं का उपयोग आवश्यक रहता है।” -बॉसिंग
प्रयोजनवाद की विचारधारा के अनुकूल इस पद्धति में किसी उद्देश्यपूर्ण समस्या को क्रियान्वित करने का प्रयास सामाजिक दृष्टि से किया जाता है। किसी कार्य का उद्देश्य उस कार्य के परिणाम द्वारा आँका जा सकता है। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सामाजिकता की भावना से तत्परतापूर्वक कार्य करना पड़ता है। कला-शिक्षण में इन विधियों का प्रयोग किया जा सकता है, क्योंकि इस पद्धति में बहुत-सी विशेषताएँ होती हैं।
योजना पद्धति की विशेषताएँ
कला-शिक्षण में योजना पद्धति की निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं-
1. शिक्षा में सामाजिक दृष्टिकोण उत्पन्न करके उसमें सामाजिक गुणों का विकास करती है।
2. यह छात्र के भविष्य की दिशा निर्धारित करती है और उसे व्यावहारिकता भी प्रदान करती है।
3. कला छात्रों की दैनिक क्रियाओं से विमुख रहने पर उनके जीवन का अंग नहीं बन पाती। यह पद्धति केवल सूचनात्मक नहीं है, अपितु कला को छात्र के जीवन और उसकी दैनिक जीवन से सम्बन्धित क्रियाओं से जोड़ने वाली है।
4. यह पद्धति कला का अध्यापन कराते समय छात्रों की रुचियों, प्रवृत्तियों और आवश्यकताओं से सह-सम्बन्धित होती है।
5. छात्र पूर्णरूपेण क्रियाशील रहता है।
योजना पद्धति के उद्देश्य प्राप्ति के साधन
ये साधन निम्नलिखित हैं, जिनके द्वारा योजना के उद्देश्यों की प्राप्ति हो सकती है-
1. शिक्षक-डीवी – यह नहीं मानता कि शिक्षक अपने विचारों, आदर्शों तथा व्यक्तित्व को बालक पर जबरदस्ती लादे, उसका स्थान पथ-प्रदर्शक के रूप में अद्वितीय है। डीवी शिक्षक को ‘ईश्वर का अग्रदूत’ मानता है।
2. शिक्षण विधि- शिक्षण विधि का आधार छात्र से सम्बन्धित समस्याएँ, स्व-क्रिया द्वारा ज्ञान, सतत् क्रियाशीलता, अर्जित ज्ञान का उपयोग एवं प्रयोग है।
3. विद्यालय- डीवी विद्यालय को समाज का लघु रूप तथा शिक्षा का आवश्यक साधन मानता है। परिवार एवं समाज में जटिलताएँ होती हैं, लेकिन विद्यालय इन जटिलताओं से मुक्त होकर छात्रों को सरल एवं सुखद वातावरण प्रदान करता है। मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टिकोण से विद्यालय शिक्षा का सबसे उत्तम स्थान है।
4. शिक्षा में लोकतन्त्र की भावना – इसमें कार्य करने की स्वतन्त्रता, विचारों तथा कार्य की व्यवस्था की स्वतन्त्रता होती है, जिससे विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त होते हैं।
5. पाठ्यक्रम प्रोजेक्ट विधि में पाठ्यक्रम को लचीला तथा गत्यात्मक एवं परिवर्तनशील बनाने पर बल दिया गया है। इसमें छात्रों के क्रिया-कलापों और सामाजिक जीवन दोनों का समावेश होना चाहिए।
6. अनुशासन-इसमें अनुशासन साधन और साध्य दोनों रूप में मान्य हैं। छात्र की प्रवृत्तियों तथा प्रेरणाओं को शाला में आपसी सहयोग एवं सम्मिलित रूप से कार्यों द्वारा अनुशासित किया जाता है।
योजना या प्रोजेक्ट के प्रकार
कला-शिक्षण में दो प्रकार की योजना व्यवहार में लायी जाती है-
