सामाजिक विज्ञान की अनुशासनात्मक विषय के रूप में व्याख्या कीजिये तथा माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्तर राजनीति विज्ञान का शिक्षण किस प्रकार का होना चाहिए? समझाइये ।
इस बात पर बार-बार जोर देने की जरूरत है कि अधिगम के बोझ को उसकी गुणवत्ता के साथ किसी किस्म का समझौता किए बिना यथासंभव कम करना है। चूंकि समाज विज्ञान से संबंधित विषयों में ढेरों शोध किए जा रहे हैं इसलिए इन सारी वांछित चीजों को पाठ्यक्रमों में शामिल करने का प्रयास शिक्षार्थियों के बीच सिर्फ अस्पष्टता का बोझ बढ़ाएगा और रटंत अधिगम को बढ़ावा देगा। बच्चों द्वारा अपने परिप्रेक्ष्य में समाज विज्ञान के विज्ञान की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिहाज से इसका निर्णय अत्यंत सावधानीपूर्वक करना होगा कि पाठ्यक्रमों में किस चीज को शामिल करना है और किस हद तक करना है। विवरणों की स्मृति को परीक्षाओं में अधिक अंक देकर पुरस्कृत किया जाता है लेकिन यह शिक्षार्थियों के विश्लेषण कौशल को कमजोर करता है और वास्तविक जीवन स्थितियों की व्याख्या करने में सीखी गई बातों का कोई उपयोग नहीं होता है। सीखे जाने वाले प्रसंगों को आसान बनाकर और उन्हें शिक्षार्थियों के रोजमर्रा के अनुभवों से जोड़कर ‘उबाऊ’, ‘कठिन’ और ‘शुष्क’ कहे जाने वाले समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों को शिक्षार्थियों के बीच दिलचस्प बनाया जाना चाहिए।
समाज विज्ञान की स्वीकार्यता का वर्तमान स्तर अत्यंत निम्न है क्योंकि शिक्षार्थी जगत् के बहुसंख्यक लोग पाठ्यपुस्तक में इसका कोई प्रतिफलन नहीं पाते हैं। जीविका की तलाश में परिवारों का प्रवास, काम की तलाश में महानगरों की ओर प्रवास करने वाले छोटे बच्चे, बाढ़ और सूखा, जमीन के झगड़े, जातिगत संघर्ष तथा हजारों बच्चों के दैनिक अस्तित्व की ढेर सारी अन्य वास्तविकताएं वर्ग-कक्षों में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में प्रतिबिंबित नहीं हो पाती हैं। अतएवं विद्यालय की पाठ्यचर्या में वर्तमान में प्रकट हो रही विभिन्न चिंताओं को समाज विज्ञान के विषयों के रूप में शामिल करने के लिहाज से उनकी पहुंच का विस्तार आवश्यक है। ऐसी चिंताओं में आपदा प्रबंधन, जनसंख्या, मानवाधिकार, लैंगिक मुद्दे आदि शामिल हैं। इनमें से प्रत्येक को समाज विज्ञान के अंतर्गत आने वाले किसी-न-किसी विषय में समाविष्ट किया जाना चाहिए।
आपदाएं प्राकृतिक भी हो सकती हैं और मानव-निर्मित भी। प्राकृतिक आपदा के विज्ञान के लिए भूगोल सुविधापूर्ण विषय है। राजस्थान के संदर्भ में आपदा प्रबंधन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण चुनौती उत्तर राजस्थान में बाढ़ द्वारा प्रस्तुत की जाती है जो वार्षिक परिघटना है और लोगों को हर साल प्रभावित करती है। अगर भूगोल में बाढ़ के विज्ञान की बात है, तो वहां इस प्रसंग को आपदा प्रबंधन की दृष्टि से देखने के लिहाज से विस्तृत करना चाहिए। सूखा और भूकंप के मामलें में भी ऐसी ही रणनीति का अनुसरण किया जा सकता है। साथ में आपदा के दौरान होने वाली कठिनाइयों के हल के तरीकों, सुरक्षात्मक उपायों अथवा प्रारंभिक क्रिया-कलापों पर बच्चों के साथ विचार-विमर्श भी करना चाहिए। बच्चों के पास बाढ़ का अपना अनुभव हो सकता है जो विचार-विमर्श की शुरुआत का माध्यम हो सकता है।
