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सुमित्रानन्दन पंत के प्रकृति-चित्रण की विशेषताएँ

सुमित्रानन्दन पंत के प्रकृति-चित्रण की विशेषताएँ
सुमित्रानन्दन पंत के प्रकृति-चित्रण की विशेषताएँ
सुमित्रानन्दन पंत के प्रकृति-चित्रण की विशेषतायें बताइये।

सुमित्रानंदन जी का बाल्यकाल प्रकृति की गोद में रहकर बढ़ा हुआ प्रकृति ने ही उन्हें आगे बढ़ाना सिखाया तथा आत्मीयता की भावना को भी जगाया उन्होंने आगे लिखा है कि ‘कविता’ करने की प्रेरणा मुझे सबसे पहले प्रकृति का अवलोकन करने पर ही मिली।

प्रकृति के साहचर्य ने जहाँ एक ओर मुझे सौन्दर्य, स्वप्न और कल्पनाजीवी बनाया, वहीं दूसरी ओर जन भीरु भी बना दिया। … प्रकृति निरीक्षण से मुझे अपनी भावनाओं की अभिव्यंजना में अधिक सहायता मिली है। प्रकृति चित्रण में प्रायः मैंने अपनी भावनाओं का सौन्दर्य मिलाकर उन्हें एंन्द्रिक चित्रण बनाया है। कभी-कभी भावनाओं को ही प्राकृतिक सौन्दर्य का लिबास पहना दिया है। ….प्रकृति को मैंने जब प्रकृति से तादात्म्य किया तब मैंने अपने को भी नारी रूप में अंकित किया है। साधारणतया प्रकृति के सुन्दर रूप ने ही मुझे अधिक लुभाया है। पर उसका उग्र रूप भी मैंने ‘परिर्वतन’ में चित्रित किया है। यह सत्य है कि प्रकृति का उक्त रूप मुझे कम रुचता है, यदि मैं संघर्षप्रिय अथवा निराशावादी होता है। Nature Red in Tools and Claw वाला कठोर रूप जो जीवन विज्ञान का सत्य है मुझे अपनी ओर अधिक खींचता. …… वीणा और ‘पल्लव’ विशेषतः मेरे प्राकृतिक साहचर्य काल की रचनायें हैं। तब प्रकृति की महत्ता पर मुझे विश्वास था और उसके व्यापारों पर मुझे पूर्णता का आभास मिलता था। वह मेरी सौन्दर्य-लिप्सा की पूर्ति करती थी।

मैं और मेरी कला में प्रकृति के प्रति अपने आकर्षण के विषय में उन्होंने लिखा है- ‘पर्वत प्रान्त की प्रकृति के नित्य नवीन तथा परिवर्तनशील रूप से अनुप्राणित होकर मैंने स्वतः ही जैसे किसी अन्तर्विवशता के कारण पक्षियों तथा मनुष्यों के स्वर में स्वर मिलाकर, जिन्हें मैंने ‘विहग बालिका’ तथा ‘मधुबाला’ कहकर सम्बोधन किया है, पहले-पहल गुनगुनाना सीखा है।

इन उपर्युक्त उद्धरणों का तात्पर्य केवल इतना था कि पन्त को कवि बनाने का पूरा श्रेय उनकी जन्मभूमि कूर्माचल प्रदेश और वहाँ की प्रकृति को ही मुख्य रूप से है। ‘वीणा’ से लेकर ‘उत्तरा’ तक पन्त के कार्य के विकास की इस लम्बी अवधि से हम कवि को अनेक ढंग अनेक रूपों में प्रकृति का चित्रण करते हुये पाते हैं जिनमें प्रमुख रूप से निम्नलिखित हैं-

1. प्रकृति का संश्लिष्ट चित्रण- संश्लिष्ट चित्रण में बिम्ब सहज उपेक्षित होता है। जिस दृश्य का या प्राकृतिक स्थिति का कविता में वर्णन किया गया वह वर्णित रूप में इतना पूर्ण

तथा सजीव हो कि पाठक या श्रोता के समक्ष उसका सम्पूर्ण चित्र सा उपस्थित हो जाये। संश्लिष्ट चित्रण में प्रकृति का एक सम्पूर्ण वातावरण का चित्रण होता है। इस सम्पूर्णता के कारण यह चित्रकला के अधिक समीप है। इस दृष्टि से संवेदना, भावना तथा प्रतिभा की शक्तियां चित्रकार तथा संश्लिष्ट चित्रण कवि में प्रायः एक ही स्तर पर होती है। अलबत्ता अभिव्यक्ति का माध्यम दोनों के अपने-अपने हैं। एक तूलिका का सहारा लेता है तो दूसरा लेखनी का एक स्थूलता को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाता है; दूसरा सूक्ष्मता को। संश्लिष्ट प्रकृति चित्रण मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है- (1) पृष्ठभूमि अंकन के रूप में तथा (2) स्वतन्त्र रूप में।