1. सामूहिक प्रोजेक्ट- यह प्रोजेक्ट कुछ वृहद् रूप के होते हैं तथा कक्षा में सम्पूर्ण छात्रों को सहायता से सम्पन्न किए जाते हैं। शिक्षक सम्पूर्ण कक्षी को कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करता है और इसके लिए योजना बनायी जाती है। उस योजना को पूर्ण करने हेतु कक्षा के छात्रों को कार्य बाँट दिए जाते हैं। सभी छात्र शिक्षक के निर्देशन में अपने-अपने उत्तरदायित्व को निभाते हुए कार्य पूर्ण करते हैं। कार्य की जाँच की जाती है तथा रिकॉर्ड रखा जाता है। उदाहरण हेतु पृथ्वी पर भारत का प्राकृतिक मानचित्र बनाने की योजना बनायी जा सकती है। जिसका कार्य-विभाजन किया जायेगा, कोई छात्र पृथ्वी पर भारत का मानचित्र अंकित करेगा, कोई पर्वत बनायेगा, कोई नहीं बनायेगा, कोई समुद्र का स्थान खोदेगा, कोई वन लगायेगा, कोई पठार तथा मैदानों की रचना करेगा। इसमें सभी छात्र अपना-अपना कार्य करेंगे जिससे उनमें कर्तव्य परायणता, उत्तरदायित्वपूर्ण करने की भावना, सहयोग, सद्भावना, आत्म-निर्भरता, सामाजिकता, आदि गुण उत्पन्न होंगे।
2. व्यक्तिगत प्रोजेक्ट- कला-शिक्षण का उद्देश्य व्यक्तिगत योजनाओं से पूर्ण हो जाता है। छात्र अपनी इच्छानुसार शिक्षक की प्रेरणा से कार्य करने की स्थिति में आ जाता है। वह शिक्षक के निर्देशन में किसी प्रायोजना को चुनता है तथा उसको पूर्ण करने के लिए योजना बना लेता है। इस योजना में वह चित्रण से लेकर रंग भरकर पूर्ण कला-कृति तैयार कर प्रस्तुत करने की योजना बनाता है और शिक्षक के समक्ष रखता है। इस प्रकार वह स्वयं विचार करता है कि उसने कितना कार्य किया, कितना शेष है ? इस कार्य का ब्यौरा रखकर उसकी क्षमता की जाँच की जाती है। किसी दृश्य, घटना, कहानी आदि का वर्णनात्मक शिक्षण, मूर्ति निर्माण, गत्ते अथवा मिट्टी का कार्य इस योजना द्वारा स्वतन्त्र वातावरण में किये जा सकते हैं। इस प्रकार योजनाबद्ध किये गये कार्य का कोई-न-कोई परिणाम अवश्य होता है और प्रयोजन पूर्ण होता है।
प्रोजेक्ट के प्रकार
किलपैट्रिक के अनुसार प्रोजेक्ट के निम्नलिखित प्रकार हैं –
1. उपभोक्ता प्रोजेक्ट- इसमें विभिन्न अनुभवों को प्राप्ति करने हेतु जोर दिया जाता है; जैसे—विद्यालय में रेडियो-सूचना आदि।
2. विशेष क्रिया सीखने के लिए- इसमें ज्ञान प्राप्ति हेतु किसी-न-किसी विशेष क्रिया को किया जाता है; जैसे- शब्द ज्ञान की वृद्धि हेतु शब्द भण्डार बढ़ाना, आदि ।
3. उत्पादन प्रोजेक्ट- इस प्रोजेक्ट में किसी वस्तु को प्रत्यक्ष रूप में बनाए जाने पर जोर दिया जाता है; जैसे-नाव बनाना ।
4. समस्या मूलक प्रोजेक्ट- इसमें बुद्धि द्वारा किसी समस्या के समाधान हेतु जोर दिया जाता है, उदाहरण के लिए, किसी तरल पदार्थ का घनत्व निकालना।
प्रोजेक्ट विधि का व्यावहारिक रूप
प्रोजेक्ट विधि अथवा योजना विधि में निम्नांकित सोपान स्पष्ट रूप से होते हैं-
1. उद्देश्य का निर्धारण- मूल परिस्थिति का नियोजन करना, जिससे कि प्रोजेक्ट के उद्देश्य निर्धारित किए जा सकें और एक निश्चित विचार बनाया जा सके। इसी को उद्देश्य का निर्धारण कहते हैं।
2. प्रोजेक्ट का नियोजन- प्रोजेक्ट को भली प्रकार चलाने के लिए योजना की स्पष्ट रूपरेखा बनाना आवश्यक है। इसमें कौन से कार्य किए जाएँगे, किस प्रकार किए जाएंगे और वे कार्य किस प्रकार होंगे ? इन सभी बातों की रूपरेखा बनायी जाती है। योजना बनाते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
1. कार्यक्रम में तारतम्यता हो ।
2. जो कार्य या क्रियाएँ की जाएँ वह स्पष्ट हों।
3. योजना के कार्यों या क्रियाओं का समय निश्चित हो।
4. कार्य का विभाजन स्पष्ट एवं सुनिश्चित हो। प्रोजेक्ट के छात्रों द्वारा करणीय कार्य निम्नांकित आधारों पर स्पष्ट होने चाहिएँ –
(i) कितना कार्य करना है ? (ii) किन-किन साधनों और सामग्री की आवश्यकता होगी ? (ii) किससे क्या सहयोग प्राप्त करना है ? (iv) क्या कार्य करना है ? (v) कब और कितने समय में करना है ? (vi) वह सामग्री कैसे उपलब्ध करायी जायेगी ?
