हिन्दी भाषा शिक्षण की विधियों का संक्षित विवरण दीजिए।
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हिन्दी भाषा (मातृभाषा) शिक्षण की विधियाँ
हमारे देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है, किन्तु कुछ प्रदेशों में हिन्दी का चलन नहीं है। जिन प्रदेशों में हिन्दी का चलन नहीं है, वहाँ हिन्दी भाषा शिक्षण की विधियों का ज्ञान आवश्यक है, जिससे सरलता से सर्वसाधारण राष्ट्र भाषा को समझ सके। प्रशिक्षित शिक्षकों के अभाव में हिन्दी भाषा शिक्षण को प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। हिन्दी भाषा शिक्षण की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित है-
1. प्रत्यक्ष विधि (Direct Method)-
प्रत्यक्ष विधि में नवीन भाषा को उसी ढंग से सिखाया जाता है, जिस विधि से बालक अपनी मातृभाषा को सीखता है। इस विधि में निम्नलिखित नियमों को अपनाया जाता है—
(i) वार्तालाप की प्रधानता-भाषा-शिक्षण का प्रारम्भ वार्तालाप से किया जाता है। बालक पहले वाक्य बोलना सीखता है। वार्तालाप की बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाती है।
(ii) वार्तालाप के पश्चात् लेखन का आरम्भ जब बालक वार्तालाप में सफलता प्राप्त कर लेता है तो उसे भाषा की लिपि का भी ज्ञान कराया जाता है तथा लिखने के लिए उत्साहित किया जाता है।
(iii) व्याकरण शिक्षा की आगमन प्रणाली (Inductive Method)- इस प्रणाली में व्याकरण शिक्षा को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता। बालक व्याकरण के नियम नहीं रटते, वरन व्याकरण का ज्ञान उन्हें व्यावहारिक दृष्टि से कराया जाता है। बालक को भाषा का ज्ञान प्राप्त करने के साथ-साथ व्याकरण के नियम भी सिखाये जाते हैं।
इस विधि का प्रयोग करके बालक उच्चारण की शुद्धता सीखते हैं तथा उन्हें वार्तालाप का अभ्यास होता है। व्यर्थ के अनुवाद करके तथा व्याकरण के नियमों को रटने में बालकों का समय व्यर्थ नहीं होता। इस विधि की शिक्षण प्रणाली भी प्रभावशाली होती है, परन्तु यह प्रणाली पूर्णतया दोषमुक्त नहीं है। बालकों को अपनी मातृभाषा से लगाव जन्म से होता है। अतः जो कुछ भी सिखाया जाता है, उसके विषय में सर्वप्रथम मातृभाषा में ही सोचते हैं। डॉ० श्रीधरनाथ मुकर्जी इस विषय में लिखते हैं कि –“किसी भी शिक्षण विधि में मातृभाषा का उपयोग एकदम बन्द नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष वस्तु क्रिया या हाव-भाव दिखाकर, अथवा दृष्टान्तों द्वारा थोड़े-बहुत शब्द अवश्य समझाये जा सकते हैं, किन्तु सभी शब्द इस पद्धति के अनुसार नहीं सिखाये जा सकते, जैसे-विशेषण, भाववाचक संज्ञाएँ इत्यादि।”
2. परोक्ष विधि (Indirect Method)-
इस विधि में मातृभाषा के माध्यम से किसी नवीन भाषा को पढ़ाया जाता है। इस विधि में निम्नलिखित नियमों को ध्यान में रखा जाता है-
- प्रत्येक वाक्य का शब्द मातृभाषा में अनुवादित करके पढ़ाया जाता है।
- पाठ्य-पुस्तकों की रचना व्याकरण के आधार पर ही की जाती है तथा सम्पूर्ण व्याकरण का अनुवाद कर लिया जाता है।
- अनुवाद के माध्यम से नवीन शब्द और मुहावरे उचित प्रकार से समझाये जाते हैं।
- अनुवाद के माध्यम से नवीन भाषा तथा मातृभाषा की तुलना की जाती हैं।
इस विधि में अनेक दोष है-अनुवाद के माध्यम से भाषा सौखने में नवीन भाषा के भाव ठीक प्रकार प्रकट नहीं हो पाते। इस विधि में व्याकरण के नियमों को विशेष महत्त्व दिया जाता है, जिससे शिक्षण बंधा-सा रहता है। छोटे बालक व्याकरण के नियमों से भयभीत होते हैं। अतः उन्हें नवीन भाषा सौखने से भी भय लगता है। इस विधि में केवल वाचन पर ही बल दिया जाता है, जिससे बालक बोलचाल की शिक्षा उचित प्रकार से नहीं प्राप्त कर पाते।