समाज विज्ञान के विज्ञान में समाज, अर्थव्यवस्था, जनसंख्या, पर्यावरण तथा लोगों के विचार-व्यवहार का विज्ञान शामिल है। बहुलतावादी समाज में महिला-पुरुष संबंधों पर विज्ञान को नेतृत्वशास्त्रियों ने भी प्रोत्साहित किया है और इतिहासकारों ने भी। जब हम महिला विज्ञान की बात करते हैं, तो हमारा आम व्यवहार पहले के कुछ पाठों पर आधारित महिला जीवन को शामिल करना होता है। समाज विज्ञान में लैंगिक मुद्दों को केंद्रित करते वक्त महिला को स्वतंत्र श्रेणी के बजाय सामाजिक प्रक्रिया के अन्य हिस्से के बतौर अधिक देखा जाना चाहिए।
समाज विज्ञानों, इनके महत्व तथा उपयोगिता से संबंधित अधिकांश विमर्श इस मुद्दे के इर्द-गिर्द केंद्रित रहते हैं कि समाज विज्ञान विज्ञान-सम्मत है या नहीं। इसके चलते आम धारणा यही बन गई है कि समाज विज्ञानों की तुलना में निम्नस्तरीय है। फलतः संभावित कुशाग्रबुद्धि विद्यार्थी मानव विज्ञान अथवा समाज विज्ञान के बजाय विज्ञान का बिना हिचक चयन करते हैं।
‘चूंकि विज्ञान संवर्धन आंदोलन ने विज्ञान को शैक्षिक कार्य-सूची के शिखर पर पहुंचा दिया है इसलिए समाज विज्ञानियों ने भी यह साबित करने की कोशिश की है कि समाज विज्ञान भी विज्ञान है और अपने विज्ञान का प्रतिमान भी प्राकृतिक विज्ञान के आधार पर निर्मित किया है। पूर्वानुमान यह किया गया है कि प्राकृतिक विज्ञान आदर्श कार्य है जिससे तुलना करके ही तमाम संज्ञानात्मक प्रयत्नों को मापा जाना चाहिए।
18वीं शताब्दी के अंत में, जब विज्ञान के क्षितिज का विस्तार शुरू हुआ, तो यह कहा जाने लगा कि विज्ञान मानव के समाज संबंधी ज्ञान को भी बल दे सकता है। सामाजिक पृच्छा के वैज्ञानिक स्थायित्व के सवाल पर आज गंभीर बहस चल रही है। वैज्ञानिक जांच के विषय-प्रकृति जगत् तथा समाज विज्ञान जगत् के बीच के अंतर को स्वीकार करना होगा। मानव प्राणी प्राकृतिक अस्तित्व के सर्वाधिक जटिल एवं परिवर्तनशील प्राणी ही नहीं हैं किसी स्वतंत्र पर्यवेक्षक के बजाय अन्य मानवों द्वारा विज्ञान किए जाने वाले प्राणी भी हैं। समाज विज्ञान को मानव व्यवहार के रूप में पहुंच बनानी होगी और विज्ञान सापेक्ष होगा क्योंकि व्यक्तिपरक व्याख्या एक निमित्त हो जाती है। दूसरों के विचारों में संभावित गुणों के मामलें में यह न्यायपरक होने के बजाय आशंसात्मक होता है।
हमारी प्रजाति लगभग एक लाख वर्ष पुरानी है और इसकी 95 प्रतिशत अवधि में विशिष्ट मानव व्यवहार ने प्रतिस्पर्धा के बजाय परस्पर सहयोग को वरीयता दी है। अपने नए क्षेत्र में वे प्रारंभिक औजार बनाने, कंद-मूल खोदने, जानवरों को मारने तथा शिकारी जीवों से लड़ने के लिए सहयोग तथा मिलकर काम करने के जरिए ही जीवित रह पाए। व्यवहार के ऐसी शैली प्रशंसनीय है जो मानव अस्तित्व के व्यापक हिस्से के बचाए रखती के है। इतिहास में असंख्य स्त्री-पुरुषों के क्रिया-कलापों नथे-गुंथे हैं जो एक ओर प्रकृति से अपनी जीविका प्राप्त करने की मानव की क्षमता में विश्वास की दिशा में जाते हैं और दूसरी ओर सामाजिक संगठनों के विविध रूपों की उद्घाटित करते हैं।
सच्ची बात तो यह है कि सामाजिक मूल्यों को प्रभावित करने का पक्ष संभवतः समाज विज्ञान के शिक्षण पर जोर देने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण औचित्य है। अगर कोई बच्चा सहयोग अथवा मानवीय प्रयत्न की उपयोगिता को स्वीकार कर लेता है या अतीत से सीखता-समझता है, तो इतिहास का विज्ञान सार्थक हो जाता है। अगर राजनीति विज्ञान के विज्ञान से कोई व्यक्ति सुनागरिक होने का विचार आत्मसात करता है अथवा इसकी समझ विकसित करता है कि राजनीति लोगों, खासकर असुरक्षित समूहों के भले के लिए कैसे योगदान कर सकती है या फिर मानवाधिकार अथवा लैंगिक न्याय के विचार में निहित मूल्यों को अपना लेता है तो उसके विज्ञान का औचित्य बढ़ जाता है। सामाजिक विज्ञान के ठप्पे वाले अन्य विषयों की विषयवस्तुओं व प्रसंगों के सही गुण विवेचन में भी इसी प्रकार मूल्य अंतर्निहित हैं। निस्संदेह यहां यह सवाल सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि ये विषय विद्यालय में किस तरीके से सिखाए- पढ़ाए जाते हैं क्योंकि मूल्यों का मन में बैठना सबसे अधिक इसी पर निर्भर करेगा। महज उपदेश की तरह दिए जाने वाले मूल्य प्रायः निष्प्रभावी होते हैं।
