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सुमित्रानन्दन पंत का जीवन परिचय दीजिए। उनके कृतित्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
सुमित्रानन्दन पन्त एक छायावाद कवि हैं, छायावादी काव्य में पन्त जी का एक महत्तवपूर्ण स्थान है। कुछ विद्वानों ने पंत जी को छायावाद का जनक माना है। छायावादी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ पंत जी के काव्य में विद्यमान हैं, पंत जी ने अपने काव्य में जिस कल्पना तत्व को प्रधानता दी वह हिन्दी काव्य की महत्तवपूर्ण निधि है।
जीवन परिचय- सुमित्रा नन्दन पंत जी का जन्म 20 मैं 1900 ई0 को अल्मोड़ा से लगभग 32 मील उत्तर में कौसानी नामक पर्वतीय ग्राम में हुआ था। उनके पिता पं० गंगा दत्त पंत जमींदार थे और कौसानी राज्य में कोषाध्यक्ष का काम करते थे। उनकी माता का नाम श्रीमती सरस्वती देवी था। पंत जी की बाल्यवास्था में ही उनकी मृत्यु हो जाने से उनका पालन पोषण उनके पिता तथा उनकी दादी ने किया। पंत जी जब सात वर्ष के थे तब उनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में प्रारम्भ हुई। तब ही उन्होंने पहली बार छन्द रचना की। इनका बचपन का नाम गोसाई दन्त था, 1911ई0 में वे अल्मोड़ा के गवर्नमेंट हाई स्कूल में प्रविष्ट हुए। इस स्कूल में वह नवीं कक्षा तक पढ़े। यहाँ के अध्ययन काल में उन्होंने अपना नाम गुसाई दत्त से बदल कर सुमित्रानन्दन पंत रख लिया और अपने भाई के साथ काशी चले गये। वहाँ जयनारायण हाई स्कूल में उन्होंने 1918 ई० में स्कूल लीविंग की परीक्षा पास की। 1919 ई0 में वे प्रयाग आये और म्योर सेन्ट्रल कालेज में प्रविष्ट हुए। यहाँ उनकी विकासोन्मुखी प्रतिभा को प्रथम स्थान मिला। पं० शिवधार पाण्डेय ने पंत जी ने काव्य प्रतिभा देखकर अंग्रेजी कवियों की रचनायें पढ़ने में उन्हें विशेष सहायता दी। उन्हीं की देख रेख में पंतजी ने उन्नीसवीं सदी के अंग्रेजी के प्रसिद्ध आलोचनात्मक निबंधो काव्यों और भास आदि के नाटको का अध्ययन किया।
पंतजी को 1922 ई० में ही अपना कालेज जीवन समाप्त कर देना पड़ा। प्रयाग से वे घर चले गये। विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण करने के पश्चात् 1950 ई० में उन्होंने प्रयाग को स्थायी निवास स्थान बनाया। ‘लोकायन’ नामक एक सांस्कृतिक पीठ के निर्माण और संगठन में उन्होंने पर्याप्त सहयोग दिया। ‘रुपामि’ के वह सम्पादक रहे। उन्होंने 1957 ई० में रेडियो विभाग में साहित्य सलाहकार के पद पर भी कार्य किया। सन् 1961 ई0 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ से अलंकृत किया। 1964 ई में भारत सरकार से दस हजार रुपये का विशेष पुरस्कार और 1969 ई० में भारतीय ज्ञानपीठ ने इन्हें ‘चिदम्बरा’ पर एक लाख रुपये का पुरस्कार दिया। पंत जी का निधन संवत् 2034 (20 दिसम्बर 1977) में हुआ।
पंत जी की रचनायें-
1975 ई0 में पंतजी ने अपने साहित्यों को लिखना प्रारम्भ किया। उस समय से अब तक उन्होंने हमें जो काव्य ग्रन्थ दिये हैं, उनकी सूची इस प्रकार है-
- महाकाव्य- लोकायतन, जिस पर ‘ सोवियत भूमि नेहरु पुरस्कार दिया गया। ‘सत्यकाम’ महाकाव्य ।
- खंड काव्य- ग्रन्थि और मुक्तियज्ञ।
- रुपक- ज्योत्सना, रजत-शिखर और उत्तरशती।
- मुक्तक काव्य- उच्छवास, वीणा, मल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्णधूलि, स्वर्ण-किरण, मधुज्वाला, युग पथ, उत्तरा, अतिमा, वाणी सौवर्ण, कला और बूढ़ा चाँद ।
- संकलन- पल्लविनी, आधुनिक कवि, रश्मि बध, चिदम्बरा और हरी बाँसुरी सुनहरी टैर।
पंत जी ने उमर खय्याम की रुबाई का भी हिन्दी रुपान्तर किया है। पंत जी न तो कोरे गांधीवादी है और न कोरे मार्क्सवादी। ‘उनका जीवन मधुर का सा जीवन है। इसलिये वे कभी मार्क्सवाद की ओर झुके हैं और कभी गांधीवाद की ओर। वे दोनों में संतुलन नहीं कर सके हैं। संतुलन इसलिये नहीं कर सके है कि वे गांधीवाद के दार्शनिक पक्ष से प्रभावित है। और मार्क्सवाद के ‘दर्शन’ से। ‘ग्राम्या’ के पश्चात् उनकी काव्य साधना ने फिर एक नया मोड़ लिया है। इस बार ‘स्वर्ण किरण’ आदि की कविताओं में अरविन्द से प्रभावितदर्शन को काव्य रुप देने का आग्रह है। इस प्रकार पंत जी की रचनाओं में उनके कवि-जीवन के मुख्यतः तीन रुप हमें देखने को मिलते हैं-
- वीणा, पल्लव और गुजंन के पंतजी,
- युगान्त, युगवाणी और ग्राम्या के पंतजी और
- स्वर्ण किरण आदि के पंतजी।
पंतजी विकासशील कवि हैं। उनकी काव्य-साधना का विकास युग के अनुकूल स्वाभाविक ढंग से हुआ है। अन्य शब्दो में कहा जा सकता है कि पंत सौन्दर्य के कवि है। ‘लोकायतन’ और ‘सत्काम’ महाकाव्य इसी अरविन्द दर्शन की चरम परिणति है। निष्कर्ष यही है कि पंत स्वस्थ जीवन दृष्टि के कवि हैं, किन्तु उनकी आधारभूमि छायावादी ही है।
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