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सहमति का अर्थ एवं परिभाषा | सहमति स्वतन्त्र कब नहीं होती? | अनुबन्ध में स्वतन्त्र सहमति का महत्व एवं प्रभाव

सहमति का अर्थ एवं परिभाषा | सहमति स्वतन्त्र कब नहीं होती? | अनुबन्ध में स्वतन्त्र सहमति का महत्व एवं प्रभाव
सहमति का अर्थ एवं परिभाषा | सहमति स्वतन्त्र कब नहीं होती? | अनुबन्ध में स्वतन्त्र सहमति का महत्व एवं प्रभाव

‘स्वतन्त्र सहमति से आप क्या समझते हैं? सहमति कब स्वतन्त्र नहीं होती? अनुबन्ध में इसके महत्व एवं स्वभाव की विवेचना कीजिए। 

सहमति का अर्थ एवं परिभाषा – भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 13 के अनुसार, “दो या अधिक व्यक्तियों की सहमति उस समय कही जायेगी जब वे एक ही बात पर एक ही भाव से सहमत होते हैं। “

उपर्युक्त परिभाषा से सहमति की निम्न विशेषताएँ स्पष्ट होती हैं-

  1. सहमति के लिए कम से कम दो पक्षकार अवश्य होने चाहिए।
  2. उनकी सहमति एक ही अनुबन्ध के विषय में होनी चाहिए।
  3. दोनों पक्षकारों की सहमति एक ही भाव से होनी चाहिए। अतः स्पष्ट है कि उपर्युक्त भाव से जब प्रस्तावक व स्वीकर्ता सहमत हों तभी अनुबन्ध का निर्माण होगा।

उदाहरण- एक अशिक्षित महिला अपने भतीजे के पक्ष में एक दान-पत्र पर यह सोचकर हस्ताक्षर करती है कि वह इस प्रलेख द्वारा अपने भतीजे को अपनी भूमि का प्रबन्ध करने का अधिकार दे रही है। महिला का उद्देश्य वास्तव में दानपत्र लिखना नहीं था और न ही दानपत्र को पढ़कर उसे समझाया गया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह सहमति नहीं है तथा दान-पत्र व्यर्थ है। [ Bala Deviv. S. Mazumdar (1956)]

स्वतन्त्र सहमति ( Free Consent) का अर्थ – एक अनुबन्ध के निर्माण के लिए – स्वतन्त्र सहमति का होना आवश्यक है। पक्षकारों को अपनी इच्छा से स्वतन्त्र रूप से समझौते में अपनी सहमति व्यक्त करनी चाहिए। भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 14 के अनुसार सहमति उस समय स्वतन्त्र मानी जाती है जबकि वह अग्रलिखित तत्वों में से किसी के कारण प्रदान नहीं की गयी है- (1) उत्पीड़न या दबाव अथवा बल प्रयोग, (2) अनुचित प्रभाव, (3) कपट (4) मिथ्या वर्णन (5) गलती।

सहमति स्वतन्त्र कब नहीं होती? 

सहमति स्वतन्त्र तब नहीं मानी जायेगी जबकि निम्नलिखित पांच कारणों से प्रभावित होती इन पांचों का सक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है-

(1) उत्पीड़न या दबाव अथवा बल प्रयोग – भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 15 के अनुसार जब किसी व्यक्ति को अनुबन्ध के लिए विवश करने के अभिप्राय से निम्नलिखित कार्यों में से कोई कार्य किया जाता है, तो अनुबन्ध उत्पीड़न अथवा दबाव या बल प्रयोग द्वारा हुआ माना जाता है।

(अ) कोई ऐसा कार्य करना अथवा करने की धमकी देना, जो भारतीय दण्ड संहिता द्वारा वर्णित है, अथवा

(ब) किसी व्यक्ति को हानि पहुँचाने के लिए किसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में मुक्ति पत्र -लिखवा लिया। न्यायालय ने इस मुक्ति-पत्र को बल प्रयोग किये जाने के कारण अस्वीकार कर दिया क्योंकि आत्म हत्या भारतीय दण्ड संहिता के अनुसार वर्जित है।

(2) अनुचित प्रभाव – भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 16 के अनुसार एक अनुबन्ध उस समय अनुचित प्रभाव द्वारा प्रेरित किया गया कहा जाता है, जबकि पक्षकारों के बीच सम्बन्ध ऐसे हैं कि उनमें से एक पक्षकार दूसरे की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। वह पक्षकार पर अनुचित लाभ पाने के लिए उस स्थिति को प्रयोग में लाता है।

उदाहरण– ‘अ’ अपने पुत्र ‘ब’ अवयस्क को उसकी आवश्यकता में कुछ रुपया देकर ‘व’ के वयस्क होने पर उससे अपने पैतृक प्रभाव का दुरुपयोग करके कर्ज के रूप में दी हुई रकम से अधिक रकम के लिए एक बाण्ड प्राप्त कर लेता है। यहाँ ‘अ’ अनुचित प्रभाव का उपयोग करता है।