मानव के उद्भव की विस्तृत अवधि को या तो नजर अंदाज किया गया है या फिर उस पर कामचलाऊ ढंग से विचार व्यक्त कर दिए गए हैं। पुरातत्व, मानव-विज्ञान तथा समाजशास्त्री ने इतिहास को अधिक तर्कमूलक बनाकर इसकी समझ तथा गुंजाइश का विस्तार किया है। वर्तमान पाठों में विभिन्न जन-समूहों के अनुभव की कोई छाया तक नहीं दिखती। इन विविध समूहों तथा उनके अनुभवों के इतिहास को इतिहास में हुए में मुख्यधारा के विकास के साथ पिरोया जाना चाहिए। सार्वभौम मानवाधिकारों, लोकतंत्र तथा इसके क्रिया-कलाप, स्थानीय शासन तथा संसाधनों, संघर्षों एवं संदर्भों का नियंत्रण ऐसे मुद्दे हैं जिन पर राजनीति विज्ञान में काम करने की जरूरत हैं। इस बात पर बहुत कुछ कहा जा चुका है कि तत्काल और स्थानीय को इतिहास या नागरिकशास्त्र अथवा अर्थशास्त्र का आरंभबिंदु होना चाहिए लेकिन वास्तविक पाठ्यचर्या में इसके लिए शायद ही कोई जगह मिल पाती है। इन सिद्धांतों को पाठ्यचर्या की रूपरेखा के चरणवार निर्धारण में कैसे शामिल किया जाए यह महत्वपूर्ण सवाल है।
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माध्यमिक स्तर
इस स्तर पर विषयों के अंतर, खासकर अवधारणात्मक आधार पर, अधिक मूर्त होते जाते हैं। विभिन्न विषयों की अपनी शब्दावली, विश्लेषण विधियां तथा अवधारणात्मक ‘ढांचे होते हैं जिनके बारे में युवा शिक्षार्थियों को इस स्तर पर एक हद तक कायम कर लेना चाहिए। पाठ्यक्रम का केंद्र समकालीन भारत हो सकता है जिससे शिक्षार्थी राष्ट्र के समक्ष पेश सामाजिक एवं आर्थिक चुनौतियों की गहरी समझ हासिल कर सकें। बच्चों में आधुनिक भारतीय राष्ट्र के साथ-साथ विभिन्न समूहों एवं पहचानों के निर्माण के बारे में बच्चों में बेहतर समझ विकसित करने के लिहाज से इतिहास में भारत के स्वाधीनता संघर्ष तथा आधुनिक इतिहास के अन्य पक्षों को शामिल किया जा सकता है। राजनीति विज्ञान में ध्यान भारतीय संविधान तथा इसके दार्शनिक ढांचे एवं अंतर्निहित मूल्यबोधों पर रहना चाहिए। समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व, धर्मनिरपेक्षता, बहुलता, अल्पसंख्यकों की हैसियत, सकारात्मक विभेद तथा शोषण से मुक्ति के सिद्धांतों पर पूरी चर्चा होनी चाहिए। अर्थशास्त्र में आर्थिक विकास की कहानी के साथ-साथ मानव विकास के विचार को भी शामिल करना वांछित होगा। इस स्तर पर बच्चे विषय सामग्री तथा दृष्टिकोणों के अंतरों को समझना शुरू कर सकते हैं, लेकिन विशिष्ट स्थानीय संदर्भ में तैयार की गई विभिन्न विज्ञान एवं कार्यवाही आधारित-परियोजनाओं के जरिए समेकित अंतः शास्त्रीय विवेक हासिल करने के लिए भी उनको प्रोत्साहित करना चाहिए।
उच्च माध्यमिक स्तर
ढेर सारे विद्यार्थियों के लिए यह स्तर औपचारिक शिक्षा का आखिरी स्तर होगा और वे कार्य जगत् में प्रवेश की तैयारी करेंगे। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों का विशाल विकल्प उनके लिए उपयोगी हो सकता है। कुछ विद्यार्थी उच्च विज्ञान और विशेषीकृत विषयों की तैयारी करेंगे। इस लिहाज से विद्यार्थियों के लिए काफी बड़े पैमाने पर विकल्प प्रस्तुत करना चाहिए और उच्च विज्ञान हेतु आधारशिला रखनी चाहिए।
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