3. गठन विधि (Structure Method)-
इस विधि में भाषा के कुछ चुने हुए प्रमुख शब्द और निर्मित समान वाक्यों के माध्यम से भाषा शिक्षण आरम्भ होता है। इस पद्धति के जन्मदाताओं का विश्वास है कि इस प्रकार के छांटे गये शब्द तथा वाक्यों के ढांचों का प्रयोग करते-करते बालक तीन या चार वर्ष में भाषा का ज्ञान प्राप्त कर लेगा, परन्तु यह पद्धति अंग्रेजी भाषा के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती है। हिन्दी भाषा के वाक्य की रचना में तथा अंग्रेजी भाषा के वाक्य की रचना में अत्यधिक अन्तर है, परन्तु इस विधि का अन्य दोष यह भी है कि इसमें शब्द-रचना का ध्यान नहीं दिया जाता, जिससे शब्द-भण्डार के विकसित होने की सम्भावना नहीं रहती। दूसरे मौखिक कार्य पर आवश्यकता से अधिक बल देने के कारण भाषा के अन्य अंग उपेक्षित हो जाते हैं।
इस विधि के आधारभूत सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
- मौखिक कार्य को भाषा-शिक्षण का आधार बनाया जाता है।
- छात्रों को भाषा सीखने के लिये प्रेरित किया जाता है।
- वाक्यों के गठन को कण्ठस्थ करा दिया जाता है।
- वाक्यों की संरचनाओं पर विशेष बल दिया जाता है।
- अन्य भाषा का प्रयोग किया जा सकता है।
4. वेस्ट की विधि या नवीन पद्धति (West’s Method or New Method)-
इस पद्धति के निर्माता डॉ० माइकेल वेस्ट थे। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षण में प्रयत्न विधि का प्रयोग किया तथा स्वयं अंग्रेजी पढ़ाने की पद्धति का आविष्कार किया, जो ‘वेस्ट की विधि’ या ‘नवीन पद्धति’ कहलाई। ‘वेस्ट की विधि’ के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(i) भाषा-शिक्षण में वाचन की प्रधानता वेस्ट महाशय के अनुसार भाषा-शिक्षण का आरम्भ वाचन से किया जाना चाहिये। किसी भाषा में निपुण होने के लिए आवश्यक है कि शब्द का विकास किया जाय। वाचन के द्वारा बालक नये-नये शब्दों को सीखता है, जिससे उसके शब्द-कोश का विकास होता है। वाचन के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए मि० वेस्ट लिखते हैं, “Learning to read a language is by far the shortest read to learning, to speak and to write it.” वाचन से बालक सरलता से नवीन भाषा सीख जाता है तथा आगे चलकर लिखने में निपुण हो जाता है।
(ii) विभिन्न पद्धतियाँ– वेस्ट महोदय के अनुसार वाचन, लेखन तथा भाषण सिखाने के लिये अलग-अलग पद्धतियों का प्रयोग किया जाय। किसी पाठ को पढ़ाते समय एक साथ ही तीनों का अभ्यास करना अनुचित है।
(iii) मातृभाषा का महत्त्व– वेस्ट महोदय नवीन भाषा के शिक्षण में मातृभाषा के उपयोग को उचित समझते हैं। उनके विचार में नवीन भाषा के शब्दों का ज्ञान कराने के लिये अनुवाद को भी स्थान मिलना चाहिये। वेस्ट महोदय की यह पद्धति किस सीमा तक उपयोगी सिद्ध हुई है। अंग्रेजी भाषा का शिक्षण भारतीय अध्यापकों के लिए इस पद्धति द्वारा अत्यन्त सुलभ हो गया। इस पर भी इस पद्धति में अनेक दोष भी हैं। वेस्ट महाशय का यह विचार भ्रामक है कि साधारण छात्र वाचन की शिक्षा प्राप्त करें तथा सुलेख और भाषण का अध्ययन केवल प्रतिभावान छात्र ही करें। भाषण-शिक्षण को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि समस्त छात्र सही बोल, लिख तथा पढ़ सकें, साथ ही वाचन, लेखन एवं भाषण-तीनों परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं, इनको अलग-अलग करके पढ़ाना पूर्णतया अमनोवैज्ञानिक है।
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