5. योजना इस प्रकार बने कि उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाए।
3. योजना का क्रियान्वयन – योजना का क्रियान्वयन निम्नलिखित प्रकार से होता है- (1) शिक्षक का प्रमुख कार्य मार्ग-दर्शन करना होता है। (2) शिक्षक छात्रों के कार्य में रुचि को बनाए रखे। (3) छात्रों को निस्संकोच मार्ग-दर्शन शिक्षक से प्राप्त करने की स्वतन्त्रता हो। (4) प्रोजेक्ट के प्रत्येक भाग को पूर्ण करने के बाद शिक्षक यह देखे कि क्या कार्य सही चल रहा है ? (5) योजना या प्रोजेक्ट को कार्यान्वित करने के लिए छात्रों को ही आगे लाना चाहिए। (6) प्रोजेक्ट की समस्या का समाधान खोजा जाए। (7) शिक्षक छात्रों के कार्य का निरीक्षण करे। (8) छात्र कार्य का लेखा-जोखा व्यवस्थित रूप से रखें।
4. मूल्यांकन कार्यक्रम की समाप्ति पर उसका मूल्यांकन करना चाहिए। यदि योजना का कार्यक्रम विस्तृत है, तो बीच-बीच में मूल्यांकन होना चाहिए। मूल्यांकन कैसे किया जाए ? इसके लिए यदि उद्देश्यों की प्राप्ति, योजना की समाप्ति पर हो जाती है अथवा नहीं, यह देखना चाहिए। यदि उद्देश्य पूर्ण हो गए हैं तो हम कहेंगे कि योजना पद्धति से कार्य सफल हुआ अन्यथा नहीं। ऐसी परिस्थितियों में हम अपनी कमियों तथा गलतियों को खोजकर इस बात का पता लगायेंगे कि कमियों के क्या कारण हैं ? जिससे आगे के कार्यों में मार्गदर्शक बन सकें।
योजना पद्धति के गुण
प्रोफेसर आर्मस्ट्राँग ने इस विधि के निम्नांकित गुण बताए हैं-
(1) बालकों की रुचि का इसमें ध्यान रखा जाता है। (2) छात्र में सहयोग, सदाचार, सहकारिता, कर्त्तव्यनिष्ठता, उत्तरदायित्व की भावना, आदि गुणों का विकास होता है। (3) शिक्षक की कार्य के प्रति रुचि रहती है। (4) छात्र शिक्षक के पीछे न रहकर स्वयं कार्य करता है। (5) यह ज्ञान प्राप्ति और सीखने की प्रेरणा देता है। (6) इसमें छात्रों की इन्द्रियाँ सदैव क्रियाशील रहती हैं। (7) छात्र को व्यावहारिक जीवन की समस्याओं एवं कठिनाइयों के समाधान करने हेतु प्रशिक्षण प्राप्त होता है। (8) छात्र स्वतन्त्रतापूर्वक अनुशासित रहते हैं।
प्रोफेसर आर्मस्ट्राँग द्वारा बताए गए गुणों के अतिरिक्त निम्नांकित अन्य गुण भी इस पद्धति में हैं-
(1) छात्र की व्यक्तिगत योग्यता का उपयोग होता है। (2) सभी आयु वर्ग के छात्रों के लिए यह उपयुक्त है। (3) छात्र के व्यक्तित्व का सन्तुलित विकास करना एवं नैतिक गुणों की अभिवृद्धि करना। (4) इसमें मौलिकता एवं नवीनता का विकास होता है। (5) यह उपयोगिता पूर्ण होती है। (6) छात्र कुशल एवं धैर्यवान बनता है। (7) छात्र में सामाजिकता की भावना का विकास होता है। (8) विद्यालय और समाज में सामंजस्य स्थापित होता है। (9) छात्र की क्रियाशीलता का समुचित उपयोग करती है। (10) छात्र की रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास होता है। (11) इसमें वास्तविकता होती है। –
योजना पद्धति के दोष
योजना पद्धति में निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-
(1) पाठ्यक्रम अनिश्चित रहता है, क्योंकि इस विधि को अपनाने से पाठ्यक्रम में क्रमबद्धता नहीं आ पाती है। (2) इस विधि से प्राप्त ज्ञान में पुनरावृत्ति का अभाव रहता है। (3) परीक्षण की समस्या रहती है। (4) छात्र को प्रत्येक बात में अविश्वास की आदत हो जाती है, जिससे उसमें असन्तोष बना रहता है। (5) इसमें सैद्धान्तिक सत्य अपूर्ण तथा आंशिक होते हैं। (6) समय का अपव्यय होता है, क्योंकि ज्ञान स्वक्रिया तथा अनुभव से प्राप्त होता है। (7) बहुत-से विषय इस विधि से नहीं पढ़ाये जा सकते। (8) सामान रखने हेतु अधिक स्थान की आवश्यकता होती है। हमारे विद्यालयों में स्थान की कमी है। (9) अधिक धन का व्यय होता है, क्योंकि योजना बनाने एवं उसकी कार्यान्विति में धन व्यय होता है। (10) यह मनोवैज्ञानिक न होकर कृत्रिम अधिक है। इस विधि में प्रासंगिक ज्ञान रहता है।
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