पन्त ने प्रकृति का संश्लिष्ट चित्रण के अन्तर्गत पृष्ठभूमि अंकन के रूप में सुन्दर प्रयोग किया है। वह भावुक होने के साथ-साथ एक गम्भीर विचारक भी रहे हैं। अतः उनकी बुद्धि बहुत शीघ्र प्रकृति से तथ्य की ओर अग्रसर हो जाती है।

स्वतन्त्र रूप में किया गया प्रकृति चित्रण अपने में स्वयं पूर्ण होता है, वह निरपेक्ष होता है। ऐसे वर्णन में कवि आश्रय होता है और उसके भावों का आलम्बन प्राकृतिक दृश्य या उपकरण होता है। ऐसा प्रकृति के प्रति कवि के स्वाभाविक अनुराग के कारण होता है। यह स्वयं अपने में साध्य होता है। इस स्वतन्त्र संश्लिष्ट चित्रण में अनेक रूपता अथवा रूपवैविध्य प्राप्त होता है। कवि की अपनी विशिष्ट रुचि और सीमायें होती हैं जिनके अनुसार वह चयन और वर्णन करता है।

2. आलम्बन रूप में – जब प्रकृति में किसी प्रकार की भावना का अध्यहार न करके प्रकृति का ज्यों का त्यों वर्णन किया जाता है अथवा प्रकृति का वर्णन साधन रूप की अपेक्षा साक्ष्य रूप में किया जाता है। वहाँ आलम्बन रूप कहलाता है। इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रकृति चित्रण प्रकृति के लिये किया जाता है। इस चित्रण में प्रकृति की अपनी सत्ता होती है। आचार्य शुक्ल के शब्दों में अपने ही दुःख-सुख के रंग में रंग कर प्रकृति को देखा तो क्यों देखा? मनुष्य ही सब कुछ नहीं है। प्रकृति का अपना रूप भी है।

पंत निःसंगतसुन्दरम के कवि हैं बाद में उन्हें असुन्दर भी सुन्दर लगे लेकिन अधिक दिन नहीं प्राकृतिक दृश्यों में इसीलिये उनका मन वहीं रमता है जहाँ ज्यादा सौन्दर्य बिखरा हो। पंत प्राकृतिक सूक्ष्म चितरे हैं अतः यह वर्णन उनकी कविता में काफी मिलता है। पर्वत प्रदेश में पावस, ग्राम्या, ग्रामश्री आदि रचनायें इस दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। जैसे-

पावस ऋतु भी पर्वत प्रदेश
पल-पल परिवर्तित प्रकृति देश
भरे कलाकार पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग सुमन फाड़

3. उद्दीपन रूप में- पंत की रचनाओं में भी प्रकृति का उद्यीपन रूप चित्रित मिलता है। ‘आँसू’ में पन्त की जलदों से ज्वाला बरसती हुई और आकाश प्रवाल के समान तप्त प्रतीत होता है।

धधकती है जलदों से ज्वाल
बन गया नीलम व्योम प्रवाल
आज सोने का सन्ध्या काल
जल रहा जतुगृह विकराल

पन्त की कविता में प्रकृति के उद्यीपन के चित्रण के क्षेत्र में प्रेम प्रमुख विषय रहा है।

4. अलंकार रूप में- कवि प्रकृति के उपकरणों को काव्य-शोभा वर्णन के लिये अलंकार रूप में प्रयुक्त करता है। वस्तुतः उक्ति में चमत्कार लाने के लिय प्रकृति के विभिन्न उपकरणों को उपमान के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसी को प्रकृति का आलंकारिक चित्रण कहा जाता है। इस रूप में प्रकृति का प्रयोग सर्वाधिक होता आया है, संस्कृत काव्य से लेकर आज तक इस सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि छायावाद एक नूतन मनोदृष्टि लेकर आया। जिसके आधार पर उसने पुरानी मान्यताओं को अयोग्य ठहराने की चेष्टा की तथापि वह पुराने मूल्यों को पूर्णरूप से नष्ट नहीं कर सका। चन्द्रमा, कमल, लता, स्वर्ण, चाँदनी, कली, मुकुल, मधुप, कोकिल, लहर, चातक, बादल, मीन, खंजन आदि का प्रयोग परम्परा सिद्ध है। वैसे इनके प्रयोग में हम मौलिकता और सूक्ष्मता का दर्शन करते हैं। पन्त की कविताओं में आलंकारिक रूप में भी प्रकृति चित्रित मिलती है-

लहरों पर स्वर्ण लेख सुन्दर पड़ गयी नील
ज्यों अधरों पर, अरुणाई प्रखर शिविर से डर।

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Anjali Yadav

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