(3) कपट- भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 17 के अनुसार, जबकि अनुबन्ध का एक पक्षकार अथवा उसकी साँठ-गाँठ से उसका एजेन्ट दूसरे पक्षकार या उसके एजेन्ट को धोखा देने के अभिप्राय से अथवा उसको अनुबन्ध करने के लिए प्रेरित करने के अभिप्राय से निम्नलिखित कार्यों में से कोई कार्य करता है, तो उसे कपट कहते हैं।

(i) किसी व्यक्ति द्वारा किसी ऐसी बात का सुझाव देना जो कि सत्य नहीं है। उसके सत्य होने का विश्वास भी नहीं है।

(ii) किसी बात को व्यक्ति द्वारा क्रियात्मक रूप से छिपाना जिसका उसे वास्तविक ज्ञान या विश्वास है।

(iii) न करने के अभिप्राय से दिया गया कोई वचन ।

(iv) कोई ऐसा कार्य करना जिसका उद्देश्य ही धोखा देना है।

(4) मिथ्या वर्णन- भारतीय अधिनियम की धारा 18 के अन्तर्गत मिथ्या वर्णन शब्द दो अर्थों में प्रयोग किया गया है-

(1) ऐसा मिथ्या वर्णन जो जान बूझकर धोखा देने के दृष्टिकोण से किया जाये।

(2) ऐसा मिथ्या वर्णन जो अज्ञानवश किया जाये। पहले अर्थ के अन्तर्गत राजनियम में कपट शब्द का वर्णन किया गया है तथा दूसरे अर्थ में मिथ्या वर्णन शब्द का प्रयोग किया गया है।

उदाहरण- यदि कोई बीमा कराने वाला व्यक्ति अपनी उम्र 25 वर्ष पूर्ण विश्वास के साथ बताता है। लेकिन वास्तव में उसकी आयु 27 वर्ष है जिसे वह स्वयं नहीं जानता था ऐसी दशा में यह कर्तव्य भंग द्वारा मिथ्या वर्णन है।

(5) गलती- वैध अनुबन्ध के लिए यह आवश्यक है कि दोनों पक्षकार एक ही अर्थ में सहमत हों। किन्तु कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है कि अनुबन्ध के किसी आवश्यक तथ्य के विषय में अज्ञान अथवा गलती के कारण पक्षकार गलती कर बैठते हैं। इस स्थिति में यह कहा जाता है कि यह सहमति गलती से प्रभावित है। गलती निम्न दो प्रकार की होती है-

(1) तथ्य सम्बन्धी गलती, (2) विधान सम्बन्धी गलती

अनुबन्ध में स्वतन्त्र सहमति का महत्व एवं प्रभाव

भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 19, 19 (a) और धारा 20 के अनुसार किसी अनुबन्ध के पक्षकारों की सहमति स्वतन्त्र न होने पर निम्नलिखित प्रभाव होते हैं-

(1) क्षतिपूर्ति प्राप्त करने का अधिकार- कपट की दशा में पीड़ित पक्षकार को किसी क्षति की पूर्ति प्राप्त करने का अधिकार है। लेकिन मिथ्या वर्णन की दशा में यह स्वीकार नहीं होता।

(2) अनुबन्ध का निरस्तीकरण- भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 19 (a) के अनुसार अनुचित प्रभाव की दशा में अनुबन्ध पीड़ित पक्षकार की इच्छा पर व्यर्थनीय होता है। इस प्रकार का कोई भी अनुबन्ध पूर्ण रूप से निरस्त किया जा सकता है और यदि पीड़ित पक्षकार उस अनुबन्ध के अधीन कुछ लाभ प्राप्त कर चुका है तो अनुबन्ध न्यायालय की दृष्टि से उचित शर्तों के अधीन निरस्त किया जा सकता है।

(3) अनुबन्ध का व्यर्थ होना- भारतीय अधिनियम की धारा 20 के अनुसार यदि अनुबन्ध के दोनों पक्षकार के आवश्यक तथ्यों के विषय में गलती पर हो तो अनुबन्ध व्यर्थ होगा तथा इसे कोई भी पक्षकार राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय नहीं कर सकता।

(4) अनुबन्ध की व्यर्थनीयता- जब किसी अनुबन्ध की सहमति उत्पीड़न अनुचित प्रभाव कपट या मिथ्या वर्णन द्वारा दी गयी है। तो यह अनुबन्ध उसी पक्षकार की इच्छा पर व्यर्थनीय होता है जिसकी सहमति इनमें से किसी भी प्रकार से ली गयी हो।

(5) अनुबन्ध की अभिपुष्टि- कपट या मिथ्या वर्णन की दशा में पीड़ित पक्षकार अनुबन्ध की अभिपुष्टि करा सकता है यदि ऐसा करना वह अपने लिए लाभदायक समझता है। ऐसी दशा में वह अनुबन्ध की शर्तों को पूरा करने के लिए दूसरे पक्षकार को बाध्य कर सकता है।

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Anjali Yadav

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